Saturday, 16 August 2025

महर्षि देवस्थान और अर्जुन का राजा युधिष्ठिर को समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! युधिष्ठिर की बात पूरी होने पर वहां बैठे देवस्थान नाम के एक तपस्वी ने ये युक्तियुक्त वचन कहने आरम्भ किये, 'अज्ञातशत्रो ! आपने धर्मानुसार ये सारी पृथ्वी जीती है। इसे आपको व्यर्थ ही नहीं त्याग देना चाहिये। राजन् ! ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और सन्यास_ये चारों आश्रम ब्रह्म को प्राप्त करने की चार सीढ़ियां हैं और इनका वेद में प्रतिपादन किया गया है। अतः: आपको इन्हें क्रम से ही पार करना चाहिये। आप अभी बड़ी_बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ कीजिये। स्वाध्याय यज्ञ तो ऋषिलोग किया करते हैं और कोई_कोई ज्ञानयज्ञ भी करते हैं । गृहस्थ तो यज्ञ के लिये ही संपूर्ण धन का संचय करते हैं। वे यदि अपने शरीर अथवा किसी अयोग्य कार्य के लिये उसका दुरुपयोग करते हैं तो भ्रूणहत्या_जैसे दोष के भागी बनते हैं। ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये ही धन की रचना की है और यज्ञ के लिये ही पुरुष को उसका रक्षक नियुक्त किया है। अतः यज्ञ के लिये सारा धन खर्च कर देना चाहिये। उसके बाद शीघ्र ही कामना की सिद्धि हो जाती है। राजन् ! अविक्षित के पुत्र राजा मरीच ने बड़ी धूमधाम से इन्द्र का यजन किया था। उनके यज्ञ में लक्ष्मी देवी स्वयं पधारी थीं और उनके सभी यज्ञपात्र सुवर्ण के थे। राजा हरिश्चन्द्र का‌नाम भी आपने सुना ही होगा। उन्होंने भी बड़ा धन खर्च करके इन्द्र का यजन किया था, उससे वे पुण्यों के भागी हुए और शोकरहित हो गये। इसलिये सारा धन यज्ञ में ही लगा देना चाहिये। "राजन् ! मनुष्य के मन में संतोष होना स्वर्ग से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष से बढ़कर संसार में कोई बात नहीं है। उसकी ठीक_ठीक स्थिति तभी होती है जब मनुष्य कछुआ जैसे अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार अपनी सब कामनाओं को सब ओर से समेट लेता है। उस समय तुरंत ही आत्मज्योति:स्वरूप परमात्मा अपने अंत:कर्ण में ही प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। जब मनुष्य किसी से भी भय नहीं मानता तो उससे भी किसी को कोई डर नहीं रहता। वह काम और द्वेष को जीत लेता है तथा आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है। 'कोई लोग तो शान्ति की प्रशंसा करते हैं और कोई उद्योग के गुण गाते हैं। कोई इनमें से प्रत्येक को ही अच्छा बताते हैं और कोई एक साथ ही दोनों को। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं और कोई एक साथ ही दोनों को। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं, कोई संन्यास को और कोई दान को। कोई सबकुछ छोड़कर चुपचाप भगवान् के ध्यान में मग्न रहते हैं और कोई राज्य पाकर प
राजा का पालन करते रहना ही अच्छा समझते हैं। किन्तु इन सब बातों पर विचार करके बुद्धिमानों ने तो यही निश्चय किया है कि किसी से द्रोह न करना, सत्य भाषण देना, दान देना, सबपर दया रखना, इन्द्रियों का दमन करना, अपनी ही स्त्री से पुत्रोंत्पति करना तथा मृदुता, लज्जा और अचंचलता_ये ही रवाना धर्म हैं तथा ऐसा ही स्वायंभुव मनु ने भी कहा है। राजन् ! आप भी प्रयत्न पूर्वक इसी धर्म का पालन करें। भूपति का यह धर्म है कि इन्द्रियों को सर्वदा अपने अधीन रखें, प्रिय और अप्रिय में समान रहे, यज्ञानुष्ठान से जो बचे उसी अन्न का सेवन करें, शास्त्र के रहस्य को जाने, दुष्टों का दमन करता रहे, साधुओं की रक्षा करें, प्रजा को धर्म मार्ग पर ले जाकर उसके साथ धर्मानुसार व्यवहार करें और अन्त में पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर वन में चला जाय। वहां भी वन के फल_मूलादि से निर्वाह करता हुआ आलस्य त्यागकर शास्त्रोक्त कर्मों का ही विधिपूर्वक आचरण करें। जो राजा इस प्रकार वर्ताव करता है, वहीं धर्म को जाननेवाला है। उसके इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं। इस प्रकार जो धर्म का अनुसरण करते थे, सत्य, दान और तप में लगे रहते थे, दया आदि गुणों से सम्पन्न थे, काम क्रोधादि दोषों से दूर रहते थे, सर्वदा प्रजापालन में तत्पर रहते थे, उत्तम धर्मों का आचरण करते थे और गौ एवं ब्राह्मणों की रक्षा के लिये युद्ध ठानते थे, ऐसे अनेकों राजा उत्तम गति को प्राप्त हो चुके हैं। इसी प्रकार रुद्र, वसु, आदित्य, साध्य और अनेकों राजर्षियों ने भी इसी धर्म का आश्रय लिया था तथा निरंतर सावधान रहकर अपने पवित्र कर्मों का आचरण करने से स्वर्ग प्राप्त किया था।' वैशम्पायनजी कहते हैं_जनमेजय ! इस प्रकार जब देवस्थान मुनि का भाषण समाप्त हुआ तो अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर से, जो अभी तक बहुत उदास थे, फिर कहा, 'राजन् ! आप धर्मज्ञ हैं, आपने क्षत्रिय_धर्म के अनुसार ही यह दुर्लभ राज्य प्राप्त किया है। फिर आप इतने दु:खी क्यों हैं ? महाराज ! आप क्षात्रधर्म का विचार कीजिये। क्षत्रिय के लिये तो धर्मयुद्ध में मर जाना अनेकों यज्ञों से भी बढ़कर है। तप और त्याग तो ब्राह्मणों केज्ञधम हैं। दूसरे के धन से अपना निर्वाह करना यह क्षत्रिय का धर्म नहीं है। आप तो सब धर्मों को जानते हैं, धर्मात्मा हैं, बुद्धिमान हैं, कार्यकुशल हैं और संसार में आगे_पीछे की सब बातों पर दृष्टि रखनेवाले हैं तथा अपने क्षात्रधर्म के अनुसार शत्रुओं को परास्त करके यह निष्कंटक राज्य प्राप्त किया है। अतः अब मन को वश में रखकर आप यज्ञ_ दानादि का अनुष्ठान कीजिये। देखिये, इन्द्र कश्यप ब्राह्मण का पुत्र था, परन्तु अपने कर्म से वह क्षत्रिय हो गया था। लोक में उसके इस कर्म को प्रशंसनीय ही माना गया है। अतः जो कुछ हो चुका है, उसके लिये आप शोक न करें। वे सब वीर तो क्षात्रधर्म के अनुसार शस्त्रों से मारे जाकर परम गति को ही प्राप्त हुए हैं।

Thursday, 31 July 2025

युधिष्ठिर द्वारा भीम को फटकार और मुनिवृति की प्रशंसा तथा अर्जुन का राजा जनक के दृष्टांत से उन्हें समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_भीमसें की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले_"भीम ! असंतोष, प्रमाद, मद, राग, अशांति, बल, मोह, अभिमान तथा उद्वेग_इन प्रबल पापों ने तुम्हारे मन को वशीभूत कर लिया है; इसीलिये तुम्हें राज्य की इच्छा होती है। भाई ! भोगों की आसक्ति छोड़ो और बन्धन मुक्त होकर शान्त और सुखी हो जाओ।आग कितनी ही धधकती क्यों न हो; उसमें ईंधन न डाला जाय तो अपने_आप शान्त हो जाती है।
इसी प्रकार तुम भी अपना आहार कम करके पेट की आग शान्त करो, यह आजकल बहुत बढ़ गयी है। पहले अपने पेट को जीतो; फिर ऐसा समझा जायगा इस जीती हुई पृथ्वी के द्वारा तुमने कल्याण पर विजय पायी है। भीम सेन ! तुम मनुष्यों के काम भोग तथा ऐश्वर्य की प्रशंसा करते हो; किन्तु जो भोगों से रहित और तुम्हारी अपेक्षा बहुत दुर्बल है, वे ऋषि_मुनि ही सर्वोच्च पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग पत्ते चबाते हैं, पत्थर पर पीसकर या दंतों से चबाकर ही खाते हैं; अथवा पानी और हवा पीकर ही रह जाते हैं, उन तपस्वियों ने ही नरक पर विजय पायी है। ( वहां तुम्हारे_जैसे वीरों की वीरता नहीं काम देती। ) एक ओर सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन करनेवाला राजा है और दूसरी ओर पत्थर और सोने को एक समझनेवाला मुनि। इन दोनों में मुनि ही कृतार्थ है राजा नहीं। अपने मनोरथ के पीछे बड़े_बड़े कार्यों का आरम्भ न करो। आशा तथा ममता ने रखो। इससे तुम्हें इहलोक और परलोक में भी शोकरहित स्थान प्राप्त होगा। जिन्होंने भोगों की आसक्ति छोड़ दी है, वे कभी शोक नहीं करते। फिर भी तुम क्यों भोगों की चिंता कर रहे ? यदि संपूर्ण भोगों का परित्याग कर दो तो मिथ्यावादी से छूट जाओगे। परलोक के दो मार्ग प्रसिद्ध हैं_पितृयान और देवयान। सकाम यज्ञ करनेवाले पितृयान से जाते हैं और मोक्ष के अधिकारी देवयान से। महर्षि गन तप, ब्रह्मचर्य तथा स्वाध्याय के बल पर ऐसे राज्य में पहुंच जाते हैं, जहां मृत्यु का प्रवेश नहीं है। राजा जनक समस्त द्वन्दों से रहित और जीवनमुक्त पुरुष थे, उन्हें मोक्षरूप आत्मा का साक्षात्कार हो गया था। पूर्वकाल में जो उन्होंने उद्गार प्रकट किया था, उसे लोग इस प्रकार बताते हैं _'दूसरों की दृष्टि में मेरे पास अनन्त धन है, परन्तु मेरा उसमें कुछ भी नहीं है। सारी मिथिला जल जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलेगा।' जो स्वयं द्रष्टा रूप से रहकर इस दृश्य_प्रपंच को देखता है, वहीं आंखवाला और वही बुद्धिमान हैं। अज्ञात तत्वों का ज्ञान एवं सभ्यक् बोध ( निश्चय ) करानेवाली वृत्ति को बुद्धि कहते हैं। जब मनुष्य भिन्न_भिन्न प्राणियों को एक ही परमात्मा में स्थित देखता है तथा उसु से सबका विस्तार हुआ मानता है, उस समय वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। बुद्धिमान और तपस्वी ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। जो जड़ और अज्ञानी हैं, जिनमें शुद्ध बुद्धि तथा तप का अभाव है, ऐसे लोगों की वहां पहुंच नहीं होती। वास्तव में सबकुछ बुद्धि में ही स्थित है।' यों कहकर राजा युधिष्ठिर चुप हो गये, तब अर्जुन ने फिर कहा 'महाराज ! जानकर लोग राजा जनक और उनकी स्त्री का संवादरूप  एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। राजा जनक ने राज वे यह परित्याग करके भीख मांगने का निश्चय किया था; उस समय उनकी रानी ने दु:खी होकर जो कुछ कहा था, वही आपको सुना रहा हूं।' 'कहते हैं, एक दिन राजा जनक पर मूढ़ता सवार हुई। वे धन, संतान, स्त्री, नाना प्रकार के रत्न तथा अग्निहोत्र का भी त्याग करके भिक्षुक के तरह मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहने लगे। स्वामी को इस अवस्था में देखकर रानी को बड़ा रंज हुआ, वे एकान्त में उनके पास जाकर बोलीं_'राजन् ! आपको भिक्षुक की भांति मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहना उचित नहीं है। आपकी यह प्रतिज्ञा और चेष्टा सब राजधर्म के विरुद्ध है। यह महान् राज्य छोड़कर यदि आप थोड़े_से अन्न में संतोष मानते हैं तो इतने से अतिथि, देवता, ऋषि और पितरों का भरण_पोषण कैसे किया जा सकता है ? मैं तो समझती हूं, आपका यह परिश्रम व्यर्थ है। आपने कर्मों को को त्यागा है; इसलिये देवता, अतिथि और पितरों ने भी आपका परित्याग कर दिया है। आपके रहते ही आपकी माता आज से पुत्रहीना हुई और यह अभागिनि कौसल्या भी पतिहीना।भला, कहिये तो,_ ये नाना प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण छोड़कर आप किसलिये संन्यासी हो रहे हैं ? क्यों निष्क्रिय जीवन व्यतीत करते हैं ? आप संपूर्ण भूतों के लिये प्याऊ के समान थे, सभी आपके यहां अपनी प्यास बुझाने आते थे। इसी तरह एक समय था, जब आप फलों से भरे हुए वृक्ष की भांति सब जीवों की भूख मिटयि करते थे; किन्तु अब मुट्ठीभर अन्न के लिये स्वयं ही दूसरों के सामने हाथ फैलायेंगे ! जब सबकुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौं के लिये दूसरों की पकऋपआ चाहते हैं, तो इस त्याग में और राज करने में अंतर ही क्या रहा ? दोनों एक_से ही तो हैं, फिर क्यों कष्ट उठा रहे है ? मुट्ठीभर जौं की आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सर्वत्याग की प्रतिज्ञा कहां रही ? 'महाराज ! यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो इस पृथ्वी का पालन कीजिये और राजमहल, शय्या, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणों को उपयोग में लाइये। जो बराबर दूसरों से दान देता है तथा जो निरंतर स्वयं ही दान करता रहता है, उन दोनों में क्या अन्तर है ? उनमें कौन_सा श्रेष्ठ है ? इसे आप समझिये। संसार में साधु_संतों को अन्न देनेवाले राजा की आवश्यकता है; यदि दान करनेवाला राजा ने रहे तो मोक्ष चाहनेवाले महात्माओं का जीवन_निर्वाह कैसे हो ? अन्न से ही प्राण की पुष्टि होती है, इसलिये अन्न देनेवाला प्राणदाता होता है। गृहस्थ आश्रम से अलग होकर भी त्यागी लोग गृहस्थों के सहारे ही जीवन धारण करते हैं। जो आसक्ति रहित और सब प्रकार के बंधन से मुक्त है, शत्रु और मित्र में समान भाव रखता है, वह किसी भी आश्रम में रहकर मुक्त ही है। बहुत _से लोग तो दिन लेने या पेट पालने के लिये मूंड़ मूड़ाकर गेड़ुए वस्त्र पहनकर घर से निकल जाते हैं, वे नाना प्रकार के बंधनों से बंधे होने के कारण भोगों की ही खोज में डोलते _फिरते हैं। हृदय का राग आदि दोष न दूर हुआ तो गेरुआ वस्त्र धारण करना विडम्बना मात्र है।
मेरा तो विश्वास है कि धर्म का ढोंग रचने वाले मथमुंडे अपनी जीविका चलाने के लिये ही ऐसा करते हैं। जो हो, आप तो साधु_महात्माओं का पालन_पोषण  करते हुए जितेन्द्रिय होकर पुण्यलोकों पर अधिकार प्राप्त कीजिये। जो प्रतिदिन गुरु के लिये समिधा लाता है अथवा निरंतर बहुत_सी दक्षिणाओं वाले यज्ञ करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा ?'
"( इस तरह रानी के समझाने से जनक ने संन्यास का विचार छोड़ दिया।) राजा जनक संसार में तत्ववेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं, किंतु उन्हें भी मोह हो गया था। उन्हीं की भांति आप भी मोह में न पड़िये। यदि हमलोग हमेशा दान और तप में तत्पर रहकर अपने धर्म का अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणों से सम्पन्न रहेंगे, काम क्रोधादि दोषों को त्याग देंगे तथा अच्छी तरह से दान देते हुए प्रजापालन में लगे रहेंगे तो गुरु और वृद्धजन की सेवा करते हुए हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार ब्राह्मण सेवी और सत्यभाषी होकर देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों की सेवा करते रहने में भी हमें अपना इष्ट स्थान प्राप्त हो जायगा। " राजा युधिष्ठिर ने कहा_भैया ! मैं धर्म का प्रतिपादन करनेवाले और पर तथा अपर ब्रह्म का निरुपण करनेवाले दोनों प्रकार के शास्त्र को जानता हूं तथा मुझे कर्मानुष्ठान और कर्म त्याग दोनों का प्रतिपादन करनेवाले वेद_वाक्यों का भी ज्ञान है। इसके सिवा परस्पर विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वाक्यों का भी मैंने युक्तिपूर्वक विचार किया है और उन वाक्यों का जो तात्पर्य है, उसे भी मैं विधिवत् जानता हूं। तुम तो केवल शस्त्रविद्या के ही जानकार हो और वीरों का धर्म पालन करते हो। शास्त्र के यथार्थ मर्म को तुम किसी प्रकार नहीं समझ सकते। जो लोग शास्त्र के सूक्ष्म रहस्य को जानते हैं और धर्म का निश्चय करने में कुशल हैं तुम्हारी तरह तो वे भी मुझे उपदेश नहीं दे सकते। तथापि भ्रातृस्नेहवशवश तुमने जो कुछ कहा है वह न्यायसंगत और उचित ही है, उससे अधिक न्यायसंगत और उचित ही है, उससे मुझे भी तुम्हारे प्रति प्रसन्नता ही हुई है। युद्ध के धर्मों में और संग्राम करने की कुशलता में तो तुम्हारे समान तो तीनों लोकों में भी कोई नहीं है। परन्तु जिन महानुभावों की बुद्धि परमार्थ में लगी हुई है, उनका विचार है कि तप और त्याग दोनों ही परस्पर एक_दूसरे से श्रेष्ठ हैं। अर्जुन ! तुम जो ऐसा समझते हो कि धन से बढ़कर कोई चीज ही नहीं है, सो ठीक नहीं है; वास्तव में धन का कोई महत्व नहीं है, यह बात जिस तरह से समझ में आ जाय वहीं तुम्हें बता रहा हूं। इस लोक में तप और स्वाध्याय में लगे हुए भी अनेकों धर्मनिष्ठ पुरुष दिखायी देते हैं। वे तपस्वी ऋषि ही हैं, जो अन्त में सनातन लोकों को प्राप्त करते हैं‌। अनेकों ऐसे भी अजातशत्रु धैर्यवान वनवासी हैं, जो वन में रहकर स्वाध्याय करते हुए स्वर्गलोक प्राप्त कर लेते हैं। कोई भद्रपुरुष इन्द्रियों को उनके शिष्यों से रोककर अविवेकजनित अज्ञान के मार्ग से छूटकर देवयान मार्ग के वाला त्यागियों का लोक प्राप्त कर लेते हैं और कोई तेजोमय दक्षिण मार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होते हैं। किन्तु मोक्षमार्गी पुरुषों की गति तो अनिवर्चनीय है। अतः योग ही सब साधनों में धान माना गया है। पर उसका स्वरूप जानना बहुत कठिन है। विद्वान लोग सार_असार वस्तु का विवेक करने की इच्छा से निरंतर शात्र का विचार करते रहते हैं और वे अपने स्वरूप में स्थित हुए यहीं मुक्त हो जाते हैं। वह आत्मतत्व अत्यंत सूक्ष्म है, नेत्र से उसे देखा नहीं जा सकता और वाणी से कहा नहीं जा सकता। जो बड़े युक्तिकुशल विद्वान हैं, वे भी इस आत्मतत्व के विषय में चक्कर में पड़ जाते हैं, साधारण जीवों की तो बात ही क्या है ? इसी प्रकार बड़े _बड़े बुद्धिमान, श्रोत्रिय और शास्त्रज्ञों के लिये भी यह अत्यंत दुर्विज्ञेय है। किन्तु अर्जुन ! तत्वज्ञलोग तो तप, ज्ञान और त्याग से  उस निय महान् सुख को प्राप्त कर लेते हैं।

Thursday, 3 July 2025

अर्जुन द्वारा दण्ड नीति का समर्थन और भीम का युधिष्ठिर को राज्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयास

वैशम्पायनजी कहते हैं_ द्रुपदकुमारी की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले अर्जुन फिर कहने लगे_"राजन् ! दण्ड ही समस्त प्रथाओं का शासन और उनकी रक्षा करता है, सबके सो जाने पर दण्ड जागता रहता है, इसलिये विद्वानों ने दण्ड को राजा का धर्म बताया है। दण्ड से ही धर्म, अर्थ और काम की रक्षा होती है; इसलिये दण्ड त्रिवर्ग कहलाता है। दण्ड ही धन और धान्य की रखवाली करता है, इसलिये आप दण्ड धारण कीजिये। संसार की ओर देखिये_ कितने ही पापी दण्ड के भय से पाप नहीं करते, दण्ड से ही सारी व्यवस्था ठीक _ठीक चलती है। बहुत_से मनुष्य दण्ड के डर से ही एक_दूसरे का सर्वनाश नहीं करते। यदि दण्ड सबकी रक्षा न करता तो संसार के प्राणी घोर अन्धकार में डूब जाते। यह उच्छृंखल मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है। इसलिये विद्वान पुरुष इसे 'दण्ड कहते हैं। यदि ब्राह्मण अपराध करें तो उसे वाणी से अपमानित करना ही उसका दण्ड है, क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकरयंक्ष सेवा लेना उसका दण्ड है; वैश्य का दण्ड उससे जुर्माना वसूल करना है; किन्तु शूद्र के लिये सेवा के अतिरिक्त दूसरा कोई दण्ड नहीं है, उससे दण्ड के रूप में काम ही लिया जाता है। मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और और उनके धन की रक्षा के लिये जो एक मर्यादा बांधी गयी है, उसी को दण्ड कहते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यासी _ये सब दण्ड के भय से अपने_अपने मार्ग पर स्थित रहते हैं। बिना भय के न कोई यज्ञ करता है, न दान देता है और न प्रतिज्ञा_पालन पर ही दृढ़ रहना चाहता है। "रुद्र, कार्तिकेय, इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, रवि, बसु, साध्य तथा विश्वेदेव_ ये सभी देवता दण्ड देनेवाले हैं; अतः: इनके प्रताप के सामने माथा टेककर ब लोग इन्हें प्रणाम करते हैं, सभी इनकी पूजा करते हैं। मैं संसार में क्षकिसी को ऐसा नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता है; क्योंकि प्रत्येक क्रिया में कुछ_न_कुछ हिंसा का संबंध हो ही जाता है। ) जो विधाता का विधान है, उसमें विद्वान पुरुष को मोह नहीं होता। महाराज ! जिस जाति में आपका जन्म हुआ है, उसी के अनुसार आपको वर्ताव करना चाहिये। पानी में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत _से कीड़े होते हैं; कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इनकी हिंसा से सर्वथा बचा रहता हो। परंतु इसे जीवन_निर्वाह के सिवा और क्या कहां जा सकता है ? कितने ऐसे सूक्ष्म कीटाणु होते हैं, जिनका अनुमान से ही पता लगता है । मनुष्यों के पलक गिरने मात्र से उनके कंधे टूट जाते हैं। अतः ऐसे जीवों की हिंसा से कहां तक बचाव हो सकता है ?"
"जबसे जगत् में दण्ड नीति का प्रचार हुआ है, तबसे संपूर्ण प्राणियों के सभी कार्य सुचारु रूप से होने लगे हैं। संसार में भले_बुरे का विचार करनेवाला दण्ड यदि न होता तो सब जगह अंधेर मचा रहता, किसी को कुछ भी सूझ न पड़ता। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निंदा करनेवाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर जल्दी राह पर आ जाते हैं। दुनिया में सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है, सब दण्ड से विवश होकर ही ठीक रास्ते पर रहते हैं। दण्ड के भय से ही लोगों की मर्यादा _पालन में प्रवृति होती है। चारों वर्णों के लोग आनन्द से रहें, सबमें अच्छी नीति का वर्ताव हो और पृथ्वी पर धर्म तथा अर्थ की रक्षा रहे _इस उद्देश्य से ही विधाता ने दण्ड का विधान किया है। यदि पक्षी तथा हिंसक जीव दण्ड से डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों तथा यज्ञ के लिये रखें हुए हविष्यों को भी खा जाते। चारों ओर धर्म-कर्म ओं का लोप हो जाता और सारी मर्यादाएं टूट जातीं। इतना ही नहीं, जिनमें विधिपूर्वक बड़ी_बड़ी दक्षिणाए़ दी जाती हैं, वे संवत्सर यज्ञ भी बेखटके नहीं होने पाते। आश्रम_धर्म का ठीक_ठीक पालन नहीं होता और कोई भी विद्या नहीं पढ़ पाता। डंडे पड़ने का डर न होता तो रथों में जुते हुए ऊंट, बैल, घोड़े, खच्चर तथा गदहे उन्हें खींचते ही नहीं। सेवक अपने स्वामी का तथा बालक माता_पिता का कहना नहीं मानते और युवती स्त्री अपने सती धर्म पर स्थिर नहीं रहती। दण्ड पर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्ड से ही भय होता है, मनुष्यों का इहलोक और परलोक दण्ड पर ही प्रतिष्ठित है जहां दण्ड देने का सुंदर विधान है, वहां छल, पाप और ठगी नहीं देखने में आती। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के सब कार्य धन के अधीन है, परन्तु धन दण्ड के अधीन है। देखिये, दण्ड की कितनी महिमा है। "लोक_यात्रा का निर्वाह करने के लिये धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें सब_के_सब गुण ही हों अथवा जो सर्वथा गुणों से वंचित ही हो। प्रत्येक कार्य में अच्छाई और बुराई दोनों ही देखने में आती है। इन सब बातों का विचार करके आप भी प्राचीन धर्म का पालन कीजिये। यज्ञ कीजिये, दान दीजिये तथा प्रजा एवं मित्रों की रक्षा कीजिये।" अर्जुन की बात समाप्त होने पर भीमसेन कहने लगे_"राजन् ! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं, आपसे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैंने की बार निश्चय किया कि 'न बोलूं, न बोलूं, मगर अधिक दु:ख होने के कारण बोलना ही पड़ता है। आपका यह अत्यन्त मोह देखकर हमलोग विकल और निर्बल हो रहे हैं। आप संसार की गति और अगति दोनों जानते हैं, भविष्य और वर्तमान में भी आपसे कुछ छिपा नहीं है। ऐसी स्थिति में भी आपको राज्य के प्रति आकृष्ट करने का जो कारण है, उसे बता रहा हूं; ध्यान देकर सुनें।
मनुष्य की दो प्रकार की व्याधियां होती हैं; एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनो की उत्पत्ति अन्योनाश्रित है। एक के बिना दूसरी का होना संभव नहीं है। कभी शारीरिक व्याधि से मानसिक व्याधि होती है, कभी मानसिक व्याधि से शारीरिक व्याधि। जो मनुष्य बीते हुए शारीरिक अथवा मानसिक दु:ख के लिये शोक करता है, वह एक दु:ख से दूसरे दु:ख को प्राप्त होता है। उसे दोनों प्रकार के अनर्थों से कभी छुटकारा नहीं मिलता। "इसलिये जैसे भीष्म और द्रोण के साथ आपका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार अपने मन के साथ भी आपको लड़ना चाहिये। उसका समय अब आ गया है। इस युद्ध में न बाणों का काम है, न मित्र और बन्धुओं की सहायता का। अकेले आपको लड़ना है। मन को जीते बिना आपकी क्या दशा होगी, मैं कह नहीं सकता। हां, उसे जीतकर आप अवश्य कृतार्थ हो जायेंगे। प्राणियों के आवागमन का विचार कर अपनी बुद्धि को स्थिर कीजिये और बाप_दादों का राज्य चलाइये। सौभाग्य की बात है कि पापी दुर्योधन सेवकों सहित मारा गया; अब आप अश्वमेध यज्ञ करके विधिपूर्वक दक्षिणा दीजिये। हम सब लोग आपके दास हैं।








Wednesday, 25 June 2025

युधिष्ठिर को नकुल, सहदेव तथा द्रौपदी को समझाना

अर्जुन का बात समाप्त होने पर नकुल ने भी उन्हीं का अनुमोदन करते हुए राजा युधिष्ठिर सेश् कहा_'राजन् ! विशाखनृप नामक क्षेत्र में संपूर्ण 
देवताओं द्वारा की हुई अग्नि स्थापना के चिह्न मौजूद हैं; इससे आपको समझना चाहिए कि देवता भी वैदिक कर्मों और उनके फलों में विश्वास करते हैं। जो वेदों की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं; उन्हें तो महान् नास्तिक मानना चाहिए। वैदिक कर्मों का परित्याग करके कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता है। वेदवेत्ता विद्वान कहते हैं _यह गृहस्थाश्रम सब आश्रमों में श्रेष्ठ है। श्रोत्रिय ब्राह्मणों की राय भी सुन लीजिये _'जो धर्मपूर्वक उपार्जन किये हुये धन का यज्ञादि कर्मों में उपयोग करता है, वह शुद्ध आत्मा मनुष्य ही त्यागी है।'जिनका कोई घर_बार नहीं, जो इधर_उधर विचरते और मौन रहकर वृक्ष के नीचे सो रहते हैं, जो कभी रसोई नहीं बनाते और मन तथा इन्द्रियों को वश में रखते हैं, ऐसे त्यागियों को भिक्षु ( संन्यासी ) कहते हैं। जो ब्राह्मण क्रोध और हर्ष नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता तथा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करता है, वह त्यागी कहलाता है। एक दिन महर्षियों ने चारों आश्रमों को विवेक के तराजू पर तौला; तीन आश्रम एक ओर थे और अकेला गृहस्थाश्रम दूसरी ओर। किन्तु वह विचार से उन तीनों की अपेक्षा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। तब से उन्होंने निश्चय किया कि यही मुनियों का मार्ग है, यही लोक वेत्ताओं की गति है। जो ऐसी भावना रखता है, वह भी त्यागी है। घर छोड़कर जंगल में चले जाने से कोई त्यागी नहीं होता। जंगल में जाकर भी जिसके हृदय में कामना जाग्रति होती है, उसके गले में यमराज मौत का फंदा डाल देते हैं; शम, दम, धैर्य, सत्य शौच, सरलता, यज्ञ धारणा तथा धर्म_इन सबका ही निरंतर पालन ऋषियों के लिये बताया गया है। पितरों, देवताओं और अतिथियों का पोषण तो गृहस्थाश्रम में ही होता है। केवल इसी आश्रम में धर्म, अर्थ और काम _ये तीन पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। यहां रहकर वेदविहित विधि का पालन करने वाले त्यागी का कभी विनाश नहीं होता_वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं होता। कुछ ऋषि सद्ग्रंथों का स्वाध्यायरूप यज्ञ करनेवाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यानरूप महान् यज्ञ का विस्तार करते हैं। चित्त को एकाग्र करनारूप जो साधन_मार्ग है, उसका आश्रय देनेवाला द्विज ब्रह्मभूत हो जाता है, देवता भी उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं। जिसपर कुटुम्ब का भार हो, उस राजा के लिये गृह_त्याग का विधान नहीं देखने में आता। उसे तो राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध या और कोई शास्त्रीय यज्ञ करके उसमें धन का दान करना चाहिए। राजा के प्रमाद से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे कलियुग का मूर्तिमान स्वरूप ही समझना चाहिए। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजा पाप के भागी होते हैं; उन्हें दु:ख_ही_दु:ख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नसीब नहीं होता। भीतर और बाहर जो कुछ भी मन को फंसानेवाली चीजें हैं उन्हें छोड़ने से मनुष्य त्यागी बनता है, सिर्फ घर छोड़ देने से त्याग की सिद्धि नहीं होती। जो शास्त्रीय विधान में सदा लगा रहता है, उसकी कभी हानि नहीं होती। महाराज ! पूर्ववर्ती राजाओं ने जिसका सेवन किया है, उस स्वधर्म में स्थित रहकर शत्रुओं पर विजय पाने के पश्चात् भला, आपके सिवा दूसरा कौन शोक करेगा ?' तदनन्तर सहदेव ने कहा_'भारत ! केवल बाहर के पदार्थों का त्याग करने से सिद्धि नहीं मिलती।
शरीर से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को छोड़ देने से भी सिद्धि मिलती है कि नहीं, इसमें संदेह है। टफबाहरी पदार्थों का त्याग करके दैहिक सुख_भोगों में आसक्त रहनेवाले को जिस धर्म अथवा सुख की प्राप्ति होती है, वह हमारे हितैषी मित्रों को मिले। दो अक्षरों का 'मम' ( यह मेरा है_ऐसा भाव ) मृत्यु है और तीन अक्षरों का 'न मम' ( यह मेरा नहीं है_ऐसा भाव ) अमृत सनातन ब्रह्म है। महाराज ! यदि जीव नित्य है, इसका अविनाशी होना निश्चित है, तो प्राणियों का शरीर_मात्र वध करने मात्र से वास्तव में उनकी हिंसा नहीं होगी। इसके विपरीत यदि शरीर के साथ ही जीव की उत्पत्ति या उसके नष्ट होने के साथ ही जीव का भी नाश माना जाय, तब तो सारा वैदिक कर्म मार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा। इसलिये  विज्ञ पुरुष को एकांत में रहने का विचार छोड़कर पूर्वपुरुषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है, उसी का आश्रय लेना चाहिए। राजन् ! वन में रहकर वहां के फल_फूलों से जीविका चलाता हुआ भी जो द्रव्यों में ममता रखता है, वह मौत के मुंह में हैं। प्राणियों का बाह्य स्वरूप कुछ और होता है और आन्तरिक स्वरूप कुछ और ; आप उसपर गौर कीजिये। जो सबके भीतर विराजमान आत्मा को देखते हैं, वे ही महान् भय से छुटकारा पाते हैं। आप मेरे पिता, माता, भाई तथा गुरु_ सब कुछ हैं। मैं आर्त हूं इसलिये दु:ख में न जाने क्या_क्या प्रलाप कर गया हूं; आप उसे क्षमा करें। मैंने झूठा_सच्चा जो भी कहा है, वह आपके चरणों में भक्ति होने के कारण ही कहा है।' वैशम्पायनजी कहते हैं_इस प्रकार अपने भाइयों के मुख से वेद के सिद्धांतों को सुनकर भी जब युधिष्ठिर चुप ही रह गये तो धर्म को जाननेवाले द्रौपदी उनकी ओर देखकर उन्हें मधुर वचनों से समझाती हुई कहने लगी_"महाराज ! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं, पपीहे की तरह रट लगा रहे हैं। फिर भी आप अपनी बातों से इन्हें प्रसन्न नहीं करते। क्यों ? ये सदा आपके लिये दु:ख_ही_दु:ख उठाते आये हैं ? अब तो इन्हें उचित बातें सुनाकर आनंदित कीजिये। आपको याद होगा, जब द्वैतवन में ये सभी भाई आपके साथ सर्दी _गर्मी और आंधी पानी का कष्ट भोग रहे थे। उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुए कहा था_'बन्धुओं ! हमलोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर इस संपूर्ण पृथ्वी का राज भोगेंगे। उस समय बड़े _बड़े यज्ञ करके पर्याप्त दान_दक्षिणा बांटते रहने से तुम्हारा वनवास का यह दु:ख सुख के रूप में परिणत हो जायगा।' धर्मराज ! यदि यही करना था, तो उस समय आपने वैसी बातें क्यों कहीं ? जब स्वयं उपर्युक्त बातें कहकर हौसला बढ़ाया, तो अब क्यों आप हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं ? आपको दण्ड आदि के द्वारा इस पृथ्वी का पालन करना चाहिये; क्योंकि दण्ड न देनेवाले क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देनेवाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता तथा उसकी प्रजा को भी सुख नहीं मिलता। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरुषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीछे पीठ न दिखावे। 'जो अवसर देखकर क्षमा भी करता है और क्रोध भी, दान देता और कर लेता है, शत्रुओं को भय दिखाता र शरणागतों को निर्भय बनाता है तथा दुष्टों को दण्ड देता और दिनों पर अनुग्रह करता है, वह राजा धर्मात्मा कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्र सुनाने से मिली है, न दान में; न किसी को समझा_बुझाकर इसे हड़प लिया है, न यज्ञ में प्राप्त किया है और न भीख मांगकर ही पाया है। आपने तो शत्रुओं की प्रबल सेना का संहार करके इसपर विजय पायी है, इसलिये आप इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। महाराज! अनेकों देशों में एक संपूर्ण जम्मूद्वीप पर आपने कर लगाया; जम्मूद्वीप के समान ही जो मेरुगिरि के पश्चिम क्रौंचद्वीप है, उसपर अधिकार जमाया, मेरी से पूर्व दिशा में क्रौंचद्वीप के समान ही जो शाकद्वीप है, उसपर भी कर लगाया तथा मेरी से उत्तर ओर जो शाकद्वीप के समान ही भद्राद्वीप है, उसके उपर भी शासन किया है। इनके अतिरिक्त जो भी बहुत _से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तर्द्वीप हैं, समुद्र लांघकर उनपर भी आपने अधिकार प्राप्त किया। भाइयों की सहायता से ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी आप प्रसन्न क्यों नहीं होते ? मेरे अनुरोध से आप इन भाइयों का अभिनन्दन कीजिये। "महाराज ! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोलीं, वे सर्वज्ञ हैं और सबकुछ उनकी दृष्टि के सामने है उन्होंने मुझसे कहा था 'पांचालकुमारी ! राजा युधिष्ठिर बड़े पराक्रमी हैं, ये हजारों राजाओं का संहार करके तुम्हें बड़े सुख से रखेंगे।' किन्तु आज आपका मोह देखकर उनकी बात भी व्यर।था होती दिखाई देती है। जब जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, तो छोटे भाई भी उसी का अनुसरन करने लगते हैं। आपके उन्माद से सब पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं। जो उन्नमत्तता का काम करता है, उसका कभी भला नहीं होता; उन्नमआर्ग से चलनेवाले की तो दवा करानी चाहिये। मैं ही संसार की समस्त स्त्रियों में नीच हूं, जो बेटों के मारे जाने पर भी जीवित रहना चाहती हूं। ये सब लोग समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, फिर भी आप मानते नहीं। मैं सच कहती हूं, आप संपूर्ण पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं विपत्ति बुला रहे हैं। महाराज ! आप मान्धाता और अम्बरीष के समान तेजस्वी हैं; संपूर्ण प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए, पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित इस पृथ्वी का शासन कीजिये। उदास न होइये। नाना प्रकार के यज्ञ करके ब्राह्मणों को दान दीजिये।"

Saturday, 24 May 2025

युधिष्ठिर का वनवासी, मुनि एवं संन्यासी होने का विचार तथा भीम और अर्जुन द्वारा उसका विरोध

युधिष्ठिर ने कहा_'अर्जुन ! थोड़ी देर तक मन को एकाग्र करके मेरी बात सुनो और उसपर विचार करो; फिर तुम भी मेरे कथन का अनुमोदन करोगे। क्या तुम्हारे कहने से मैं उस मार्ग पर न चलूं, जिसपर श्रेष्ठ पुरुष सदा ही चलते आये हैं ? नहीं, मुझसे यह न होगा ; मैं तो सांसारिक सुखों पर लात मारकर अवश्य उसी मार्ग पर चलूंगा और वन में फल_मूल खाकर कठोर तपस्या करूंगा। सवेरे तथा सायंकाल में स्नान करके विधिवत् अग्नि में आहुति डालूंगा और शरीर पर मृगछाला तथा बल्कि वस्त्र धारण कर मस्तक पर जटा रखूंगा। सर्दी_गर्मी, हवा तथा भूख_प्यास का कष्ट सहन करूंगा और शास्त्रोक्त विधि से तप करके अपने शरीर को सुखा डालूंगा। एकान्त में रहकर तत्व का विचार करूंगा और कच्चा_पक्का_जैसा भी फल मिल जायगा, उसी को खाकर जीवन_निर्वाह करूंगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के कठोर_से_कठोर नियमों का पालन करके इस शरीर की आयु समाप्त होने की बाट देखता रहूंगा। अथवा मुनिवृति से रहता हुआ मस्तक मुड़ा लूंगा और एक_एक दिन एक_एक वृक्ष से भिक्षा मांगकर देह को दुर्बल कर डालूंगा। प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर पेड़ के नीचे ही निवास करूंगा। किसी के लिये न शोक करूंगा न हर्ष । निंदा तथा स्तुति को समान समझूंगा। आशा और ममता को धो बहाकर निर्द्वन्द हो जाउंगा। कभी किसी भी वस्तु का संग्रह न करूंगा। आत्मा में ही रमण करता हुआ सदा प्रसन्न रहूंगा। दूसरों से कोई भी बात नहीं करूंगा तथा अंधों, गूंगों और बहरों की तरह विचरता रहूंगा। चर और अचर रूप में जो चार प्रकार के जीव हैं, उनमें से किसी की भी हिंसा नहीं करूंगा। सब प्राणियों पर मेरी समान वृद्धि होगी, न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा, न किसी को देखकर भौंहें टेढ़ी करूंगा। चेहरे पर सदा प्रसन्नता छायी रहेगी, सब इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में रखूंगा। कोई भी राह पकड़कर आगे बढ़ता रहूंगा, किसी से रास्ता नहीं पूछूंगा। किसी खास देश या दिशा में जाने की इच्छा न रखूंगा। यात्रा का कोई विशेष उद्देश्य न होगा; न आगे की उत्सुकता होगी न पीछे फिरकर देखूंगा।
चित्त में कोई भी विकार नहीं रहेगा, अन्तरात्मा पर दृष्टि रखूंगा और देहाभिमान से रहित हो जाऊंगा। भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन _इसका विचार नहीं करूंगा। एक घर से भिक्षा न मिली तो दूसरे घर से मांगूंगा, वहां भी न मिलने पर तीसरे घर से। इस प्रकार न मिलने की दशा में सात घरों तक मांगूंगा, आंठवएं पर नहीं जाऊंगा।जब घरों में धुआं निकलना बन्द हो गया हो, अंगारे बुझ गये हों, सब लोग खा_पी चुके हों, परोसी हुई थाली का इधर_उधर ले जाने का काम समाप्त हो गया हो, भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय में मैं एक ही समय भिक्षा के लिये जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बंधन तोड़कर पृथ्वी पर विचरता रहूंगा। न जीवन से राग होगा न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बांह बंसुले से काटता है और दूसरा दूसरी बांह पर चंदन चढ़ाता है तो मैं उन दोनों पर समान भाव ही रखूंगा। न एक का मंगल चाहूंगा न दूसरे का अमंगल। केवल शरीर निर्वाह के लिये पलकों के खोलने _मीचने तथा खाने_पीने आदि का कार्य करूंगा, परन्तु इसमें भी आसक्ति नहीं रखूंगा। संपूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन के संकल्प को अपने अधीन रखूंगा। बुद्धि के मल का परिमार्जन करके सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहूंगा। इस प्रकार वीतराग होकर विचरने से मुझे अक्षय शान्ति मिलेगी। इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं के आक्रमण होता ही रहता है; जिसके कारण यहां का जीवन कभी स्वस्थ नहीं रहता। इस अपार_सा संसार का तो त्यागने में ही सुख है।आज बहुत दिनों बाद मुझे विशुद्ध विवेकरूपी अमृत प्राप्त हुआ है; इसके द्वारा मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन स्थान को प्राप्त करना चाहता हूं। अतः उपर्युक्त धारणा के द्वारा निरंतर विचरता हुआ मैं जन्म, मृत्यु, व्याधि और वेदनाओं से भरे हुए इस शरीर का अन्त करके निर्भय पद को प्राप्त हो जाऊंगा।
यह सुनकर भीमसेन बोले_राजन् ! जब आपने राजधर्म की निंदा करके आलस्यपूर्ण जीवन करने का ही निश्चय कर रखा था तो बेचारे कौरवों का नाश कराने से क्या लाभ था ? आपका यह विचार यदि पहले ही मालूम हो गया होता तो हमलोग न हथियार उठाते, न किसी का वध करते। आपकी ही तरह शरीर त्यागने का संकल्प लेकर हम भी भीख ही मांगते। ऐसा करने से राजाओं के साथ यह भयंकर संग्राम तो नहीं होता। बुद्धिमान पुरुषों ने क्षत्रियों का यह धर।म बताया है कि ये राज्य पर अधिकार जमावें और यदि उसमें कुछ लोग बाधा उपस्थित करें तो उन्हें मार डालें। दुष्ट कौरव भी हमारे लिये राज्य_प्राप्ति में बाधक थे, इसीलिये हमने उनका वध किया है, अब आप धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। अन्यथा हमलोगों का सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जायगा; जैसे कोई मनुष्य मन में किसी तरह की आशा रखकर बहुत बड़ी मंजिल तय कर लें और वहां पहुंचकने पर उसे निराश होकर लौटना पड़े, यही दशा हमलोगों की भी होगी। आप जिस संन्यास की बात सोचते हैं, उसका यह समय नहीं है। जिनकी विचारदृष्टि सूक्ष्म है, वे बुद्धिमान पुरुष ऐसे अवसर पर त्याग की प्रशंसा नहीं करते, वे तो इसे स्वधर्म का उल्लंघन समझते हैं। जो पुत्र _पौत्र के पालन में असमर्थ हो, देवता, ऋषि और पितरों का तर्पण न कर सके और अतिथियों को भोजन देने की शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य जंगलों में जाकर मौज से अकेला जीवन व्यतीत कर सकता है।आप जैसे शक्तिशाली पुरुषों का यह काम नहीं है। राजा को तो कर्म करना ही चाहिये; जो कर्मों को छोड़ बैठता है उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती। 
तत्पश्चात् अर्जुन ने कहा_महाराज ! इसी विषय में एक बार तपस्वियों के साथ इन्द्र का संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास में आपको सुनाता हूं। एक समय की बात है, कुछ कुलीन ब्राह्मण बालक_जो अभी बहुत नादान थे, जिन्हें मूंछ तक नहीं आयी थी_घर_बार छोड़कर जंगल में चले आये, संन्यासी बन गये। इसी को धर्म मानकर वे प्रसन्न थे। भाई_बन्धु और मां_बाप की सेवा से मुंह मोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने लगे। एक दिन उनपर इन्द्र देव की कृपा हुई। वे सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके उनके पास गये और उन्हें सुनाकर कहने लगे_'यज्ञशिष्ठ अन्न भोजन करनेवाले महात्माओं ने जो कर्म किया है; वह दूसरे मनुष्यों से होना कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। उनका मनोरथ सफल हुआ और वे धर्मात्मा पुरुष उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं।' ऋषियों ने कहा_वाह ! यह पक्षी यज्ञशइष्ठ अन्न भोजन करनेवालों की प्रशंसा करता है, यह तो हमलोगों की ही प्रशंसा हुई; क्योंकि हमलोग ही यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं। पक्षी ने कहा_अरे ! मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं करता। तुम तो जूठा खानेवाले और मूर्ख हो, पाप_पंक में फंसे हुए हो। यज्ञशिष्ट अन्न खानेवाले तो दूसरे ही होते हैं। ऋषियों ने कहा_पक्षी ! यह बड़ा कल्याणकारी साधन है_ऐसा समझकर ही हम इस मार्गं का अवलम्ब किये बैठे हैं। अब तुम्हारी बात सुनकर तुमपर हमारी श्रद्धा हुई है, अतः: जो अत्यन्त कल्याण करनेवाला साधन हो, वहीं हमें बताओ। पक्षी ने कहा_यदि तुम्हारा मुझपर विश्वास है तो मैं यथार्थ बात बताता हूं, सुनो। चौपायों में गौ, धातुओं में सोना, शब्दों में प्रणव आदि मंत्र और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण के लिये जातकर्म आदि संस्कार शास्त्रविहित है; ब्राह्मण जबतक जीवित रहे, समय_समय पर उसका संस्कार होता रहना चाहिये। मरने के पश्चात् भी उसका श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि_संस्कार तथा घर पर श्राद्ध आदि वेद_विधि के अनुसार होना उचित है। वेदोक्त यज्ञ_यागादि कर्म ही उसके लिये स्वर्ग में पहुंचाने वाले उत्तम मार्ग हैं। वैदिक कर्म ही सिद्धि का क्षेत्र है सभी प्राणी इसकी इच्छा रखते हैं। जहां इन कर्मों का विधिवत् संपादन होता है, वह गृहस्थ_आश्रम ही सबसे बड़ा आश्रम है। जो कर्म की निंदा करते हैं, उन्हें कुमार्गगामी समझना चाहिये। उन्हें बड़ा पाप लगता है। देव यज्ञ, पितृ यज्ञ और ब्रह्मयज्ञ_ ये ही तीन सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग कर और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथ का आश्रय लेनेवाले हैं। हवन के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों को और श्राद्ध द्वारा पितरों को तृप्त करना_यह सनातन धर्म है; इसका पालन करते हुए गुरुजनों की सेवा करना ही कठोर तप है। इस दुष्कर तपस्या को करके ही देवताओं ने बहुत बड़ी विभूति पायी है। जिनकी किसी के प्रति इर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्दों से रहित हैं, ऐसे ब्राह्मण इसी को तप मानते हैं। संसार में व्रत को ही तप कहते हैं, किन्तु वह इसकी अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। जो यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं, उन्हें अविनाशी पद की प्राप्ति होती है। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा परिवार के अन्य लोगों को अन्न देकर जो स्वयं सबसे पीछे खाते हैं, वे ही यज्ञशिष्ट भोजन करनेवाले कहे गये हैं। अपने धर्म पर आरूढ़ होकर सुन्दर व्रत का पालन और सत्य_भाषण करते हुए वे इस जगत् के गुरु समझे जाते हैं।

Thursday, 1 May 2025

युधिष्ठिर का घर छोड़कर वन में जाने का विचार और अर्जुन द्वारा इसका विरोध

नारदजी ने कहा_राजन् ! एकबार कर्ण की जरासंध के साथ भी मुठभेड़ हुई थी, उसमें परास्त होकर जरासंध ने कर्ण को अपना मित्र बना लिया और उसे चम्पा नगरी उपहार में दे दी। पहले कर्ण केवल अंगदेश का राजा था, किन्तु इसके बाद वह दुर्योधन की अनुमति से चम्पा ( चम्पारण ) में भी राज्य करने लगा। इसी प्रकार एक समय इन्द्र ने आपकी भलाई करने के लिये कर्ण से कवच और कुण्डलों की भीख मांगी थी। ये कवच और कुण्डल दिव्य थे तथा कर्ण के देह के साथ उत्पन्न हुए थे, तो भी उसने इन्द्र को ये दोनों वस्तुएं दान कर दीं। इसीलिए अर्जुन श्रीकृष्ण के सामने उसे मारने में सफल हो सके। एक तो उसे अग्निहोत्री ब्राह्मण तथा महात्मा परशुराम ने शाप दे दिया था, दूसरे उसने स्वयं भी कुन्ती कुन्ती को वरदान दिया था कि मैं तुम्हारे चार पुत्रों को नहीं मारूंगा। इसके सिवा महारथियों की गणना करते समय भीष्म ने कर्ण को 'अर्धरथी' कहकर अपमानित किया था, इसके बाद शल्य ने भी उसका तेज नष्ट कर दिया और भगवान् कृष्ण ने नीति से काम लिया। इतनी बातें तो कर्ण के विपरीत हुईं और अर्जुन को रुद्र, यम, वरुण, कुबेर, द्रोण तथा कृपाचार्य से दिव्यास्त्र प्राप्त हुए थे, जिनका उपयोग करके उन्होंने कर्ण का वध किया है। फिर भी वह युद्ध में मारा गया है, इसलिये शोक के योग्य नहीं है।वैशम्पायनजी कहते हैं_इतना कहकर देवर्षि नारद चुप हो गये और राजा युधिष्ठिर शोकमग्न हो चिंता में डूब गये। उनकी यह अवस्था देखकर कुन्ती शोक से विह्वल हो उठी और मधुर वाणी से अर्थभरे वचन कहने लगी_'बेटा ! कर्ण के लिये शोक न करो। चिंता छोड़ो और मेरी बात सुनो । मैंने और भगवान् सूर्य ने कर्ण को यह जताने की कोशिश की थी कि युधिष्ठिर आदि तुम्हारे भाई हैं। एक हितैषी सुहृद् को जो कुछ कहना चाहिये, सूर्यदेव ने वह सब कहां। उन्होंने उसे स्वप्न में तथा मेरे सामने बहुत समझाया। परन्तु हमलोग अपने प्रयत्न में सफल न हो सके। वह मौत के वशीभूत होकर बदला लेने को तैयार था, इसलिये मैंने भी उसकी उपेक्षा कर दी।' माता की बात सुनकर धर्मराज के नेत्रों में आंसू भर आये। वे शोक से व्याकुल होकर कहने लगे।'मां ! तुमने यह रहस्यमयी बात छिपा रखी थी, इसीलिये आज मुझे कष्ट भोगना पड़ता है।' फिर उन्होंने दु:खी होकर संसार की सब स्त्रियों को शाप दे दिया _'आज से कोई भी स्त्री गुप्त बात छिपाकर न रख सकेगी।' इसके बाद वे मरे हुए पुत्र_पौत्र, संबंधी तथा सुहृदों को याद करके बहुत विकल हो गये और अर्जुन की ओर देखकर कहने लगे_'अर्जुन ! यदि हमलोग वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी क्षत्रियों के नगरों में जाकर भिक्षा से अपना जीवन_निर्वाह कर लेते तो आज अपने कुटुंब को निर्वंश करके हमें यह दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती। क्षत्रिय के आचार और उसके बल, पौरुष तथा अमर्ष को भी धिक्कार है, जिनके कारण हम इस विपत्ति में पड़ गये। क्षमा, दम, शौच, वैराग्य, मात्सर्य का अभाव, अहिंसा और सत्य बोलना _ये वनवासियों के धर्म ही श्रेष्ठ हैं। किन्तु हमलोग तो लोभ और मोह के कारण राज्य पाने की इच्छा से दम्भ और मान का आश्रय ले इस दुर्दशा में फंसे गये हैं। इस समय तीनों लोकों का राज्य देकर भी कोई हमें प्रसन्न नहीं कर सकता ! हाय ! हमने इस पृथ्वी पर अधिकार पाने के लिये अवध्य राजाओं की भी हत्या की और अब अपने बन्धु_बांधवों के बिना हम अर्ध भ्रष्ट की भांति जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ओह ! जिन बांधवों का हमने वध किया है उन्हें तो सारी पृथ्वी, सुवर्ण के ढेर और बहुत _सेज्ञगाय घोड़े आदि की प्राप्ति होने पर भी हमें नहीं मारना चाहिये था; किन्तु हमने उन्हें मार ही डाला। यह शोक हमें चैन लेने नहीं देता।
धनंजय ! सुना है मनुष्य का किया हुआ पाप शुभ कर्मों के आचरण से, दूसरों को कहकर सुनाने से, पश्चाताप से तथा दान, तप, त्याग, तीर्थयात्रा एवं श्रुति स्मृतियों का पाठ करने से भी नष्ट होता है। श्रुति ने कहा है कि त्यागी पुरुष को जन्म_मरण की प्राप्ति नहीं होती_वह अमृतत्व को प्राप्त होता है। इसके अनुसार योग मार्ग को प्राप्त करके जब बुद्धि स्थिर हो जाती है, उस समय मनुष्य परमआत्वभआव को प्राप्त हो जाता है। यह सोचकर मैं भी शीत_उष्ण आदि द्वन्दधर्मओं से रहित हो मुनिवृति से रहकर ज्ञानोपार्जन करना चाहता हूं। इसलिये मैंने सारा संग्रह, संपूर्ण राज्य तथा सुख_भोग आदि को त्याग देने का निश्चय किया है। अब मैं ममता और शोक से रहित हो सब प्रकार के बंधनों से छूटकर कहीं जंगल में चला जाऊंगा, मुझे राज्य अथवा भोगों से कोई मतलब नहीं है। यह कहकर जब धर्मराज चुप हो गये तो अर्जुन यह कहकर जब धर्मराज चुप हो गये तो अर्जुन बोले_'महाराज ! यह बहुत अफसोस की बात है और हददर्जे की कायरता है, जो आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राज्यलक्ष्मी को ठुकरा देने के लिये उद्यत हुए हैं। यदि त्याग ही देना था तो क्रोध में आकर इसी के लिये तमाम राजाओं की हत्या क्यों करायी ? अपने समृद्धिशाली राज्य का परित्याग करके जब हाथ में खप्पर लेकर घर_घर भीख मांगते फिरेंगे, उस समय संसार क्या कहेगा ?बोले_'महाराज ! यह बहुत अफसोस की बात है और हददर्जे की कायरता है, जो आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राज्यलक्ष्मी को ठुकरा देने के लिये उद्यत हुए हैं। यदि त्याग ही देना था तो क्रोध में आकर इसी के लिये तमाम राजाओं की हत्या क्यों करायी ? अपने समृद्धिशाली राज्य का परित्याग करके जब हाथ में खप्पर लेकर घर_घर भीख मांगते फिरेंगे, उस समय संसार क्या कहेगा ? क्या कारण है कि सब प्रकार के शुभ कर्मों का अनुष्ठान छोड़कर अशुभ एवं अकिंचन बनकर आप गंवार मनुष्यों की तरह भिक्षा मांगना पसंद करते हैं। इस उत्तम राजवंश में जन्म लेकर संपूर्ण पृथ्वी को अपने अधीन करके अब आप धर्म और अर्थ का परित्याग कर वन की ओर जा रहे हैं ! यह मूर्खता नहीं तो क्या है ? जब आप ही हवन एवं यज्ञ_यागादि कर्मों को त्याग देंगे तो दूसरे असाधु पुरुष आपका ही आदर्श सामने रखकर यज्ञों का उच्छेद कर डालेंगे। उस दशा में इसका सब पाप आपको लगेगा। सर्वस्व त्यागकर अकिंचन हो जाना, दूसरे दिन के लिये संग्रह न करके प्रतिदिन मांगकर खाना _यह मुनियों का धर्म है, राजाओं का नहीं; राजधर्म का पालन तो धन से ही होता है। महाराज ! धन से धर्म भी होता है, लौकिक कामनाएं भी पूर्ण होती हैं और स्वर्ग का साधनभूत यज्ञ भी सम्पन्न होता है; यही नहीं, धन के बिना तो संसार की जीविका ही नहीं चल सकती। जिसके पास धन होता है उसी के पास बहुत _से मित्र  तथा बन्धु_बान्धव होते हैं वहीं मर्द समझा जाता है और वही पण्डित माना जाता है। निर्धन मनुष्य जब धन चाहता है तो उसे उसकी प्राप्ति कठिन हो जाती है; मगर धनवान का धन बढ़ता रहता है। जैसे जंगल में एक हाथी के पीछे बहुत _से हाथी चले आते हैं, उसी प्रकार धन ही धन को खींच लाता है। धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्ति, आनन्द तथा शास्त्रों का अभ्यास _ये सब कुछ सम्भव है। धन से वंश की मर्यादा बढ़ती है और धन से धर्म की भी वृद्धि होती है, निर्धन को  न तो इस लोक में सुख है न परलोक में ! क्योंकि धन के बिना मनुष्य धार्मिक कृत्यों का विधिवत् अनुष्ठान नहीं कर सकता। जिनके पास धन की कमी है, गऔओं और सेवकों का अभाव है, जिसके यहां अतिथियों का आना_जाना नहीं होता, वही मनुष्य दुर्बल है। केवल शरीर की दुर्बलता से कोई दुर्बल नहीं कहा जाता। राजा को हर तरह से धन संग्रह करना चाहिये और उसके द्वारा यत्नपूर्वक यज्ञादि का अनुष्ठान भी करते रहना चाहिये। यही सनातन काल से वेदों की भी आज्ञा है धन से ही मनुष्य यज्ञ करते और कराते हैं, पढ़ने _पढ़ाने का कार्य भी धन से ही सम्पन्न होता है। राजा लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका तन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभकर्मों का अनुष्ठान करते हैं। किसी भी राजा के पास हम ऐसा धन नहीं देखते, जो दूसरों के यहां से न आया हो। प्राचीनकाल में जो राजर्षि हो गये हैं और इस समय स्वर्ग में निवास करते हैं, उन्होंने भी राजधर्म की ऐसी ही व्याख्या की है। राजन् ! पहले यह पृथ्वी राजा दिलीप के अधिकार में थी; फिर क्रमश: इसपर नृग, नहुष, अम्बरीष और मान्धाता का अधिपत्य हुआ। वहीं आज आपके अधीन हुई है। अतः उन्हीं राजाओं की भांति आपके लिये भी, जिसमें सब कुछ दक्षिणा के रूप में दान कर दिया जाता है वैसे सर्वस्वदक्षिण नामक द्रव्यमान यज्ञ करने का समय प्राप्त हुआ है। जिनका राजा दक्षिणायुक्त अश्वमेध यज्ञ करता है, वे सभी प्रजाएं उस यज्ञ के अन्त में अवभऋथ_स्नान करके पवित्र होती है। अतः आप समस्त प्राणियों के कल्याणार्थ यज्ञ कीजिये। क्षत्रियों के लिये यही सनातन मार्ग है, यही अभ्युदय का पथ है।'





Thursday, 17 April 2025

शान्ति पर्व ____शोकाकुल युधिष्ठिर को शान्त्वना देते हुए देवर्षि नारद का उन्हें कर्ण का पूर्वचरित्र सुनाना

नारायणं नमस्यकृत्यं नरं चैव नरोत्तम। देवीं सरस्वतीं व्यासं तो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अंत:करण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं_अपने समस्त सुहृदों को जलांजलि देने के पश्चात् पाण्डव, विदुर, धृतराष्ट्र तथा भरतवंश की संपूर्ण स्त्रियां आत्मशुद्धि के लिये एक मास तक नगर से बाहर गंगा तट पर टिकी रहीं। उस समय धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास बहुत से सिद्ध, महात्मा तथा ब्रह्मर्षि पधारे। इनमें द्वैपायन व्यास, नारद, देवल, देवस्थान, कण्व तथा इन सबके शिष्य भी थे। इनके अतिरिक्त भी अनेक वेदवेत्ता ब्राह्मण, गृहस्थ एवं स्नातक पधारे थे। राजा युधिष्ठिर ने उन सब महर्षियों का विधिवत् पूजन किया। इसके बाद वे उनके दिये हुए बहुमूल्य आसनों पर विराजमान हुए। समयोचित पूजा स्वीकार करके वे ऋषि _महर्षि गंगा के पावन तट पर शोक से व्याकुल हुए महाराज युधिष्ठिर को धैर्य बंधाने लगे।
सबसे पहले नारदजी ने व्यास आदि मुनियों से वार्तालाप करके राजा युधिष्ठिर के प्रति इस प्रकार कहा_'राजन् ! आपने अपने बाहुबल तथा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से इस संपूर्ण पृथ्वी पर धर्मपूर्वक विजय पायी है। सौभाग्य की बात है कि आप इस भयंकर संग्राम में जीते_जागते बच गये। अब क्षत्रिय धर्म के पालन में तत्पर रहते हुए आप प्रसन्न तो हैं न ? इस राज्यलक्ष्मी को पाकर आपको कोई शोक तो नहीं सताता ?युधिष्ठिर ने कहा_मुनिवर ! भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रय, ब्राह्मणों की कृपा तथा भीम और अर्जुन के बल से मैंने संपूर्ण पृथ्वी पर विजय तो पा ली; परन्तु मेरे हृदय में प्रतिदिन यह एक महान् दु:ख बना रहता है कि मैंने लओभवश अपने कुल का संहार करा दिया।सुभद्राकुमार अभिमन्यु और द्रौपदी के प्यारे पुत्रों को मरवाकर अब यह विजय भी पराजय_सी ही जान पड़ती है। द्रौपदी सदा हमलोगों का प्रिय तथा हित करने में लगी रहती है, इस बेचारी के पुत्र और भाई सब मारे गये, जब इसकी ओर देखता हूं तो मुझे बहुत कष्ट होता है। नारदजी ! यह सब दु:ख तो था ही, एक दूसरी बात और बता रहा हूं, मेरी माता कुन्ती कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य छिपाकर मुझे और भी दु:ख में डाल दिया है। जिनमें दस हजार हाथियों का बल था, संसार में जिनकी समानता करनेवाला कोई भी महारथी नहीं था, जो बुद्धिमान, दाता, दयालु और व्रत का पालन करनेवाले थे, जिनमें शौर्य का पूरा अभिमान था, जो फुर्ती से अस्त्र चलानेवाले तथा विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेवाले थे, जिनका पराक्रम अद्भुत था, उन विद्वान् कर्ण को माता कुन्ती ने ही गउप्तररूप से जन्म दिया था, वे हमलोगों के भाई थे। जलदान करते समय कुन्ती ने यह रहस्य बताया कि वे भगवान् सूर्य के अंश से उत्पन्न हुए थे। पूर्वकाल की बात है जब कुन्ती के गर्भ से सर्वगुण संपन्न कर्ण का प्रादुर्भाव हुआ, उस समय माता ने इन्हें पेंटी में रखकर गंगा की धारा में बहा दिया था। जिन्हें सारा संसार राधा का पुत्र समझता था, वे कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र और हमलोगों के सहोदर भाई थे। मैंने अनजान में राज्य के लोभ से अपने भाइयों को मरवा डाला_यह स्मरण करके मेरे बदन में आग_सी लग जाती है। हम पांचों में से कोई भी उन्हें अपने भाइ के रूप में नहीं जानता था, किन्तु वे हमलोगों को जानते थे। सुना है मेरी माता कुन्ती हमलोगों से सन्धि कराने के लिये उनके पास गयी थीं; इन्होंने बताया 'बेटा ! तुम राधा के नहीं, मेरे पुत्र हो।' किन्तु कर्ण ने इनकी अभिलाषा नहीं पूरी की_वे सन्धि के लिये नहीं सहमत हुए। उन्होंने यही उत्तर दिया_'मां ! मैं राजा दुर्योधन को छोड़ने में असमर्थ हूं। यदि तुम्हारी बात मानकर युधिष्ठिर से सन्धि कर लेता हूं तो नीच, नृशंस और कृतध्न समझा जाऊंगा। लोग यही कहेंगे कि कर्ण अर्जुन से डर गया। इसलिये समर में श्रीकृष्ण सहित अर्जुन को जीत लेने के पश्चात् मैं युधिष्ठिर से सन्धि करूंगा।' यह सुनकर कुन्ती ने कहा, 'अच्छी बात है;तुम अर्जुन से युद्ध करो, किन्तु शेष चार भाइयों को अभयदान दे दो।' इतना कहकर माता कांपने लगीं, इनकी यह अवस्था देख बुद्धिमान कर्ण ने कहा_'देवि ! तुम्हारे चार पुत्र मेरे चंगुल में फंसे जायेंगे, तो भी उन्हें जान से नहीं मारूंगा। यदि मैं मारा गया तो अर्जुन रहेंगे, अर्जुन मरे तो मैं रहूंगा; इस प्रकार तो तुम्हारे पांच पुत्र तो हर हालत में जीवित रहेंगे।' कुन्ती बोलीं _'बेटा ! अपने भाइयों का कल्याण करना।' फिर ये घर चली आयीं। इस रहस्य को न तो कुन्ती ने प्रकट किया, न कर्ण ने; इसलिये भाई के हाथ से सहोदर भाई का वध हुआ _अर्जुन ने वीरवर कर्ण को मार डाला। इससे मेरे हृदय को बड़ी व्यथा हो रही है। कर्ण और अर्जुन की सहायता पाकर तो मैं इन्द्र को भी जीत सकता था। धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्र जब सभा में द्रौपदी को क्लेश दे रहे थे और कर्ण की कठोर बातें सुनायी देतीं थीं, उस समय मुझे सहसा रोष चढ़ आता था, किंतु कर्ण के चरणों पर दृष्टि जाते ही शान्त हो जाता था। मुझे कर्ण के दोनों पैर माता कुन्ती के चरणों जैसे ही मालूम होते थे। किन्तु बहुत सोचने पर भी मैं इसका कारण नहीं जान पाता था। भगवन् ! कर्ण के पहिये को पृथ्वी क्यों निगल गयी मेरे भाई को ऐसा श्राप क्यों प्राप्त हुआ ? यह मुझे बताइये। मैं आपसे ये सभी बातें ठीक_ठीक सुनना चाहता हूं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं, भूत_भविष्य की सारी बातें जानते हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद मुनि कर्ण को जिस तरह शाप प्राप्त हुआ था, वह सारी कथा कहने लगे_'भारत ! यह देवताओं की गुप्त बात है, किन्तु मैं तुम्हें बता रहा हूं। एक समय सब देवताओं ने विचार किया कि कौन सा ऐसा उपाय हो, जिससे भूमण्डल का सारा क्षत्रिय_समाज शस्त्रों के आघात से पवित्र होकर स्वर्ग सिधारे। यह सोचकर उन्होंने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया। वहीं कर्ण हुआ। उसने आचार्य द्रोण से धनुर्वेद का अभ्यास किया। वह बचपन से ही भीमसेन का बल, अर्जुन की अस्त्र चलाने में फुर्ती, आपकी बुद्धि, नकुल_सहदेव की विनय तथा श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की मित्रता देखकर जला करता था आपके ऊपर प्रजा का अनुराग जानकर वह चिन्ता से दग्ध होता रहता था। इसलिये उसने बाल्यकाल में ही राजा दुर्योधन से मित्रता कर ली।' 'धनंजय का धनुर्विद्या में अधिक पराक्रम देखकर एक दिन कर्ण ने द्रोणाचार्य से एकांत में कहा_'गुरुदेव ! मैं ब्रह्मास्त्र को छोड़ने और लौटाने की विद्या जानता हूं।' कर्ण की अर्जुन के साथ जजों लाग_डांट थी, उसे द्रोणाचार्य जानते थे; उसकी दुष्टता से भी वे अपरिचित नहीं थे। इसीलिए उसकी प्रार्थना सुनकर उन्होंने कहा_'कर्ण ! शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय ही ब्रह्मास्त्र सीखने का अधिकारी है, दूसरा नहीं।' उनके ऐसा कहने पर कर्ण ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनका सम्मान किया। फिर उनकी आज्ञा लेकर वह सहसा वहां से चल दिया। जाते_जाते महेंन्द्र पर्वत पर पहुंचा और परशुरामजी के निकट जा भृगुवंशी ब्राह्मण के रूप में अपना परिचय दे उसने गुरु बुद्धि से उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया और शिष्यभाव से उनकी शरण में गया। परशुरामजी ने भी गोत्र आदि पूछकर उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया और कहा 'वत्स ! तुम्हारा स्वागत है, तुम प्रसन्नतापूर्वक यहां रहो।' "कर्ण महेंन्द्र पर्वत पर रहकर अभ्यास करने लगा। उस समय वहां उसे गन्धर्व, राक्षस, यक्ष तथा देवताओं से मिलने का अवसर प्राप्त होते रहता था। इसलिये उन सके साथ उसका बड़ा प्रेम हो गया। एक दिन की बात है, वह आश्रम के पास ही समुद्र के किनारे _किनारे टहल रहा था। अकेला था तथा हाथों में तलवार तथा धनुष लिये हुए था। उसी समय एक वेदपाठी की गौ उधर आ निकली। मुनि अग्निहोत्र में लगे हुए थे। कर्ण ने अनजान में उसे कोई हिंसक जीव समझकर मार डाला। जब मालूम हुआ तो उसने अपने अज्ञानवश किये हुए अपराध को ब्राह्मण को जाकर कह सुनाया। ब्राह्मण देवता को प्रसन्न करने के लिये कर्ण बोला_'भगवन् ! मैंने नजआन में आपकी यह गाय मार डाली है; इसलिये आप मुझपर कृपा करके यह अपराध क्षमा कर दीजिये।' "ब्राह्मण बिगड़ उठा और उसको डांटता हुआ बोला_'दुराचारी ! तू मार डालने योग्य है; ले, इस पाप का फल भोग ! अन्त समय में पृथ्वी तेरे रथ के पहिये को निगल जायगी; उस समय तू घबराया होगा उसी अवस्था में, शत्रु तेरा मस्तक काट डालेगा।' यह शाप सुनकर कर्ण ने बहुत _सी गौएं, धन तथा रत्न दे ब्राह्मण को प्रसन्न करने की चेष्टा की। तब उसने फिर कहा_'सारा संसार मिलकर भी मेरी बात झूठी नहीं कर सकता।' उसके ऐसा कहने पर कर्ण को बड़ा भय हुआ। दीनता से उसका मुंह नीचे की ओर झुक गया। फिर मन_ही_मन इस दुर्घटना को याद करता हुआ वह परशुरामजी के पास लौट आया। "कर्ण की भुजाओं का बल, गुरु के प्रति उसका प्रेम, इन्द्रियसंयम तथा सेवाभाव को देखकर परशुरामजी उसपर बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने प्रयोग और उपसंहार सहित संपूर्ण ब्रह्मास्त्र विद्या उसे विधिपूर्वक सिखा दी। तदनन्तर एक दिन परशुरामजी कर्ण के साथ अपने आश्रम के पास ही घूम रहे थे। उपवास करने के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था, अतः थकावट आ जाने से उन्हें नींद सताने लगी। कर्ण के ऊपर उनका पूर्ण विश्वास और स्नेह था, इसीलिये उसकी गोद में सिर रखकर सो गये। इतने में लार, मज्छआ, मांस और रक्त का आहार करनेवाला एक भयंकर कीड़ा, जो बड़ा तीखा डंक मारता था, कर्ण के पास आया और उसकी जांघ पर चढ़ गया। जांघ में घाव करके वह उसका रक्तपान करने लगा। इस प्रकार कीड़े के काटने से उसे व्यथा होती रही; किन्तु उसने धैर्यपूर्वक उसे सहन किया और गुरु के जाग उठने के डर से कीड़े को नहीं हटाया, बल्कि उसकी ओर से उपेक्षा कर दी। "कर्ण के देह से निकले हुए रक्त की धारा से जब परशुरामजी का शरीर भींगने लगा तो वे सहसा जाग उठे और शंकित होकर बोले_'अरे ! तू तो अशुद्ध हो गया ! यह क्या कर रहा है ? भय छोड़कर ठीक _ठीक बता।' तब कर्ण ने उन्हें कीड़े के काटने की बात बता दी। ज्योंहि उन्होंने उस कीट की ओर दृष्टिपात किया, उसके प्राण _पखेरू उड़ गये; यह एक अद्भुत घटना हुई। इतने में एक भयंकर राक्षस आकाश में खड़ा दिखाई दिया। वह दोनों हाथ जोड़कर परशुरामजी से बोला_'मुनिवर ! आपने मुझे इस नरक के कष्ट से छुटकारा दिला दिया, यह मेरा बड़ा प्रिय कार्य हुआ । मैं आपको प्रणाम करता हूं और अब जहां से आया था वहीं जा रहा हूं।' परशुरामजी ने पूछा 'अरे ! तू कौन है और कैसे इस नरक में पड़ा था ?' उसने उत्तर दिया _'तात !  सतयुग की बात है, मैं दंश नामक असुर था। एक दिन मैंने भऋगउमउनइ की प्राण प्यारे पत्नी का बलपूर्वक अपहरण किया; इस क्रोध में आकर महर्षि ने यह शाप दिया _'पापी ! तू कीड़ा होकर नरक में पड़ेगा।' तब मैंने उनसे प्रार्थना की 'ब्रह्मण् ! इस शाप का अन्त भी होना चाहिएये।' उन्होंने कहा 'मेरे वंश में उत्पन्न हुए परशुराम की दृष्टि पड़ने से इस शाप का अन्त होगा।' इस प्रकार मैं इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ था और आज आपका समागम होने से मेरा इस पाप योनि से उद्धार हुआ है।' यह कहकर वह महान् असुर परशुरामजी को प्रणाम करके चला गया। "अब परशुरामजी ने क्रोध में भरकर कर्ण से कहा_'मूर्ख ! तूने इस कीड़े के काटने की जो भयंकर पीड़ा बर्दाश्त की है, इसे ब्राह्मण कभी नहीं सह सकता। तेरा धैर्य तो क्षत्रिय के समान जान पड़ता है। सच_सच बता, तू कौन है ?' उनका प्रश्न सुनकर कर्ण शाप के भय से उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करता हुआ बोला_'ब्रह्मण् !मैं ब्राह्मण और क्षत्रिय से भिन्न सूत जाति में उत्पन्न हुआ हूं। लोग मुझे राधा का पुत्र कर्ण कहते हैं। ब्रह्मास्त्र के लोभ से मैंने झूठा परिचय दिया था, मुझपर कृपा कीजिये। विद्या प्रदान करनेवाला गुरु नि:संदेह पिता के समान ही है, इसीलिये आपके निकट अपना भार्गव_गोत्र बतलाया था।' "यह कहकर कर्ण दीनभाव से हाथ जोड़कर उनके सामने पृथ्वी पर पड़ गया और थर_थर कांपने लगा। यह देख परशुरामजी ने हंसते हुए_से कहा_'मूर्ख ! तूने ब्रह्मास्त्र के लोभ से झूठ बोलकर मेरे साथ कपट किया है, इसलिये जब संग्राम में तू अपने समान योद्धा से युद्ध करेगा तो तेरी मृत्यु निकट आ जायगी, उस समय तुझे मेरे दिये हुए ब्रह्मास्त्र का स्मरण नहीं रहेगा। अब तू यहां से चला जा, मिथ्यावादी के लिये यहां स्थान नहीं है। परन्तु मेरे आशीर्वाद से युद्ध में कोई भी क्षत्रिय तरी समानता नहीं कर सकेगा।' परशुरामजी के ऐसा कहने पर कर्ण उन्हें प्रणाम करके वहां से लौट आया और दुर्योधन से बोला_मैं ब्रह्मास्त्र सीख आया।"