Wednesday, 1 October 2025

व्यासजी का युधिष्ठिर से काल की महिमा कहना तथा युधिष्ठिर का अर्जुन के प्रति पुनः अपना शोक प्रकट करना

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजमहर्षि व्यास की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा, 'भगवन् ! इस पृथ्वी के राज्य और तरह_तरह के भोगों से मेरे मन को प्रसन्नता नहीं है, मुझे तो यह शोक खाये जा रहा है। जिनके पति और पुत्र नष्ट हो गये हैं, ऐसी इन अफवाहों का विलाप सुनकर मुझे तनिक भी चैन नहीं है। राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर वेदपारंगत श्रीव्यासजी ने कहा_'राजन् ! जो लोग मरू गये हैं वे तो अब किसी भी कर्म या यज्ञादि से मिल नहीं सकते और न कोई ऐसा पुरुष ही है जो उन्हें लाकर दे दे। बुद्धि या शास्त्राध्ययन के द्वारा असमय ही किसी विशेष वस्तु को पा लेना मनुष्य के वश की बात नहीं है। कभी_कभी तो मूर्ख मनुष्य को भी उत्तम वस्तु की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में कार्य की सिद्धि में काल ही की प्रधानता है। शिल्प, मंत्र और औषधियां भी दुर्भाग्य के समय फल नहीं देतीं। समय की अनुकूलता होने पर जब सौभाग्य का उदय होता है तो वे ही सफलता और बुद्धि की निमित्त बन जाती है। समय आने पर ही मेघ जल बरसाते हैं, बिना समय के वृक्षों में फल_फूल भी नहीं लगते तथा जबतक अनुकूल समय नहीं आता तब तक पक्षी, सर्प, हाथी और हरिणों में कामोन्माद नहीं आता, स्त्रियां गर्भ धारण नहीं करतीं, जाड़ा, गर्मी और वर्षा ऋतुएं नहीं आतीं। किसी का जन्म या मरण नहीं होता, बालक बोलना आरम्भ नहीं करता, मनुष्य पर यौवन नहीं आता और बोया हुआ बीज अंकुरित नहीं होता। इसी प्रकार सूर्य के उदय और अस्त, चन्द्रमा के वृद्धि और ह्रास तथा समुद्र के उतार_चढ़ाव भी बिना अनुकूल समय आये नहीं होते। राजन् ! इस विषय में राजा सएनजइत् ने जो कुछ कहा था वह प्राचीन उपदेश मैं तुम्हें सुनाता हूं। 'राजा ने कहा था_'यह दु:सह कालचक्र सभी मनुष्यों पर अपना प्रभाव डालता है। पृथ्वी के सभी पदार्थ समय आने पर जीर्ण होकर नष्ट हो जाते हैं। धन, स्त्री, पुत्र अथवा पिता के नष्ट हो जाने पर पुरुष 'हाय ! कैसा दु:ख है' ऐसा सौचकर ही फिर उस दु:ख की निवृत्ति का उपाय करता है। किन्तु तुम मूर्ख बनकर शोक क्यों करते हो ? जो शोकरूप ही थे उनके लिये शोक क्या करना। तुम्हारे दु:ख मानने से तो दु:खों की और भय मानने से भयों की वृद्धि ही होगी। न तो यह शरीर मेरा है और सारी पृथ्वी ही मेरी है। यह जैसी मेरी है वैसे ही और सबकी भी है। ऐसी दृष्टि रखने से जीव कभी मोह में नहीं फंसता। शोक के हजारों स्थान हैं और हर्ष के भी सैकड़ों अवसर हैं। किन्तु उनका प्रभाव रोज_रोज मूर्खों पर ही पड़ता है, विद्वानों पर नहीं। संसार में तो केवल दु:ख ही है, सुख तो है ही नहीं; इसलिये लोगों को दु:ख की ही उपलब्धि होती है। यहां सुख के पीछे दु:ख और दु:ख के पीछे सुख लगा ही रहता है। सुख का अन्त तो दु:ख में ही होता है।। कभी_कभी दु:ख से भी सुख की प्राप्ति हो जाती है; इसलिये जिसे नित्य सुख की इच्छा हो वह सुख_दुख दोनों को ही त्याग दे। सुख या दु:ख अथवा प्रिय और अप्रिय जो कुछ प्राप्त हो उसे हृदय में अवसाद न लाकर प्रसन्नता से ग्रहण करें। भाई ! अपने स्त्री और पुत्रों के प्रति  अनुकूल आचरण में थोड़ी सी भी कभी कर दो, फिर तुम्हें मालूम हो जायगा कि कौन किस हेतु से किसका किस प्रकार संबंधी है।" युधिष्ठिर ! यह सुख_दुख के मर्म को जाननेवाले परम धर्मज्ञ महामति सएनजइत् का कथन है। जिस पुरुष को जो दु:ख सता रहा है उससे कभी शान्ति मिलनेवाली नहीं है। दु:खों का अन्त कभी नहीं आता। एक के पीछे दूसरा दु:ख पैदा होता ही रहता है। सुख_दु:ख, उत्पत्ति_नाश, लाभ_हानि और जीवन_मरण_ये क्रमशः आते ही रहते हैं। अतः धीर पुरुषों को इनके कारण हर्ष या शोक नहीं करना चाहिये।
राजाओं का योग तो युद्ध की दीक्षा लेना, युद्ध करना, दण्ड नीति का ठीक_ठीक व्यवहार करना तथा यज्ञ में दक्षिणा और धनवान देना ही है। इन्हीं से उनकी शुद्धि होती है। जो राजा बुद्धिमानी से न्यायपूर्वक राज्य शासन करता है, अहंकार त्यागकर यज्ञानुष्ठान करता है, सब प्रथाओं को धर्म के अनुसार चलाता है, युद्ध में विजय पाकर राज्य की रक्षा करता है, सओमयआग करते हुए प्रजा का पालन करता है, युक्तिपूर्वक दण्ड विधान करता है, वेद_शास्त्रों का अच्छी तरह अभ्यास करता है और चारों वर्णों को अपने _अपने धर्म में स्थित रखता है, वह शुद्ध चित्त होकर अन्त में स्वर्गसुख भोगता है तथा स्वर्गस्थ हो जाने पर भी जिसके आचरण की पुरवासी, देशवासी और मंत्री लोग प्रशंसा करते हैं, उसी राजा को श्रेष्ठ समझना चाहिये।' व्यासजी के इस प्रकार कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा_'भैया ! तुम जो समझते हो धन से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है तथा निर्धन को स्वर्गसुख और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती_यह ठीक नहीं है।अनेकों मुनियों ने तपस्या में लगे रहकर ही सनातन लोकों को प्राप्त किया है। जो धर्मप्राण पुरुष ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर वेदाध्ययन द्वारा ऋषियों की सम्प्रदाय परंपरा की रक्षा करते रहते हैं दे देवगण उन्हें ही 'ब्राह्मण' कहते हैं। जो लोग स्वाध्यायनिष्ठ, ज्ञाननिष्ठ या धर्मनिष्ठ हैं उन्हीं को तुम ऋषि समझो। वानप्रस्थों के कहने से तो हमें यह बात मालूम हुई है कि राज्य के सब काम भी ज्ञाननिष्ठों के ही हाथ में रखे। अज, पृश्रि, सिकत अरुण और केतु नाम के ऋषिगणों ने तो स्वाध्याय के द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त कर लिया था। दान, अध्ययन, यज्ञ और निग्रह_ये सभी कर्म बहुत कठिन है। इन वेदोक्त कर्मों का आश्रय लेकर लोग दक्षिणायन मार्ग से स्वर्गलोक में जाते हैं; किन्तु जो नियम के अनुसार उत्तर मार्ग पर दृष्टि रखता है, उसे योगियों को प्राप्त होनेवाले सनातन लोकों की उपलब्धि होती है। प्राचीन काल के विद्वान् इन दोनों में से उत्तर मार्ग की ही प्रशंसा करते हैं। वास्तव में संतोष ही सबसे बड़ा स्वर्ग है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष से बढ़कर कोई चीज नहीं है। जिन पुरुषों ने क्रोध और हर्ष को अच्छी तरह वश में कर लिया है, उन्हीं को वह उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। 
इस प्रसंग में राजा ययाति की कही हुई यह कथा प्रसिद्ध है, जिसपर ध्यान देने से पुरुष कछुआ जैसे अपने अंगों को सिकोड़ लेता है उसी प्रकार
अपनी सब वासनाओं को समेट लेता है। 'राजा ययाति ने कहा था_'जब वह पुरुष किसी से नहीं डरता और इससे भी किसी को भय नहीं रहता तथा इसे किसी वस्तु की इच्छा या किसी से द्वेष नहीं रहता, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। जब यह कर्म, मन और वाणी से सभी जीवों के प्रति दुर्भावना का त्याग कर देता है तो इसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। जिसके मान और मोह दब गये हैं और जिसने बहुत पुरुषों का संग करना छोड़ दिया है, उस आत्मज्ञ महात्मा के लिये मोक्ष सुलभ हो जाता है।' 'अर्जुन ! मैं तो साफ देखता हूं कि मनुष्य धन के पीछे पड़ा हुआ है और उसके द्वारा त्याज्य कर्मों का छूटना बड़ा ही कठिन है। साधु या भी उसके लिये दुर्लभ ही है। शोक और भय से रहित होने पर भी जो पुरुष सदाचार से डिगा हुआ है, उसे धन की थोड़ी _सी तृष्णा भी हो तो वह दूसरे से ऐसा वैर ठान लेता है कि उसे पाप किमी कोई परवा नहीं होती। ब्रह्मा ने तो यज्ञ के लिये ही धन उत्पन्न किया है और यज्ञ की रक्षा के लिये ही मनुष्य की रचना की है। इसलिये सारे धन का उपयोग यज्ञ के लिये ही करना चाहिये। उसे भोग में लगाना अच्छा नहीं है। इसी से लोगों का विचार है कि कि धन कभी किसी एक का नहीं है। अतः श्रद्धावान पुरुष को उसे दान और यज्ञ में लगाते रहना चाहिये। जो धन मिले उसे दान में ही लगा दें, भोगों में न लगावें। दान देने में भी दो भूलें हुआ करती हैं। उनपर ध्यान रखना चाहिए। एक तो कुपात्र के पास धन पहुंच जाना और दूसरे सुपात्र को न मिलना। 'अर्जुन ! इस युद्ध में बालक अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, द्रुपद, वृषसेन, धृष्टकेतू तथा भिन्न-भिन्न देशों के अनेकों नृपतिगण काम आ गये हैं। इस सारे बन्धुवध की जड़ में ही हूं। हाय ! मैं बड़ा ही राज्यों और क्रूर हूं। मैंने अपने कुटुंब का भी मूलोच्छेद करा डाला। इसी से मेरा शोक जरा भी दूर नहीं होता, मैं अत्यंत आतुर हो रहा हूं। मैं कैसा मूर्ख और गुरुद्रोही हूं ? भला, यह राज्य कितने दिन टिकनेवाला है; इसी के लोभ में पड़कर मैंने अपने दादा भीष्मजी को भी मरवा डाला। अरे ! उन्होंने तो हमें पाल_पोसकर बच्चे से बड़ा किया था। गुरुवार द्रोणाचार्य को मेरी सत्यवादिता में विश्वास था, इसीलिये उन्होंने मुझसे अपने पुत्र के वध के विषय में पूछा था। किन्तु मैंने हाथी की आड़ लेकर झूठ बोल दिया। ऐसा भारी पाप करके भला, मेरी किस लोक में गति होगी ? हाय मुझसे बड़ा और कौन पापी होगा ? मैंने तो अपने बड़े भाई कर्ण को भी मरवा डाला। इस राज्य के लोभ से ही मैंने बालक अभिमन्यु को कौरवों की सेवा में झोंक दिया। तबसे तो तुम्हारी और मेरी आंखें ही नहीं उठतीं। बेचारी द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गये। उनका शोक भी मुझे बाराबर सालता रहता है। अब तो तुम मुझे प्रायोपवेश के लिये ही बैठा समझो। मैं यहीं बैठे_बैठे अपना शरीर सुखा डालूंगा। इस गंगा तट पर ही मैं अपने रातों को नष्ट कर दूंगा। आप सब लोग मुझे इस प्रायश्चित की आज्ञा दीजिये।

Monday, 8 September 2025

महर्षि व्यास का शंख_लिखित और राजा हयग्रीव के दृष्टांत देकर युधिष्ठिर को प्रजापालन के लिये उत्साहित करना

वैशम्पायनजी कहते हैं_ जनमेजय ! अर्जुन के इस प्रकार समझाने पर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब महर्षि व्यास कहने लगे_'सौम्य ! अर्जुन का कथन बहुत ठीक है। गृहस्थ_धर्म बहुत उत्तम है और शास्त्रों में उसका वर्णन किया गया है। धर्मज्ञ ! तुम शास्त्रानुसार स्वधर्म का ही आचरण करो। तुम्हारे लिये घर छोड़कर वन में जाने का विधान नहीं है। देखो, देवता, पितर, अतिथि और सेवक इन सबका निर्वाह गृहस्थ के द्वारा ही होता है। अतः तुम इन सबका पालन करो। पक्षु_पक्षी और समस्त प्राणियों का पेट भी गृहस्थों के कारण भरता है, इसलिये गृहस्थ ही सबसे श्रेष्ठ है।  तुम्हें वेद का पूरा ज्ञान है और तुमने तपस्या भी बहुत बड़ी की है। इसलिये अपने इस पैतृक राज्य का भार उठाने में तुम सब प्रकार से समर्थ हो। राजन् ! तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रियों का संयम, ध्यान, एकान्तसेवन, संतोष और शास्त्रज्ञान_ ये सब बातें तो ब्राह्मणों को सिद्धि देनेवाली है।
क्षत्रियों के धर्म यद्यपि तुम जानते ही हो तो भी मैं उन्हें सुनाता हूं_यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओं पर चढ़ाई करना, राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति से कभी संतुष्ट न होना, दण्ड देना, दबदबा रखना, प्रजा का पालन करना, समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त करना, तप, सदाचार, द्रव्योपार्जन और सुपात्र को दान देना_क्षत्रिय के ये सब कर्म उसे इहलोक और परलोक दोनों में ही सफलता देनेवाले हैं।इनमें भी दण्ड धारण करना उसका सबसे प्रधान धर्म है। इसके लिये उसमें सर्वदा बल रहना चाहिये; क्योंकि दण्ड विधान बल के द्वारा ही हो सकता है। राजन् क्षत्रियों को तो इन्हीं धर्मों के द्वारा सिद्धि प्राप्त हो सकती है। हमने सुना है कि राजर्षि सुध्युम्न ने दण्डधारण के द्वारा ही परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। इस विषय में यह प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है; तुम ध्यान देकर सुनो। 'शंख और लिखित नामक दो भाई थे। वे बड़े ही तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तीर पर उनके अलग_अलग आश्रम थे, जो बड़े ही रमणीय और  सर्वदा फल_पुष्पादि से लदे रहते थे। एक बार लिखित शंख के आश्रम पर आये। दैववश उस समय शंख बाहर गये हुए थे। लिखित ने भाई की अनुपस्थिति में वहां के बहुत _से पके फल तोड़ लिये और वे उन्हें वहीं बैठकर खाने लगे। इतने में ही शंख वहां आ गये। उन्होंने लिखित को फल खाते देकर कहा, 'भैया ! तुम्हें ये फल कहां से मिले।' इसपर लिखित ने बड़े भाई के पास जाकर उनसे हंसते_हंसते कहा, ये तो मैंने इस सामनेवाले वृक्ष से ही थोड़े हैं।' इसपर शंख ने कहा, 'तुमने मुझसे बिना पूछे स्वयं ही फल तोड़कर तो चोरी की है, इसलिये तुम राछजा के पास जाओ और उसे अपना सब कर्म सुनाकर कहो कि 'राजन् ! बिना दिये दूसरे की चीज लेकर मैंने चोरी का अपराध किया है, इसलिये यह सब जानकर आप अपना धर्मपालन कीजिये और तुरन्त ही मुझे वह दण्ड दीजिये जो चोर को दिया जाता है। 'तब भाई की आज्ञा सिर पर धारण कर लिखित राजा सुध्युम्न के पास गये और उनसे बोले, 'राजन् ! मैंने बिना आज्ञा लिये अपने बड़े भाई के फल खा लिये हैं, इसलिये आप मुझे दण्ड दीजिये।' 'सुद्युम्न ने कहा, 'विप्रवर ! यदि आप दण्ड देने में राजा को प्रमाण मानते हैं तो क्षमा करने का भी उसको अधिकार है ही। अतः: मैं आपको क्षमा करता हूं। इसके सिवा मेरे योग्य कोई सेवा हो तो उसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये। मैं उसे पालन करने का प्रयत्न करुंगा।' 'परन्तु राजा के बहुत प्रार्थना करने पर भी लिखित ने दण्ड के लिये ही आग्रह किया। उसके सिवा और किसी प्रकार की बात उन्होंने स्वीकार नहीं की। तब राजा ने चोरी का दण्ड देते हुए उनके दोनों हाथ कटवा दिये। इस प्रकार दण्ड पाकर वे शंख के पास आये और अत्यन्त दिन होकर उनसे प्रार्थना की कि ' मुझे दण्ड प्राप्त हो गया है,  अब आप मुझ मन्दमति को क्षमा करें।' 'शंख ने कहा, 'भैया ! मैं तुमपर कुपित नहीं हूं। तुम तो धर्म को जाननेवाले हैं। तुम्हें धर्म का उल्लंघन हो गया था। उसी का तुम्हें दण्ड मिला है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदी के तट पर जाकर विधिवत् देवता और पितरों का तर्पण करो। भविष्य में कभी अधर्म में मन मत ले आना। 'शंख की बात सुनकर लिखित ने बाहुदा के पुनीत एवं में स्नान किया और फिर वेज्योंही तर्पण करने के लिये तैयार हुए कि उनकी भुजाओं में से कमल के समान दो हाथ प्रकट हो गये। इससे उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने भाई को जाकर वे हाथ दिखाये। शंख ने कहा, 'भाई ! तुम शंका न करो। मैंने अपने तप के प्रभाव से ये हाथ उत्पन्न किये हैं।' इसपर लिखित ने पूछा, 'विप्रवर ! यदि आपके पास तप का ऐसा प्रभाव है तो आपने पहले ही मेरी शुद्धि क्यों नहीं कर दी ?' शंख बोले, 'यह ठीक है; परन्तु तुम्हें दण्ड देने का अधिकार मुझे नहीं है; यह तो राजा का ही काम है। इससे राजा की भी शुद्धि हुई है और पितरों सहित तुम भी पवित्र हो गये हो।' इसी प्रकार प्रणेताओं के पुत्र दक्ष ने भी उत्तम सिद्धि प्राप्त की थी। प्रथाओं का पालन करना_यही क्षत्रियों का मुख्य धर्म है। इसलिये राजन् ! आप शोक त्यागियों। अपने भाई अर्जुन की हितकारिणी बात पर ध्यान दीजिये। क्षत्रियों का प्रधान कर्तव्य तो दण्ड धारण करना ही है, मूंड़ मुड़ाना उनका काम नहीं है‌।'तात ! वन में रहते समय तुम्हारे धीर_वीर भाइयों ने जो मनोरथ किये थे उन्हें अब सफल होने दो। तुम नहुष पुत्र ययाति के समान पृथ्वी का पालन करो। अपने भाइयों के साथ धर्म अर्थ और काम का भोग करो। पीछे प्रसन्नता से वन में चले जाना। पहले अतिथियों, पितरों और देवताओं के ऋण से उऋण हो लो, इसके बाद यह सब करना। अभी तो सर्वमेध और अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करो। यदि तुम अपने भाइयों के साथ बड़ी_बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ करोगे तो तुम्हें अतुलित यश प्राप्त होगा।  'राजन् ! मैं तुमसे जो बात कहता हूं उसपर ध्यान दो वैसा करने से तुम अपने धर्म से नहीं गिरोगे। देखो, जो राजा कर का छठा भाग लेकर भी राष्ट्र की रक्षा नहीं करता वह अपनी प्रजा के चतुर्थांश पाप का भागी बनता है। यदि राजा धर्मशास्त्र का उल्लंघन करता है तो पतित हो जाता है और यदि उसका अनुसरण करता है तो निर्भय हो रहता है। यदि काम क्रोध छोड़कर वह पिता के समान सारी प्रजा के प्रति समदृष्टि रखें तो इस शास्त्रोक्त बुद्धि का आश्रय लेने से उसे किसी प्रकार पाप का संसर्ग नहीं होता । 
शत्रुओं को अपने तेज और बुद्धि के बल से काबू में रखना चाहिये। पापियों के साथ कभी मेल नहीं करना चाहिये तथा अपने राज्य में पुण्यकर्मों का अनुष्ठान कराना चाहिये। शूरवीर, श्रेष्ठ, सत्कर्म करनेवाले विद्वान्, वेदपाठी, ब्राह्मण और धनवानों की विशेष रक्षा करनी चाहिये। जो बहुश्रुत हैं उन्हें धर्म कृत्यों में नियुक्त करना चाहिये तथा एक व्यक्ति में, चाहे वह कैसा भी गुणवान् हो कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, वइनयहईन है, मानी है, मान्य पुरुषों का सत्कार नहीं करता और गुणों में भी दोष दृष्टि करता है, वह पापी हो जाता है और लोक में उसे दुर्दांत ( क्रूर ) कहा जाता है। की बार प्रजा लोग जो राजा की ओर से सुरक्षित न होने के कारण अनावृष्टि आदि दैविक आपत्तियों से नष्ट हो जाते हैं तथा चोरों के उपद्रवादी से दु:ख पाते हैं, उसमें राजा ही दोष का भागी होता है। किन्तु पूरे_पूरे विचार और नीति के साथ सब प्रकार प्रयत्न करने पर भी यदि सफलता न मिले तो उस अवस्था में राजा को पाप नहीं होता। ' राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें हयग्रीव का प्रसंग सुनाया हूं। वह बड़ा शूरवीर और पवित्र कर्म करनेवाला था। उसने संग्राम में अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया था। परन्तु पीछे ना:सहाय हो जाने पर शत्रुओं ने उसे हराकर मार डाला। वह शत्रुओं का निग्रह और प्रजा का पालन करने में बड़ा ही कुशल था। इससे उसे बड़ी कीर्ति भी मिली थी। उसने विचारपूर्वक न्याय के अनुसार अपने राज्य का पालन किया, अहंकार को पास नहीं आने दिया और अनेकों यज्ञों का अनुष्ठान किया। इस प्रकार संपूर्ण लोकों को अपने सुयश से व्याप्त करके वह महात्मा स्वर्ग में सुख भोग रहा है। उसने यज्ञादि के अनुष्ठान से दैवी और दण्ड नीति से मानुष सिद्धि प्राप्त की थी तथा धर्मशास्त्र के अनुसार प्रजा का पालन किया था। वह बड़ा विद्वान, त्यागी, श्रद्धालु और कृतज्ञ था। इस लोक में उसने अनेकों पुण्यकर्म किये और फिर देह त्यागकर उन पुण्यलोकों को प्राप्त किया जो बड़े _बड़े मेधावी, विद्वान, माननीय और प्रयागराज तीर्थस्थानों में शरीर छोड़नेवालों को मिलते हैं।'




Saturday, 16 August 2025

महर्षि देवस्थान और अर्जुन का राजा युधिष्ठिर को समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! युधिष्ठिर की बात पूरी होने पर वहां बैठे देवस्थान नाम के एक तपस्वी ने ये युक्तियुक्त वचन कहने आरम्भ किये, 'अज्ञातशत्रो ! आपने धर्मानुसार ये सारी पृथ्वी जीती है। इसे आपको व्यर्थ ही नहीं त्याग देना चाहिये। राजन् ! ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और सन्यास_ये चारों आश्रम ब्रह्म को प्राप्त करने की चार सीढ़ियां हैं और इनका वेद में प्रतिपादन किया गया है। अतः: आपको इन्हें क्रम से ही पार करना चाहिये। आप अभी बड़ी_बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ कीजिये। स्वाध्याय यज्ञ तो ऋषिलोग किया करते हैं और कोई_कोई ज्ञानयज्ञ भी करते हैं । गृहस्थ तो यज्ञ के लिये ही संपूर्ण धन का संचय करते हैं। वे यदि अपने शरीर अथवा किसी अयोग्य कार्य के लिये उसका दुरुपयोग करते हैं तो भ्रूणहत्या_जैसे दोष के भागी बनते हैं। ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये ही धन की रचना की है और यज्ञ के लिये ही पुरुष को उसका रक्षक नियुक्त किया है। अतः यज्ञ के लिये सारा धन खर्च कर देना चाहिये। उसके बाद शीघ्र ही कामना की सिद्धि हो जाती है। राजन् ! अविक्षित के पुत्र राजा मरीच ने बड़ी धूमधाम से इन्द्र का यजन किया था। उनके यज्ञ में लक्ष्मी देवी स्वयं पधारी थीं और उनके सभी यज्ञपात्र सुवर्ण के थे। राजा हरिश्चन्द्र का‌नाम भी आपने सुना ही होगा। उन्होंने भी बड़ा धन खर्च करके इन्द्र का यजन किया था, उससे वे पुण्यों के भागी हुए और शोकरहित हो गये। इसलिये सारा धन यज्ञ में ही लगा देना चाहिये। "राजन् ! मनुष्य के मन में संतोष होना स्वर्ग से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष से बढ़कर संसार में कोई बात नहीं है। उसकी ठीक_ठीक स्थिति तभी होती है जब मनुष्य कछुआ जैसे अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार अपनी सब कामनाओं को सब ओर से समेट लेता है। उस समय तुरंत ही आत्मज्योति:स्वरूप परमात्मा अपने अंत:कर्ण में ही प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। जब मनुष्य किसी से भी भय नहीं मानता तो उससे भी किसी को कोई डर नहीं रहता। वह काम और द्वेष को जीत लेता है तथा आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है। 'कोई लोग तो शान्ति की प्रशंसा करते हैं और कोई उद्योग के गुण गाते हैं। कोई इनमें से प्रत्येक को ही अच्छा बताते हैं और कोई एक साथ ही दोनों को। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं और कोई एक साथ ही दोनों को। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं, कोई संन्यास को और कोई दान को। कोई सबकुछ छोड़कर चुपचाप भगवान् के ध्यान में मग्न रहते हैं और कोई राज्य पाकर प
राजा का पालन करते रहना ही अच्छा समझते हैं। किन्तु इन सब बातों पर विचार करके बुद्धिमानों ने तो यही निश्चय किया है कि किसी से द्रोह न करना, सत्य भाषण देना, दान देना, सबपर दया रखना, इन्द्रियों का दमन करना, अपनी ही स्त्री से पुत्रोंत्पति करना तथा मृदुता, लज्जा और अचंचलता_ये ही रवाना धर्म हैं तथा ऐसा ही स्वायंभुव मनु ने भी कहा है। राजन् ! आप भी प्रयत्न पूर्वक इसी धर्म का पालन करें। भूपति का यह धर्म है कि इन्द्रियों को सर्वदा अपने अधीन रखें, प्रिय और अप्रिय में समान रहे, यज्ञानुष्ठान से जो बचे उसी अन्न का सेवन करें, शास्त्र के रहस्य को जाने, दुष्टों का दमन करता रहे, साधुओं की रक्षा करें, प्रजा को धर्म मार्ग पर ले जाकर उसके साथ धर्मानुसार व्यवहार करें और अन्त में पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर वन में चला जाय। वहां भी वन के फल_मूलादि से निर्वाह करता हुआ आलस्य त्यागकर शास्त्रोक्त कर्मों का ही विधिपूर्वक आचरण करें। जो राजा इस प्रकार वर्ताव करता है, वहीं धर्म को जाननेवाला है। उसके इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं। इस प्रकार जो धर्म का अनुसरण करते थे, सत्य, दान और तप में लगे रहते थे, दया आदि गुणों से सम्पन्न थे, काम क्रोधादि दोषों से दूर रहते थे, सर्वदा प्रजापालन में तत्पर रहते थे, उत्तम धर्मों का आचरण करते थे और गौ एवं ब्राह्मणों की रक्षा के लिये युद्ध ठानते थे, ऐसे अनेकों राजा उत्तम गति को प्राप्त हो चुके हैं। इसी प्रकार रुद्र, वसु, आदित्य, साध्य और अनेकों राजर्षियों ने भी इसी धर्म का आश्रय लिया था तथा निरंतर सावधान रहकर अपने पवित्र कर्मों का आचरण करने से स्वर्ग प्राप्त किया था।' वैशम्पायनजी कहते हैं_जनमेजय ! इस प्रकार जब देवस्थान मुनि का भाषण समाप्त हुआ तो अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर से, जो अभी तक बहुत उदास थे, फिर कहा, 'राजन् ! आप धर्मज्ञ हैं, आपने क्षत्रिय_धर्म के अनुसार ही यह दुर्लभ राज्य प्राप्त किया है। फिर आप इतने दु:खी क्यों हैं ? महाराज ! आप क्षात्रधर्म का विचार कीजिये। क्षत्रिय के लिये तो धर्मयुद्ध में मर जाना अनेकों यज्ञों से भी बढ़कर है। तप और त्याग तो ब्राह्मणों केज्ञधम हैं। दूसरे के धन से अपना निर्वाह करना यह क्षत्रिय का धर्म नहीं है। आप तो सब धर्मों को जानते हैं, धर्मात्मा हैं, बुद्धिमान हैं, कार्यकुशल हैं और संसार में आगे_पीछे की सब बातों पर दृष्टि रखनेवाले हैं तथा अपने क्षात्रधर्म के अनुसार शत्रुओं को परास्त करके यह निष्कंटक राज्य प्राप्त किया है। अतः अब मन को वश में रखकर आप यज्ञ_ दानादि का अनुष्ठान कीजिये। देखिये, इन्द्र कश्यप ब्राह्मण का पुत्र था, परन्तु अपने कर्म से वह क्षत्रिय हो गया था। लोक में उसके इस कर्म को प्रशंसनीय ही माना गया है। अतः जो कुछ हो चुका है, उसके लिये आप शोक न करें। वे सब वीर तो क्षात्रधर्म के अनुसार शस्त्रों से मारे जाकर परम गति को ही प्राप्त हुए हैं।

Thursday, 31 July 2025

युधिष्ठिर द्वारा भीम को फटकार और मुनिवृति की प्रशंसा तथा अर्जुन का राजा जनक के दृष्टांत से उन्हें समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_भीमसें की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले_"भीम ! असंतोष, प्रमाद, मद, राग, अशांति, बल, मोह, अभिमान तथा उद्वेग_इन प्रबल पापों ने तुम्हारे मन को वशीभूत कर लिया है; इसीलिये तुम्हें राज्य की इच्छा होती है। भाई ! भोगों की आसक्ति छोड़ो और बन्धन मुक्त होकर शान्त और सुखी हो जाओ।आग कितनी ही धधकती क्यों न हो; उसमें ईंधन न डाला जाय तो अपने_आप शान्त हो जाती है।
इसी प्रकार तुम भी अपना आहार कम करके पेट की आग शान्त करो, यह आजकल बहुत बढ़ गयी है। पहले अपने पेट को जीतो; फिर ऐसा समझा जायगा इस जीती हुई पृथ्वी के द्वारा तुमने कल्याण पर विजय पायी है। भीम सेन ! तुम मनुष्यों के काम भोग तथा ऐश्वर्य की प्रशंसा करते हो; किन्तु जो भोगों से रहित और तुम्हारी अपेक्षा बहुत दुर्बल है, वे ऋषि_मुनि ही सर्वोच्च पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग पत्ते चबाते हैं, पत्थर पर पीसकर या दंतों से चबाकर ही खाते हैं; अथवा पानी और हवा पीकर ही रह जाते हैं, उन तपस्वियों ने ही नरक पर विजय पायी है। ( वहां तुम्हारे_जैसे वीरों की वीरता नहीं काम देती। ) एक ओर सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन करनेवाला राजा है और दूसरी ओर पत्थर और सोने को एक समझनेवाला मुनि। इन दोनों में मुनि ही कृतार्थ है राजा नहीं। अपने मनोरथ के पीछे बड़े_बड़े कार्यों का आरम्भ न करो। आशा तथा ममता ने रखो। इससे तुम्हें इहलोक और परलोक में भी शोकरहित स्थान प्राप्त होगा। जिन्होंने भोगों की आसक्ति छोड़ दी है, वे कभी शोक नहीं करते। फिर भी तुम क्यों भोगों की चिंता कर रहे ? यदि संपूर्ण भोगों का परित्याग कर दो तो मिथ्यावादी से छूट जाओगे। परलोक के दो मार्ग प्रसिद्ध हैं_पितृयान और देवयान। सकाम यज्ञ करनेवाले पितृयान से जाते हैं और मोक्ष के अधिकारी देवयान से। महर्षि गन तप, ब्रह्मचर्य तथा स्वाध्याय के बल पर ऐसे राज्य में पहुंच जाते हैं, जहां मृत्यु का प्रवेश नहीं है। राजा जनक समस्त द्वन्दों से रहित और जीवनमुक्त पुरुष थे, उन्हें मोक्षरूप आत्मा का साक्षात्कार हो गया था। पूर्वकाल में जो उन्होंने उद्गार प्रकट किया था, उसे लोग इस प्रकार बताते हैं _'दूसरों की दृष्टि में मेरे पास अनन्त धन है, परन्तु मेरा उसमें कुछ भी नहीं है। सारी मिथिला जल जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलेगा।' जो स्वयं द्रष्टा रूप से रहकर इस दृश्य_प्रपंच को देखता है, वहीं आंखवाला और वही बुद्धिमान हैं। अज्ञात तत्वों का ज्ञान एवं सभ्यक् बोध ( निश्चय ) करानेवाली वृत्ति को बुद्धि कहते हैं। जब मनुष्य भिन्न_भिन्न प्राणियों को एक ही परमात्मा में स्थित देखता है तथा उसु से सबका विस्तार हुआ मानता है, उस समय वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। बुद्धिमान और तपस्वी ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। जो जड़ और अज्ञानी हैं, जिनमें शुद्ध बुद्धि तथा तप का अभाव है, ऐसे लोगों की वहां पहुंच नहीं होती। वास्तव में सबकुछ बुद्धि में ही स्थित है।' यों कहकर राजा युधिष्ठिर चुप हो गये, तब अर्जुन ने फिर कहा 'महाराज ! जानकर लोग राजा जनक और उनकी स्त्री का संवादरूप  एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। राजा जनक ने राज वे यह परित्याग करके भीख मांगने का निश्चय किया था; उस समय उनकी रानी ने दु:खी होकर जो कुछ कहा था, वही आपको सुना रहा हूं।' 'कहते हैं, एक दिन राजा जनक पर मूढ़ता सवार हुई। वे धन, संतान, स्त्री, नाना प्रकार के रत्न तथा अग्निहोत्र का भी त्याग करके भिक्षुक के तरह मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहने लगे। स्वामी को इस अवस्था में देखकर रानी को बड़ा रंज हुआ, वे एकान्त में उनके पास जाकर बोलीं_'राजन् ! आपको भिक्षुक की भांति मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहना उचित नहीं है। आपकी यह प्रतिज्ञा और चेष्टा सब राजधर्म के विरुद्ध है। यह महान् राज्य छोड़कर यदि आप थोड़े_से अन्न में संतोष मानते हैं तो इतने से अतिथि, देवता, ऋषि और पितरों का भरण_पोषण कैसे किया जा सकता है ? मैं तो समझती हूं, आपका यह परिश्रम व्यर्थ है। आपने कर्मों को को त्यागा है; इसलिये देवता, अतिथि और पितरों ने भी आपका परित्याग कर दिया है। आपके रहते ही आपकी माता आज से पुत्रहीना हुई और यह अभागिनि कौसल्या भी पतिहीना।भला, कहिये तो,_ ये नाना प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण छोड़कर आप किसलिये संन्यासी हो रहे हैं ? क्यों निष्क्रिय जीवन व्यतीत करते हैं ? आप संपूर्ण भूतों के लिये प्याऊ के समान थे, सभी आपके यहां अपनी प्यास बुझाने आते थे। इसी तरह एक समय था, जब आप फलों से भरे हुए वृक्ष की भांति सब जीवों की भूख मिटयि करते थे; किन्तु अब मुट्ठीभर अन्न के लिये स्वयं ही दूसरों के सामने हाथ फैलायेंगे ! जब सबकुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौं के लिये दूसरों की पकऋपआ चाहते हैं, तो इस त्याग में और राज करने में अंतर ही क्या रहा ? दोनों एक_से ही तो हैं, फिर क्यों कष्ट उठा रहे है ? मुट्ठीभर जौं की आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सर्वत्याग की प्रतिज्ञा कहां रही ? 'महाराज ! यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो इस पृथ्वी का पालन कीजिये और राजमहल, शय्या, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणों को उपयोग में लाइये। जो बराबर दूसरों से दान देता है तथा जो निरंतर स्वयं ही दान करता रहता है, उन दोनों में क्या अन्तर है ? उनमें कौन_सा श्रेष्ठ है ? इसे आप समझिये। संसार में साधु_संतों को अन्न देनेवाले राजा की आवश्यकता है; यदि दान करनेवाला राजा ने रहे तो मोक्ष चाहनेवाले महात्माओं का जीवन_निर्वाह कैसे हो ? अन्न से ही प्राण की पुष्टि होती है, इसलिये अन्न देनेवाला प्राणदाता होता है। गृहस्थ आश्रम से अलग होकर भी त्यागी लोग गृहस्थों के सहारे ही जीवन धारण करते हैं। जो आसक्ति रहित और सब प्रकार के बंधन से मुक्त है, शत्रु और मित्र में समान भाव रखता है, वह किसी भी आश्रम में रहकर मुक्त ही है। बहुत _से लोग तो दिन लेने या पेट पालने के लिये मूंड़ मूड़ाकर गेड़ुए वस्त्र पहनकर घर से निकल जाते हैं, वे नाना प्रकार के बंधनों से बंधे होने के कारण भोगों की ही खोज में डोलते _फिरते हैं। हृदय का राग आदि दोष न दूर हुआ तो गेरुआ वस्त्र धारण करना विडम्बना मात्र है।
मेरा तो विश्वास है कि धर्म का ढोंग रचने वाले मथमुंडे अपनी जीविका चलाने के लिये ही ऐसा करते हैं। जो हो, आप तो साधु_महात्माओं का पालन_पोषण  करते हुए जितेन्द्रिय होकर पुण्यलोकों पर अधिकार प्राप्त कीजिये। जो प्रतिदिन गुरु के लिये समिधा लाता है अथवा निरंतर बहुत_सी दक्षिणाओं वाले यज्ञ करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा ?'
"( इस तरह रानी के समझाने से जनक ने संन्यास का विचार छोड़ दिया।) राजा जनक संसार में तत्ववेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं, किंतु उन्हें भी मोह हो गया था। उन्हीं की भांति आप भी मोह में न पड़िये। यदि हमलोग हमेशा दान और तप में तत्पर रहकर अपने धर्म का अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणों से सम्पन्न रहेंगे, काम क्रोधादि दोषों को त्याग देंगे तथा अच्छी तरह से दान देते हुए प्रजापालन में लगे रहेंगे तो गुरु और वृद्धजन की सेवा करते हुए हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार ब्राह्मण सेवी और सत्यभाषी होकर देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों की सेवा करते रहने में भी हमें अपना इष्ट स्थान प्राप्त हो जायगा। " राजा युधिष्ठिर ने कहा_भैया ! मैं धर्म का प्रतिपादन करनेवाले और पर तथा अपर ब्रह्म का निरुपण करनेवाले दोनों प्रकार के शास्त्र को जानता हूं तथा मुझे कर्मानुष्ठान और कर्म त्याग दोनों का प्रतिपादन करनेवाले वेद_वाक्यों का भी ज्ञान है। इसके सिवा परस्पर विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वाक्यों का भी मैंने युक्तिपूर्वक विचार किया है और उन वाक्यों का जो तात्पर्य है, उसे भी मैं विधिवत् जानता हूं। तुम तो केवल शस्त्रविद्या के ही जानकार हो और वीरों का धर्म पालन करते हो। शास्त्र के यथार्थ मर्म को तुम किसी प्रकार नहीं समझ सकते। जो लोग शास्त्र के सूक्ष्म रहस्य को जानते हैं और धर्म का निश्चय करने में कुशल हैं तुम्हारी तरह तो वे भी मुझे उपदेश नहीं दे सकते। तथापि भ्रातृस्नेहवशवश तुमने जो कुछ कहा है वह न्यायसंगत और उचित ही है, उससे अधिक न्यायसंगत और उचित ही है, उससे मुझे भी तुम्हारे प्रति प्रसन्नता ही हुई है। युद्ध के धर्मों में और संग्राम करने की कुशलता में तो तुम्हारे समान तो तीनों लोकों में भी कोई नहीं है। परन्तु जिन महानुभावों की बुद्धि परमार्थ में लगी हुई है, उनका विचार है कि तप और त्याग दोनों ही परस्पर एक_दूसरे से श्रेष्ठ हैं। अर्जुन ! तुम जो ऐसा समझते हो कि धन से बढ़कर कोई चीज ही नहीं है, सो ठीक नहीं है; वास्तव में धन का कोई महत्व नहीं है, यह बात जिस तरह से समझ में आ जाय वहीं तुम्हें बता रहा हूं। इस लोक में तप और स्वाध्याय में लगे हुए भी अनेकों धर्मनिष्ठ पुरुष दिखायी देते हैं। वे तपस्वी ऋषि ही हैं, जो अन्त में सनातन लोकों को प्राप्त करते हैं‌। अनेकों ऐसे भी अजातशत्रु धैर्यवान वनवासी हैं, जो वन में रहकर स्वाध्याय करते हुए स्वर्गलोक प्राप्त कर लेते हैं। कोई भद्रपुरुष इन्द्रियों को उनके शिष्यों से रोककर अविवेकजनित अज्ञान के मार्ग से छूटकर देवयान मार्ग के वाला त्यागियों का लोक प्राप्त कर लेते हैं और कोई तेजोमय दक्षिण मार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होते हैं। किन्तु मोक्षमार्गी पुरुषों की गति तो अनिवर्चनीय है। अतः योग ही सब साधनों में धान माना गया है। पर उसका स्वरूप जानना बहुत कठिन है। विद्वान लोग सार_असार वस्तु का विवेक करने की इच्छा से निरंतर शात्र का विचार करते रहते हैं और वे अपने स्वरूप में स्थित हुए यहीं मुक्त हो जाते हैं। वह आत्मतत्व अत्यंत सूक्ष्म है, नेत्र से उसे देखा नहीं जा सकता और वाणी से कहा नहीं जा सकता। जो बड़े युक्तिकुशल विद्वान हैं, वे भी इस आत्मतत्व के विषय में चक्कर में पड़ जाते हैं, साधारण जीवों की तो बात ही क्या है ? इसी प्रकार बड़े _बड़े बुद्धिमान, श्रोत्रिय और शास्त्रज्ञों के लिये भी यह अत्यंत दुर्विज्ञेय है। किन्तु अर्जुन ! तत्वज्ञलोग तो तप, ज्ञान और त्याग से  उस निय महान् सुख को प्राप्त कर लेते हैं।

Thursday, 3 July 2025

अर्जुन द्वारा दण्ड नीति का समर्थन और भीम का युधिष्ठिर को राज्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयास

वैशम्पायनजी कहते हैं_ द्रुपदकुमारी की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले अर्जुन फिर कहने लगे_"राजन् ! दण्ड ही समस्त प्रथाओं का शासन और उनकी रक्षा करता है, सबके सो जाने पर दण्ड जागता रहता है, इसलिये विद्वानों ने दण्ड को राजा का धर्म बताया है। दण्ड से ही धर्म, अर्थ और काम की रक्षा होती है; इसलिये दण्ड त्रिवर्ग कहलाता है। दण्ड ही धन और धान्य की रखवाली करता है, इसलिये आप दण्ड धारण कीजिये। संसार की ओर देखिये_ कितने ही पापी दण्ड के भय से पाप नहीं करते, दण्ड से ही सारी व्यवस्था ठीक _ठीक चलती है। बहुत_से मनुष्य दण्ड के डर से ही एक_दूसरे का सर्वनाश नहीं करते। यदि दण्ड सबकी रक्षा न करता तो संसार के प्राणी घोर अन्धकार में डूब जाते। यह उच्छृंखल मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है। इसलिये विद्वान पुरुष इसे 'दण्ड कहते हैं। यदि ब्राह्मण अपराध करें तो उसे वाणी से अपमानित करना ही उसका दण्ड है, क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकरयंक्ष सेवा लेना उसका दण्ड है; वैश्य का दण्ड उससे जुर्माना वसूल करना है; किन्तु शूद्र के लिये सेवा के अतिरिक्त दूसरा कोई दण्ड नहीं है, उससे दण्ड के रूप में काम ही लिया जाता है। मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और और उनके धन की रक्षा के लिये जो एक मर्यादा बांधी गयी है, उसी को दण्ड कहते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यासी _ये सब दण्ड के भय से अपने_अपने मार्ग पर स्थित रहते हैं। बिना भय के न कोई यज्ञ करता है, न दान देता है और न प्रतिज्ञा_पालन पर ही दृढ़ रहना चाहता है। "रुद्र, कार्तिकेय, इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, रवि, बसु, साध्य तथा विश्वेदेव_ ये सभी देवता दण्ड देनेवाले हैं; अतः: इनके प्रताप के सामने माथा टेककर ब लोग इन्हें प्रणाम करते हैं, सभी इनकी पूजा करते हैं। मैं संसार में क्षकिसी को ऐसा नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता है; क्योंकि प्रत्येक क्रिया में कुछ_न_कुछ हिंसा का संबंध हो ही जाता है। ) जो विधाता का विधान है, उसमें विद्वान पुरुष को मोह नहीं होता। महाराज ! जिस जाति में आपका जन्म हुआ है, उसी के अनुसार आपको वर्ताव करना चाहिये। पानी में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत _से कीड़े होते हैं; कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इनकी हिंसा से सर्वथा बचा रहता हो। परंतु इसे जीवन_निर्वाह के सिवा और क्या कहां जा सकता है ? कितने ऐसे सूक्ष्म कीटाणु होते हैं, जिनका अनुमान से ही पता लगता है । मनुष्यों के पलक गिरने मात्र से उनके कंधे टूट जाते हैं। अतः ऐसे जीवों की हिंसा से कहां तक बचाव हो सकता है ?"
"जबसे जगत् में दण्ड नीति का प्रचार हुआ है, तबसे संपूर्ण प्राणियों के सभी कार्य सुचारु रूप से होने लगे हैं। संसार में भले_बुरे का विचार करनेवाला दण्ड यदि न होता तो सब जगह अंधेर मचा रहता, किसी को कुछ भी सूझ न पड़ता। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निंदा करनेवाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर जल्दी राह पर आ जाते हैं। दुनिया में सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है, सब दण्ड से विवश होकर ही ठीक रास्ते पर रहते हैं। दण्ड के भय से ही लोगों की मर्यादा _पालन में प्रवृति होती है। चारों वर्णों के लोग आनन्द से रहें, सबमें अच्छी नीति का वर्ताव हो और पृथ्वी पर धर्म तथा अर्थ की रक्षा रहे _इस उद्देश्य से ही विधाता ने दण्ड का विधान किया है। यदि पक्षी तथा हिंसक जीव दण्ड से डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों तथा यज्ञ के लिये रखें हुए हविष्यों को भी खा जाते। चारों ओर धर्म-कर्म ओं का लोप हो जाता और सारी मर्यादाएं टूट जातीं। इतना ही नहीं, जिनमें विधिपूर्वक बड़ी_बड़ी दक्षिणाए़ दी जाती हैं, वे संवत्सर यज्ञ भी बेखटके नहीं होने पाते। आश्रम_धर्म का ठीक_ठीक पालन नहीं होता और कोई भी विद्या नहीं पढ़ पाता। डंडे पड़ने का डर न होता तो रथों में जुते हुए ऊंट, बैल, घोड़े, खच्चर तथा गदहे उन्हें खींचते ही नहीं। सेवक अपने स्वामी का तथा बालक माता_पिता का कहना नहीं मानते और युवती स्त्री अपने सती धर्म पर स्थिर नहीं रहती। दण्ड पर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्ड से ही भय होता है, मनुष्यों का इहलोक और परलोक दण्ड पर ही प्रतिष्ठित है जहां दण्ड देने का सुंदर विधान है, वहां छल, पाप और ठगी नहीं देखने में आती। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के सब कार्य धन के अधीन है, परन्तु धन दण्ड के अधीन है। देखिये, दण्ड की कितनी महिमा है। "लोक_यात्रा का निर्वाह करने के लिये धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें सब_के_सब गुण ही हों अथवा जो सर्वथा गुणों से वंचित ही हो। प्रत्येक कार्य में अच्छाई और बुराई दोनों ही देखने में आती है। इन सब बातों का विचार करके आप भी प्राचीन धर्म का पालन कीजिये। यज्ञ कीजिये, दान दीजिये तथा प्रजा एवं मित्रों की रक्षा कीजिये।" अर्जुन की बात समाप्त होने पर भीमसेन कहने लगे_"राजन् ! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं, आपसे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैंने की बार निश्चय किया कि 'न बोलूं, न बोलूं, मगर अधिक दु:ख होने के कारण बोलना ही पड़ता है। आपका यह अत्यन्त मोह देखकर हमलोग विकल और निर्बल हो रहे हैं। आप संसार की गति और अगति दोनों जानते हैं, भविष्य और वर्तमान में भी आपसे कुछ छिपा नहीं है। ऐसी स्थिति में भी आपको राज्य के प्रति आकृष्ट करने का जो कारण है, उसे बता रहा हूं; ध्यान देकर सुनें।
मनुष्य की दो प्रकार की व्याधियां होती हैं; एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनो की उत्पत्ति अन्योनाश्रित है। एक के बिना दूसरी का होना संभव नहीं है। कभी शारीरिक व्याधि से मानसिक व्याधि होती है, कभी मानसिक व्याधि से शारीरिक व्याधि। जो मनुष्य बीते हुए शारीरिक अथवा मानसिक दु:ख के लिये शोक करता है, वह एक दु:ख से दूसरे दु:ख को प्राप्त होता है। उसे दोनों प्रकार के अनर्थों से कभी छुटकारा नहीं मिलता। "इसलिये जैसे भीष्म और द्रोण के साथ आपका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार अपने मन के साथ भी आपको लड़ना चाहिये। उसका समय अब आ गया है। इस युद्ध में न बाणों का काम है, न मित्र और बन्धुओं की सहायता का। अकेले आपको लड़ना है। मन को जीते बिना आपकी क्या दशा होगी, मैं कह नहीं सकता। हां, उसे जीतकर आप अवश्य कृतार्थ हो जायेंगे। प्राणियों के आवागमन का विचार कर अपनी बुद्धि को स्थिर कीजिये और बाप_दादों का राज्य चलाइये। सौभाग्य की बात है कि पापी दुर्योधन सेवकों सहित मारा गया; अब आप अश्वमेध यज्ञ करके विधिपूर्वक दक्षिणा दीजिये। हम सब लोग आपके दास हैं।








Wednesday, 25 June 2025

युधिष्ठिर को नकुल, सहदेव तथा द्रौपदी को समझाना

अर्जुन का बात समाप्त होने पर नकुल ने भी उन्हीं का अनुमोदन करते हुए राजा युधिष्ठिर सेश् कहा_'राजन् ! विशाखनृप नामक क्षेत्र में संपूर्ण 
देवताओं द्वारा की हुई अग्नि स्थापना के चिह्न मौजूद हैं; इससे आपको समझना चाहिए कि देवता भी वैदिक कर्मों और उनके फलों में विश्वास करते हैं। जो वेदों की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं; उन्हें तो महान् नास्तिक मानना चाहिए। वैदिक कर्मों का परित्याग करके कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता है। वेदवेत्ता विद्वान कहते हैं _यह गृहस्थाश्रम सब आश्रमों में श्रेष्ठ है। श्रोत्रिय ब्राह्मणों की राय भी सुन लीजिये _'जो धर्मपूर्वक उपार्जन किये हुये धन का यज्ञादि कर्मों में उपयोग करता है, वह शुद्ध आत्मा मनुष्य ही त्यागी है।'जिनका कोई घर_बार नहीं, जो इधर_उधर विचरते और मौन रहकर वृक्ष के नीचे सो रहते हैं, जो कभी रसोई नहीं बनाते और मन तथा इन्द्रियों को वश में रखते हैं, ऐसे त्यागियों को भिक्षु ( संन्यासी ) कहते हैं। जो ब्राह्मण क्रोध और हर्ष नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता तथा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करता है, वह त्यागी कहलाता है। एक दिन महर्षियों ने चारों आश्रमों को विवेक के तराजू पर तौला; तीन आश्रम एक ओर थे और अकेला गृहस्थाश्रम दूसरी ओर। किन्तु वह विचार से उन तीनों की अपेक्षा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। तब से उन्होंने निश्चय किया कि यही मुनियों का मार्ग है, यही लोक वेत्ताओं की गति है। जो ऐसी भावना रखता है, वह भी त्यागी है। घर छोड़कर जंगल में चले जाने से कोई त्यागी नहीं होता। जंगल में जाकर भी जिसके हृदय में कामना जाग्रति होती है, उसके गले में यमराज मौत का फंदा डाल देते हैं; शम, दम, धैर्य, सत्य शौच, सरलता, यज्ञ धारणा तथा धर्म_इन सबका ही निरंतर पालन ऋषियों के लिये बताया गया है। पितरों, देवताओं और अतिथियों का पोषण तो गृहस्थाश्रम में ही होता है। केवल इसी आश्रम में धर्म, अर्थ और काम _ये तीन पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। यहां रहकर वेदविहित विधि का पालन करने वाले त्यागी का कभी विनाश नहीं होता_वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं होता। कुछ ऋषि सद्ग्रंथों का स्वाध्यायरूप यज्ञ करनेवाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यानरूप महान् यज्ञ का विस्तार करते हैं। चित्त को एकाग्र करनारूप जो साधन_मार्ग है, उसका आश्रय देनेवाला द्विज ब्रह्मभूत हो जाता है, देवता भी उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं। जिसपर कुटुम्ब का भार हो, उस राजा के लिये गृह_त्याग का विधान नहीं देखने में आता। उसे तो राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध या और कोई शास्त्रीय यज्ञ करके उसमें धन का दान करना चाहिए। राजा के प्रमाद से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे कलियुग का मूर्तिमान स्वरूप ही समझना चाहिए। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजा पाप के भागी होते हैं; उन्हें दु:ख_ही_दु:ख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नसीब नहीं होता। भीतर और बाहर जो कुछ भी मन को फंसानेवाली चीजें हैं उन्हें छोड़ने से मनुष्य त्यागी बनता है, सिर्फ घर छोड़ देने से त्याग की सिद्धि नहीं होती। जो शास्त्रीय विधान में सदा लगा रहता है, उसकी कभी हानि नहीं होती। महाराज ! पूर्ववर्ती राजाओं ने जिसका सेवन किया है, उस स्वधर्म में स्थित रहकर शत्रुओं पर विजय पाने के पश्चात् भला, आपके सिवा दूसरा कौन शोक करेगा ?' तदनन्तर सहदेव ने कहा_'भारत ! केवल बाहर के पदार्थों का त्याग करने से सिद्धि नहीं मिलती।
शरीर से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को छोड़ देने से भी सिद्धि मिलती है कि नहीं, इसमें संदेह है। टफबाहरी पदार्थों का त्याग करके दैहिक सुख_भोगों में आसक्त रहनेवाले को जिस धर्म अथवा सुख की प्राप्ति होती है, वह हमारे हितैषी मित्रों को मिले। दो अक्षरों का 'मम' ( यह मेरा है_ऐसा भाव ) मृत्यु है और तीन अक्षरों का 'न मम' ( यह मेरा नहीं है_ऐसा भाव ) अमृत सनातन ब्रह्म है। महाराज ! यदि जीव नित्य है, इसका अविनाशी होना निश्चित है, तो प्राणियों का शरीर_मात्र वध करने मात्र से वास्तव में उनकी हिंसा नहीं होगी। इसके विपरीत यदि शरीर के साथ ही जीव की उत्पत्ति या उसके नष्ट होने के साथ ही जीव का भी नाश माना जाय, तब तो सारा वैदिक कर्म मार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा। इसलिये  विज्ञ पुरुष को एकांत में रहने का विचार छोड़कर पूर्वपुरुषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है, उसी का आश्रय लेना चाहिए। राजन् ! वन में रहकर वहां के फल_फूलों से जीविका चलाता हुआ भी जो द्रव्यों में ममता रखता है, वह मौत के मुंह में हैं। प्राणियों का बाह्य स्वरूप कुछ और होता है और आन्तरिक स्वरूप कुछ और ; आप उसपर गौर कीजिये। जो सबके भीतर विराजमान आत्मा को देखते हैं, वे ही महान् भय से छुटकारा पाते हैं। आप मेरे पिता, माता, भाई तथा गुरु_ सब कुछ हैं। मैं आर्त हूं इसलिये दु:ख में न जाने क्या_क्या प्रलाप कर गया हूं; आप उसे क्षमा करें। मैंने झूठा_सच्चा जो भी कहा है, वह आपके चरणों में भक्ति होने के कारण ही कहा है।' वैशम्पायनजी कहते हैं_इस प्रकार अपने भाइयों के मुख से वेद के सिद्धांतों को सुनकर भी जब युधिष्ठिर चुप ही रह गये तो धर्म को जाननेवाले द्रौपदी उनकी ओर देखकर उन्हें मधुर वचनों से समझाती हुई कहने लगी_"महाराज ! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं, पपीहे की तरह रट लगा रहे हैं। फिर भी आप अपनी बातों से इन्हें प्रसन्न नहीं करते। क्यों ? ये सदा आपके लिये दु:ख_ही_दु:ख उठाते आये हैं ? अब तो इन्हें उचित बातें सुनाकर आनंदित कीजिये। आपको याद होगा, जब द्वैतवन में ये सभी भाई आपके साथ सर्दी _गर्मी और आंधी पानी का कष्ट भोग रहे थे। उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुए कहा था_'बन्धुओं ! हमलोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर इस संपूर्ण पृथ्वी का राज भोगेंगे। उस समय बड़े _बड़े यज्ञ करके पर्याप्त दान_दक्षिणा बांटते रहने से तुम्हारा वनवास का यह दु:ख सुख के रूप में परिणत हो जायगा।' धर्मराज ! यदि यही करना था, तो उस समय आपने वैसी बातें क्यों कहीं ? जब स्वयं उपर्युक्त बातें कहकर हौसला बढ़ाया, तो अब क्यों आप हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं ? आपको दण्ड आदि के द्वारा इस पृथ्वी का पालन करना चाहिये; क्योंकि दण्ड न देनेवाले क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देनेवाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता तथा उसकी प्रजा को भी सुख नहीं मिलता। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरुषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीछे पीठ न दिखावे। 'जो अवसर देखकर क्षमा भी करता है और क्रोध भी, दान देता और कर लेता है, शत्रुओं को भय दिखाता र शरणागतों को निर्भय बनाता है तथा दुष्टों को दण्ड देता और दिनों पर अनुग्रह करता है, वह राजा धर्मात्मा कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्र सुनाने से मिली है, न दान में; न किसी को समझा_बुझाकर इसे हड़प लिया है, न यज्ञ में प्राप्त किया है और न भीख मांगकर ही पाया है। आपने तो शत्रुओं की प्रबल सेना का संहार करके इसपर विजय पायी है, इसलिये आप इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। महाराज! अनेकों देशों में एक संपूर्ण जम्मूद्वीप पर आपने कर लगाया; जम्मूद्वीप के समान ही जो मेरुगिरि के पश्चिम क्रौंचद्वीप है, उसपर अधिकार जमाया, मेरी से पूर्व दिशा में क्रौंचद्वीप के समान ही जो शाकद्वीप है, उसपर भी कर लगाया तथा मेरी से उत्तर ओर जो शाकद्वीप के समान ही भद्राद्वीप है, उसके उपर भी शासन किया है। इनके अतिरिक्त जो भी बहुत _से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तर्द्वीप हैं, समुद्र लांघकर उनपर भी आपने अधिकार प्राप्त किया। भाइयों की सहायता से ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी आप प्रसन्न क्यों नहीं होते ? मेरे अनुरोध से आप इन भाइयों का अभिनन्दन कीजिये। "महाराज ! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोलीं, वे सर्वज्ञ हैं और सबकुछ उनकी दृष्टि के सामने है उन्होंने मुझसे कहा था 'पांचालकुमारी ! राजा युधिष्ठिर बड़े पराक्रमी हैं, ये हजारों राजाओं का संहार करके तुम्हें बड़े सुख से रखेंगे।' किन्तु आज आपका मोह देखकर उनकी बात भी व्यर।था होती दिखाई देती है। जब जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, तो छोटे भाई भी उसी का अनुसरन करने लगते हैं। आपके उन्माद से सब पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं। जो उन्नमत्तता का काम करता है, उसका कभी भला नहीं होता; उन्नमआर्ग से चलनेवाले की तो दवा करानी चाहिये। मैं ही संसार की समस्त स्त्रियों में नीच हूं, जो बेटों के मारे जाने पर भी जीवित रहना चाहती हूं। ये सब लोग समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, फिर भी आप मानते नहीं। मैं सच कहती हूं, आप संपूर्ण पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं विपत्ति बुला रहे हैं। महाराज ! आप मान्धाता और अम्बरीष के समान तेजस्वी हैं; संपूर्ण प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए, पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित इस पृथ्वी का शासन कीजिये। उदास न होइये। नाना प्रकार के यज्ञ करके ब्राह्मणों को दान दीजिये।"

Saturday, 24 May 2025

युधिष्ठिर का वनवासी, मुनि एवं संन्यासी होने का विचार तथा भीम और अर्जुन द्वारा उसका विरोध

युधिष्ठिर ने कहा_'अर्जुन ! थोड़ी देर तक मन को एकाग्र करके मेरी बात सुनो और उसपर विचार करो; फिर तुम भी मेरे कथन का अनुमोदन करोगे। क्या तुम्हारे कहने से मैं उस मार्ग पर न चलूं, जिसपर श्रेष्ठ पुरुष सदा ही चलते आये हैं ? नहीं, मुझसे यह न होगा ; मैं तो सांसारिक सुखों पर लात मारकर अवश्य उसी मार्ग पर चलूंगा और वन में फल_मूल खाकर कठोर तपस्या करूंगा। सवेरे तथा सायंकाल में स्नान करके विधिवत् अग्नि में आहुति डालूंगा और शरीर पर मृगछाला तथा बल्कि वस्त्र धारण कर मस्तक पर जटा रखूंगा। सर्दी_गर्मी, हवा तथा भूख_प्यास का कष्ट सहन करूंगा और शास्त्रोक्त विधि से तप करके अपने शरीर को सुखा डालूंगा। एकान्त में रहकर तत्व का विचार करूंगा और कच्चा_पक्का_जैसा भी फल मिल जायगा, उसी को खाकर जीवन_निर्वाह करूंगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के कठोर_से_कठोर नियमों का पालन करके इस शरीर की आयु समाप्त होने की बाट देखता रहूंगा। अथवा मुनिवृति से रहता हुआ मस्तक मुड़ा लूंगा और एक_एक दिन एक_एक वृक्ष से भिक्षा मांगकर देह को दुर्बल कर डालूंगा। प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर पेड़ के नीचे ही निवास करूंगा। किसी के लिये न शोक करूंगा न हर्ष । निंदा तथा स्तुति को समान समझूंगा। आशा और ममता को धो बहाकर निर्द्वन्द हो जाउंगा। कभी किसी भी वस्तु का संग्रह न करूंगा। आत्मा में ही रमण करता हुआ सदा प्रसन्न रहूंगा। दूसरों से कोई भी बात नहीं करूंगा तथा अंधों, गूंगों और बहरों की तरह विचरता रहूंगा। चर और अचर रूप में जो चार प्रकार के जीव हैं, उनमें से किसी की भी हिंसा नहीं करूंगा। सब प्राणियों पर मेरी समान वृद्धि होगी, न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा, न किसी को देखकर भौंहें टेढ़ी करूंगा। चेहरे पर सदा प्रसन्नता छायी रहेगी, सब इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में रखूंगा। कोई भी राह पकड़कर आगे बढ़ता रहूंगा, किसी से रास्ता नहीं पूछूंगा। किसी खास देश या दिशा में जाने की इच्छा न रखूंगा। यात्रा का कोई विशेष उद्देश्य न होगा; न आगे की उत्सुकता होगी न पीछे फिरकर देखूंगा।
चित्त में कोई भी विकार नहीं रहेगा, अन्तरात्मा पर दृष्टि रखूंगा और देहाभिमान से रहित हो जाऊंगा। भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन _इसका विचार नहीं करूंगा। एक घर से भिक्षा न मिली तो दूसरे घर से मांगूंगा, वहां भी न मिलने पर तीसरे घर से। इस प्रकार न मिलने की दशा में सात घरों तक मांगूंगा, आंठवएं पर नहीं जाऊंगा।जब घरों में धुआं निकलना बन्द हो गया हो, अंगारे बुझ गये हों, सब लोग खा_पी चुके हों, परोसी हुई थाली का इधर_उधर ले जाने का काम समाप्त हो गया हो, भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय में मैं एक ही समय भिक्षा के लिये जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बंधन तोड़कर पृथ्वी पर विचरता रहूंगा। न जीवन से राग होगा न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बांह बंसुले से काटता है और दूसरा दूसरी बांह पर चंदन चढ़ाता है तो मैं उन दोनों पर समान भाव ही रखूंगा। न एक का मंगल चाहूंगा न दूसरे का अमंगल। केवल शरीर निर्वाह के लिये पलकों के खोलने _मीचने तथा खाने_पीने आदि का कार्य करूंगा, परन्तु इसमें भी आसक्ति नहीं रखूंगा। संपूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन के संकल्प को अपने अधीन रखूंगा। बुद्धि के मल का परिमार्जन करके सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहूंगा। इस प्रकार वीतराग होकर विचरने से मुझे अक्षय शान्ति मिलेगी। इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं के आक्रमण होता ही रहता है; जिसके कारण यहां का जीवन कभी स्वस्थ नहीं रहता। इस अपार_सा संसार का तो त्यागने में ही सुख है।आज बहुत दिनों बाद मुझे विशुद्ध विवेकरूपी अमृत प्राप्त हुआ है; इसके द्वारा मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन स्थान को प्राप्त करना चाहता हूं। अतः उपर्युक्त धारणा के द्वारा निरंतर विचरता हुआ मैं जन्म, मृत्यु, व्याधि और वेदनाओं से भरे हुए इस शरीर का अन्त करके निर्भय पद को प्राप्त हो जाऊंगा।
यह सुनकर भीमसेन बोले_राजन् ! जब आपने राजधर्म की निंदा करके आलस्यपूर्ण जीवन करने का ही निश्चय कर रखा था तो बेचारे कौरवों का नाश कराने से क्या लाभ था ? आपका यह विचार यदि पहले ही मालूम हो गया होता तो हमलोग न हथियार उठाते, न किसी का वध करते। आपकी ही तरह शरीर त्यागने का संकल्प लेकर हम भी भीख ही मांगते। ऐसा करने से राजाओं के साथ यह भयंकर संग्राम तो नहीं होता। बुद्धिमान पुरुषों ने क्षत्रियों का यह धर।म बताया है कि ये राज्य पर अधिकार जमावें और यदि उसमें कुछ लोग बाधा उपस्थित करें तो उन्हें मार डालें। दुष्ट कौरव भी हमारे लिये राज्य_प्राप्ति में बाधक थे, इसीलिये हमने उनका वध किया है, अब आप धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। अन्यथा हमलोगों का सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जायगा; जैसे कोई मनुष्य मन में किसी तरह की आशा रखकर बहुत बड़ी मंजिल तय कर लें और वहां पहुंचकने पर उसे निराश होकर लौटना पड़े, यही दशा हमलोगों की भी होगी। आप जिस संन्यास की बात सोचते हैं, उसका यह समय नहीं है। जिनकी विचारदृष्टि सूक्ष्म है, वे बुद्धिमान पुरुष ऐसे अवसर पर त्याग की प्रशंसा नहीं करते, वे तो इसे स्वधर्म का उल्लंघन समझते हैं। जो पुत्र _पौत्र के पालन में असमर्थ हो, देवता, ऋषि और पितरों का तर्पण न कर सके और अतिथियों को भोजन देने की शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य जंगलों में जाकर मौज से अकेला जीवन व्यतीत कर सकता है।आप जैसे शक्तिशाली पुरुषों का यह काम नहीं है। राजा को तो कर्म करना ही चाहिये; जो कर्मों को छोड़ बैठता है उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती। 
तत्पश्चात् अर्जुन ने कहा_महाराज ! इसी विषय में एक बार तपस्वियों के साथ इन्द्र का संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास में आपको सुनाता हूं। एक समय की बात है, कुछ कुलीन ब्राह्मण बालक_जो अभी बहुत नादान थे, जिन्हें मूंछ तक नहीं आयी थी_घर_बार छोड़कर जंगल में चले आये, संन्यासी बन गये। इसी को धर्म मानकर वे प्रसन्न थे। भाई_बन्धु और मां_बाप की सेवा से मुंह मोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने लगे। एक दिन उनपर इन्द्र देव की कृपा हुई। वे सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके उनके पास गये और उन्हें सुनाकर कहने लगे_'यज्ञशिष्ठ अन्न भोजन करनेवाले महात्माओं ने जो कर्म किया है; वह दूसरे मनुष्यों से होना कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। उनका मनोरथ सफल हुआ और वे धर्मात्मा पुरुष उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं।' ऋषियों ने कहा_वाह ! यह पक्षी यज्ञशइष्ठ अन्न भोजन करनेवालों की प्रशंसा करता है, यह तो हमलोगों की ही प्रशंसा हुई; क्योंकि हमलोग ही यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं। पक्षी ने कहा_अरे ! मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं करता। तुम तो जूठा खानेवाले और मूर्ख हो, पाप_पंक में फंसे हुए हो। यज्ञशिष्ट अन्न खानेवाले तो दूसरे ही होते हैं। ऋषियों ने कहा_पक्षी ! यह बड़ा कल्याणकारी साधन है_ऐसा समझकर ही हम इस मार्गं का अवलम्ब किये बैठे हैं। अब तुम्हारी बात सुनकर तुमपर हमारी श्रद्धा हुई है, अतः: जो अत्यन्त कल्याण करनेवाला साधन हो, वहीं हमें बताओ। पक्षी ने कहा_यदि तुम्हारा मुझपर विश्वास है तो मैं यथार्थ बात बताता हूं, सुनो। चौपायों में गौ, धातुओं में सोना, शब्दों में प्रणव आदि मंत्र और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण के लिये जातकर्म आदि संस्कार शास्त्रविहित है; ब्राह्मण जबतक जीवित रहे, समय_समय पर उसका संस्कार होता रहना चाहिये। मरने के पश्चात् भी उसका श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि_संस्कार तथा घर पर श्राद्ध आदि वेद_विधि के अनुसार होना उचित है। वेदोक्त यज्ञ_यागादि कर्म ही उसके लिये स्वर्ग में पहुंचाने वाले उत्तम मार्ग हैं। वैदिक कर्म ही सिद्धि का क्षेत्र है सभी प्राणी इसकी इच्छा रखते हैं। जहां इन कर्मों का विधिवत् संपादन होता है, वह गृहस्थ_आश्रम ही सबसे बड़ा आश्रम है। जो कर्म की निंदा करते हैं, उन्हें कुमार्गगामी समझना चाहिये। उन्हें बड़ा पाप लगता है। देव यज्ञ, पितृ यज्ञ और ब्रह्मयज्ञ_ ये ही तीन सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग कर और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथ का आश्रय लेनेवाले हैं। हवन के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों को और श्राद्ध द्वारा पितरों को तृप्त करना_यह सनातन धर्म है; इसका पालन करते हुए गुरुजनों की सेवा करना ही कठोर तप है। इस दुष्कर तपस्या को करके ही देवताओं ने बहुत बड़ी विभूति पायी है। जिनकी किसी के प्रति इर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्दों से रहित हैं, ऐसे ब्राह्मण इसी को तप मानते हैं। संसार में व्रत को ही तप कहते हैं, किन्तु वह इसकी अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। जो यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं, उन्हें अविनाशी पद की प्राप्ति होती है। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा परिवार के अन्य लोगों को अन्न देकर जो स्वयं सबसे पीछे खाते हैं, वे ही यज्ञशिष्ट भोजन करनेवाले कहे गये हैं। अपने धर्म पर आरूढ़ होकर सुन्दर व्रत का पालन और सत्य_भाषण करते हुए वे इस जगत् के गुरु समझे जाते हैं।