Wednesday 24 April 2024

अश्वत्थामा द्वारा पाण्डव और पांचाल वीरों का संहार

संजय कहते हैं_राजन् ! अब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने शिविर में प्रवेश किया तथा कृपाचार्य और कृतवर्मा दरवाजे पर खड़े हो गये। उन्हें अपना साथ देने के लिए तैयार देखकर अश्वत्थामा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनसे धीरे-से कहा, 'आप दोनों यदि तैयार हो जायं तो सभी क्षत्रियों का संहार कर सकते हैं, फिर निद्रा में पड़े हुए इन बचे_खुचे योद्धाओं की तो बात ही क्या है ? मैं शिविर के भीतर जाऊंगा और काल के समान मार_काट मचा दूंगा। आप लोग ऐसा करें, जिससे कोई भी आपके हाथों से जीवित बचकर न जा सके।'ऐसा कहकर द्रोणपुत्र पाण्डवों के उस विशाल शिविर में द्वार से न जाकर बीच ही से घुस गया।उसे अपने लक्ष्य धृष्टद्युम्न के तंबू का पता था, इसलिये वह चुपचाप वहीं पहुंच गया। वहां उसने देखा कि सब योद्धा थक जाने के कारण अचेत होकर सोये पड़े हैं। उनके पास ही एक रेशमी शय्या पर उसे धृष्टद्युम्न सोता दिखाई दिया। तब अश्वत्थामा ने उसे पैर से ठुकराकर जगाया। पैर लगते ही रणोन्मत्त धृष्टद्युम्न जग पड़ा और महारथी अश्वत्थामा को आया देख ज्योंहि वह पलंग से उठने लगा कि उस वीर ने उसके बाल पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया।इस समय धृष्टद्युम्न भय और निद्रा से दबा हुआ था, साथ ही अश्वत्थामा ने उसे जोर की पटक भी लगायी थी; इसलिये वह निरुपाय हो गया। अश्वत्थामा ने उसकी छाती और गले पर दोनों घुटने टेक दिये। धृष्टद्युम्न बहुतेरा चिल्लाया और छटपटाया, किन्तु अश्वत्थामा उसे पशु की तरह पीटता रहा। अंत में उसने अश्वत्थामा को नखों से बकोटते हुए लड़खड़ाती जबान में कहा, 'आचार्यपुत्र ! व्यर्थ देरी मत करो, मुझे हथियार से मार डालो।' उसने इतना कहा ही था कि अश्वत्थामा ने उसे जोर से दबाया और उसकी अस्पष्ट वाणी सुनकर कहा, 'रे कुलकलंक ! अपने आचार्य की हत्या करनेवाले को पुण्य लोक नहीं मिल सकते। इसलिये तुझे शस्त्र से मारना उचित नहीं है।'ऐसा कहकर कुपित होकर उसने अपने पैरों की चोट से धृष्टद्युम्न के मर्मस्थानों पर प्रहार किया। इस समय धृष्टद्युम्न की चइल्लआहट से घर की स्त्रियां और रखवाले भी जग पड़े। उन्होंने एक अलौकिक पराक्रम वाले पुरुष को प्रहार करते देखकर उसे कोई भूत समझा। इसलिये भय के कारण उनमें से कोई भी बोल न सका।अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को इसी प्रकार पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला। इसके बाद वह उस तंबू से बाहर आया और रथ पर चढ़कर सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा। पांचाल राज धृष्टद्युम्न को मरा देखकर उसकी रानियां और रखवाले शोकाकुल होकर विलाप करने लगे। उनके कोलाहल से आसपास के क्षत्रिय वीर चौंककर कहने लगे, 'क्या हुआ ?' क्या हुआ ?' तब स्त्रियों ने बड़ी दीन वाणी से कहा, 'अरे ! जल्दी दौड़ो ! जल्दी दौड़ो! हमारी तो समझ में नहीं आता यह कोई राक्षस है या मनुष्य है। देखो, इसने पांचाल राज को मार डाला और अब इधर_उधर घूम रहा है।' यह सुनकर उन योद्धाओं ने एक साथ अश्वत्थामा को घेर लिया। किन्तु पास आते ही अश्वत्थामा ने उन्हें रुद्रास्त्र से मार डाला।इसके बाद उसने बराबर के तंबू में उत्तमौजा को पलंग पर सोते देखा। उसके भी कंठ और छाती को उसने पैरों से दबा लिया। उत्तमौजा चिल्लाने लगा किन्तु अश्वत्थामा ने उसे पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला। युधामन्यु ने समझा कि उत्तमौजा को किसी राक्षस ने मारा है। इसलिये वह गदा लेकर दौड़ा और उससे अश्वत्थामा की छाती पर चोट की। अश्वत्थामा ने लपककर उसे पकड़ लिया और फिर पृथ्वी पर पटक दिया। युधामन्यु ने छूटने के लिये बहुतेरे हाथ_पैर पटके, किन्तु अश्वत्थामा ने उसे भी पशु की तरह मार डाला।
इसी प्रकार उसने नींद में पड़े हुए अन्य महारथियों पर भी आक्रमण किया। वे सब भय से कांपने लगे , किन्तु अश्वत्थामा ने उन सभी को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। शिविर के विभिन्न भागों में उसने मध्यम श्रेणी के सैनिकों को भी निद्रा में बेहोश देखा और उन सबको भी एक क्षण में ही तलवार से तहस_नहस कर डाला। इसी तरह अनेकों योद्धा, घोड़े और हाथियों को उस तलवार की भेंट चढ़ा दिया। इससे उसका सारा शरीर खून में लथपथ हो गया और वह साक्षात् काल के समान दिखाई देने लगा। उस समय जिन योद्धाओं की नींद टूटती थी, वे ही अश्वत्थामा का शब्द सुनकर भौंचक्के_से रह जाते थे और उसे राक्षस समझकर आंख मूंद लेते थे। इस प्रकार भयंकर रूप धारण किये वह सारी छावनी में चक्कर लगा रहा था। जब द्रोपदी के पुत्रों ने धृष्टद्युम्न के मारे जाने का समाचार सुना तो वे निर्भय होकर अश्वत्थामा पर बाण बरसाने लगे। अश्वत्थामा अपनी दिव्य तलवार लेकर उनपर टूट पड़ा और उससे प्रतिविन्ध्य की कोख फाड़ डाली। इससे वह प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सुतसोम ने पहले तो प्रस से चोट की। फिर वह भी तलवार लेकर द्रोणपुत्र की ओर चला। अश्वत्थामा ने तलवार के सहित उसकी वह भुजा काट डाली। और फिर उसकी पहली पर प्रहार किया। इससे हृदय फट जाने के कारण वह पृथ्वी पर गिर गया। इसी समय नकुल के पुत्र शतआनईक ने एक रथ का पहिया उठाकर बड़े जोर से अश्वत्थामा की छाती पर मारा। अश्वत्थामा ने भी तुरंत ही उसपर चोट की। उससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर अश्वत्थामा ने उसका सिर काट डाला। अब श्रुतशर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामा की ओर चला और उसके बायें गाल पर चोट की। किन्तु अश्वत्थामा ने अपनी तीखी तलवार से उसके मुंह पर ऐसा वार किया कि जिससे उसका चेहरा बिगड़ गया और वह बेहोश होकर पृथ्वी पर जा पड़ा। उसका शब्द सुनकर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामा के सामने आया और उसपर बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु अश्वत्थामा के सामने आया और उसपर बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु अश्वत्थामा ने उसकी बाणवर्षा को ढाल पर रोक लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद उसने तरह_तरह के शस्त्रों से शिखण्डी और प्रभद्रक वीरों को मारना आरम्भ किया। उसने एक वाण से शिखण्डी की भृकुटियों के बीच में चोट की और फिर पास जाकर तलवार के एक ही हाथ से उसके दो टुकड़े कर दिये। इस प्रकार शिखण्डी को मारकर वह अत्यन्त क्रोध में भर गया और बड़े वेग से प्रभद्रकों पर टूट पड़ा। राजा विराट की जो कुछ सेना बची थी, उसे उसने एकदम कुचल डाला तथा राजा द्रुपद के पुत्र, पौत्र और सम्बन्धियों को खोज_खोजकर मौत के घाट उतार दिया। अश्वत्थामा का सिंहनाद सुनकर पाण्डवों की सेना में सैकड़ों_हजारों वीर जाग पड़े। उसने उनमें से किसी के पैर, किसी की जांघें और किसी की पसलियां काट डालीं। उन सभी को बहुत अधिक कुचल दिया गया था, इससे वे भयानक चित्कार कर रहे थे। इसी प्रकार घोड़े और हाथियों के बिगड़ जाने से भी अनेकों योद्धा पिस गये थे। उन सभी के लोगों से सारी रणभूमि पट गयी थी। घायल वीर 'यह क्या है ? कौन है ? किसका शब्द है? यह क्या कर डाला ?' इस प्रकार चिल्ला रहे थे। उनके लिये अश्वत्थामा प्राणान्तक काल के समान हो रहा था। पाण्डव और संजय वीरों में जो शस्त्र और कवचों से रहित थे और जिन्होंने कवच धारण कर लिये थे, उन सभी को अश्वत्थामा ने यमलोक भेज दिया। जो लोग नींद के कारण अंधे और अचेत_से हो रहे थे, वे उसके शब्द से चौंककर उछल पड़े, किन्तु फिर भयभीत होकर जहां_तहां छिप गये। डर के मारे उनकी घिग्घी बंध गयी और वे एक_दूसरे से लिपटकर बैठ गये। इसके बाद अश्वत्थामा फिर अपने रथ पर सवार हुआ और हाथ में धनुष लेकर दूसरे योद्धाओं को यमराज के हवाले कर दिया। फिर वह हाथ में ढाल तलवार लेकर उस सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा। अश्वत्थामा का सिंहनाद सुनकर योद्धालोग चौंक पड़ते थे; किन्तु निद्रा और भय से व्याकुल होने के कारण अचेत_से होकर इधर_उधर भाग जाते थे। उनमें से कोई बुरी तरह चिल्लाने लगते थे और कोई अनेकों उटपटांग बातें करने लगते थे। उनके बाल बिखरे हुए थे। इसलिए आपस में एक_दूसरे को पहचान भी नहीं पाते थे। कोई इधर_उधर भागने में थककर गिर गये थे। किन्हीं को चक्कर आ रहा था। किन्हीं का मल_मूत्र निकल गया था। हाथी और घोड़े रस्से तुड़ाकर सब ओर गड़बड़ी करते दौड़ रहे थे। कोई डर के मारे पृथ्वी पर पड़कर छिप रहते थे; किन्तु हाथी_घोड़े उन्हें पैरों से खूंद डालते थे। इस प्रकार बड़ी ही गड़बड़ी मची हुई थी। लोगों के इधर_उधर दौड़ने से बड़ी धूल छा गयी, जिससे उस रात्रि के समय शिविर में दूना अंधकार हो गया। उस समय पिता पुत्रों को और भाई भाइयों को नहीं पहचान पाते थे। हाथी हाथियों पर और बिना सवार के घोड़े घोड़ों पर टूट पड़े तथा एक_दूसरे पर चोटें करते घायल होकर पृथ्वी पर लोटने लगे। बहुत_से लोग निद्रा में अचेत पड़े थे, वे अंधेरे में उठकर आपस में ही आघात करके एक_दूसरे को गिराने लगे। दैववश उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी। 'हा तात ! हा पुत्र !' इस प्रकार चिल्लाते हुए अपने बन्धु_बान्धवों को छोड़कर इधर_उधर भागने लगे। बहुत से तो हाय_हाय करके पृथ्वी पर गिर गये। अनेकों वीर यन्त्र और कवचों के बिना ही शिविर से बाहर जाना चाहते थे। उनके बाल खुले हुए थे और वे हाथ जोड़े भय से थर_थर कांप रहे थे; तो भी कृपाचार्य और कृतवर्मा ने शिविर से बाहर निकलने पर किसी को जीवित नहीं छोड़ा। इन दोनों ने अश्वत्थामा को प्रसन्न करने के लिये शिविर के तीन ओर आग लगा दी। इससे सारी छावनी में उजाला हो गया और उसकी सहायता से अश्वत्थामा हाथ में तलवार लेकर सब ओर घूमने लगा। इस समय उसने अपने सामने आनेवाले और पीठ दिखाकर भागनेवाले दोनों ही प्रकार के योद्धाओं को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। किन्हीं किन्ही को उसने तिल के पौधे के समान बीच ही से दो करके गिरा दिया। इसी प्रकार उसने किन्हीं के शस्त्रसहित भुजदण्डों को, किन्हीं के सिरों को, किन्हीं की जंघाओं को, किन्हीं के पैरों को, किन्हीं के पीठ को और किन्हीं की पसलियों को तलवार से उड़ा दिया। इसी प्रकार उसने किसी का मुंह फेर दिया, किसी को कर्णहीन कर डाला, किन्हीं के कंधे पर चोट करके उनका सिर शरीर में घुसेड़ दिया। इस प्रकार वह अनेकों वीरों का संहार करता शिविर में घूमने लगा। उस समय अंधकार के कारण रात बड़ी भयावनी हो रही थी। हजारों मरे और अधमरे मनुष्यों से तथा अनेकों हाथी_घोड़े से पटी हुई पृथ्वी को देखकर हृदय कांप उठता था। 
लोग हाहाकार करते हुए आपस में कह रहे थे, 'भाई ! आज पाण्डवों के पास न रहने से ही हमारी यह दुर्गति हुई है। अर्जुन को तो असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस _कोई भी नहीं जीत सकता; क्योंकि साक्षात् श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं।' दो घड़ी के बाद वह सारा कोलाहल शान्त हो गया। सारी भूमि खून से तह हो गयी थी। इसलिए एक क्षण में ही वह भयानक धूल दब गयी। अश्वत्थामा ने क्रोध में भरकर ऐसे हजारों वीरों को मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्न में लगे हुए थे, घबराये हुए थे और जिनमें तनिक भी उत्साह नहीं था। जो एक_दूसरे से लिपटकर पड़ गये थे, शिविर छोड़कर भाग रहे थे, छिपे हुए थे अथवा किसी प्रकार लड़ रहे थे उनमें से भी किसी को उसने जीवित नहीं छोड़ा। जो लोग आग में झुलसे जाते थे और आपस में ही मार_काट कर रहे थे, उन्हें भी उसने यमराज के हवाले कर दिया। राजन् ! इस प्रकार उस आधीरात के समय द्रोणपुत्र ने पाण्डवों की उस विशाल सेना को बात_की_बात में यमलोक पहुंचा दिया। पौ फटते ही अश्वत्थामा ने शिविर से बाहर आने का विचार किया। उस समय नर रक्त से सुनकर वह तलवार इस प्रकार उसके हाथ से चिपक गयी मानो वह उसी का एक अंग हो। इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह कठोर कर्म करके अश्वत्थामा पिता के ऋण से मुक्त होकर निश्चिंत हो गया। वह छावनी से बाहर आया और कृपाचार्य और कृतवर्मा से मिलकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी सारी करतूत सुनाकर आनंदित हुआ। वे भी अश्वत्थामा का ही प्रिय करने में लगे हुए थे। अतः उन्होंने भी यह सुनकर कि हमने यहां रहकर हजारों पांचाल एवं संजय वीरों का संहार किया है, उसे प्रसन्न किया।
राजा धृतराष्ट्र पूछते हैं_संजय ! अश्वत्थामा तो मेरे पुत्र के विजय के लिये ही कमर कसे हुए था। फिर उसने ऐसा महान् कर्म पहले क्यों नहीं किया ?
संजय ने कहा_राजन् ! अश्वत्थामा को पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि से खटका रहता था। इसी से वह अबतक ऐसा नहीं कर सका। इस समय इनके पास न रहने से ही उसने कर्म कर डाला। इसके बाद अश्वत्थामा ने आचार्य कृप और कृतवर्मा को गले लगाया और उन्होंने उसका अभिनन्दन किया। फिर उसने हर्ष में भरकर कहा, 'मैंने समस्त पांचालों को, द्रौपदी के पांचों पुत्रों को और संग्राम में बचे हुए सभी मत्स्य एवं सओमक वीरों को नष्ट कर डाला है। अब हमारा काम पूरा हो गया। इसलिये जहां राजा दुर्योधन है, वहीं चलना चाहिये। यदि वे जीवित हैं तो उन्हें भी यह समाचार सुना दिया जाय।'