Thursday, 10 October 2024

विदुरजी का महाराज धृतराष्ट्र के प्रति संसार के स्वरूप, उसकी भयंकरतआ और उससे छूटने के उपाय का वर्णन

राजा धृतराष्ट्र ने कहा_परम बुद्धिमान विदुरजी ! तुम्हारे  शुभ संभाषण को सुन मेरा शोक नष्ट हो गया है। अभी मैं तुम्हारी सारगर्भित वाले और भी बातें सुनना चाहता हूं। विदुरजी बोले_महाराज ! विचार करने पर यह सारा जगत् अनित्य ही जान पड़ता है। यह केले के खंभे के समान सारहीन है, इसमें सार कुछ भी नहीं है। मनुष्य जैसे नये या पुराने वस्त्र को उतारकर दूसरा वस्त्र पहन लेता है, उसी प्रकार वह नये_नये शरीर भी धारण करता रहता है। जीव अपने पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार जन्म लेते हैं और नष्ट भी हो जाते हैं। इस प्रकार जब लोक का स्वरूप स्वभाव से ही आगमापायी ( आने_जानेवाला )है तो आप किसके लिये शोक करते हैं। इस लोक में लोग बुद्धिमान, सत्वगुण से युक्त, सबका हित चानेवाले और प्राणियों के समागम को कर्मानुसार जाननेवाले हैं, वे ही परमगति प्राप्त करते हैं। राजा धृतराष्ट्र ने पूछा_विदुरजी ! संसार का स्वरूप बड़ा गहन है। अतः मैं यह सुनना चाहता हूं कि इसे किस प्रकार जाना जा सकता है। सो तुम इसी का वर्णन करो। विदुरजी बोले_ महाराज! जब गर्भाशय में वीर्य और रज का संयोग होता है, तभी से जीवों की क्रियाएं दिखने लगती हैं। आरंभ में जीव कलाल ( वीर्य और रज के संयोग) में रहता है; फिर कुछ दिन बाद पांचवां महीना बीतने पर वह चैतन्य रूप में प्रकट होकर पिण्ड में निवास करने लगता है।इसके बाद वह गर्भस्थ पिण्ड सर्वांगपूर्ण हो जाता है। इस समय उसे मांस और रुधिर से भरे हुए अत्यन्त अपवित्र गर्भाशय में रहना पड़ता है। फिर वायु के वेग से उसके पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं और सिर नीचे की ओर। इस स्थिति में योनि द्वार के समीप आ जाने से उसे बड़े दु:ख सहने पड़ते हैं। फिर वह योनिमार्ग से पीड़ित होकर उससे बाहर आ जाता है और संसार में आकर अन्यान्य प्रकार के उपद्रवों का सामना करता है, अब वह जैसे_जैसे बढ़ने लगता है वैसे _वैसे इसे नयी_नयी व्याधियां भी घेरने लगती हैं। इसइस प्रकार अपने कर्मों से पीड़ित होकर यह जीवन व्यतीत करता रहता है। जिनमें आसक्ति होने से ही रस की प्रतीति होती है, वे विषय इसे घेरे रहते हैं तथा उनके कारण यह इन्द्रिय रूप पाशों से बंधा रहता है। एसी स्थिति में इसे तरह_तरह के व्यसन घेर लेते हैं। उससे बंध जाने पर तो इसे तृप्ति भी नहीं मिलती। उस समय भले_बुरे कर्म करने पर इसे उनका कुछ ज्ञान प्राप्त नहीं होता। केवल ध्याननिष्ठ पुरुष ही अपने चित्त को कुमार्ग में फंसने से बचा सकते हैं। साधारण जीवन तो यमलोक के द्वार पर पहुंचकर भी उसे पहचान नहीं पाता। इतने में ही काल उसे मृत्यु के मुख में डाल देता है और यमदूत शरीर से बाहर खींच लेते हैं। इसे बोलने की शक्ति नहीं रहती। इस समय इसका जो कुछ पाप या पुण्य किया होता है वह सामने आ जाता है; किन्तु देहबंधन में बंध जाने पर यह फिर अपने उद्धार का प्रयत्न नहीं करता है। हाय ! लोभ के पंजे में फंसकर संसार स्वयं ही ठगा जा रहा है। यह लोभ,क्रोध और भय में पागल होकर अपनी सुधि ही नहीं लेता। यदि यह कुलीन होता है तो अकुलीनों को हेय दृष्टि से देखता हुआ अपनी उस कुलीनता में ही मस्त रहता है और धनी होने पर भी धन के घमंड में भरकर निर्धनों की निंदा करता है। यह दूसरों को तो मूर्ख बताता है परन्तु अपनी ओर कभी नहीं देखता। इसी तरह दूसरों के दोषों की तो निंदा करता रहता है, किन्तु अपने को काबू में रखने का कभी विचारंदं भी नहीं करता। जब बुद्विमान और मूर्ख, धनी और निर्धन, कुलीन और अकुलीन तथा प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित_सभी श्मशानभूमि में जाकर वस्त्रहीन अवस्था में पड़ते हैं पड़ते हैं, तब किसी भी व्यक्ति को उनमें कोई ऐसा अन्तर दिखाई नहीं देता, जिससे वे उनके कुल या रूप की विशेषता का पता लगा सके। जब मरने के पश्चात् सभी जीव समान भाव से पृथ्वी की गोद में सोते हैं तो ये मूर्ख एक_ दूसरे को धोखा क्यों देते हैं ? इस नाशवान् लोक में जो पुरुष इस वेदोक्त उपदेश को साक्षात् या किसी के द्वारा सुनकर जन्म से ही धर्म का आचरण करता है, वह अवश्य परमगति को प्राप्त होता है। राजा धृतराष्ट्र ने कहा_ विदुर ! धर्म के इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान बुद्धि से ही हो सकता है। अतः तुम मेरे आगे विस्तारपूर्वक इस बुद्धि मार्ग को कहो।
विदुरजी कहने लगे_ राजन्! भगवान् स्वआयम्भू को नमस्कार करके मैं इस संसाररूप गहन वन के उस स्वरूप का वर्णन करता हूं जिसका निरूपण महर्षियों ने किया है। एक ब्राह्मण किसी विशाल वन में जा रहा था। वह एक दुर्गम स्थान में जा पहुंचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी और रीछ आदि भयंकर जन्तुओं से भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा; उसे रोमांच हो आया और मन में बड़ी उथल_पुथल होने लगी। उस वन में इधर_उधर दौड़कर उसने बहुत ढ़ूंढ़कर कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाय। परन्तु वह न तो वन से निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवों से त्राण ही पा सका। इतने में उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर से जाल से घिरा हुआ है। एक अत्यंत भयानक स्त्री ने उसे अपनी भुजाओं से घेर लिया है तथा पर्वत के समान ऊंचे पांच सिर वाले नाग भी उसे सब ओर से घेरे हुए हैं। उस जंगल के बीच में झाड़ _झंखाड़ों से भरा हुआ एक गहरा कुआं था। वह ब्राह्मण इधर_उधर भटकता उसी में गिर गया। किन्तु लताजाल में फंसकर वह ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये बीच में ही लटक गया।इतने ही में कुएं के भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपर की ओर किनारे पर एक विशालकाय हाथी दिखा। उसके शरीर का रंग काला था तथा उसके छह मुंह और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कूएं की ओर ही आ रहा था। कुएं के किनारे पर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओं पर तरह_तरह की मधुमक्खियों ने छत्ता बना रखा था। उससे मधु की की धाराएं गिर रही थीं। मधु तो स्वभाव से ही सब लोगों को प्रिय है । अतः वह कुएं में लटका हुआ पुरुष इन मधु की धाराओं को ही पीता रहता था। इस संकट के समय भी उन्हें पीते_पीते उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई और न उसे न अपने ऐसे जीवन के प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्ष के सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात_दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थिति में उसे की प्रकार के भयों ने घेर रखा था। वन की सीमा के पास हिंसक पशुओं से और अत्यंत उग्र रूपा स्त्री से भय था, कूंए के नीचे नाग से और ऊपर हाथी से आशंका थी, पांचवां भय चूहों के काट देने पर वृक्ष से गिरने का भय था और छठा भय मधु के लोभ के कारण मधुमक्खियों से भी था।
इस प्रकार संसार सागर में पड़कर भी वह वहीं डटा हुआ था तथा जीवन की आशा बनी रहने से उसे उससे वैराग्य भी नहीं होता था। महाराज! मोक्ष तत्व के विद्वानों ने यह एक दृष्टांत कहा है। इसे समझकर धर्म का आचरण करने से मनुष्य परलोक में सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार ही है। 
इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वह इस संसार की ही गहनता है। इसमें जो बड़े _बड़े हिंसक जीव बताये गये हैं, वह तरह_तरह की व्याधियां हैं तथा इसकी सीमा पर जो बड़े डील_डौलवाली स्त्री है, वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्य के रूप_रंग को बिगाड़ देती है। उस वन में जो कुआं है, वह मनुष्य देह है। उसमें नीचे की ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियों को नष्ट कर देनेवाला और सर्वस्व को हड़प जानेवाला है। कुएं के भीतर जो लता है, जिसके तन्तउओं में यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवन की आशा है तथा ऊपर की ओर जो छ: मुंहवाला हाथी है वह संवत्सर है। छः ऋतुएं उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्ष को जो चूहे काट रहे हैं उन्हें रात_दिन कहा गया है। तथा मनुष्य की तरह_तरह की जो कामनाएं हैं, वे मधुमक्खियां हैं। मधुमक्खियों के छत्ते से जो मधु की धाराएं धाएं चू रही हैं, उन्हें भोगों से प्राप्त होने वाले रस समझो, जिनमें कि अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान लोग संसार के चक्र की गति को ऐसा ही समझते हैं। तभी वे वैराग्य रूपी तलवार से इसके पाशों को काटते हैं। धृतराष्ट्र ने कहा_विदुर ! तुम बड़े तत्वदर्शी हो। तुमने मुझे बड़ा सुन्दर आख्यान सुनाया है। तुम्हारे अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे बड़ा हर्ष होता है। विदुरजी बोले_ महाराज! सुनिये; अब मैं विस्तारपूर्वक उस मार्ग का विवरण सुनाता हूं, जिसे सुनकर बुद्धिमान लोग संसार के दु:खों से छूट जाते हैं। राजन् ! जिस प्रकार किसी लम्बे रास्ते पर चलने वाला पुरुष थक जाने पर बीच_बीच में विश्राम कर लेता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोगों को इस संसार यात्रा में चलते हुए बीच_बीच में गर्भ में रहकर विश्राम कर लेना होता है। इस संसार से मुक्त तो विवेकी पुरुष ही होते हैं। अतः शास्त्रों ने गर्भवास को मिर्गी का रूपक दिया है और गहन संसार को वन बताया है। यही मनुष्यों तथा चराचर प्राणियों का संसार चक्र है। विवेकी पुरुष को इसमें आसक्त नहीं होना चाहिये। मनुष्य की जो प्रत्यक्ष और परोक्ष शारीरिक तथा मानसिक व्याधियां हैं, उन्हीं को विद्वानों ने हिंसक जीव बताया है। मन्दमति पुरुष  इन व्याधियों से तरह_तरह के क्लेश और आपत्तियां उठाने पर भी संसार से विरक्त नहीं होते। यदि किसी प्रकार मनुष्य इन व्याधियों के पंजे से निकल भी जाय तो अन्त में इसे वृद्धावस्था घेर ही लेती है। इसी से वह तरह_तरह के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धों से घिरकर मज्छआ और मांस रूप कीचड़ से भरे हुए आश्रयहीन देहरूप गड्ढे में पड़ा रहता है। वर्ष, मांस, पक्ष औरदिन_रात की संधियां _ये क्रमशः इनके रूप और आयु का नाश किया करते हैं। ये सब काल के ही प्रतिनिधि हैं, इस बात को मूढ़ पुरुष नहीं जानते। किन्तु विद्वानों का कथन है कि प्राणियों के शरीर रथ के समान है, सत्व ( सत्वगुण प्रधान बुद्धि) सारथि है, इन्द्रियां घोड़े हैं और मन लगाम है। जो पुरुष स्वेच्छापूर्वक दौड़ते हुए उन घोड़ों के पीछे लगा रहता है, वह तो इस संसार चक्र में पहिये के समान घूमता रहता है। किन्तु जो बुद्धिपूर्वक उन्हें अपने काबू में कर लेता है, उसे इस संसार में नहीं आना पड़ता। अतः बुद्धिमान पुरुष को संसार की निवृत्ति का ही प्रयत्न करना चाहिये। इस ओर से लापरवाही नहीं करनी चाहिये। जो पुरुष इन्द्रियों को वश में रखता है, क्रोध और लोभ से छूटा हुआ है तथा संतुष्ट और सत्यवादी है, वह शान्ति प्राप्त करता है। मनुष्य को चाहिए कि अपने मन को काबू में करके ब्रह्मज्ञानरूप महौषधि प्राप्त करें और उसके द्वारा इस संसार दु:ख स्वरूप महारोग को नष्ट कर दें। इस दु:ख से संयमी चित्त के द्वारा जैसा छुटकारा मिल सकता है_वैसा पराक्रम, धन, मित्र या हितू, किसी की भी सहायता नहीं मिल सकता। इसलिये मनुष्य को दयाभाव में स्थित रहकर शील प्राप्त करना चाहिये। दम, त्याग और अप्रमाद_ये तीन परमात्मा के धाम ले जानेवाले घोड़े हैं। जो पुरुष शीलरूप लगाम पकड़कर इन घोड़ों से जीते हुए मनरूप रथ पर सवार रहता है, वह मृत्यु के भय से छूटकर ब्रह्मलोक में जाता है। जो व्यक्ति समस्त प्राणियों को अभयदान करता है, वह भगवान् विष्णु के निर्विकार परम पद को प्राप्त होता है। अभयदान से पुरुष को जो फल प्राप्त होता है, वह हजारों यज्ञ और नित्यप्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता। यह बात निर्विवाद है कि प्राणियों को अपने आत्मा से प्रिय कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि मरण किसी को भी इष्ट नहीं है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को सभी जीवों पर दया करनी चाहिए। जो बुद्धिहीन पुरुष तरह_तरह के माया मोह में फंसे हुए हैं और जिन्हें बुद्धि के जाल ने बांध रखा है, वे भिन्न_भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं। सूक्ष्मदृष्टि महापुरुष तो सनातन ब्रह्म को ही प्राप्त कर लेते हैं।