श्री वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! विदुर के ये वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र पुरशोक से व्याकुल हो मूर्छा खाकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उन्हें इस प्रकार अचेत होकर गिरते देख श्रीव्यासजी, विदुर, संजय, सुहृदगण और जो विश्वासपात्र द्वारपाल थे, वे शीतल जल से छींटे देकर ताड़ के पंखों से हवा करने लगे और उनके शरीर पर हाथ फेरने लगे। इस प्रकार उनके बहुत देर तक उपचार करने पर राजा को चेत हुआ और वे पुत्रशोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगे.। 'मनुष्यजन्म को धिक्कार है !' इसमें भी विवाह आदि करके परिवार बढ़ाना तो बड़े ही दु:ख की बात है। इसी के कारण बार_बार तरह_तरह के दु:ख पैदा होते हैं। पुत्र, धन, सुहृद् और संबंधियों का नाश होने पर विष और अग्नि के दाह के समान बड़ा ही दु:ख भोगना पड़ता है। उस दु:ख से शरीर में जलन होने लगती है और बुद्धि नष्ट हो जाती है। ऐसी आपत्ति में फंसने पर तो मनुष्य को जीवित रहने की अपेक्षा मौत ही अच्छी मालूम होती है। इसलिए आज मैं भी अपने प्राणों को त्याग दूंगा।'महात्मा व्यासजी से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र अत्यंत शोकाकुल हो गये और अपने पुत्रों के ही चिन्तन में डूबकर मौन रह गये।तब भगवान् व्यास ने उनसे कहा, 'धृतराष्ट्र ! तुमने सब शास्त्र सुने हैं। तुम बुद्धिमान हो ! तथा धर्म और अर्थ के साधन में कुशल हो। मनुष्यों का जीवन सदा रहनेवाला नहीं है _यह तो तुम नि:संदेह जानते ही हो। यह मर्त्यलोक अनित्य है, परमपद नित्य है और जीवन का पर्यवसआन मरण में ही होता है, यह सब जानकर तुम शोक क्यों करते हो ? इनइस वैर का प्रादुर्भा श्रम एवं व तो तुम्हारे सामने ही हुआ था। तुम्हारे पुत्र को कारण बनाकर काल ने ही इसे अंकुरित किया था। राजन् ! यह कौरवों का विध्वंस तो होना ही था। फिर तुम इन शूरवीरों के लिये क्यों शोक करते हो ? उन सबने तो परमगति प्राप्त कर ली है। पुराने समय की बात है_एक बार मैं इन्द्र की सभा में गया था। वहां मैंने सब देवताओं को इकट्ठे हुए देखा। इस समय एक विशेष प्रयोजन से पृथ्वी उनके पास आयी और उनसे कहने लगी, 'देवगण ! आप लोगों ने मेरा जो काम करने के लिये ब्रह्माजी की सभा में प्रतिज्ञा की थी, उसे अब शीघ्रही पूरा कर दीजिये।'उसकी यह बात सुनकर भगवान् विष्णु ने कहा, 'राजा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में जो सबसे बड़ा दुर्योधन है, वह तेरा काम करेगा। उसके निमित्ति से अनेकों राजा कुरुक्षेत्र में आकर अपने सुदृढ़ शस्त्रों के प्रहार से एक_दूसरे का संहार कर डालेंगे। इस प्रकार उस युद्ध में तेरा सारा भार उतर जायगा। अब तू शीघ्र ही जा और सब लोकों को धारण कर। 'राजन् ! तुम्हारा पुत्र जो दुर्योधन था, उसके रूप में कलि के अंश ने ही गान्धारी के गर्भ से जन्म लिया था।
इसी से वह ऐसा असहनशील, चंचल, क्रोधी और कूटनीति से काम लेनेवाला था। दैवयोग से उसके भाई भी ऐसे ही उत्पन्न हुए और मामा शकुनि तथा परममित्र कर्ण भी ऐसे ही मिल गये। ये सब पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही एक साथ उत्पन्न हुए थे। जैसा राजा होता है, वैसी ही उसकी प्रजा भी होती है। यदि स्वामी धार्मिक हो तो अधर्मी सेवक भी धार्मिक बन जाते हैं। सेवकों की प्रवृति स्वामी के गुण_दोषों के अनुसार होती है_इसमें संदेह नहीं। राजन् ! दुष्ट राजा का संसर्ग होने से ही तुम्हारे और पुत्र भी मारे गये। इस बात को देवर्षि नारद जानते हैं।
आपके पुत्र अपने ही अपराध से मारे गये हैं। तुम उनके लिये शोक मत करो; क्योंकि इस संबंध में शोक करने का कोई कारण नहीं है। पाण्डवों ने तुम्हारा जरा भी अपराध नहीं किया है। वातव में तो तुम्हारे पुत्र ही दुष्ट थे, उन्हीं ने इस देश का नाश कराया है। पहले राजसूय यज्ञ के समय देवर्षि नारद ने राजा युधिष्ठिर की सभा में कहा था कि राजन् ! तुम्हें जो कुछ करना हो वह कर लो। एक समय ऐसा आया कि सारे कौरव_पाण्डव आपस में युद्ध करके नष्ट हो जायेंगे।'नारदजी की यह बात सुनकर उस समय पाण्डवों को बड़ा शोक हुआ था। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह देवसभा का पुरातन गुप्त वृतांत सुनाया है। इसे सुनाने में मेरा यही उद्देश्य है कि किसी प्रकार तुम्हारा शोक दूर हो जाय तथा इस युद्ध को दैवी योजना समझकर तुम पाण्डु पुत्रों से स्नेह करने लगो। यही बात मैंने एकान्त में युधिष्ठिर से भी कहीं थी। इसी से उन्होंने कौरवों के साथ युद्ध रोकने का इतना प्रयत्न किया था।
परन्तु दैव बड़ा प्रबल है। इस जगत् के चराचर प्राणियों के साथ काल का जो सम्बन्ध है, उसे कोई नहीं टाल सकता। राजन् ! तुम तो बड़े धर्मात्मा और बुद्धिमान हो, तुम्हें प्राणियों के जन्म_मरण का रहस्य भी पता है। फिर मोह में क्यों फंसते हो ? राजा युधिष्ठिर को यदि मालूम हो गया कि तुम अत्यंत शोकातुर हो और बार_बार अचेत हो जाते हो तो वे प्राण त्याग देंगे। वीरवर युधिष्ठिर तो सर्वदा पशु_पक्षियों पर भी कृपा करते हैं, फिर तो वे तुम्हारे प्रति दयाभाव क्यों नहीं रखेंगे ? अतः मेरी आज्ञा मानकर और विधि का विधान टल नहीं सकता_ऐसा समझकर तथा पाण्डवों पर करुणा कश्रकए तुम अपने प्राण धारण करो। ऐसा वर्ताव करने से संसार में तुम्हारी कीर्ति होगी
धर्म और अर्थ की प्राप्ति होगी और दीर्घकालिक तपस्या का फल मिलेगा। तुम्हें जो प्रज्ज्वलित अग्नि के समान पुत्रशोक उत्पन्न हुआ है, उसे विचाररूपी जल से सर्वदा शान्त करते रहो।' वैशम्पायनजी कहते हैं_अतुलित तेजस्वी व्यासजी के ये वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने कुछ देर विचार किया, इसके बाद वे बोले, 'दिजवर ! मुझे महान् शोकजाल से सब ओर से जकड़ रखा है। मेरी बुद्धि ठिकानें नहीं है और बार_बार मूर्छा_सी आ जाती है। अब आपका यह उपदेश सुनकर मैं प्राण धारण करता हुआ यथासंभव शोक न करने का प्रयत्न करूंगा।' राजा धृतराष्ट्र के ये वचन सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये।