श्री वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! इधर महाराज युधिष्ठिर ने सुना कि हमारे बूढ़े ताऊजी संग्राम में मरे हुए वीरों का अन्त्येष्टि कर्म कराने के लिये हस्तिनापुर चल दिये हैं। तब वे शोकाकुल धृतराष्ट्र के पास अपने भाइयों को लेकर चले। इस समय श्रीकृष्ण, सात्यकि और युयुत्सु भी उनके साथ हो लिए तथा पांचाल महिलाओं के साथ द्रौपदी ने भी उनका अनुसरण किया। गंगा तट पर पहुंचकर राजा युधिष्ठिर ने कुररी की तरह विलाप करती हुई स्त्रियों केअनेकों यूथ देखे। वहां हाथ उठाकर आर्त स्वर से रोती हुई हजारों स्त्रियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। वे कहने लगीं, 'राजन् ! आज आपकी धर्मज्ञान और दयालु था कहां चली गयी जो इस तरह अपने चाचा, ताऊ, भाई, गुरु, पुत्र और मित्रों को भी मार डाला। इन सबको और अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों को भी खोकर अब आप इस राज्य को लेकर क्या करेंगे ?' इस प्रकार रोती हुई उन सब स्त्रियों को पार करके महाराज युधिष्ठिर अपने ज्येष्ठ पइतऋव्य राजा धृतराष्ट्र के पास पहुंचे और उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद उनके अन्य साथियों ने भी धर्मानुसार धृतराष्ट्र को प्रणाम करके अपने_अपने नाम लिये। उन्होंने उदास चित्त से युधिष्ठिर को गले लगाया। फिर उनका चित्त एकदम कठोर हो गया और वे अग्नि के समान भीम को भस्म कर डालने का विचार करने लगे। श्रीकृष्ण पहले ही उनका अभिप्राय ताड़ गये थे। इसलिये उन्होंने भीमसेन को हाथों से पकड़कर रोक लिया और भीम के एक लोहे की मूर्ति आगे कर दी। राजा धृतराष्ट्र बड़े बली थे। उन्होंने लोहे के भीम को ही सच्चा भीमसेन समझकर अपनी भुजाओं से दबोचकर तोड़ डाला। धृतराष्ट्र में दस हजार हाथियों का बल था ; इसलिये उन्होंने लोहे के भीम को तोड़ तो डाला, परंतु इससे उनकी छाती पर बहुत दबाव पड़ने से उनके मुंह से खून निकलने लगा और वे खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय संजय ने उन्हें थामकर शान्त किया। क्रोध शांत होने पर वे अत्यंत शोकाकुल हुए और 'हा भीम ! 'हा भीम ! कहकर रोने लगे। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि अब इनका क्रोध उतर गया है और और भीमसेन का वध कर डालने की आशंका से ये बहुत व्याकुल हो रहे हैं तो उन्होंने कहा, 'राजन् ! आप शोक न करें। आपके हाथ से भीमसेन का वध नहीं हुआ है। यह तो उनकी लोहे की मूर्ति ही है, इसी को आपने कुचल डाला है। आपको क्रोध के वशीभूत देखकर मैंने भीमसेन को आपके पास आने से रोक लिया था। जिस प्रकार काल के पास पहुंचकर कोई जीता नहीं बच सकता, उसी प्रकार आपकी भुजाओं के बीच में पड़कर किसी के प्राण नहीं बच सकते। यही सोचकर आपके पुत्र ने भीमसेन की जो लोहे की मूर्ति बनवा रखी थी नहीं मैंने आपके आगे कर दी थी। पुत्रशोक की आग ने आपको धर्म से विचलित कर दिया है, इसी से आपको भीमसेन का वध करने की इच्छा हुई थी। किन्तु आपके लिये यह उचित नहीं है कि आप भीम का वध करें। अतः हमने सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के उद्देश्य से जो कुछ किया है, उसका आप भी अनुमोदन करें, मन को व्यर्थ शोकाकुल न करें। राजन् ! आपने वेद और सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है तथा पुरान और सब प्रकार के राजधर्म भी सुने हैं। ऐसे बुद्धिमान और विद्वान होकर भी आप अपने ही अपराध से होनेवाले इस कुटुम्बनाश को देखकर इतने कुपित क्यों होते है। मैंने तो आपसे पहले ही निवेदन किया था और भीष्म, द्रोण, विदुर एवं संजय ने भी बहुत कुछ समझाया था; किन्तु उस समय तो आपने हमारी बात मानी नहीं। जो पुरुष हित की बात समझाने पर भी अपने हिताहित को नहीं परख पाता, वह अन्याय का आश्रय लेने से आपत्तियों के आने पर शोक ही करता है। इस आपत्ति में तो आप अपने ही अपराध में पड़े हैं, फिर भीमसेन पर क्रोध क्यों करते हैं। दुर्योधन ने ईर्ष्यावश सभा में द्रौपदी को बुलवाया था; उस वैर का बदला लेने के लिये ही तो भीमसेन ने उसे मारा है। आप अपने और अपने दुष्ट पुत्र के अपराधों की ओर तो देखिये। आप ही ने तो निर्दोष पाण्डवों को राज्य से निकलवाया था राजन् ! इस प्रकार श्रीकृष्ण ने जब साफ_साफ सब बातें कही तो राजा धृतराष्ट्र कहने लगे, 'माधव ! तुम जैसा कहते हो, वह सब ठीक है। यह अच्छा ही हुआ कि तुम्हारे रोक लेने से भीमसेन मेरी भुजाओं के बीच में नहीं आया। अब मैं स्वस्थ हूं, मेरा क्रोध शान्त हो गया है और मैं पाण्डु के शूरवीर मध्यम पुत्र को देखना चाहता हूं। मेरे सब पुत्र और प्रधान_प्रधान राजा लोग तो मारे गये। अब तो मेरी शान्ति और प्रीति के आश्रय में पाण्डु पुत्र ही हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने भीम_अर्जुन और नकुल_सहदेव_सभी को रोते_रोते गले लगाया और 'तुम्हारा कल्याण हो'ऐसा कहकर आशीर्वाद दिया। इसके बाद उनकी आज्ञा लेकर सब पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आये। पाण्डवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है _इस बात को महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गये थे। इसलिये वे बड़ी तेजी से वहां पहुंचे। वे दिव्यदृष्टि से और अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों का आन्तरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे, 'गांधारी ! तुम पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शान्त हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहती हो, उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। गत अठारह दिनों में तुम्हारा विजयाभिलाषी पुत्र नित्य ही तुमसे प्रार्थना करता कि 'मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिये जा रहा हूं; माताजी ! आप मेरे कल्याण के लिये आशीर्वाद दीजिये।' उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर आप हर बार यही कहती थी कि 'जहां धर्म है, वहीं विजय है।' इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकालती थी, वह मुझे याद आती है। यों भी तुम सब प्राणियों का हित चाहनेवाली हो। इस समय प्राण्डवो ने विजय पायी है और इसमें संदेह नहीं कि युधिष्ठिर ही अधिक धर्मनिष्ठ भी हैं। तुम तो सदा से ही बड़ी क्षमावती हो, फिर इस समय तुमने क्षमा को क्यों छोड़ दिया है ? धर्मज्ञान ! तुम अधर्म को छोड़ दो; क्योंकि तुमने अपने धर्म पर दृष्टि रखकर ही ये शब्द कहे थे कि 'जहां धर्म है, वहीं विजय है।' अतः तुम अपने क्रोध को शान्त करो। तुम संत।यभआषण करनेवाली हो, तुम्हारा ऐसा आचरण नहीं होना चाहिए।' गांधारी ने कहा_भगवन् ! पाण्डवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और न मैं इनका नाश ही चाहती हूं। किन्तु पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल _सा हो रहा है। इस कुन्ती पुत्रों की रक्षा करना जैसा कुन्ती का कर्तव्य है, वैसा ही मेरा भी है और जैसा यह मेरा कर्तव्य है, वैसा ही महाराज का भी है। यह कौरवों का संहार तो दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दु:शासन के अपराध से ही हुआ है। इसमें अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव या युधिष्ठिर का कोई दोष नहीं है। कौरवों ने अभिमान में भरकर युद्ध किया और वे अपने दूसरे साथियों के सहित आपस ही में लड़ मरे।
किन्तु साहसी भीम ने दुर्योधन को गदा युद्ध के लिये बुलाकर फिर श्रीकृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा की चोट की_इस अनुचित कार्य ने ही मेरे क्रोध को भड़का दिया है। धर्मज्ञ महापुरुषों ने जिसे 'धर्म' कहा है, क्या शूरवीर अपने प्राणों के लोभ से भी रणभूमि में छोड़ सकते हैं ? गांधारी का यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते _डरते उनसे विनयपूर्वक कहा, 'माताजी ! यह धर्म हो या अधर्म, मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिये ही ऐसा किया था, सो अब आप क्षमा करें। उस महाबली पुत्र को धर्मयुद्ध में तो कोई नहीं मार सकता था। किन्तु पहले उसने भी तो अधर्म से ही राजा युधिष्ठिर को जीता था और हमें बार_बार तंग किया था। इस समय भी मुझे डर था कि कहीं दुर्योधन गदा युद्ध में मुझे मार न डाले, इसी से मैंने यह काम कर हो गया।गान्धारी ने कहा_भैया ! तुम मेरे पुत्र की ऐसी प्रसंसा कर रहे हो, इसलिये यह तो उसका वध नहीं कहा जा सकता। परंतु तुमने जो संग्रामभूमि में दु:शासन का खून पीता, उस काम को तो सभी सत्पुरुष निंदा करेंगे, ऐसा काम तो आर्य पुरुष कभी नहीं करते। तुमने यह बड़ा ही क्रूर कर्म किया, ऐसा करना उचित नहीं था। भीमसेन बोले_माताजी ! आप चिन्ता न करें। वह खून मेरे दांत और ओठों के आगे नहीं गया। इस बात को कर्ण जानता था। मैंने तो अपने हाथ में ही खून सान लिये थे। जब द्यूतक्रीड़ा के समय दु:शासन ने द्रौपदी के केश पकड़े थे, उसी समय क्रोध में भरकर मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका था। यदि मैं उसे पूरा न करता तो अनन्त वर्षों तक क्षात्रधर्म से पतित समझा जाता। इसी से मैंने यह काम किया था। गांधारी ने कहा_भीम ! अब हम बूढ़े हो गये हैं, हमारा राज्य भी तुमने छीन लिया। ऐसी स्थिति में हम दोनों कंधों के सहारे के लिये लकड़ी के समान तुमने एक भी पुत्र को जीवित क्यों नहीं छोड़ा ? यदि तुम मेरे एक पुत्र को भी छोड़ देते तो तुम्हारे कारण मैं इतना दु:ख न पाती, यही समझ लेती कि तुमने अपने धर्म का पालन किया है।
भीमसेन से ऐसा कहकर अपने पुत्र_पौत्रों के नाश से पीड़िता गांधारी क्रोध में भरकर बोली_'राजा युधिष्ठिर कहां है ?' यह सुनते ही धर्मराज भय से कांपते हुए हाथ जोड़े उसके सामने आये और बड़ी मीठी वाणी में बोले, ' देवि ! आपके पुत्रों का संहार करनेवाला मैं क्रूरकर्मा युधिष्ठिर आपके सामने खड़ा हूं। पृथ्वी भर के राजाओं का नाश करने में मैं ही हेतु हूं, इसलिये शाप के योग्य हूं; आप मुझे शाप दीजिये। मैं अपने सुहृदों का शत्रु हूं; अतः: ऐसे_ऐसे शत्रुओं का संहार कराकर अब मुझे जीवन, राज्य या धन_किसी की भी इच्छा नहीं है।' महाराज युधिष्ठिर गांधारी के पास खड़े हुए ये सब बातें कह गये। किन्तु उसके मुंह से कोई बात न निकली। वह बार_बार लंबी_लंबी सांसे लेती रही। वे झुककर उसके चरणों में गिरना ही चाहते थे कि दीर्घदर्शी गांधारी की दृष्टि पट्टी में से होकर उनके नखों पर पड़ी। इससे उनके सुन्दर नख उसी समय काले पड़ गये। यह देख अर्जुन तो श्रीकृष्ण के पीछे खिसक गये तथा और भाई भी इधर_उधर छिपने लगे । उन्हें इस प्रकार कसमसाते देखकर गांधारी का क्रोध खण्डा पड़ गया और उसने माता के समान उन्हें धीरज दिया। फिर उसकी आज्ञा पाकर वे अपनी माता कुन्ती के पास गये। कुन्ती ने अपने पुत्रों को बहुत दिनों पर देखा था इसलिये उनके कष्टों का स्मरण करके उसका हृदय भर आया और वह अंचल से मुंह ढ़ांककर आंसू बहाने लगी। उसके साथ पांडवों के आंखों में भी आंसू आ गये। उसके प्रत्येक पुत्रों के अंगों पर बार_बार हाथ फेरकर देखा। सभी के शरीर शस्त्रों की चोट से घायल हो रहे थे। पुत्रहीना द्रौपदी को देखकर उसे बड़ा ही अनुताप हुआ। उसने देखा कि पांचाल कुमारी पृथ्वी पर पड़े _पड़े रो रही है। द्रौपदी कह रही थी_आयें ! अभिमन्यु के सहित आज आपके सभी पौत्र कहां चले गये। अब जब मेरे बच्चे ही नहीं बचे तो मैं राज्य को लेकर क्या करूंगी ? तब कुन्ती ने उसे धैर्य बंधाया। इसके बाद वह शोकाकुला द्रौपदी को उठाकर अपने साथ ले गांधारी के पास आयी। उसके साथ ही सब पाण्डव वहां पहुंचे। तब गांधारी ने बहू द्रौपदी और यशस्विनी कुन्ती से कहा, ' बेटी ! इस प्रकार व्याकुल मत हो; मेरी ओर तो देख, मुझपर कैसा दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा है। मैं तो इस नरसंहार को समय के उलट_फेर से हुआ ही समझती हूं। यह रोमांचकारी काण्ड होना ही था, इसी से हुआ है। विदुरजी ने जो बात कही थी, वह ज्यों_की_त्यों सामने आ गयी। जैसी तू है, वैसी ही मैं भी हूं। बता कौन किसको धीरज बंधाने ? वास्तव में इस श्रेष्ठ कुल का संहार तो मेरे अपराध से ही हुआ है।