Thursday, 17 April 2025

शान्ति पर्व ____शोकाकुल युधिष्ठिर को शान्त्वना देते हुए देवर्षि नारद का उन्हें कर्ण का पूर्वचरित्र सुनाना

नारायणं नमस्यकृत्यं नरं चैव नरोत्तम। देवीं सरस्वतीं व्यासं तो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अंत:करण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं_अपने समस्त सुहृदों को जलांजलि देने के पश्चात् पाण्डव, विदुर, धृतराष्ट्र तथा भरतवंश की संपूर्ण स्त्रियां आत्मशुद्धि के लिये एक मास तक नगर से बाहर गंगा तट पर टिकी रहीं। उस समय धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास बहुत से सिद्ध, महात्मा तथा ब्रह्मर्षि पधारे। इनमें द्वैपायन व्यास, नारद, देवल, देवस्थान, कण्व तथा इन सबके शिष्य भी थे। इनके अतिरिक्त भी अनेक वेदवेत्ता ब्राह्मण, गृहस्थ एवं स्नातक पधारे थे। राजा युधिष्ठिर ने उन सब महर्षियों का विधिवत् पूजन किया। इसके बाद वे उनके दिये हुए बहुमूल्य आसनों पर विराजमान हुए। समयोचित पूजा स्वीकार करके वे ऋषि _महर्षि गंगा के पावन तट पर शोक से व्याकुल हुए महाराज युधिष्ठिर को धैर्य बंधाने लगे।
सबसे पहले नारदजी ने व्यास आदि मुनियों से वार्तालाप करके राजा युधिष्ठिर के प्रति इस प्रकार कहा_'राजन् ! आपने अपने बाहुबल तथा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से इस संपूर्ण पृथ्वी पर धर्मपूर्वक विजय पायी है। सौभाग्य की बात है कि आप इस भयंकर संग्राम में जीते_जागते बच गये। अब क्षत्रिय धर्म के पालन में तत्पर रहते हुए आप प्रसन्न तो हैं न ? इस राज्यलक्ष्मी को पाकर आपको कोई शोक तो नहीं सताता ?युधिष्ठिर ने कहा_मुनिवर ! भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रय, ब्राह्मणों की कृपा तथा भीम और अर्जुन के बल से मैंने संपूर्ण पृथ्वी पर विजय तो पा ली; परन्तु मेरे हृदय में प्रतिदिन यह एक महान् दु:ख बना रहता है कि मैंने लओभवश अपने कुल का संहार करा दिया।सुभद्राकुमार अभिमन्यु और द्रौपदी के प्यारे पुत्रों को मरवाकर अब यह विजय भी पराजय_सी ही जान पड़ती है। द्रौपदी सदा हमलोगों का प्रिय तथा हित करने में लगी रहती है, इस बेचारी के पुत्र और भाई सब मारे गये, जब इसकी ओर देखता हूं तो मुझे बहुत कष्ट होता है। नारदजी ! यह सब दु:ख तो था ही, एक दूसरी बात और बता रहा हूं, मेरी माता कुन्ती कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य छिपाकर मुझे और भी दु:ख में डाल दिया है। जिनमें दस हजार हाथियों का बल था, संसार में जिनकी समानता करनेवाला कोई भी महारथी नहीं था, जो बुद्धिमान, दाता, दयालु और व्रत का पालन करनेवाले थे, जिनमें शौर्य का पूरा अभिमान था, जो फुर्ती से अस्त्र चलानेवाले तथा विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेवाले थे, जिनका पराक्रम अद्भुत था, उन विद्वान् कर्ण को माता कुन्ती ने ही गउप्तररूप से जन्म दिया था, वे हमलोगों के भाई थे। जलदान करते समय कुन्ती ने यह रहस्य बताया कि वे भगवान् सूर्य के अंश से उत्पन्न हुए थे। पूर्वकाल की बात है जब कुन्ती के गर्भ से सर्वगुण संपन्न कर्ण का प्रादुर्भाव हुआ, उस समय माता ने इन्हें पेंटी में रखकर गंगा की धारा में बहा दिया था। जिन्हें सारा संसार राधा का पुत्र समझता था, वे कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र और हमलोगों के सहोदर भाई थे। मैंने अनजान में राज्य के लोभ से अपने भाइयों को मरवा डाला_यह स्मरण करके मेरे बदन में आग_सी लग जाती है। हम पांचों में से कोई भी उन्हें अपने भाइ के रूप में नहीं जानता था, किन्तु वे हमलोगों को जानते थे। सुना है मेरी माता कुन्ती हमलोगों से सन्धि कराने के लिये उनके पास गयी थीं; इन्होंने बताया 'बेटा ! तुम राधा के नहीं, मेरे पुत्र हो।' किन्तु कर्ण ने इनकी अभिलाषा नहीं पूरी की_वे सन्धि के लिये नहीं सहमत हुए। उन्होंने यही उत्तर दिया_'मां ! मैं राजा दुर्योधन को छोड़ने में असमर्थ हूं। यदि तुम्हारी बात मानकर युधिष्ठिर से सन्धि कर लेता हूं तो नीच, नृशंस और कृतध्न समझा जाऊंगा। लोग यही कहेंगे कि कर्ण अर्जुन से डर गया। इसलिये समर में श्रीकृष्ण सहित अर्जुन को जीत लेने के पश्चात् मैं युधिष्ठिर से सन्धि करूंगा।' यह सुनकर कुन्ती ने कहा, 'अच्छी बात है;तुम अर्जुन से युद्ध करो, किन्तु शेष चार भाइयों को अभयदान दे दो।' इतना कहकर माता कांपने लगीं, इनकी यह अवस्था देख बुद्धिमान कर्ण ने कहा_'देवि ! तुम्हारे चार पुत्र मेरे चंगुल में फंसे जायेंगे, तो भी उन्हें जान से नहीं मारूंगा। यदि मैं मारा गया तो अर्जुन रहेंगे, अर्जुन मरे तो मैं रहूंगा; इस प्रकार तो तुम्हारे पांच पुत्र तो हर हालत में जीवित रहेंगे।' कुन्ती बोलीं _'बेटा ! अपने भाइयों का कल्याण करना।' फिर ये घर चली आयीं। इस रहस्य को न तो कुन्ती ने प्रकट किया, न कर्ण ने; इसलिये भाई के हाथ से सहोदर भाई का वध हुआ _अर्जुन ने वीरवर कर्ण को मार डाला। इससे मेरे हृदय को बड़ी व्यथा हो रही है। कर्ण और अर्जुन की सहायता पाकर तो मैं इन्द्र को भी जीत सकता था। धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्र जब सभा में द्रौपदी को क्लेश दे रहे थे और कर्ण की कठोर बातें सुनायी देतीं थीं, उस समय मुझे सहसा रोष चढ़ आता था, किंतु कर्ण के चरणों पर दृष्टि जाते ही शान्त हो जाता था। मुझे कर्ण के दोनों पैर माता कुन्ती के चरणों जैसे ही मालूम होते थे। किन्तु बहुत सोचने पर भी मैं इसका कारण नहीं जान पाता था। भगवन् ! कर्ण के पहिये को पृथ्वी क्यों निगल गयी मेरे भाई को ऐसा श्राप क्यों प्राप्त हुआ ? यह मुझे बताइये। मैं आपसे ये सभी बातें ठीक_ठीक सुनना चाहता हूं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं, भूत_भविष्य की सारी बातें जानते हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद मुनि कर्ण को जिस तरह शाप प्राप्त हुआ था, वह सारी कथा कहने लगे_'भारत ! यह देवताओं की गुप्त बात है, किन्तु मैं तुम्हें बता रहा हूं। एक समय सब देवताओं ने विचार किया कि कौन सा ऐसा उपाय हो, जिससे भूमण्डल का सारा क्षत्रिय_समाज शस्त्रों के आघात से पवित्र होकर स्वर्ग सिधारे। यह सोचकर उन्होंने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया। वहीं कर्ण हुआ। उसने आचार्य द्रोण से धनुर्वेद का अभ्यास किया। वह बचपन से ही भीमसेन का बल, अर्जुन की अस्त्र चलाने में फुर्ती, आपकी बुद्धि, नकुल_सहदेव की विनय तथा श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की मित्रता देखकर जला करता था आपके ऊपर प्रजा का अनुराग जानकर वह चिन्ता से दग्ध होता रहता था। इसलिये उसने बाल्यकाल में ही राजा दुर्योधन से मित्रता कर ली।' 'धनंजय का धनुर्विद्या में अधिक पराक्रम देखकर एक दिन कर्ण ने द्रोणाचार्य से एकांत में कहा_'गुरुदेव ! मैं ब्रह्मास्त्र को छोड़ने और लौटाने की विद्या जानता हूं।' कर्ण की अर्जुन के साथ जजों लाग_डांट थी, उसे द्रोणाचार्य जानते थे; उसकी दुष्टता से भी वे अपरिचित नहीं थे। इसीलिए उसकी प्रार्थना सुनकर उन्होंने कहा_'कर्ण ! शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय ही ब्रह्मास्त्र सीखने का अधिकारी है, दूसरा नहीं।' उनके ऐसा कहने पर कर्ण ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनका सम्मान किया। फिर उनकी आज्ञा लेकर वह सहसा वहां से चल दिया। जाते_जाते महेंन्द्र पर्वत पर पहुंचा और परशुरामजी के निकट जा भृगुवंशी ब्राह्मण के रूप में अपना परिचय दे उसने गुरु बुद्धि से उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया और शिष्यभाव से उनकी शरण में गया। परशुरामजी ने भी गोत्र आदि पूछकर उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया और कहा 'वत्स ! तुम्हारा स्वागत है, तुम प्रसन्नतापूर्वक यहां रहो।' "कर्ण महेंन्द्र पर्वत पर रहकर अभ्यास करने लगा। उस समय वहां उसे गन्धर्व, राक्षस, यक्ष तथा देवताओं से मिलने का अवसर प्राप्त होते रहता था। इसलिये उन सके साथ उसका बड़ा प्रेम हो गया। एक दिन की बात है, वह आश्रम के पास ही समुद्र के किनारे _किनारे टहल रहा था। अकेला था तथा हाथों में तलवार तथा धनुष लिये हुए था। उसी समय एक वेदपाठी की गौ उधर आ निकली। मुनि अग्निहोत्र में लगे हुए थे। कर्ण ने अनजान में उसे कोई हिंसक जीव समझकर मार डाला। जब मालूम हुआ तो उसने अपने अज्ञानवश किये हुए अपराध को ब्राह्मण को जाकर कह सुनाया। ब्राह्मण देवता को प्रसन्न करने के लिये कर्ण बोला_'भगवन् ! मैंने नजआन में आपकी यह गाय मार डाली है; इसलिये आप मुझपर कृपा करके यह अपराध क्षमा कर दीजिये।' "ब्राह्मण बिगड़ उठा और उसको डांटता हुआ बोला_'दुराचारी ! तू मार डालने योग्य है; ले, इस पाप का फल भोग ! अन्त समय में पृथ्वी तेरे रथ के पहिये को निगल जायगी; उस समय तू घबराया होगा उसी अवस्था में, शत्रु तेरा मस्तक काट डालेगा।' यह शाप सुनकर कर्ण ने बहुत _सी गौएं, धन तथा रत्न दे ब्राह्मण को प्रसन्न करने की चेष्टा की। तब उसने फिर कहा_'सारा संसार मिलकर भी मेरी बात झूठी नहीं कर सकता।' उसके ऐसा कहने पर कर्ण को बड़ा भय हुआ। दीनता से उसका मुंह नीचे की ओर झुक गया। फिर मन_ही_मन इस दुर्घटना को याद करता हुआ वह परशुरामजी के पास लौट आया। "कर्ण की भुजाओं का बल, गुरु के प्रति उसका प्रेम, इन्द्रियसंयम तथा सेवाभाव को देखकर परशुरामजी उसपर बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने प्रयोग और उपसंहार सहित संपूर्ण ब्रह्मास्त्र विद्या उसे विधिपूर्वक सिखा दी। तदनन्तर एक दिन परशुरामजी कर्ण के साथ अपने आश्रम के पास ही घूम रहे थे। उपवास करने के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था, अतः थकावट आ जाने से उन्हें नींद सताने लगी। कर्ण के ऊपर उनका पूर्ण विश्वास और स्नेह था, इसीलिये उसकी गोद में सिर रखकर सो गये। इतने में लार, मज्छआ, मांस और रक्त का आहार करनेवाला एक भयंकर कीड़ा, जो बड़ा तीखा डंक मारता था, कर्ण के पास आया और उसकी जांघ पर चढ़ गया। जांघ में घाव करके वह उसका रक्तपान करने लगा। इस प्रकार कीड़े के काटने से उसे व्यथा होती रही; किन्तु उसने धैर्यपूर्वक उसे सहन किया और गुरु के जाग उठने के डर से कीड़े को नहीं हटाया, बल्कि उसकी ओर से उपेक्षा कर दी। "कर्ण के देह से निकले हुए रक्त की धारा से जब परशुरामजी का शरीर भींगने लगा तो वे सहसा जाग उठे और शंकित होकर बोले_'अरे ! तू तो अशुद्ध हो गया ! यह क्या कर रहा है ? भय छोड़कर ठीक _ठीक बता।' तब कर्ण ने उन्हें कीड़े के काटने की बात बता दी। ज्योंहि उन्होंने उस कीट की ओर दृष्टिपात किया, उसके प्राण _पखेरू उड़ गये; यह एक अद्भुत घटना हुई। इतने में एक भयंकर राक्षस आकाश में खड़ा दिखाई दिया। वह दोनों हाथ जोड़कर परशुरामजी से बोला_'मुनिवर ! आपने मुझे इस नरक के कष्ट से छुटकारा दिला दिया, यह मेरा बड़ा प्रिय कार्य हुआ । मैं आपको प्रणाम करता हूं और अब जहां से आया था वहीं जा रहा हूं।' परशुरामजी ने पूछा 'अरे ! तू कौन है और कैसे इस नरक में पड़ा था ?' उसने उत्तर दिया _'तात !  सतयुग की बात है, मैं दंश नामक असुर था। एक दिन मैंने भऋगउमउनइ की प्राण प्यारे पत्नी का बलपूर्वक अपहरण किया; इस क्रोध में आकर महर्षि ने यह शाप दिया _'पापी ! तू कीड़ा होकर नरक में पड़ेगा।' तब मैंने उनसे प्रार्थना की 'ब्रह्मण् ! इस शाप का अन्त भी होना चाहिएये।' उन्होंने कहा 'मेरे वंश में उत्पन्न हुए परशुराम की दृष्टि पड़ने से इस शाप का अन्त होगा।' इस प्रकार मैं इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ था और आज आपका समागम होने से मेरा इस पाप योनि से उद्धार हुआ है।' यह कहकर वह महान् असुर परशुरामजी को प्रणाम करके चला गया। "अब परशुरामजी ने क्रोध में भरकर कर्ण से कहा_'मूर्ख ! तूने इस कीड़े के काटने की जो भयंकर पीड़ा बर्दाश्त की है, इसे ब्राह्मण कभी नहीं सह सकता। तेरा धैर्य तो क्षत्रिय के समान जान पड़ता है। सच_सच बता, तू कौन है ?' उनका प्रश्न सुनकर कर्ण शाप के भय से उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करता हुआ बोला_'ब्रह्मण् !मैं ब्राह्मण और क्षत्रिय से भिन्न सूत जाति में उत्पन्न हुआ हूं। लोग मुझे राधा का पुत्र कर्ण कहते हैं। ब्रह्मास्त्र के लोभ से मैंने झूठा परिचय दिया था, मुझपर कृपा कीजिये। विद्या प्रदान करनेवाला गुरु नि:संदेह पिता के समान ही है, इसीलिये आपके निकट अपना भार्गव_गोत्र बतलाया था।' "यह कहकर कर्ण दीनभाव से हाथ जोड़कर उनके सामने पृथ्वी पर पड़ गया और थर_थर कांपने लगा। यह देख परशुरामजी ने हंसते हुए_से कहा_'मूर्ख ! तूने ब्रह्मास्त्र के लोभ से झूठ बोलकर मेरे साथ कपट किया है, इसलिये जब संग्राम में तू अपने समान योद्धा से युद्ध करेगा तो तेरी मृत्यु निकट आ जायगी, उस समय तुझे मेरे दिये हुए ब्रह्मास्त्र का स्मरण नहीं रहेगा। अब तू यहां से चला जा, मिथ्यावादी के लिये यहां स्थान नहीं है। परन्तु मेरे आशीर्वाद से युद्ध में कोई भी क्षत्रिय तरी समानता नहीं कर सकेगा।' परशुरामजी के ऐसा कहने पर कर्ण उन्हें प्रणाम करके वहां से लौट आया और दुर्योधन से बोला_मैं ब्रह्मास्त्र सीख आया।"