अर्जुन का बात समाप्त होने पर नकुल ने भी उन्हीं का अनुमोदन करते हुए राजा युधिष्ठिर सेश् कहा_'राजन् ! विशाखनृप नामक क्षेत्र में संपूर्ण
देवताओं द्वारा की हुई अग्नि स्थापना के चिह्न मौजूद हैं; इससे आपको समझना चाहिए कि देवता भी वैदिक कर्मों और उनके फलों में विश्वास करते हैं। जो वेदों की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं; उन्हें तो महान् नास्तिक मानना चाहिए। वैदिक कर्मों का परित्याग करके कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता है। वेदवेत्ता विद्वान कहते हैं _यह गृहस्थाश्रम सब आश्रमों में श्रेष्ठ है। श्रोत्रिय ब्राह्मणों की राय भी सुन लीजिये _'जो धर्मपूर्वक उपार्जन किये हुये धन का यज्ञादि कर्मों में उपयोग करता है, वह शुद्ध आत्मा मनुष्य ही त्यागी है।'जिनका कोई घर_बार नहीं, जो इधर_उधर विचरते और मौन रहकर वृक्ष के नीचे सो रहते हैं, जो कभी रसोई नहीं बनाते और मन तथा इन्द्रियों को वश में रखते हैं, ऐसे त्यागियों को भिक्षु ( संन्यासी ) कहते हैं। जो ब्राह्मण क्रोध और हर्ष नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता तथा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करता है, वह त्यागी कहलाता है। एक दिन महर्षियों ने चारों आश्रमों को विवेक के तराजू पर तौला; तीन आश्रम एक ओर थे और अकेला गृहस्थाश्रम दूसरी ओर। किन्तु वह विचार से उन तीनों की अपेक्षा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। तब से उन्होंने निश्चय किया कि यही मुनियों का मार्ग है, यही लोक वेत्ताओं की गति है। जो ऐसी भावना रखता है, वह भी त्यागी है। घर छोड़कर जंगल में चले जाने से कोई त्यागी नहीं होता। जंगल में जाकर भी जिसके हृदय में कामना जाग्रति होती है, उसके गले में यमराज मौत का फंदा डाल देते हैं; शम, दम, धैर्य, सत्य शौच, सरलता, यज्ञ धारणा तथा धर्म_इन सबका ही निरंतर पालन ऋषियों के लिये बताया गया है। पितरों, देवताओं और अतिथियों का पोषण तो गृहस्थाश्रम में ही होता है। केवल इसी आश्रम में धर्म, अर्थ और काम _ये तीन पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। यहां रहकर वेदविहित विधि का पालन करने वाले त्यागी का कभी विनाश नहीं होता_वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं होता। कुछ ऋषि सद्ग्रंथों का स्वाध्यायरूप यज्ञ करनेवाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यानरूप महान् यज्ञ का विस्तार करते हैं। चित्त को एकाग्र करनारूप जो साधन_मार्ग है, उसका आश्रय देनेवाला द्विज ब्रह्मभूत हो जाता है, देवता भी उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं। जिसपर कुटुम्ब का भार हो, उस राजा के लिये गृह_त्याग का विधान नहीं देखने में आता। उसे तो राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध या और कोई शास्त्रीय यज्ञ करके उसमें धन का दान करना चाहिए। राजा के प्रमाद से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे कलियुग का मूर्तिमान स्वरूप ही समझना चाहिए। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजा पाप के भागी होते हैं; उन्हें दु:ख_ही_दु:ख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नसीब नहीं होता। भीतर और बाहर जो कुछ भी मन को फंसानेवाली चीजें हैं उन्हें छोड़ने से मनुष्य त्यागी बनता है, सिर्फ घर छोड़ देने से त्याग की सिद्धि नहीं होती। जो शास्त्रीय विधान में सदा लगा रहता है, उसकी कभी हानि नहीं होती। महाराज ! पूर्ववर्ती राजाओं ने जिसका सेवन किया है, उस स्वधर्म में स्थित रहकर शत्रुओं पर विजय पाने के पश्चात् भला, आपके सिवा दूसरा कौन शोक करेगा ?' तदनन्तर सहदेव ने कहा_'भारत ! केवल बाहर के पदार्थों का त्याग करने से सिद्धि नहीं मिलती।
शरीर से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को छोड़ देने से भी सिद्धि मिलती है कि नहीं, इसमें संदेह है। टफबाहरी पदार्थों का त्याग करके दैहिक सुख_भोगों में आसक्त रहनेवाले को जिस धर्म अथवा सुख की प्राप्ति होती है, वह हमारे हितैषी मित्रों को मिले। दो अक्षरों का 'मम' ( यह मेरा है_ऐसा भाव ) मृत्यु है और तीन अक्षरों का 'न मम' ( यह मेरा नहीं है_ऐसा भाव ) अमृत सनातन ब्रह्म है। महाराज ! यदि जीव नित्य है, इसका अविनाशी होना निश्चित है, तो प्राणियों का शरीर_मात्र वध करने मात्र से वास्तव में उनकी हिंसा नहीं होगी। इसके विपरीत यदि शरीर के साथ ही जीव की उत्पत्ति या उसके नष्ट होने के साथ ही जीव का भी नाश माना जाय, तब तो सारा वैदिक कर्म मार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा। इसलिये विज्ञ पुरुष को एकांत में रहने का विचार छोड़कर पूर्वपुरुषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है, उसी का आश्रय लेना चाहिए। राजन् ! वन में रहकर वहां के फल_फूलों से जीविका चलाता हुआ भी जो द्रव्यों में ममता रखता है, वह मौत के मुंह में हैं। प्राणियों का बाह्य स्वरूप कुछ और होता है और आन्तरिक स्वरूप कुछ और ; आप उसपर गौर कीजिये। जो सबके भीतर विराजमान आत्मा को देखते हैं, वे ही महान् भय से छुटकारा पाते हैं। आप मेरे पिता, माता, भाई तथा गुरु_ सब कुछ हैं। मैं आर्त हूं इसलिये दु:ख में न जाने क्या_क्या प्रलाप कर गया हूं; आप उसे क्षमा करें। मैंने झूठा_सच्चा जो भी कहा है, वह आपके चरणों में भक्ति होने के कारण ही कहा है।' वैशम्पायनजी कहते हैं_इस प्रकार अपने भाइयों के मुख से वेद के सिद्धांतों को सुनकर भी जब युधिष्ठिर चुप ही रह गये तो धर्म को जाननेवाले द्रौपदी उनकी ओर देखकर उन्हें मधुर वचनों से समझाती हुई कहने लगी_"महाराज ! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं, पपीहे की तरह रट लगा रहे हैं। फिर भी आप अपनी बातों से इन्हें प्रसन्न नहीं करते। क्यों ? ये सदा आपके लिये दु:ख_ही_दु:ख उठाते आये हैं ? अब तो इन्हें उचित बातें सुनाकर आनंदित कीजिये। आपको याद होगा, जब द्वैतवन में ये सभी भाई आपके साथ सर्दी _गर्मी और आंधी पानी का कष्ट भोग रहे थे। उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुए कहा था_'बन्धुओं ! हमलोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर इस संपूर्ण पृथ्वी का राज भोगेंगे। उस समय बड़े _बड़े यज्ञ करके पर्याप्त दान_दक्षिणा बांटते रहने से तुम्हारा वनवास का यह दु:ख सुख के रूप में परिणत हो जायगा।' धर्मराज ! यदि यही करना था, तो उस समय आपने वैसी बातें क्यों कहीं ? जब स्वयं उपर्युक्त बातें कहकर हौसला बढ़ाया, तो अब क्यों आप हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं ? आपको दण्ड आदि के द्वारा इस पृथ्वी का पालन करना चाहिये; क्योंकि दण्ड न देनेवाले क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देनेवाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता तथा उसकी प्रजा को भी सुख नहीं मिलता। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरुषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीछे पीठ न दिखावे। 'जो अवसर देखकर क्षमा भी करता है और क्रोध भी, दान देता और कर लेता है, शत्रुओं को भय दिखाता र शरणागतों को निर्भय बनाता है तथा दुष्टों को दण्ड देता और दिनों पर अनुग्रह करता है, वह राजा धर्मात्मा कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्र सुनाने से मिली है, न दान में; न किसी को समझा_बुझाकर इसे हड़प लिया है, न यज्ञ में प्राप्त किया है और न भीख मांगकर ही पाया है। आपने तो शत्रुओं की प्रबल सेना का संहार करके इसपर विजय पायी है, इसलिये आप इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। महाराज! अनेकों देशों में एक संपूर्ण जम्मूद्वीप पर आपने कर लगाया; जम्मूद्वीप के समान ही जो मेरुगिरि के पश्चिम क्रौंचद्वीप है, उसपर अधिकार जमाया, मेरी से पूर्व दिशा में क्रौंचद्वीप के समान ही जो शाकद्वीप है, उसपर भी कर लगाया तथा मेरी से उत्तर ओर जो शाकद्वीप के समान ही भद्राद्वीप है, उसके उपर भी शासन किया है। इनके अतिरिक्त जो भी बहुत _से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तर्द्वीप हैं, समुद्र लांघकर उनपर भी आपने अधिकार प्राप्त किया। भाइयों की सहायता से ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी आप प्रसन्न क्यों नहीं होते ? मेरे अनुरोध से आप इन भाइयों का अभिनन्दन कीजिये। "महाराज ! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोलीं, वे सर्वज्ञ हैं और सबकुछ उनकी दृष्टि के सामने है उन्होंने मुझसे कहा था 'पांचालकुमारी ! राजा युधिष्ठिर बड़े पराक्रमी हैं, ये हजारों राजाओं का संहार करके तुम्हें बड़े सुख से रखेंगे।' किन्तु आज आपका मोह देखकर उनकी बात भी व्यर।था होती दिखाई देती है। जब जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, तो छोटे भाई भी उसी का अनुसरन करने लगते हैं। आपके उन्माद से सब पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं। जो उन्नमत्तता का काम करता है, उसका कभी भला नहीं होता; उन्नमआर्ग से चलनेवाले की तो दवा करानी चाहिये। मैं ही संसार की समस्त स्त्रियों में नीच हूं, जो बेटों के मारे जाने पर भी जीवित रहना चाहती हूं। ये सब लोग समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, फिर भी आप मानते नहीं। मैं सच कहती हूं, आप संपूर्ण पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं विपत्ति बुला रहे हैं। महाराज ! आप मान्धाता और अम्बरीष के समान तेजस्वी हैं; संपूर्ण प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए, पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित इस पृथ्वी का शासन कीजिये। उदास न होइये। नाना प्रकार के यज्ञ करके ब्राह्मणों को दान दीजिये।"