वैशम्पायनजी कहते हैं_ द्रुपदकुमारी की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले अर्जुन फिर कहने लगे_"राजन् ! दण्ड ही समस्त प्रथाओं का शासन और उनकी रक्षा करता है, सबके सो जाने पर दण्ड जागता रहता है, इसलिये विद्वानों ने दण्ड को राजा का धर्म बताया है। दण्ड से ही धर्म, अर्थ और काम की रक्षा होती है; इसलिये दण्ड त्रिवर्ग कहलाता है। दण्ड ही धन और धान्य की रखवाली करता है, इसलिये आप दण्ड धारण कीजिये। संसार की ओर देखिये_ कितने ही पापी दण्ड के भय से पाप नहीं करते, दण्ड से ही सारी व्यवस्था ठीक _ठीक चलती है। बहुत_से मनुष्य दण्ड के डर से ही एक_दूसरे का सर्वनाश नहीं करते। यदि दण्ड सबकी रक्षा न करता तो संसार के प्राणी घोर अन्धकार में डूब जाते। यह उच्छृंखल मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है। इसलिये विद्वान पुरुष इसे 'दण्ड कहते हैं। यदि ब्राह्मण अपराध करें तो उसे वाणी से अपमानित करना ही उसका दण्ड है, क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकरयंक्ष सेवा लेना उसका दण्ड है; वैश्य का दण्ड उससे जुर्माना वसूल करना है; किन्तु शूद्र के लिये सेवा के अतिरिक्त दूसरा कोई दण्ड नहीं है, उससे दण्ड के रूप में काम ही लिया जाता है। मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और और उनके धन की रक्षा के लिये जो एक मर्यादा बांधी गयी है, उसी को दण्ड कहते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यासी _ये सब दण्ड के भय से अपने_अपने मार्ग पर स्थित रहते हैं। बिना भय के न कोई यज्ञ करता है, न दान देता है और न प्रतिज्ञा_पालन पर ही दृढ़ रहना चाहता है। "रुद्र, कार्तिकेय, इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, रवि, बसु, साध्य तथा विश्वेदेव_ ये सभी देवता दण्ड देनेवाले हैं; अतः: इनके प्रताप के सामने माथा टेककर ब लोग इन्हें प्रणाम करते हैं, सभी इनकी पूजा करते हैं। मैं संसार में क्षकिसी को ऐसा नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता है; क्योंकि प्रत्येक क्रिया में कुछ_न_कुछ हिंसा का संबंध हो ही जाता है। ) जो विधाता का विधान है, उसमें विद्वान पुरुष को मोह नहीं होता। महाराज ! जिस जाति में आपका जन्म हुआ है, उसी के अनुसार आपको वर्ताव करना चाहिये। पानी में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत _से कीड़े होते हैं; कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इनकी हिंसा से सर्वथा बचा रहता हो। परंतु इसे जीवन_निर्वाह के सिवा और क्या कहां जा सकता है ? कितने ऐसे सूक्ष्म कीटाणु होते हैं, जिनका अनुमान से ही पता लगता है । मनुष्यों के पलक गिरने मात्र से उनके कंधे टूट जाते हैं। अतः ऐसे जीवों की हिंसा से कहां तक बचाव हो सकता है ?"
"जबसे जगत् में दण्ड नीति का प्रचार हुआ है, तबसे संपूर्ण प्राणियों के सभी कार्य सुचारु रूप से होने लगे हैं। संसार में भले_बुरे का विचार करनेवाला दण्ड यदि न होता तो सब जगह अंधेर मचा रहता, किसी को कुछ भी सूझ न पड़ता। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निंदा करनेवाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर जल्दी राह पर आ जाते हैं। दुनिया में सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है, सब दण्ड से विवश होकर ही ठीक रास्ते पर रहते हैं। दण्ड के भय से ही लोगों की मर्यादा _पालन में प्रवृति होती है। चारों वर्णों के लोग आनन्द से रहें, सबमें अच्छी नीति का वर्ताव हो और पृथ्वी पर धर्म तथा अर्थ की रक्षा रहे _इस उद्देश्य से ही विधाता ने दण्ड का विधान किया है। यदि पक्षी तथा हिंसक जीव दण्ड से डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों तथा यज्ञ के लिये रखें हुए हविष्यों को भी खा जाते। चारों ओर धर्म-कर्म ओं का लोप हो जाता और सारी मर्यादाएं टूट जातीं। इतना ही नहीं, जिनमें विधिपूर्वक बड़ी_बड़ी दक्षिणाए़ दी जाती हैं, वे संवत्सर यज्ञ भी बेखटके नहीं होने पाते। आश्रम_धर्म का ठीक_ठीक पालन नहीं होता और कोई भी विद्या नहीं पढ़ पाता। डंडे पड़ने का डर न होता तो रथों में जुते हुए ऊंट, बैल, घोड़े, खच्चर तथा गदहे उन्हें खींचते ही नहीं। सेवक अपने स्वामी का तथा बालक माता_पिता का कहना नहीं मानते और युवती स्त्री अपने सती धर्म पर स्थिर नहीं रहती। दण्ड पर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्ड से ही भय होता है, मनुष्यों का इहलोक और परलोक दण्ड पर ही प्रतिष्ठित है जहां दण्ड देने का सुंदर विधान है, वहां छल, पाप और ठगी नहीं देखने में आती। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के सब कार्य धन के अधीन है, परन्तु धन दण्ड के अधीन है। देखिये, दण्ड की कितनी महिमा है। "लोक_यात्रा का निर्वाह करने के लिये धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें सब_के_सब गुण ही हों अथवा जो सर्वथा गुणों से वंचित ही हो। प्रत्येक कार्य में अच्छाई और बुराई दोनों ही देखने में आती है। इन सब बातों का विचार करके आप भी प्राचीन धर्म का पालन कीजिये। यज्ञ कीजिये, दान दीजिये तथा प्रजा एवं मित्रों की रक्षा कीजिये।" अर्जुन की बात समाप्त होने पर भीमसेन कहने लगे_"राजन् ! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं, आपसे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैंने की बार निश्चय किया कि 'न बोलूं, न बोलूं, मगर अधिक दु:ख होने के कारण बोलना ही पड़ता है। आपका यह अत्यन्त मोह देखकर हमलोग विकल और निर्बल हो रहे हैं। आप संसार की गति और अगति दोनों जानते हैं, भविष्य और वर्तमान में भी आपसे कुछ छिपा नहीं है। ऐसी स्थिति में भी आपको राज्य के प्रति आकृष्ट करने का जो कारण है, उसे बता रहा हूं; ध्यान देकर सुनें।
मनुष्य की दो प्रकार की व्याधियां होती हैं; एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनो की उत्पत्ति अन्योनाश्रित है। एक के बिना दूसरी का होना संभव नहीं है। कभी शारीरिक व्याधि से मानसिक व्याधि होती है, कभी मानसिक व्याधि से शारीरिक व्याधि। जो मनुष्य बीते हुए शारीरिक अथवा मानसिक दु:ख के लिये शोक करता है, वह एक दु:ख से दूसरे दु:ख को प्राप्त होता है। उसे दोनों प्रकार के अनर्थों से कभी छुटकारा नहीं मिलता। "इसलिये जैसे भीष्म और द्रोण के साथ आपका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार अपने मन के साथ भी आपको लड़ना चाहिये। उसका समय अब आ गया है। इस युद्ध में न बाणों का काम है, न मित्र और बन्धुओं की सहायता का। अकेले आपको लड़ना है। मन को जीते बिना आपकी क्या दशा होगी, मैं कह नहीं सकता। हां, उसे जीतकर आप अवश्य कृतार्थ हो जायेंगे। प्राणियों के आवागमन का विचार कर अपनी बुद्धि को स्थिर कीजिये और बाप_दादों का राज्य चलाइये। सौभाग्य की बात है कि पापी दुर्योधन सेवकों सहित मारा गया; अब आप अश्वमेध यज्ञ करके विधिपूर्वक दक्षिणा दीजिये। हम सब लोग आपके दास हैं।