वैशम्पायनजी कहते हैं_भीमसें की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर बोले_"भीम ! असंतोष, प्रमाद, मद, राग, अशांति, बल, मोह, अभिमान तथा उद्वेग_इन प्रबल पापों ने तुम्हारे मन को वशीभूत कर लिया है; इसीलिये तुम्हें राज्य की इच्छा होती है। भाई ! भोगों की आसक्ति छोड़ो और बन्धन मुक्त होकर शान्त और सुखी हो जाओ।आग कितनी ही धधकती क्यों न हो; उसमें ईंधन न डाला जाय तो अपने_आप शान्त हो जाती है।
इसी प्रकार तुम भी अपना आहार कम करके पेट की आग शान्त करो, यह आजकल बहुत बढ़ गयी है। पहले अपने पेट को जीतो; फिर ऐसा समझा जायगा इस जीती हुई पृथ्वी के द्वारा तुमने कल्याण पर विजय पायी है। भीम सेन ! तुम मनुष्यों के काम भोग तथा ऐश्वर्य की प्रशंसा करते हो; किन्तु जो भोगों से रहित और तुम्हारी अपेक्षा बहुत दुर्बल है, वे ऋषि_मुनि ही सर्वोच्च पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग पत्ते चबाते हैं, पत्थर पर पीसकर या दंतों से चबाकर ही खाते हैं; अथवा पानी और हवा पीकर ही रह जाते हैं, उन तपस्वियों ने ही नरक पर विजय पायी है। ( वहां तुम्हारे_जैसे वीरों की वीरता नहीं काम देती। ) एक ओर सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन करनेवाला राजा है और दूसरी ओर पत्थर और सोने को एक समझनेवाला मुनि। इन दोनों में मुनि ही कृतार्थ है राजा नहीं। अपने मनोरथ के पीछे बड़े_बड़े कार्यों का आरम्भ न करो। आशा तथा ममता ने रखो। इससे तुम्हें इहलोक और परलोक में भी शोकरहित स्थान प्राप्त होगा। जिन्होंने भोगों की आसक्ति छोड़ दी है, वे कभी शोक नहीं करते। फिर भी तुम क्यों भोगों की चिंता कर रहे ? यदि संपूर्ण भोगों का परित्याग कर दो तो मिथ्यावादी से छूट जाओगे। परलोक के दो मार्ग प्रसिद्ध हैं_पितृयान और देवयान। सकाम यज्ञ करनेवाले पितृयान से जाते हैं और मोक्ष के अधिकारी देवयान से। महर्षि गन तप, ब्रह्मचर्य तथा स्वाध्याय के बल पर ऐसे राज्य में पहुंच जाते हैं, जहां मृत्यु का प्रवेश नहीं है। राजा जनक समस्त द्वन्दों से रहित और जीवनमुक्त पुरुष थे, उन्हें मोक्षरूप आत्मा का साक्षात्कार हो गया था। पूर्वकाल में जो उन्होंने उद्गार प्रकट किया था, उसे लोग इस प्रकार बताते हैं _'दूसरों की दृष्टि में मेरे पास अनन्त धन है, परन्तु मेरा उसमें कुछ भी नहीं है। सारी मिथिला जल जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलेगा।' जो स्वयं द्रष्टा रूप से रहकर इस दृश्य_प्रपंच को देखता है, वहीं आंखवाला और वही बुद्धिमान हैं। अज्ञात तत्वों का ज्ञान एवं सभ्यक् बोध ( निश्चय ) करानेवाली वृत्ति को बुद्धि कहते हैं। जब मनुष्य भिन्न_भिन्न प्राणियों को एक ही परमात्मा में स्थित देखता है तथा उसु से सबका विस्तार हुआ मानता है, उस समय वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। बुद्धिमान और तपस्वी ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। जो जड़ और अज्ञानी हैं, जिनमें शुद्ध बुद्धि तथा तप का अभाव है, ऐसे लोगों की वहां पहुंच नहीं होती। वास्तव में सबकुछ बुद्धि में ही स्थित है।' यों कहकर राजा युधिष्ठिर चुप हो गये, तब अर्जुन ने फिर कहा 'महाराज ! जानकर लोग राजा जनक और उनकी स्त्री का संवादरूप एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। राजा जनक ने राज वे यह परित्याग करके भीख मांगने का निश्चय किया था; उस समय उनकी रानी ने दु:खी होकर जो कुछ कहा था, वही आपको सुना रहा हूं।' 'कहते हैं, एक दिन राजा जनक पर मूढ़ता सवार हुई। वे धन, संतान, स्त्री, नाना प्रकार के रत्न तथा अग्निहोत्र का भी त्याग करके भिक्षुक के तरह मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहने लगे। स्वामी को इस अवस्था में देखकर रानी को बड़ा रंज हुआ, वे एकान्त में उनके पास जाकर बोलीं_'राजन् ! आपको भिक्षुक की भांति मुट्ठीभर भुना हुआ जौ खाकर रहना उचित नहीं है। आपकी यह प्रतिज्ञा और चेष्टा सब राजधर्म के विरुद्ध है। यह महान् राज्य छोड़कर यदि आप थोड़े_से अन्न में संतोष मानते हैं तो इतने से अतिथि, देवता, ऋषि और पितरों का भरण_पोषण कैसे किया जा सकता है ? मैं तो समझती हूं, आपका यह परिश्रम व्यर्थ है। आपने कर्मों को को त्यागा है; इसलिये देवता, अतिथि और पितरों ने भी आपका परित्याग कर दिया है। आपके रहते ही आपकी माता आज से पुत्रहीना हुई और यह अभागिनि कौसल्या भी पतिहीना।भला, कहिये तो,_ ये नाना प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण छोड़कर आप किसलिये संन्यासी हो रहे हैं ? क्यों निष्क्रिय जीवन व्यतीत करते हैं ? आप संपूर्ण भूतों के लिये प्याऊ के समान थे, सभी आपके यहां अपनी प्यास बुझाने आते थे। इसी तरह एक समय था, जब आप फलों से भरे हुए वृक्ष की भांति सब जीवों की भूख मिटयि करते थे; किन्तु अब मुट्ठीभर अन्न के लिये स्वयं ही दूसरों के सामने हाथ फैलायेंगे ! जब सबकुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौं के लिये दूसरों की पकऋपआ चाहते हैं, तो इस त्याग में और राज करने में अंतर ही क्या रहा ? दोनों एक_से ही तो हैं, फिर क्यों कष्ट उठा रहे है ? मुट्ठीभर जौं की आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सर्वत्याग की प्रतिज्ञा कहां रही ? 'महाराज ! यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो इस पृथ्वी का पालन कीजिये और राजमहल, शय्या, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणों को उपयोग में लाइये। जो बराबर दूसरों से दान देता है तथा जो निरंतर स्वयं ही दान करता रहता है, उन दोनों में क्या अन्तर है ? उनमें कौन_सा श्रेष्ठ है ? इसे आप समझिये। संसार में साधु_संतों को अन्न देनेवाले राजा की आवश्यकता है; यदि दान करनेवाला राजा ने रहे तो मोक्ष चाहनेवाले महात्माओं का जीवन_निर्वाह कैसे हो ? अन्न से ही प्राण की पुष्टि होती है, इसलिये अन्न देनेवाला प्राणदाता होता है। गृहस्थ आश्रम से अलग होकर भी त्यागी लोग गृहस्थों के सहारे ही जीवन धारण करते हैं। जो आसक्ति रहित और सब प्रकार के बंधन से मुक्त है, शत्रु और मित्र में समान भाव रखता है, वह किसी भी आश्रम में रहकर मुक्त ही है। बहुत _से लोग तो दिन लेने या पेट पालने के लिये मूंड़ मूड़ाकर गेड़ुए वस्त्र पहनकर घर से निकल जाते हैं, वे नाना प्रकार के बंधनों से बंधे होने के कारण भोगों की ही खोज में डोलते _फिरते हैं। हृदय का राग आदि दोष न दूर हुआ तो गेरुआ वस्त्र धारण करना विडम्बना मात्र है।
मेरा तो विश्वास है कि धर्म का ढोंग रचने वाले मथमुंडे अपनी जीविका चलाने के लिये ही ऐसा करते हैं। जो हो, आप तो साधु_महात्माओं का पालन_पोषण करते हुए जितेन्द्रिय होकर पुण्यलोकों पर अधिकार प्राप्त कीजिये। जो प्रतिदिन गुरु के लिये समिधा लाता है अथवा निरंतर बहुत_सी दक्षिणाओं वाले यज्ञ करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा ?'
"( इस तरह रानी के समझाने से जनक ने संन्यास का विचार छोड़ दिया।) राजा जनक संसार में तत्ववेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं, किंतु उन्हें भी मोह हो गया था। उन्हीं की भांति आप भी मोह में न पड़िये। यदि हमलोग हमेशा दान और तप में तत्पर रहकर अपने धर्म का अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणों से सम्पन्न रहेंगे, काम क्रोधादि दोषों को त्याग देंगे तथा अच्छी तरह से दान देते हुए प्रजापालन में लगे रहेंगे तो गुरु और वृद्धजन की सेवा करते हुए हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार ब्राह्मण सेवी और सत्यभाषी होकर देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों की सेवा करते रहने में भी हमें अपना इष्ट स्थान प्राप्त हो जायगा। " राजा युधिष्ठिर ने कहा_भैया ! मैं धर्म का प्रतिपादन करनेवाले और पर तथा अपर ब्रह्म का निरुपण करनेवाले दोनों प्रकार के शास्त्र को जानता हूं तथा मुझे कर्मानुष्ठान और कर्म त्याग दोनों का प्रतिपादन करनेवाले वेद_वाक्यों का भी ज्ञान है। इसके सिवा परस्पर विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करनेवाले वाक्यों का भी मैंने युक्तिपूर्वक विचार किया है और उन वाक्यों का जो तात्पर्य है, उसे भी मैं विधिवत् जानता हूं। तुम तो केवल शस्त्रविद्या के ही जानकार हो और वीरों का धर्म पालन करते हो। शास्त्र के यथार्थ मर्म को तुम किसी प्रकार नहीं समझ सकते। जो लोग शास्त्र के सूक्ष्म रहस्य को जानते हैं और धर्म का निश्चय करने में कुशल हैं तुम्हारी तरह तो वे भी मुझे उपदेश नहीं दे सकते। तथापि भ्रातृस्नेहवशवश तुमने जो कुछ कहा है वह न्यायसंगत और उचित ही है, उससे अधिक न्यायसंगत और उचित ही है, उससे मुझे भी तुम्हारे प्रति प्रसन्नता ही हुई है। युद्ध के धर्मों में और संग्राम करने की कुशलता में तो तुम्हारे समान तो तीनों लोकों में भी कोई नहीं है। परन्तु जिन महानुभावों की बुद्धि परमार्थ में लगी हुई है, उनका विचार है कि तप और त्याग दोनों ही परस्पर एक_दूसरे से श्रेष्ठ हैं। अर्जुन ! तुम जो ऐसा समझते हो कि धन से बढ़कर कोई चीज ही नहीं है, सो ठीक नहीं है; वास्तव में धन का कोई महत्व नहीं है, यह बात जिस तरह से समझ में आ जाय वहीं तुम्हें बता रहा हूं। इस लोक में तप और स्वाध्याय में लगे हुए भी अनेकों धर्मनिष्ठ पुरुष दिखायी देते हैं। वे तपस्वी ऋषि ही हैं, जो अन्त में सनातन लोकों को प्राप्त करते हैं। अनेकों ऐसे भी अजातशत्रु धैर्यवान वनवासी हैं, जो वन में रहकर स्वाध्याय करते हुए स्वर्गलोक प्राप्त कर लेते हैं। कोई भद्रपुरुष इन्द्रियों को उनके शिष्यों से रोककर अविवेकजनित अज्ञान के मार्ग से छूटकर देवयान मार्ग के वाला त्यागियों का लोक प्राप्त कर लेते हैं और कोई तेजोमय दक्षिण मार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होते हैं। किन्तु मोक्षमार्गी पुरुषों की गति तो अनिवर्चनीय है। अतः योग ही सब साधनों में धान माना गया है। पर उसका स्वरूप जानना बहुत कठिन है। विद्वान लोग सार_असार वस्तु का विवेक करने की इच्छा से निरंतर शात्र का विचार करते रहते हैं और वे अपने स्वरूप में स्थित हुए यहीं मुक्त हो जाते हैं। वह आत्मतत्व अत्यंत सूक्ष्म है, नेत्र से उसे देखा नहीं जा सकता और वाणी से कहा नहीं जा सकता। जो बड़े युक्तिकुशल विद्वान हैं, वे भी इस आत्मतत्व के विषय में चक्कर में पड़ जाते हैं, साधारण जीवों की तो बात ही क्या है ? इसी प्रकार बड़े _बड़े बुद्धिमान, श्रोत्रिय और शास्त्रज्ञों के लिये भी यह अत्यंत दुर्विज्ञेय है। किन्तु अर्जुन ! तत्वज्ञलोग तो तप, ज्ञान और त्याग से उस निय महान् सुख को प्राप्त कर लेते हैं।