वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! युधिष्ठिर की बात पूरी होने पर वहां बैठे देवस्थान नाम के एक तपस्वी ने ये युक्तियुक्त वचन कहने आरम्भ किये, 'अज्ञातशत्रो ! आपने धर्मानुसार ये सारी पृथ्वी जीती है। इसे आपको व्यर्थ ही नहीं त्याग देना चाहिये। राजन् ! ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और सन्यास_ये चारों आश्रम ब्रह्म को प्राप्त करने की चार सीढ़ियां हैं और इनका वेद में प्रतिपादन किया गया है। अतः: आपको इन्हें क्रम से ही पार करना चाहिये। आप अभी बड़ी_बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ कीजिये। स्वाध्याय यज्ञ तो ऋषिलोग किया करते हैं और कोई_कोई ज्ञानयज्ञ भी करते हैं । गृहस्थ तो यज्ञ के लिये ही संपूर्ण धन का संचय करते हैं। वे यदि अपने शरीर अथवा किसी अयोग्य कार्य के लिये उसका दुरुपयोग करते हैं तो भ्रूणहत्या_जैसे दोष के भागी बनते हैं। ब्रह्मा ने यज्ञ के लिये ही धन की रचना की है और यज्ञ के लिये ही पुरुष को उसका रक्षक नियुक्त किया है। अतः यज्ञ के लिये सारा धन खर्च कर देना चाहिये। उसके बाद शीघ्र ही कामना की सिद्धि हो जाती है। राजन् ! अविक्षित के पुत्र राजा मरीच ने बड़ी धूमधाम से इन्द्र का यजन किया था। उनके यज्ञ में लक्ष्मी देवी स्वयं पधारी थीं और उनके सभी यज्ञपात्र सुवर्ण के थे। राजा हरिश्चन्द्र कानाम भी आपने सुना ही होगा। उन्होंने भी बड़ा धन खर्च करके इन्द्र का यजन किया था, उससे वे पुण्यों के भागी हुए और शोकरहित हो गये। इसलिये सारा धन यज्ञ में ही लगा देना चाहिये। "राजन् ! मनुष्य के मन में संतोष होना स्वर्ग से भी बढ़कर है। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष से बढ़कर संसार में कोई बात नहीं है। उसकी ठीक_ठीक स्थिति तभी होती है जब मनुष्य कछुआ जैसे अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार अपनी सब कामनाओं को सब ओर से समेट लेता है। उस समय तुरंत ही आत्मज्योति:स्वरूप परमात्मा अपने अंत:कर्ण में ही प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। जब मनुष्य किसी से भी भय नहीं मानता तो उससे भी किसी को कोई डर नहीं रहता। वह काम और द्वेष को जीत लेता है तथा आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है। 'कोई लोग तो शान्ति की प्रशंसा करते हैं और कोई उद्योग के गुण गाते हैं। कोई इनमें से प्रत्येक को ही अच्छा बताते हैं और कोई एक साथ ही दोनों को। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं और कोई एक साथ ही दोनों को। कोई यज्ञ को ही अच्छा बताते हैं, कोई संन्यास को और कोई दान को। कोई सबकुछ छोड़कर चुपचाप भगवान् के ध्यान में मग्न रहते हैं और कोई राज्य पाकर प
राजा का पालन करते रहना ही अच्छा समझते हैं। किन्तु इन सब बातों पर विचार करके बुद्धिमानों ने तो यही निश्चय किया है कि किसी से द्रोह न करना, सत्य भाषण देना, दान देना, सबपर दया रखना, इन्द्रियों का दमन करना, अपनी ही स्त्री से पुत्रोंत्पति करना तथा मृदुता, लज्जा और अचंचलता_ये ही रवाना धर्म हैं तथा ऐसा ही स्वायंभुव मनु ने भी कहा है। राजन् ! आप भी प्रयत्न पूर्वक इसी धर्म का पालन करें। भूपति का यह धर्म है कि इन्द्रियों को सर्वदा अपने अधीन रखें, प्रिय और अप्रिय में समान रहे, यज्ञानुष्ठान से जो बचे उसी अन्न का सेवन करें, शास्त्र के रहस्य को जाने, दुष्टों का दमन करता रहे, साधुओं की रक्षा करें, प्रजा को धर्म मार्ग पर ले जाकर उसके साथ धर्मानुसार व्यवहार करें और अन्त में पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर वन में चला जाय। वहां भी वन के फल_मूलादि से निर्वाह करता हुआ आलस्य त्यागकर शास्त्रोक्त कर्मों का ही विधिपूर्वक आचरण करें। जो राजा इस प्रकार वर्ताव करता है, वहीं धर्म को जाननेवाला है। उसके इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर जाते हैं। इस प्रकार जो धर्म का अनुसरण करते थे, सत्य, दान और तप में लगे रहते थे, दया आदि गुणों से सम्पन्न थे, काम क्रोधादि दोषों से दूर रहते थे, सर्वदा प्रजापालन में तत्पर रहते थे, उत्तम धर्मों का आचरण करते थे और गौ एवं ब्राह्मणों की रक्षा के लिये युद्ध ठानते थे, ऐसे अनेकों राजा उत्तम गति को प्राप्त हो चुके हैं। इसी प्रकार रुद्र, वसु, आदित्य, साध्य और अनेकों राजर्षियों ने भी इसी धर्म का आश्रय लिया था तथा निरंतर सावधान रहकर अपने पवित्र कर्मों का आचरण करने से स्वर्ग प्राप्त किया था।' वैशम्पायनजी कहते हैं_जनमेजय ! इस प्रकार जब देवस्थान मुनि का भाषण समाप्त हुआ तो अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर से, जो अभी तक बहुत उदास थे, फिर कहा, 'राजन् ! आप धर्मज्ञ हैं, आपने क्षत्रिय_धर्म के अनुसार ही यह दुर्लभ राज्य प्राप्त किया है। फिर आप इतने दु:खी क्यों हैं ? महाराज ! आप क्षात्रधर्म का विचार कीजिये। क्षत्रिय के लिये तो धर्मयुद्ध में मर जाना अनेकों यज्ञों से भी बढ़कर है। तप और त्याग तो ब्राह्मणों केज्ञधम हैं। दूसरे के धन से अपना निर्वाह करना यह क्षत्रिय का धर्म नहीं है। आप तो सब धर्मों को जानते हैं, धर्मात्मा हैं, बुद्धिमान हैं, कार्यकुशल हैं और संसार में आगे_पीछे की सब बातों पर दृष्टि रखनेवाले हैं तथा अपने क्षात्रधर्म के अनुसार शत्रुओं को परास्त करके यह निष्कंटक राज्य प्राप्त किया है। अतः अब मन को वश में रखकर आप यज्ञ_ दानादि का अनुष्ठान कीजिये। देखिये, इन्द्र कश्यप ब्राह्मण का पुत्र था, परन्तु अपने कर्म से वह क्षत्रिय हो गया था। लोक में उसके इस कर्म को प्रशंसनीय ही माना गया है। अतः जो कुछ हो चुका है, उसके लिये आप शोक न करें। वे सब वीर तो क्षात्रधर्म के अनुसार शस्त्रों से मारे जाकर परम गति को ही प्राप्त हुए हैं।