वैशम्पायनजी कहते हैं_ जनमेजय ! अर्जुन के इस प्रकार समझाने पर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब महर्षि व्यास कहने लगे_'सौम्य ! अर्जुन का कथन बहुत ठीक है। गृहस्थ_धर्म बहुत उत्तम है और शास्त्रों में उसका वर्णन किया गया है। धर्मज्ञ ! तुम शास्त्रानुसार स्वधर्म का ही आचरण करो। तुम्हारे लिये घर छोड़कर वन में जाने का विधान नहीं है। देखो, देवता, पितर, अतिथि और सेवक इन सबका निर्वाह गृहस्थ के द्वारा ही होता है। अतः तुम इन सबका पालन करो। पक्षु_पक्षी और समस्त प्राणियों का पेट भी गृहस्थों के कारण भरता है, इसलिये गृहस्थ ही सबसे श्रेष्ठ है। तुम्हें वेद का पूरा ज्ञान है और तुमने तपस्या भी बहुत बड़ी की है। इसलिये अपने इस पैतृक राज्य का भार उठाने में तुम सब प्रकार से समर्थ हो। राजन् ! तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रियों का संयम, ध्यान, एकान्तसेवन, संतोष और शास्त्रज्ञान_ ये सब बातें तो ब्राह्मणों को सिद्धि देनेवाली है।
क्षत्रियों के धर्म यद्यपि तुम जानते ही हो तो भी मैं उन्हें सुनाता हूं_यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओं पर चढ़ाई करना, राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति से कभी संतुष्ट न होना, दण्ड देना, दबदबा रखना, प्रजा का पालन करना, समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त करना, तप, सदाचार, द्रव्योपार्जन और सुपात्र को दान देना_क्षत्रिय के ये सब कर्म उसे इहलोक और परलोक दोनों में ही सफलता देनेवाले हैं।इनमें भी दण्ड धारण करना उसका सबसे प्रधान धर्म है। इसके लिये उसमें सर्वदा बल रहना चाहिये; क्योंकि दण्ड विधान बल के द्वारा ही हो सकता है। राजन् क्षत्रियों को तो इन्हीं धर्मों के द्वारा सिद्धि प्राप्त हो सकती है। हमने सुना है कि राजर्षि सुध्युम्न ने दण्डधारण के द्वारा ही परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। इस विषय में यह प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है; तुम ध्यान देकर सुनो। 'शंख और लिखित नामक दो भाई थे। वे बड़े ही तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तीर पर उनके अलग_अलग आश्रम थे, जो बड़े ही रमणीय और सर्वदा फल_पुष्पादि से लदे रहते थे। एक बार लिखित शंख के आश्रम पर आये। दैववश उस समय शंख बाहर गये हुए थे। लिखित ने भाई की अनुपस्थिति में वहां के बहुत _से पके फल तोड़ लिये और वे उन्हें वहीं बैठकर खाने लगे। इतने में ही शंख वहां आ गये। उन्होंने लिखित को फल खाते देकर कहा, 'भैया ! तुम्हें ये फल कहां से मिले।' इसपर लिखित ने बड़े भाई के पास जाकर उनसे हंसते_हंसते कहा, ये तो मैंने इस सामनेवाले वृक्ष से ही थोड़े हैं।' इसपर शंख ने कहा, 'तुमने मुझसे बिना पूछे स्वयं ही फल तोड़कर तो चोरी की है, इसलिये तुम राछजा के पास जाओ और उसे अपना सब कर्म सुनाकर कहो कि 'राजन् ! बिना दिये दूसरे की चीज लेकर मैंने चोरी का अपराध किया है, इसलिये यह सब जानकर आप अपना धर्मपालन कीजिये और तुरन्त ही मुझे वह दण्ड दीजिये जो चोर को दिया जाता है। 'तब भाई की आज्ञा सिर पर धारण कर लिखित राजा सुध्युम्न के पास गये और उनसे बोले, 'राजन् ! मैंने बिना आज्ञा लिये अपने बड़े भाई के फल खा लिये हैं, इसलिये आप मुझे दण्ड दीजिये।' 'सुद्युम्न ने कहा, 'विप्रवर ! यदि आप दण्ड देने में राजा को प्रमाण मानते हैं तो क्षमा करने का भी उसको अधिकार है ही। अतः: मैं आपको क्षमा करता हूं। इसके सिवा मेरे योग्य कोई सेवा हो तो उसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये। मैं उसे पालन करने का प्रयत्न करुंगा।' 'परन्तु राजा के बहुत प्रार्थना करने पर भी लिखित ने दण्ड के लिये ही आग्रह किया। उसके सिवा और किसी प्रकार की बात उन्होंने स्वीकार नहीं की। तब राजा ने चोरी का दण्ड देते हुए उनके दोनों हाथ कटवा दिये। इस प्रकार दण्ड पाकर वे शंख के पास आये और अत्यन्त दिन होकर उनसे प्रार्थना की कि ' मुझे दण्ड प्राप्त हो गया है, अब आप मुझ मन्दमति को क्षमा करें।' 'शंख ने कहा, 'भैया ! मैं तुमपर कुपित नहीं हूं। तुम तो धर्म को जाननेवाले हैं। तुम्हें धर्म का उल्लंघन हो गया था। उसी का तुम्हें दण्ड मिला है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदी के तट पर जाकर विधिवत् देवता और पितरों का तर्पण करो। भविष्य में कभी अधर्म में मन मत ले आना। 'शंख की बात सुनकर लिखित ने बाहुदा के पुनीत एवं में स्नान किया और फिर वेज्योंही तर्पण करने के लिये तैयार हुए कि उनकी भुजाओं में से कमल के समान दो हाथ प्रकट हो गये। इससे उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने भाई को जाकर वे हाथ दिखाये। शंख ने कहा, 'भाई ! तुम शंका न करो। मैंने अपने तप के प्रभाव से ये हाथ उत्पन्न किये हैं।' इसपर लिखित ने पूछा, 'विप्रवर ! यदि आपके पास तप का ऐसा प्रभाव है तो आपने पहले ही मेरी शुद्धि क्यों नहीं कर दी ?' शंख बोले, 'यह ठीक है; परन्तु तुम्हें दण्ड देने का अधिकार मुझे नहीं है; यह तो राजा का ही काम है। इससे राजा की भी शुद्धि हुई है और पितरों सहित तुम भी पवित्र हो गये हो।' इसी प्रकार प्रणेताओं के पुत्र दक्ष ने भी उत्तम सिद्धि प्राप्त की थी। प्रथाओं का पालन करना_यही क्षत्रियों का मुख्य धर्म है। इसलिये राजन् ! आप शोक त्यागियों। अपने भाई अर्जुन की हितकारिणी बात पर ध्यान दीजिये। क्षत्रियों का प्रधान कर्तव्य तो दण्ड धारण करना ही है, मूंड़ मुड़ाना उनका काम नहीं है।'तात ! वन में रहते समय तुम्हारे धीर_वीर भाइयों ने जो मनोरथ किये थे उन्हें अब सफल होने दो। तुम नहुष पुत्र ययाति के समान पृथ्वी का पालन करो। अपने भाइयों के साथ धर्म अर्थ और काम का भोग करो। पीछे प्रसन्नता से वन में चले जाना। पहले अतिथियों, पितरों और देवताओं के ऋण से उऋण हो लो, इसके बाद यह सब करना। अभी तो सर्वमेध और अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करो। यदि तुम अपने भाइयों के साथ बड़ी_बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ करोगे तो तुम्हें अतुलित यश प्राप्त होगा। 'राजन् ! मैं तुमसे जो बात कहता हूं उसपर ध्यान दो वैसा करने से तुम अपने धर्म से नहीं गिरोगे। देखो, जो राजा कर का छठा भाग लेकर भी राष्ट्र की रक्षा नहीं करता वह अपनी प्रजा के चतुर्थांश पाप का भागी बनता है। यदि राजा धर्मशास्त्र का उल्लंघन करता है तो पतित हो जाता है और यदि उसका अनुसरण करता है तो निर्भय हो रहता है। यदि काम क्रोध छोड़कर वह पिता के समान सारी प्रजा के प्रति समदृष्टि रखें तो इस शास्त्रोक्त बुद्धि का आश्रय लेने से उसे किसी प्रकार पाप का संसर्ग नहीं होता ।
शत्रुओं को अपने तेज और बुद्धि के बल से काबू में रखना चाहिये। पापियों के साथ कभी मेल नहीं करना चाहिये तथा अपने राज्य में पुण्यकर्मों का अनुष्ठान कराना चाहिये। शूरवीर, श्रेष्ठ, सत्कर्म करनेवाले विद्वान्, वेदपाठी, ब्राह्मण और धनवानों की विशेष रक्षा करनी चाहिये। जो बहुश्रुत हैं उन्हें धर्म कृत्यों में नियुक्त करना चाहिये तथा एक व्यक्ति में, चाहे वह कैसा भी गुणवान् हो कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता, वइनयहईन है, मानी है, मान्य पुरुषों का सत्कार नहीं करता और गुणों में भी दोष दृष्टि करता है, वह पापी हो जाता है और लोक में उसे दुर्दांत ( क्रूर ) कहा जाता है। की बार प्रजा लोग जो राजा की ओर से सुरक्षित न होने के कारण अनावृष्टि आदि दैविक आपत्तियों से नष्ट हो जाते हैं तथा चोरों के उपद्रवादी से दु:ख पाते हैं, उसमें राजा ही दोष का भागी होता है। किन्तु पूरे_पूरे विचार और नीति के साथ सब प्रकार प्रयत्न करने पर भी यदि सफलता न मिले तो उस अवस्था में राजा को पाप नहीं होता। ' राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें हयग्रीव का प्रसंग सुनाया हूं। वह बड़ा शूरवीर और पवित्र कर्म करनेवाला था। उसने संग्राम में अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया था। परन्तु पीछे ना:सहाय हो जाने पर शत्रुओं ने उसे हराकर मार डाला। वह शत्रुओं का निग्रह और प्रजा का पालन करने में बड़ा ही कुशल था। इससे उसे बड़ी कीर्ति भी मिली थी। उसने विचारपूर्वक न्याय के अनुसार अपने राज्य का पालन किया, अहंकार को पास नहीं आने दिया और अनेकों यज्ञों का अनुष्ठान किया। इस प्रकार संपूर्ण लोकों को अपने सुयश से व्याप्त करके वह महात्मा स्वर्ग में सुख भोग रहा है। उसने यज्ञादि के अनुष्ठान से दैवी और दण्ड नीति से मानुष सिद्धि प्राप्त की थी तथा धर्मशास्त्र के अनुसार प्रजा का पालन किया था। वह बड़ा विद्वान, त्यागी, श्रद्धालु और कृतज्ञ था। इस लोक में उसने अनेकों पुण्यकर्म किये और फिर देह त्यागकर उन पुण्यलोकों को प्राप्त किया जो बड़े _बड़े मेधावी, विद्वान, माननीय और प्रयागराज तीर्थस्थानों में शरीर छोड़नेवालों को मिलते हैं।'