वैशम्पायनजी कहते हैं_राजमहर्षि व्यास की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा, 'भगवन् ! इस पृथ्वी के राज्य और तरह_तरह के भोगों से मेरे मन को प्रसन्नता नहीं है, मुझे तो यह शोक खाये जा रहा है। जिनके पति और पुत्र नष्ट हो गये हैं, ऐसी इन अफवाहों का विलाप सुनकर मुझे तनिक भी चैन नहीं है। राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार कहने पर वेदपारंगत श्रीव्यासजी ने कहा_'राजन् ! जो लोग मरू गये हैं वे तो अब किसी भी कर्म या यज्ञादि से मिल नहीं सकते और न कोई ऐसा पुरुष ही है जो उन्हें लाकर दे दे। बुद्धि या शास्त्राध्ययन के द्वारा असमय ही किसी विशेष वस्तु को पा लेना मनुष्य के वश की बात नहीं है। कभी_कभी तो मूर्ख मनुष्य को भी उत्तम वस्तु की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में कार्य की सिद्धि में काल ही की प्रधानता है। शिल्प, मंत्र और औषधियां भी दुर्भाग्य के समय फल नहीं देतीं। समय की अनुकूलता होने पर जब सौभाग्य का उदय होता है तो वे ही सफलता और बुद्धि की निमित्त बन जाती है। समय आने पर ही मेघ जल बरसाते हैं, बिना समय के वृक्षों में फल_फूल भी नहीं लगते तथा जबतक अनुकूल समय नहीं आता तब तक पक्षी, सर्प, हाथी और हरिणों में कामोन्माद नहीं आता, स्त्रियां गर्भ धारण नहीं करतीं, जाड़ा, गर्मी और वर्षा ऋतुएं नहीं आतीं। किसी का जन्म या मरण नहीं होता, बालक बोलना आरम्भ नहीं करता, मनुष्य पर यौवन नहीं आता और बोया हुआ बीज अंकुरित नहीं होता। इसी प्रकार सूर्य के उदय और अस्त, चन्द्रमा के वृद्धि और ह्रास तथा समुद्र के उतार_चढ़ाव भी बिना अनुकूल समय आये नहीं होते। राजन् ! इस विषय में राजा सएनजइत् ने जो कुछ कहा था वह प्राचीन उपदेश मैं तुम्हें सुनाता हूं। 'राजा ने कहा था_'यह दु:सह कालचक्र सभी मनुष्यों पर अपना प्रभाव डालता है। पृथ्वी के सभी पदार्थ समय आने पर जीर्ण होकर नष्ट हो जाते हैं। धन, स्त्री, पुत्र अथवा पिता के नष्ट हो जाने पर पुरुष 'हाय ! कैसा दु:ख है' ऐसा सौचकर ही फिर उस दु:ख की निवृत्ति का उपाय करता है। किन्तु तुम मूर्ख बनकर शोक क्यों करते हो ? जो शोकरूप ही थे उनके लिये शोक क्या करना। तुम्हारे दु:ख मानने से तो दु:खों की और भय मानने से भयों की वृद्धि ही होगी। न तो यह शरीर मेरा है और सारी पृथ्वी ही मेरी है। यह जैसी मेरी है वैसे ही और सबकी भी है। ऐसी दृष्टि रखने से जीव कभी मोह में नहीं फंसता। शोक के हजारों स्थान हैं और हर्ष के भी सैकड़ों अवसर हैं। किन्तु उनका प्रभाव रोज_रोज मूर्खों पर ही पड़ता है, विद्वानों पर नहीं। संसार में तो केवल दु:ख ही है, सुख तो है ही नहीं; इसलिये लोगों को दु:ख की ही उपलब्धि होती है। यहां सुख के पीछे दु:ख और दु:ख के पीछे सुख लगा ही रहता है। सुख का अन्त तो दु:ख में ही होता है।। कभी_कभी दु:ख से भी सुख की प्राप्ति हो जाती है; इसलिये जिसे नित्य सुख की इच्छा हो वह सुख_दुख दोनों को ही त्याग दे। सुख या दु:ख अथवा प्रिय और अप्रिय जो कुछ प्राप्त हो उसे हृदय में अवसाद न लाकर प्रसन्नता से ग्रहण करें। भाई ! अपने स्त्री और पुत्रों के प्रति अनुकूल आचरण में थोड़ी सी भी कभी कर दो, फिर तुम्हें मालूम हो जायगा कि कौन किस हेतु से किसका किस प्रकार संबंधी है।" युधिष्ठिर ! यह सुख_दुख के मर्म को जाननेवाले परम धर्मज्ञ महामति सएनजइत् का कथन है। जिस पुरुष को जो दु:ख सता रहा है उससे कभी शान्ति मिलनेवाली नहीं है। दु:खों का अन्त कभी नहीं आता। एक के पीछे दूसरा दु:ख पैदा होता ही रहता है। सुख_दु:ख, उत्पत्ति_नाश, लाभ_हानि और जीवन_मरण_ये क्रमशः आते ही रहते हैं। अतः धीर पुरुषों को इनके कारण हर्ष या शोक नहीं करना चाहिये।
राजाओं का योग तो युद्ध की दीक्षा लेना, युद्ध करना, दण्ड नीति का ठीक_ठीक व्यवहार करना तथा यज्ञ में दक्षिणा और धनवान देना ही है। इन्हीं से उनकी शुद्धि होती है। जो राजा बुद्धिमानी से न्यायपूर्वक राज्य शासन करता है, अहंकार त्यागकर यज्ञानुष्ठान करता है, सब प्रथाओं को धर्म के अनुसार चलाता है, युद्ध में विजय पाकर राज्य की रक्षा करता है, सओमयआग करते हुए प्रजा का पालन करता है, युक्तिपूर्वक दण्ड विधान करता है, वेद_शास्त्रों का अच्छी तरह अभ्यास करता है और चारों वर्णों को अपने _अपने धर्म में स्थित रखता है, वह शुद्ध चित्त होकर अन्त में स्वर्गसुख भोगता है तथा स्वर्गस्थ हो जाने पर भी जिसके आचरण की पुरवासी, देशवासी और मंत्री लोग प्रशंसा करते हैं, उसी राजा को श्रेष्ठ समझना चाहिये।' व्यासजी के इस प्रकार कहने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा_'भैया ! तुम जो समझते हो धन से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है तथा निर्धन को स्वर्गसुख और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती_यह ठीक नहीं है।अनेकों मुनियों ने तपस्या में लगे रहकर ही सनातन लोकों को प्राप्त किया है। जो धर्मप्राण पुरुष ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर वेदाध्ययन द्वारा ऋषियों की सम्प्रदाय परंपरा की रक्षा करते रहते हैं दे देवगण उन्हें ही 'ब्राह्मण' कहते हैं। जो लोग स्वाध्यायनिष्ठ, ज्ञाननिष्ठ या धर्मनिष्ठ हैं उन्हीं को तुम ऋषि समझो। वानप्रस्थों के कहने से तो हमें यह बात मालूम हुई है कि राज्य के सब काम भी ज्ञाननिष्ठों के ही हाथ में रखे। अज, पृश्रि, सिकत अरुण और केतु नाम के ऋषिगणों ने तो स्वाध्याय के द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त कर लिया था। दान, अध्ययन, यज्ञ और निग्रह_ये सभी कर्म बहुत कठिन है। इन वेदोक्त कर्मों का आश्रय लेकर लोग दक्षिणायन मार्ग से स्वर्गलोक में जाते हैं; किन्तु जो नियम के अनुसार उत्तर मार्ग पर दृष्टि रखता है, उसे योगियों को प्राप्त होनेवाले सनातन लोकों की उपलब्धि होती है। प्राचीन काल के विद्वान् इन दोनों में से उत्तर मार्ग की ही प्रशंसा करते हैं। वास्तव में संतोष ही सबसे बड़ा स्वर्ग है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष से बढ़कर कोई चीज नहीं है। जिन पुरुषों ने क्रोध और हर्ष को अच्छी तरह वश में कर लिया है, उन्हीं को वह उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है।
इस प्रसंग में राजा ययाति की कही हुई यह कथा प्रसिद्ध है, जिसपर ध्यान देने से पुरुष कछुआ जैसे अपने अंगों को सिकोड़ लेता है उसी प्रकार
अपनी सब वासनाओं को समेट लेता है। 'राजा ययाति ने कहा था_'जब वह पुरुष किसी से नहीं डरता और इससे भी किसी को भय नहीं रहता तथा इसे किसी वस्तु की इच्छा या किसी से द्वेष नहीं रहता, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। जब यह कर्म, मन और वाणी से सभी जीवों के प्रति दुर्भावना का त्याग कर देता है तो इसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। जिसके मान और मोह दब गये हैं और जिसने बहुत पुरुषों का संग करना छोड़ दिया है, उस आत्मज्ञ महात्मा के लिये मोक्ष सुलभ हो जाता है।' 'अर्जुन ! मैं तो साफ देखता हूं कि मनुष्य धन के पीछे पड़ा हुआ है और उसके द्वारा त्याज्य कर्मों का छूटना बड़ा ही कठिन है। साधु या भी उसके लिये दुर्लभ ही है। शोक और भय से रहित होने पर भी जो पुरुष सदाचार से डिगा हुआ है, उसे धन की थोड़ी _सी तृष्णा भी हो तो वह दूसरे से ऐसा वैर ठान लेता है कि उसे पाप किमी कोई परवा नहीं होती। ब्रह्मा ने तो यज्ञ के लिये ही धन उत्पन्न किया है और यज्ञ की रक्षा के लिये ही मनुष्य की रचना की है। इसलिये सारे धन का उपयोग यज्ञ के लिये ही करना चाहिये। उसे भोग में लगाना अच्छा नहीं है। इसी से लोगों का विचार है कि कि धन कभी किसी एक का नहीं है। अतः श्रद्धावान पुरुष को उसे दान और यज्ञ में लगाते रहना चाहिये। जो धन मिले उसे दान में ही लगा दें, भोगों में न लगावें। दान देने में भी दो भूलें हुआ करती हैं। उनपर ध्यान रखना चाहिए। एक तो कुपात्र के पास धन पहुंच जाना और दूसरे सुपात्र को न मिलना। 'अर्जुन ! इस युद्ध में बालक अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, राजा विराट, द्रुपद, वृषसेन, धृष्टकेतू तथा भिन्न-भिन्न देशों के अनेकों नृपतिगण काम आ गये हैं। इस सारे बन्धुवध की जड़ में ही हूं। हाय ! मैं बड़ा ही राज्यों और क्रूर हूं। मैंने अपने कुटुंब का भी मूलोच्छेद करा डाला। इसी से मेरा शोक जरा भी दूर नहीं होता, मैं अत्यंत आतुर हो रहा हूं। मैं कैसा मूर्ख और गुरुद्रोही हूं ? भला, यह राज्य कितने दिन टिकनेवाला है; इसी के लोभ में पड़कर मैंने अपने दादा भीष्मजी को भी मरवा डाला। अरे ! उन्होंने तो हमें पाल_पोसकर बच्चे से बड़ा किया था। गुरुवार द्रोणाचार्य को मेरी सत्यवादिता में विश्वास था, इसीलिये उन्होंने मुझसे अपने पुत्र के वध के विषय में पूछा था। किन्तु मैंने हाथी की आड़ लेकर झूठ बोल दिया। ऐसा भारी पाप करके भला, मेरी किस लोक में गति होगी ? हाय मुझसे बड़ा और कौन पापी होगा ? मैंने तो अपने बड़े भाई कर्ण को भी मरवा डाला। इस राज्य के लोभ से ही मैंने बालक अभिमन्यु को कौरवों की सेवा में झोंक दिया। तबसे तो तुम्हारी और मेरी आंखें ही नहीं उठतीं। बेचारी द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गये। उनका शोक भी मुझे बाराबर सालता रहता है। अब तो तुम मुझे प्रायोपवेश के लिये ही बैठा समझो। मैं यहीं बैठे_बैठे अपना शरीर सुखा डालूंगा। इस गंगा तट पर ही मैं अपने रातों को नष्ट कर दूंगा। आप सब लोग मुझे इस प्रायश्चित की आज्ञा दीजिये।