Friday 21 February 2020

सात्यकि और दुर्योधन की युद्ध, द्रोण का घोर कर्म, ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागना की आदेश तथा अश्त्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण का जीवन से निराश होना

संजय कहते हैं___उस समय दुःशासन धृष्टधुम्न के साथ युद्ध करने लगा। उसने धृष्टधुम्न को अपने बाणों से खूब पीड़ित किया। तब वह भी क्रोध में भर गया और आपके पुत्र के घोडों पर बाणवर्षा करने लगा। एक ही क्षण में उसके बाणों की इतनी राशि जमा हो गयी कि दुःशासन का रथ उससे ढककर ध्वजा और सारथिसहित अदृश्य हो गया। धृष्टधुम्न के सायकों से दुःशासन को बड़ी पीड़ा होने लगी। इसलिये वह सब उसके सामने ठहर न सका___ पीठ दिखाकर भाग गया। इस प्रकार दुःशासन को विमुख करके धृष्टधुम्न हजारों बाणों की वृष्टि करता हुआ द्रोणाचार्य के पास पहुँचा। उस समय जो युद्ध हो रहा था, वह सर्वथा धर्मानुकूल था। कोई निहत्थे पर वार नहीं करता था, उस युद्ध में कर्णी, नालीक, विष का बुझाया हुआ बाण, दो फल वाला अपवित्र या टेढ़ा_ मेढ़ा बना हुआ बाण, वास्तिक, सूची, कपिश, गौ या हाथी की हड्डी का बना हुआ बाण___ इन सब का प्रहार नहीं किया जाता था। सब लोगों ने शुद्ध और सीधे_ सादे अस्त्रों को ही धारण कर रखा था।  सभी धर्ममय संग्राम करके उत्तम लोक और सुयश प्राप्त करना चाहते थे।
इतने में ही दुर्योधन तथा सात्यकि में मुठभेड़ हुई। वे दोनों निर्भीक होकर लड़ने लगे। साथ ही बचपन की बीती हुई बातों को याद कर परस्पर प्रेमपूर्वक देखते हुए बारम्बार हँसने लगते थे। राजा दुर्योधन अपने व्यवहार की निंदा करता हुआ प्यारे मित्र सात्यकि से बोला___’सखे ! क्रोध, लोभ, मोह, अमर्ष और क्षत्रिय आचार को धिक्कार है, जिसके कारण आज तुम मुझपर और मैं तुमपर प्रहार कर रहा हूँ। तुम मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय थे और मुझपर भी तुम्हारा ऐसा ही प्रेम था। पर आज इस रणभूमि में हम सबकुछ भूल गये हैं। दुर्योधन के ऐसा कहने पर सात्यकि ने कहा___’राजन् ! क्षत्रियों का व्यवहार ही ऐसा है। वे अपने गुरु से भी लड़ते हैं। यदि तुम मुझे प्रिय मानते हो तो जल्दी मार डालो, विलम्ब न करो। तुम्हारे कारण मैं पुण्यवानों के लोक में जाऊँगा। अब मैं जीवित रहकर अपने मित्रों पर पड़ी हुई आपत्ति नहीं देखना चाहता। इस प्रकार स्पष्ट उत्तर दे सात्यकि अपने प्राणों की परवा न करके तुरंत दुर्योधन के सामना करने आ गया।  तब दुर्योधन ने सात्यकि को दस बाण मारे; सात्यकि ने भी उसके ऊपर क्रमशः  पचास, तीस और दस बाणों की वर्षा की। दुर्योधन ने पुनः हँसते हुए तीस बाणों से सात्यकि को बींध डाला तथा क्षुरप्र से उसके धनुष को भी काट दिया। सात्यकि ने भी दूसरा धनुष ले हाथों की फुर्ती दिखाते हुए आपके पुत्र पर बाणों की झड़ी लगा दी। दुर्योधन ने अपने सायकों से उन बाणों के टुकड़े_ टुकड़े कर डाले और सात्यकि को तिहत्तर बाण मारकर व्याकुल कर दिया। फिर जब वह धनुष_बाण चढ़ा रहा था, उसी समय सात्यकि ने उसके धनुष को काट डाला और अनेकों सायकों से उसे घायल भी कर दिया। दुर्योधन वेदना से कराहता हुआ दूसरे रथ पर जा बैठा। थोड़ी देर बाद जब व्यथा कुछ कम हुई तो सात्यकि के रथ पर बाण बरसाता हुआ वह पुनः आगे बढ़ा। इसी प्रकार सात्यकि भी दुर्योधन के रथ पर बाणों की वर्षा करने लगा। फिर दोनों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। वहाँ सात्यकि को ही प्रबल होते देख कर्ण आपके पुत्र की रक्षा के लिये शीघ्र ही आ पहुँचा। महाबली भीमसेन से यह सहा नहीं गया। वे भी बाणों की वृष्टि करते हुए तुरंत वहाँ आ धमके। कर्ण ने हँसते हुए तीखे बाण मारकर भीमसेन की धनुष तथा बाण काट दिया और उनके सारथि को भी मार डाला। तब भीमसेन के क्रोध की सीमा न रही; उन्होंने गदा लेकर शत्रु के धनुष, ध्वजा, सारथि और रथ के पहिये का नाश कर डाला। कर्ण इस बात को नहीं सह सका, वह तरह_ तरह के अस्त्रों और बाणों की प्रयोग करके भीम के साथ लड़ने लगा। इसी तरह भीमसेन भी कुपित होकर कर्ण से युद्ध करने लगे। दूसरी ओर द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न आदि पांचालों को पीड़ा देने लगे। यह आचार्य के सेनापतित्व का पाँचवाँ दिन था। वे क्रोध में भरे हुए थे और पांचाल वीरों का महान् संहार कर रहे थे। शत्रु भी बड़े धैर्यवान् थे। वे उनसे युद्ध करते हुए तनिक भी भयभीत नहीं होते थे। पांचाल वीरों को मरते और द्रोणाचार्य को प्रबल होते देख पाण्डवों को बड़ा भय हुआ। उन्होंने विजय की आशा छोड़ दी। उन्हें संदेह होने लगा___ ये महान् अस्त्रवेत्ता आचार्य कहीं हम सब लोगों का नाश तो नहीं कर डालेंगे।
कुन्ती के पुत्रों को भयभीत देख भगवान् श्रीकृष्ण कहने लगे____’पाण्डवों ! द्रोणाचार्य धनुर्धारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, इनके हाथ में धनुष रहने पर इन्द्र आदि देवता भी इन्हें नहीं जीत सकते। जब ये हथियार डाल दें, तभी कोई मनुष्य इनका वध कर सकता है। मैं समझता हूँ, अश्त्थामा के मारे जाने पर ये युद्ध नहीं करेंगे; अतः कोई जाकर इन्हें अश्त्थामा की मृत्यु का समाचार सुनावे।‘ महाराज ! अर्जुन को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आयी, किन्तु और सब लोगों को भा गयी। केवल राजा युधिष्ठिर ने बड़ी कठिनाई से यह बात स्वीकार की। मालवा के राजा इन्द्रवर्मा के पास एक हाथी था, जिसका नाम था अश्त्थामा। अपनी ही सेना के उस हाथी को भीमसेन ने गदा से मार डाला और लजाते_ लजाते द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर_जोर से हल्ला करने लगे____’ अश्त्थामा मारा गया।‘ मन में उस हाथी का खयाल करके भीम ने यह मिथ्या बात उड़ा दी।
उस अप्रिय वचन को सुनकर आचार्य द्रोण सहसा सूख गये। उनका सारा शरीर शिथिल हो गया। परंतु वे,अपने पुत्र के बल को जानते थे, अतः संदेह हुआ कि यह बात झूठी है। फिर तो धैर्य से विचलित न होकर उन्होंने धृष्टधुम्न के ऊपर धावा किया और उसके ऊपर एक हजार बाणों की वर्षा की। यह देख बीस हजार पांचाल महारथियों ने चारों ओर से बाणों की झड़ी लगाकर द्रोणाचार्य को ढक दिया। द्रोण ने उनके बाणों का नाश करके उनका भी संहार करने के लिये ब्रह्मास्त्र प्रकट किया। वह अस्त्र पांचालों के गर्दन और भुजाएँ काट_काटकर गिराने लगा। पृथ्वी पर मरे हुए वीरों की लाशें बिछ गयीं। आचार्य ने उन बीसों हजार महारथियों का सफाया कर डाला। फिर वसुदान का सिर धर से अलग कर दिया। इसके बाद पाँच सौ मत्स्यों, छः हजार सृंजयों, दस हजार हाथियों तथा दस हजार घोड़ों की संहार कर डाला। इस प्रकार द्रोणाचार्य को क्षत्रियों का अन्त करने के लिये खड़ा देख अग्निदेव को आगे करके विश्वामित्र, जमदग्निनन्दन, भरद्वाज, गौतम, वशिष्ठ, कश्यप और अत्रि ऋषि उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाने के लिये वहाँ पधारे। साथ ही सिकत, पिश्रि, गर्ग, वालखिल्य, भृगु और अंगिरा आदि भी थे। ये सभी सूक्ष्मरूप धारण किये हुए थे। महर्षियों ने द्रोणाचार्य से कहा___’ द्रोण ! हथियार रख दो और यहाँ खड़े हुए हमलोगों की ओर देखो। अब तक तुमने अधर्म से युद्ध किया है। अब तुम्हारी मृत्यु का समय आया है। अबसे भी इस अत्यंत क्रूरतापूर्ण कर्म का त्याग करो। तुम वेद और वेदांगों का विद्वान हो। सत्य और धर्म में तत्पर रहनेवाले हो। सबसे बड़ी बात यह है कि तुम ब्राह्मण हो। तुम्हारे लिये यह काम शोभा नहीं देता अपने सनातन धर्म में स्थित हो जाओ। तुम्हारा इस मनुष्यलोक में रहने का समय पूरा हो चुका है। जो लोग ब्रह्मास्त्र से दग्ध किया है; तुम्हारा यह काम अच्छा नहीं हुआ। फेंक दो ये अस्त्र_ शस्त्र, अब फिर ऐसा पापकर्म न करो।‘
आचार्य ने ऋषियों की यह बात सुनी। भीमसेन के कथन पर भी विचार किया और धृष्टधुम्न को सामने देखा; इन सब कारणों से वे बहुत उदास हो गये। अब उन्हें अश्त्थामा के मरने का संदेह हुआ। वे व्यथित होकर युधिष्ठिर से पूछने लगे___’ वास्तव में मेरा पुत्र मारा गया या नहीं ?’ द्रोण के मन में यह निश्चय था कि युधिष्ठिर तीनों लोकों का राज्य पाने के लिये भी किसी तरह झूठ नहीं बोलेंगे। बचपन से ही सच्चाई में आचार्य का विश्वास था। इधर भगवान् श्रीकृष्ण ने यह सोचा कि आचार्य द्रोण अब पृथ्वी पर पाण्डवों का नामनिशान भी नहीं रहने देंगे, तो उन्होंने धर्मराज से कहा___’यदि द्रोण क्रोध में भरकर आधे दिन और युद्ध करते रहे तो मैं सच कहता हूँ तुम्हारी सेना का सर्वनाश हो जायगा। अतः तुम द्रोण से हमलोगों को बचाओ। दूसरों की प्राण_रक्षा के लिये यदि कदाचित् असत्य बोलना पड़े तो उससे बोलनेवाले को पातक नहीं लगता।‘ वे दोनों इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि भीमसेन बोल उठे___’महाराज ! द्रोण के वध का उपाय सुनकर मैंने आपकी सेना में विचरनेवाले मालवनरेश इन्द्रवर्मा के अश्त्थामा नामक हाथी को मार डाला है। उसके बाद द्रोण से जाकर कहा है___’अश्त्थामा मारा गया।‘ उन्होंने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया, इसीलिये आपसे पूछते हैं। अतः आप श्रीकृष्ण की बात मानकर द्रोण से कह दीजिये कि ‘ अश्त्थामा मारा गया’। आपके कहने से फिर वे युद्ध नहीं करेंगे; क्योंकि आप सत्यवादी हैं__ यह बात तीनों लोकों में प्रसिद्ध है।‘ महाराज ! भीम की बात सुनकर और श्रीकृष्ण की प्रेरणा से युधिष्ठिर वैसा करने को तैयार हो गये। वे असत्य के भय में डूबे हुए थे तो भी विजय में आसक्ति होने के कारण द्रोणाचार्य से ‘अश्त्थामा मारा गया’ यह वाक्य उच्च स्वर से बोलकर धीरे से बोले ‘किन्तु हाथी’। इसके पहले  युधिष्ठिर का रथ पृथ्वी से चार अंगुल ऊँचा रहा करता था, उस दिन वह असत्य मुँह से निकालते ही रथ जमीन से सट गया। महारथी द्रोण युधिष्ठिर के मुँह से वह बात सुनकर पुत्रशोक से पीड़ित हो जीवन से निराश हो गये तथा ऋषियों के कथनानुसार अपने को पाण्डवों का अपराधी मानने लगे।



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