Sunday 24 May 2020

अश्त्थामा द्वारा आग्नेयास्त्र का प्रयोग और व्यासजी का उसे श्रीकृष्ण और अर्जुन की महिमा सुनाना

संजय कहते हैं___ महाराज !  अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना भाग रही है, तो द्रोणपुत्र को जीतने की इच्छा से स्वयं आगे बढ़कर उसे रोका। फिर वे सोमक तथा मत्स्य राजाओं के साथ कौरवों की ओर लौटे। अर्जुन ने अश्त्थामा के पास पहुँचकर कहा___’तुम्हारे अन्दर जितनी शक्ति, जितना विज्ञान, जितनी वीरता और जितना पराक्रम हो, कौरवों पर जितना प्रेम और हमलोगों से जितना द्वेष हो, वह सब आज हमारे पर ही दिखा लो। धृष्टधुम्न का या श्रीकृष्ण सहित मेरा सामना करने आ जाओ; तुम आजकल बहुत उदण्ड हो गये हो, आज मैं तुम्हारा सारा घमण्ड दूर कर दूँगा।
राजन् ! अश्त्थामा ने चेदिदेश के युवराज, कुरुवंशी बृहच्क्षत्र और सुदर्शन को मार डाला तथा धृष्टधुम्न, सात्यकि एवं भीमसेन को भी पराजित कर दिया था___ इन कई कारणों से विवश होकर अर्जुन ने आचार्यपुत्र से ये अप्रियवचन कहे थे। उनके तीखे और मर्मभेदी वचनों को सुनकर अश्त्थामा श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर कुपित हो उठा; वह सावधान होकर रथ पर बैठा और आचमन करके उसने आग्नेयास्त्र उठाया। फिर उसे मंत्रों से अभिमन्त्रित करके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जितने भी शत्रु थे, उन सबको नष्ट करने के उद्देश्य से छोड़ा। वह बाण धूमरहित अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। उसके छूटते ही आकाश से बाणों की घनघोर वृष्टि होने लगी। चारों ओर फैली हुई आग की लपट अर्जुन पर ही आ पड़ी। उस समय राक्षस और पिशाच एकत्रित होकर गर्जना करने लगे। हवा गरम हो गयी। सूर्य का तेज फीका पड़ गया और बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी। तीनों लोक संतप्त हो उठे। उस अस्त्र के तेज से जलाशयों के गरम हो जाने के कारण उनके भीतर रहनेवाले जीव जलने तथा छटपटाने लगे। दिशाओं, विदिशाओं, आकाश और पृथ्वी___ सब ओर से बाणवर्षा हो रही थी। वज्र के समान वेगवाले उन बाणों के प्रहार से शत्रु दग्ध होकर आग से जलाये हुए वृक्षों की भाँति गिर रहे थे। बड़े_ बड़े हाथी चारों ओर चिघ्घाड़ते हुए झुलस_ झुलसकर धराशायी हो रहे थे। महाप्रलय के समय संवर्तक नामवाली आग जैसे संपूर्ण प्राणियों को जलाकर खाक कर डालती है, उसी प्रकार पाण्डवों की सेना उस आग्नेयास्त्र से दग्ध हो रही थी। यह देख आपके पुत्र विजय की उमंग से उल्लसित हो सिंहनाद करने लगे। हजारों प्रकार के बाजे बजाये जाने लगे। उस समय इतना घोर अंधकार छा रहा था कि अर्जुन और उनकी एक अक्षौहिणी सेना को कोई देख नहीं पाता था। अश्त्थामा ने अमर्ष में भरकर उस समय जैसे अस्त्र का प्रहार किया था, वैसा हमने पहले न कभी देखा था और न सुना ही था। तदनन्तर अर्जुन ने अश्त्थामा के संपूर्ण अस्त्रों का नाश करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। फिर तो क्षणभर में ही सारा अन्धकार नष्ट हो गया। ठंडी_ठंडी हवा चलने लगी, समस्त दिशाएँ प्रकाशित हो गयीं। उजाला होने पर वहाँ एक अद्भुत बात दिखायी दी। पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना उस अस्त्र के तेज से इस प्रकार दग्ध हो गयी थी उसका नामोनिशान तक मिट गया था, परन्तु श्रीकृष्ण और अर्जुन के शरीर पर आँचतक नहीं आयी थी। ज्वाला से मुक्त होकर पताका, ध्वजा, घोड़े तथा आयुधों से सुशोभित अर्जुन का रथ वहाँ शोभा पाने लगा। उसे देख आपके पुत्रों को बड़ा भय हुआ, परंतु पाण्डवों के हर्ष की सीमा न रही। वे शंख और भेरी बजाने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी शंखनाद किया।
उन दोनों महापुरुषों को आग्नेयास्त्र से मुक्त देख अश्त्थामा दुःखी और हक्का_ बक्का_सा होकर थोड़ी देर सोचता रहा कि ‘यह क्या बात हुई' ? फिर अपने हाथ का धनुष फेंककर वह रथ से कूद पड़ा और ‘धिक्कार है ! धिक्कार है ! ! यह सब कुछ झूठा है !’ ऐसा कहता हुआ वह रणभूमि से भाग चला। इतने में ही उसे व्यासजी खड़े दिखायी दिये। उन्हें सामने पाकर उसे प्रणाम किया और अत्यन्त दीन की भाँति गद्गद् कण्ठ से कहा___’भगवन् ! इसे माया कहें या दैव की इच्छा ? मेरी समझ में नहीं आता___ यह सब क्या हो रहा है । यह अस्त्र झूठा कैसे हुआ ? मुझसे कौन सी गलती हो गयी है ? अथवा यह संसार के किसी उलटफेर की सूचना है, जिससे श्रीकृष्ण और अर्जुन जीवित बच गये हैं ? मेरे चलाये हुए इस अस्त्र को असुर, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, सर्प, यक्ष तथा,मनुष्य किसी प्रकार अन्यथा नहीं कर सकते थे; तो भी यह केवल एक अक्षौहिणी सेना को ही जलाकर शान्त हो गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन भी तो मरणधर्मा मनुष्य ही हैं, इन दोनों का वध क्यों नहीं हुआ ? आप मेरे प्रश्न का ठीक_ठीक उत्तर दीजिये, मैं यह सब सुनना चाहता हूँ।‘ व्यासजी बोले___तू जिसके सम्बन्ध में आश्चर्य के साथ प्रश्न कर रहा है, वह बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। अपने मन को एकाग्र करके सुन। एक समय की बात है, हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज विश्वविधाता भगवान् नारायण ने विशेष कार्यवश धर्म के पुत्र में अवतार लिया था। उन्होंने हिमालय पर्वत पर रहकर बड़ी कठिन तपस्या की। छाछठ हजार वर्ष तक केवल वायु का आहार करके अपने  शरीर को सुखा डाला।
इसके बाद भी उन्होंने इससे दूने वर्षों तक पुनः भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें दर्शन दिया। विश्वेश्वर की झाँकी करके नारायण ऋषि आनन्दमग्न हो गये, उनको प्रणाम करके वे बड़े भक्तिभाव से भगवान् की स्तुति करने लगे___’आदिदेव ! जिन्होंने पृथ्वी में आपके पुरातन सर्ग की रक्षा की थी तथा जो इस विश्व की भी रक्षा करते हैं, वे संपूर्ण प्राणियों की सृष्टि करनेवाले प्रजापति भी आपसे ही प्रगट हुए हैं। देवता, असुर, नाग, राक्षस, पिशाच, मनुष्य, पक्षी, गन्धर्व तथा यक्ष आदि विभिन्न प्राणियों के जो समुदाय हैं, इन सबकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर का पद, पितरों का लोक तथा विश्वकर्मा की सुन्दर शिल्पकला आदि का अविर्भाव भी आपसे ही हुआ है। शब्द और आकाश, स्पर्श और वायु, रूप और तेज,  रस और जल तथा गन्ध और पृथ्वी की आप ही से उत्पत्ति हुई है। काल, ब्रह्मा, वेद, ब्राह्मण तथा यह संपूर्ण चराचर जगत् आपसे ही प्रगट हुआ है।
जैसे जल से उत्पन्न होनेवाले जीव उससे भिन्न दिखायी देते हैं परन्तु नष्ट होने पर उस जल के साथ एकीभूत हो जाते हैं, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आपसे ही प्रगट होकर आपमें ही लीन हो जाता है। इस तरह जो भी आपको संपूर्ण भूतों की उत्पत्ति और प्रलयकाल का अधिष्ठान जनाते हैं, वे विद्वान पुरुष आपके सामुज्य को प्राप्त होते है। जिनका स्वरूप मन बुद्धि के चिन्तन का विषय नहीं होता, वे पिनाकधारी भगवान् नीलकण्ठ नारायण ऋषि के इस प्रकार स्तुति करने पर उन्हें वरदान देते हुए बोले___’नारायण ! मेरी कृपा से किसी प्रकार के शस्त्र, वज्र, अग्नि, वायु, गीले या सूखे पदार्थ और स्थावर या जंगम प्राणी के द्वारा भी कोई तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकता। समरभूमि में पहुँचने पर तुम मुझसे भी अधिक बलिष्ठ हो जाओगे।‘ इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पहले ही भगवान् शंकर से अनेकों वरदान पा लिये हैं। वे ही भगवान् नारायण माया से इस संसार को मोहित करते हुए इनके रूप में विचर रहे हैं नारायण के ही तप से महामुनि नर प्रकट हुए, अर्जुन को उन्हीं का अवतार समझ। इनका स्वरूप भी नारायण के समान ही है। ये दोनों ऋषि संसार को धर्ममर्यादा में रखने के लिये प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं।
 अश्त्थामा ! तूने भी पूर्वजन्म में भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिये कठोर  नियमों का पालन करते हुए अपने शरीर को दुर्बल कर डाला था, इससे प्रसन्न होकर भगवान् ने  तुम्हें बहुत से मनोवांछित वरदान दिये थे। जो मनुष्य भगवान् शंकर के सर्वमय स्वरूप को जानकर लिंगरूप में उनकी पूजा करता है, उसे सनातन शास्त्रज्ञान तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जो शिवलिंग को सर्वमान्य जानकर उसका अर्चन करता हैं, उसपर भगवान शंकर की बड़ी कृपा होती है।
वेदव्यास की ये बातें सुनकर अश्त्थामा ने मन_ही_मन शंकरजी को प्रणाम किया और श्रीकृष्ण में उसकी महत्वबुद्धि हो गयी। उसने रोमांचित शरीर से महर्षि व्यास को प्रणाम किया और सेना की ओर देखकर उसे छावनी में लौटने की आज्ञा दी। तदनन्तर कौरव और पाण्डव दोनों पक्ष की सेनाएँ अपने_अपने  शिविर को चल दीं। इस प्रकार वेदों के पारगामी आचार्य द्रोण पाँच दिनों तक पाण्डवसेना का संहार करके ब्रह्ममलोक में चले गये।

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