Saturday 30 March 2024

अश्वत्थामा का श्रीमहादेवजी पर प्रहार, उसका प्रभाव और फिर आत्मसमर्पण करके उनसे खड्ग प्राप्त करना

संजय कहते हैं _महाराज ! कृपाचार्य जी से ऐसा कहकर द्रोणपुत्र अकेला ही अपने घोड़ों को जोतकर शत्रुओं पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा। तब उससे कृपाचार्य और कृतवर्मा ने पूछा, 'तुम रथ किसलिये तैयार कर रहे हो, तुम्हारा क्या करने का विचार है ? हम भी तो तुम्हारे साथ ही हैं और सुख_दु:ख में तुम्हारे साथ ही रहेंगे।'यह सुनकर अश्वत्थामा ने जो कुछ वह करना चाहता था उन्हें साफ_साफ सुना दिया। वह बोला, 'धृष्टधुम्न ने मेरे पिताजी को उस स्थिति में मारा था, जब उन्होंने अपने शस्त्र रख दिये थे। अतः आज उस पापी पांचाल पुत्र को मैं भी उसी तरह पाप कर्म करके कवचहीन अवस्था में मारूंगा। मेरा यही विचार है कि उसे शस्त्रों द्वारा प्राप्त होने वाले लोक नहीं मिलने चाहिये। आप दोनों भी जल्दी ही कवच धारण कर लें, खड्ग तथा धनुष लेकर तैयार हो जायं और मेरे साथ रहकर अवसर की प्रतीक्षा करें।' ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथ पर सवार हुआ और शत्रुओं की ओर चल दिया। उसके पीछे-पीछे कृपाचार्य और कृतवर्मा भी चले। वह रात्रि में ही, जबकि सब लोग सोये हुए थे, पाण्डवों के शिविर में पहुंचा और उसके द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। वहां उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय पुरुष को दरवाजे पर खड़ा देखा। उस महापुरुष को देखकर शरीर में रोमांच हो जाता था। वह व्याघ्रचर्म धारण किये था, ऊपर से मृगचर्म ओढ़े था तथा सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए था। उसकी विशाल भुजाओं  में तरह_तरह के शस्त्र सुशोभित थे, बाजूबंदों के स्थान में तरह_तरह के सर्प बंधे हुए थे तथा मुख से अग्नि की ज्वालाएं निकल रही थीं। उसके मुख, नाक, कान और हजारों नेत्रों से भी बड़ी_बड़ी लपटें निकल रही थीं। उसके तेज की किरणों से शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले सैकड़ों _हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। समस्त लोकों को भयभीत करनेवाले उस अद्भुत पुरुष को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं, बल्कि उसपर अनेकों दिव्य अस्त्रों की वर्षा_सी करने लगा। वह देव अश्वत्थामा के छोड़े हुए समस्त शस्त्रों को निगल गया। यह देखकर उसने एक अग्नि के समान देदीप्यमान रथशक्ति छोड़ी। परन्तु वह भी उससे टकराकर टूट गयी। तब अश्वत्थामा ने उसपर एक चमचमाती हुई तलवार चलायी। वह भी उसके शरीर में लीन हो गयी। इसपर उसने कुपित होकर एक गदा छोड़ी, किन्तु वह उसे भी लील गया। इस प्रकार जब अश्वत्थामा के सब शस्त्र समाप्त हो गये तो उसने इधर_उधर दृष्टि डाली। इस समय उसने देखा कि सारा आकाश वइष्णउओं से भरा हुआ है। शस्त्रहीन अश्वत्थामा यह अत्यंत अद्भुत दृश्य देखकर बड़ा ही दु:खी हुआ और आचार्य कृकप के वचन याद करके कहने लगा, जो पुरुष अप्रिय किन्तु हित की बात कहने वाले अपने सुहृदों की सीख नहीं सुनता, वह मेरी ही तरह आपत्ति में पड़कर शोक करता है । जो मूर्ख शास्त्र जाननेवालों की बात का तिरस्कार करके युद्ध में प्रवृत होता है, वह धर्म मार्ग से भ्रष्ट होकर कुमार्ग में जाने से उल्टे मुंह की खाता है। मनुष्य को गौ, ब्राह्मण, राजा, स्त्री, मित्र, माता, गुरु, दुर्बल, मूर्ख, कन्धे, सोये हुए, डरे हुए, नींद से उठे हुए, मतवाले, उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर हथियार नहीं चलाना चाहिये। गुरुजनों ने पहले ही से सब पुरुषों को ऐसी शिक्षा दे रखी है। किन्तु मैं उस शास्त्रीय सनातन मार्ग का उल्लंघन करके उल्टे रास्ते से चलने लगा था। इसी से इस घोर आपत्ति में पड़ गया हूं। जब मनुष्य किसी काम को आरम्भ करके भय के कारण उसे बीच में ही छोड़ देता है तो बुद्धिमान लोग इसे उसकी मूर्खता ही कहते हैं। इस समय इस काम को करते हुए मेरे आगे भी ऐसा ही भय उपस्थित हो गया है। यों तो द्रोणपुत्र किसी प्रकार युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं है। परन्तु यह महआभूत तो मेरे आगे विधाता के दण्ड के समान आकर खड़ा हो गया है। मैं बहुत सोचने पर भी इसे कुछ समझ नहीं पाता हूं। निश्चय ही मेरी बुद्धि जो अधर्म से कलुषित हो गयी है, उसका दमन करने के लिये ही यह भयंकर परिणाम सामने आया है। नि:संदेह इस समय मुझे जो युद्ध से हटना पड़ रहा है वह दैव का ही विधान है। सचमुच दैव की अनुकूलता के बिना आरम्भ किया हुआ मनुष्य का कोई भी काम सफल नहीं हो सकता। अतः: अब मैं भगवान शंकर की शरण लेता हूं, जो जटाजूटधारी, देवताओं के भी वंदनीय, उमापति, सर्वपापापहारी और त्रिशूल धारण करनेवाले हैं, वे ही इस भयानक दैवी विघ्न को नष्ट करेंगे।' ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथ से उतर पड़ा और देवाधिदेव श्रीमहादेवजी के शरणागत होकर इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'आप उग्र हैं, अचल हैं, करुणामय है, रुद्र हैं, शर्व हैं, सकल विद्याओं के अधीश्वर हैं, परमेश्वर हैं, पर्वत पर शयन करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, जगदीश्वर हैं, नीलकंठ हैं, अजन्मा हैं, शुक्र हैं, दक्ष यज्ञ का विनाश करनेवाले हैं, सर्वसंहारक हैं, विश्वरूप हैं, भयानक नेत्रों वाले हैं, बहुरूप हैं, उमापति हैं, श्मशान में निवास करनेवाले हैं, गर्वीले हैं, महान् गणाध्यक्ष हैं, व्यापक हैं, खड्गवान् धारण करनेवाले हैं। आप रुद्र नाम से प्रसिद्ध हैं, आपके मस्तक पर जटा सुशोभित है, आप ब्रह्मचारी हैं और त्रिपुरासुर का वध करनेवाले हैं। मैं अत्यन्त शुद्ध हृदय से आत्मसमर्पण करके आपका यजन करता हूं। सभी ने आपकी स्तुति की है, सभी के आप स्तुत्य हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं। आप भक्तों के सभी संकल्पों को पूर्ण करनेवाले हैं, गजराज के चर्म से सुशोभित हैं, रक्तवर्ण हैं, नीलग्रीव हैं, असह्य हैं, शत्रुओं के लिये दुर्जय हैं, इन्द्र और ब्रह्मा की भी रचना करनेवाले हैं, साक्षात् परमब्रह्म हैं, व्रतधारी हैं, तपोनिष्ठ हैं, अनन्त है । तपस्वियों के आश्रय हैं, अनेक रूप हैं, गणपति हैं, त्रिनयन हैं, अपने पार्षदों के प्रिय हैं, धनेश्वर हैं, पृथ्वी के मुखस्वरूप हैं, पार्वती जी के प्राणेश्वर हैं, स्वामि कार्तिकेय के पिता है, पीत वर्ण हैं, वृषवाहना हैं, दिगम्बर हैं। आपका वेष बड़ा ही उग्र है; आप पार्वती जी को विभूषित करने में तत्पर हैं, ब्रह्मादि से श्रेष्ठ हैं, परात्पर हैं तथा आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं हैं।आप उत्तम धनुष धारण करनेवाले हैं, संपूर्ण दिशाओं की अन्तिम सीमा हैं, सब देशों के रक्षक हैं, सउवर्णमय कवच धारण करनेवाले हैं, आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप अपने मस्तक पर आभूषण के रूप में चन्द्रकला को धारण करनेवाले हैं, मैं अत्यन्त समाहित होकर आपकी शरण लेता हूं। यदि आज मैं इस दुस्तर आपत्ति के पार हो गया तो समस्त भूतों के संघआतरूप इस शरीर की बलि देकर आपका यजन करूंगा।' इस प्रकार अश्वत्थामा का दृढ़ निश्चय देखकर उसके सामने एक सुवर्णमय वेदी प्रकट हुई। उस वेदी में अग्नि प्रज्वलित हो गयी। उससे बहुत _से गुण प्रकट हुए। उनके मुख और नेत्र देदीप्यमान थे; वे अनेकों सिर पैर और हाथों वाले थे; उनकी भुजाओं में तरह_तरह के रत्न जटित आभूषण सुशोभित थे तथा वे ऊपर की ओर हाथ उठाये हुए थे। उनके शरीर द्वीप और पर्वतों के समान विशाल थे, वे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों के सहित संपूर्ण ध्यउलओक को धराशायी करने की शक्ति रखते थे तथा उनमें जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज_चारों प्रकार के प्राणियों का संहार करने की शक्ति थी। उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था, वे इच्छानुसार आचरण करनेवाले थे तथा तीनों लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर थे। वे सर्वदा आनन्द मग्न रहते थे, वाणी के अधीश्वर थे मत्सरहीन थे तथा ऐश्वर्य पाकर भी उन्हें अभिमान नहीं था। उनके अद्भुत कर्मों से सर्वदा भगवान् शंकर भी चकित रहते थे तथा वे मन, वाणी और कर्मों द्वारा सर्वदा अपने पुत्रों के समान उनकी रक्षा करते थे। ये सब भूत बड़े ही भयंकर थे। इनको देखने से तीनों लोक भयभीत हो सकते थे। तथापि महाबली अश्वत्थामा इन्हें देखकर डरा नहीं। अब उसने स्वयं अपने आप को ही बलिरूप से समर्पित करना चाहा।
इस कर्म को सम्पन्न करने के लिये उसने धनुष को समिधा, बाणों को दर्भ और अपने शरीर को ही हवि बनाया। उसने सोमदेवता का मंत्र पढ़ कर अग्नि में अपनी आहुति देनी चाही। उस समय वह हाथ जोड़कर भगवान् रुद्र की इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'विश्वात्मन् ! इस आपत्ति के समय आपके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव से समाहित होकर यह भेंट समर्पण करता हूं। आप इसे स्वीकार कीजिये। समस्त भूत आपमें स्थित है, आप संपूर्ण भूतों में स्थित हैं तथा आपसी में मुख्य _मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो ! आप समस्त भूतों के आश्रय हैं; यदि इन शत्रुओं का पराभव मेरे द्वारा नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप से अर्पण किये हुए इस शरीर को स्वीकार कीजिये।' द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ऐसा कह उस अग्नि से देदीप्यमान वेदी पर चढ़ गया और अपने प्राणों का मोह छोड़कर आगे के बीच में आसन लगाकर बैठ गया। उसे हवइरूप से ऊध्वर्बाहु होकर निष्चेष्ट बैठे देखकर भगवान् शंकर ने हंसकर कहा, 'श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित अराधना की है। इसलिये उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा करके भी मैंने उन्हीं का सम्मान किया है; किन्तु कारणवश अब ये निस्तेज हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है।' ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने अश्वत्थामा को एक तेज तलवार दी और अपने_आप को उसी के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार उनसे अवशिष्ट होकर अश्वत्थामा अत्यन्त तेजस्वी हो गया।

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