Wednesday 19 April 2017

श्रीमद्भगवद्गीता अर्जुनविषादयोग

धृतराष्ट्र बोले___संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? संजय बोले___उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा___’आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टधुम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये। इस सेना में बड़े_बड़े धनुषोंवाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतू और चेकितान तथा बलवान् काशीराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र___ये सभी महारथी हैं। आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के जो_जो सेनापति हैं, उनको बतलाता हूँ। आप___द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्त्थामा विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा; और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देवेवाले बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब_के_सब युद्ध में चतुर हैं। भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इनलोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। इसलिये सब मोर्चों पर अपनी_अपनी जगह स्थित होते हुए आप लोग सभी निःसंदेह भीष्मपितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।‘ कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन को हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया। इसके पश्चात् शंख और नगारे तथा ढोल_मृदंग और नरसिंगे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ। इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाया। ौश्रीकृष्ण महाराज ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौँड्र नामक महाशंख बजाया। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। श्रेष्ठ धनुषवाले काशीराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टधुम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु___इन सभी ने, राजन् ! अलग_अलग शंख बजाये। उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धृतराष्ट्रपुत्रों ___आपके पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिये। राजन् ! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्रपुत्रों को देखकर, शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर तब हृषिकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा___’अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये और जब तक मैं युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँगा कि इस युद्धरूप व्यापार में मुझे किन_किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये। युद्ध में दुर्बुद्धि दुर्योधन का कल्याण चाहनेवाले जो_जो राजालोग इस सेना में आये हैं, उन युद्ध करनेवालों को मैं देखूँगा।‘ संजय बोले___धृतराष्ट्र ! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहने पर महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि ‘पार्थ ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख।‘ इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने  उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ_चाचों को, दादों_परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को,  पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा। उन उपस्थित संपूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। अर्जुन बोले___कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, तथा मेरे शरीर में कंप एवं रोमांच हो रहा है। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित_सा हो रहा है, इसलिये मैं खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं हूँ। केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजनसमुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है ? हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। गुरुजनों, ताऊ_चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, नाती, साले तथा और भी सम्बन्धीलोग हैं। मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है ? जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। अतएव माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे। यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जाननेवाले हमलोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ? कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर संपूर्ण कुल को पाप भी बहुत दबा लेता है। कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और वार्ष्णेय ! स्त्रियों के अत्यन्त दूषित हो जाने पर वर्णशंकर उत्पन्न होता है। वर्णशंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में से जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रियावाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल_धर्म और जाति_धर्म नष्ट हो जाते हैं। जनार्दन ! जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित कालतक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हा शोक ! हम बुद्धिमान होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिये उद्यत है। इससे तो, यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मरना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा। संजय बोले___रणभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाला अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।

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