Thursday 6 April 2017

युधिष्ठिर और अर्जुन की बातचीत तथा अर्जुन द्वारा दुर्गा का स्तवन और वरप्राप्ति

संजय रहते हैं___कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर ने जब भीष्मजी के रचे हुए अभेद्य  व्यूह को देखा तो उदास होकर अर्जुन से कहने लगे, ‘धनंजय ! जिनके सेनापति पितामह भीष्मजी हैं, उन कौरवों के साथ हमलोग कैसे युद्ध कर सकते हैं ? महातेजस्वी भीष्म ने शास्त्रोक्त विधि से जिस व्यूह का निर्माण किया है, इसका भेदन करना असंभव है। इसने तो हमें और हमारी सेना को संशय में डाल दिया है, इस महाव्यूह से हमारी रक्षा कैसे हो सकेगी ?’ तब शत्रुदमन अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा, “राजन् ! जिस युक्ति से थोड़े_से मनुष्य भी बुद्धि, गुण और संख्या में अपने से अधिक वीरों को जीत लेते हैं, वह मुझसे सुनिये। पूर्वकाल में देवासुर संग्राम के अवसर पर ब्रह्माजीने इन्द्रादि देवताओं से कहा था___’देवताओं ! विजय की इच्छा रखने वाले वीर  बल और पराक्रम से वैसी विजय नहीं पा सकते जैसी कि सत्य, दया, धर्म और उद्यम के द्वारा प्राप्त करते हैं। इसलिए धर्म, अधर्म और लोभ को अच्छी तरह जानकर अभिमान_शून्य होकर उत्साह के साथ युद्ध करो। जहाँ धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है।‘ राजन् ! इसी प्रकार आप जान लें कि इस युद्ध में हमारी विजय निश्चित है। नारदजी का कहना है___'जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ विजय है' विजय श्रीकृष्ण का एक गुण है, वह सदा इनके पीछे_पीछे चलता है। गोविन्द का तेज अनन्त है, ये साक्षात् सनातन पुरुष हैं; इसलिये ये श्रीकृष्ण जहाँ हैं, उसी पक्ष की विजय है। राजन् ! मुझे तो आपके विषाद का कोई कारण दिखायी नहीं देता; क्योंकि ये विश्वम्भर श्रीकृष्ण भी आपकी विजय की शुभकामना करते हैं।“ तदनन्तर, राजा युधिष्ठिर ने भीष्म का मुकाबला करने के लिये व्यूहाकार में खड़ी हुई अपनी सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी। उनका रथ इन्द्र के रथ के समान सुन्दर था तथा उस पर युद्ध की सामग्री रखी हुई थी। जब वे उस पर सवार हुए तो उनके पुरोहित ‘ शत्रुओं का नाश हो'___ऐसा कहकर आशीर्वाद देने लगे तथा ब्रह्मर्षि  और श्रोत्रिय विद्वान् जप, मन्त्र एवं औषधियों के द्वारा सब ओर से स्वस्तिवाचन करने लगे। राजा युधिष्ठिर मे भी वस्त्र, गौ, फल, मूल और स्वर्णमुद्राएँ ब्राह्मणों को दान करके फिर युद्ध के लिये यात्रा की। भीमसेन ने आपके पुत्रों का संहार करने के लिये बड़ा भयानक रूप धारण किया था, जिन्हें देखकर आपके योद्धा काँप उठे और भय के मारे उनका साहस जाता रहा। इधर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा___नरश्रेष्ठ ! ये जो अपनी सेना के मध्यभाग में खड़े हो सिंह के समान हमारे सैनिकों की ओर देख रहे हैं, ये ही कुरुकुल के ध्वजा फहरानेवाले भीष्मजी हैं। जैसे मेघ सूर्य को ढक देता है, उसी प्रकार ये सेनाएँ इन महानुभाव को घेरे खड़ी हैं। तुम पहले इन सेनाओं को मारकर फिर भीष्मजी के साथ युद्ध की इच्छा करना। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने कौरव_सेना की ओर दृष्टिपात किया और युद्ध का समय उपस्थित देख अर्जुन के हित के लिये इस प्रकार कहा___'महाबाहो ! युद्ध के आरम्भ में शत्रुओं को पराजित करने के लिये पवित्र होकर तुम दुर्गा देवी की स्तुति करो।‘ भगवान् वासुदेव की ऐसी आज्ञा देने पर अर्जुन रथ के नीचे उतर पड़े और हाथ जोड़कर दुर्गा का स्तवन करने लगे___'मन्दराचल पर निवास करनेवाली सिद्धों की सेनानेत्री आर्ये ! तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। तुम कुमारी, काली, कपाली, कपिला, कृष्णपिंगला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामों से प्रसिद्ध हो; तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण तुम चण्डी कहलाती हो, भक्तों को संकट से उतारने के कारण तारिणी हो, तुम्हारे शरीर का दिव्य वर्ण बहुत ही सुन्दर है; मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। महाभागे ! तुम्हीं सौम्य और सुन्दर रूपवाली कात्यायनी हो और तुम्हीं विकराल रूपधारिणी काली हो। तुम्हीं विजया और जया नाम से विख्यात हो। मोरपंख की तुम्हारी ध्वजा है, नाना प्रकार के आभूषण तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। त्रिशूल, खड्ग और खेटक आदि आयुधों को धारण करती हो। नन्दगोप के वंश में तुमने अवतार लिया था, इसलिये गोपेश्वर श्रीकृष्ण की तुम छोटी बहिन हो; गुण और प्रभाओं में सर्वश्रेष्ठ हो। महिषासुर का रक्त बहाकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। तुम कुशिक गोत्र में अवतार लेने के कारण कौशिकी नाम से भी प्रसिद्ध हो, पीताम्बर धारण करती हो। जब तुम शत्रुओं को देखकर अट्टहास करती हो, उस समय तुम्हारा मुख चक्र के समान उद्दीप्त हो उठता है। युद्ध तुम्हें बहुत ही प्रिय है; मैं तुम्हें बारम्बार प्रणाम करता हूँ। उमा, शाकम्भरी, श्वेतांबर, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्क्षी, विरूपाक्क्षी और सुधूम्राक्षी आदि नाम धारण करनेवाली देवी ! तुम्हें अनेकों बार नमस्कार है। तुम वेदों की श्रुति हो, तुम्हारा स्वरूप अत्यन्त पवित्र है; वेद और ब्राह्मण तुम्हें प्रिय हैं। तुम्हीं जातवेदा अग्नि की शक्ति हो; जम्बू, कटक और मन्दिरों में तुम्हारा नित्य निवास है। तुम समस्त विजेताओं में ब्रह्मविद्या और देहधारियों की महानिद्रा हो। भगवति ! तुम कार्तिकेय की माता हो, दुर्गम स्थानों में वास करनेवाली दुर्गा हो। स्वाहा, स्वधा, कला, काष्ठा, सरस्वती, वेदमाता सावित्री तथा वेदान्त___ये सब तुम्हारे नाम हैं। महादेवि ! मैंने विशुद्ध हृदय से तुम्हारा स्तवन किया है, तुम्हारी कृपा से इस रणांगण में मेरी सदा ही जय हो। माँ ! तुम घोर जंगल में, भयपूर्ण दुर्गम स्थानों में, भक्तों के घर में तथा पाताल में भी नित्य निवास करती हो। युद्ध में दानवों को हराती हो। तुम्हीं जम्भनी, मोहिनी, माया, श्री, संध्या, प्रभावती, सावित्री और जननी हो। तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य चन्द्रमा को बढ़ानेवाली दीप्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ऐश्वर्यवानों की विभूति हो। युद्धभूमि में सिद्ध और चारण तुम्हारा दर्शन करते हैं।‘ संजय कहते हैं___राजन् ! अर्जुन की भक्ति देख मनुष्यों पर दया करनेवाली देवी भगवान् श्रीकृष्ण के सामने आकाश में प्रगट हुईं और बोलीं, ‘पाण्डुनन्दन ! तुम थोड़े ही दिनों में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। तुम साक्षात् नर हो, नारायण तुम्हारे सहायक हैं; तुम्हें कोई दबा नहीं सकता। शत्रुओं की तो बात ही क्या है, तुम युद्ध में वज्रधारी इन्द्र के लिये भी अजेय हो।‘ वह वरदायिनी देवी इस प्रकार कहकर क्षणभर में अन्तर्धान हो गयी। वरदान पाकर अर्जुन को अपनी विजय का विश्वास हो गया। फिर वे अपने रथ पर आ बैठे। कृष्ण और अर्जुन एक ही रथ पर बैठे हुए अपने दिव्य शंख बजाने लगे। राजन् ! जहाँ धर्म है, वहाँ ही धुति और कान्ति है; जहाँ लज्जा है, वहाँ ही लक्ष्मी और सुबुद्धि है। इसी प्रकार जहाँ धर्म है, वहाँ ही श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहाँ ही जय है।

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