Tuesday 5 September 2017

भीष्म का पराक्रम, श्रीकृष्ण का भीष्म को मारने के लिये उद्यत होना और अर्जुन का पुरुषार्थ

धृतराष्ट्र ने पूछा___संजय ! जब मेरे दुःखी पुत्र ने भीष्म को क्रोध दिलाया और उन्होंने भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा कर ली, तब भीष्मजी ने पाण्डवों के साथ और पांचालवीरों ने भीष्मजी के साथ किस प्रकार युद्ध किया ? संजय कहने लगे___उस दिन जब दिन का प्रथम भाग बीत गया और सूर्यनारायण पश्चिम दिशा की ओर जाने लगे तथा विजयी पाण्डव अपनी विजय की खुशी मना रहे थे, उसी समय पितामह भीष्मजी तेज चलनेवाले घोड़ों से जुते हुए रथ में बैठकर पाण्डवसेना की ओर बढ़े। उनके साथ में बहुत बड़ी सेना थी और आपके पुत्र सब ओर से घेरकर उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय हमलोगों में और पाण्डवों में रोमांचकारी संग्राम छिड़ गया। थोड़ी ही देर में योद्धाओं के हजारों मस्तक और हाथ कट_कटकर जमीन पर गिरने लगे और तड़पने लगे। कितनों ही के सिर तो कटकर गिर गये, मगर धड़ धनुष_बाण लिये खड़े ही रह गये। खून की नदी बह चली। उस समय कौरव और पाण्डवों में जैसा भयानक युद्ध हुआ, वैसा न कभी देखा गया और न सुना ही गया है। उस समय भीष्मजी अपने धनुष को मण्डलाकार करके विषधर साँपों के समान बाण बरसा रहे थे। रणभूमि में वे इतनी शीघ्रता से सब ओर  विचार रहे थे कि पाण्डव उन्हें हजारों रूपों में देखने लगे। मानो भीष्म ने माया से अपने अनेकों रूप बना लिये हों। जिन लोगों ने उन्हें पूर्व में देखा, उन्होंने ही उसी समय आँख फेरते ही पश्चिम में भी देखा। एक ही क्षण में वे उत्तर और दक्षिण में भी दिखायी पड़े। इस प्रकार इस युद्ध में सर्वत्र वे_ही_वे दिखायी देने लगे। पाण्डवों में कोई भीष्मजी को नहीं देख पाता था, उनके धनुष से छूटे हुए असंख्य बाण ही दिखायी पड़ते थे। लोगों में हाहाकार मच गया। भीष्मजी वहाँ अमानवरूप से विचरण रहे थे; उनके पास हजारों राजा अपने विनाश के लिये उसी प्रकार आते थे जैसे आग के पास पतिंगे। उनका एक भी वार खाली नहीं जाता था। इस प्रकार अतुल पराक्रमी भीष्मजी की मार खाकर युधिष्ठिर का सेना हजारों टुकड़ों में बँट गयी। उनकी बाण_वर्षा से पीड़ित होकर वह काँप उठी और इस तरह उसमें भगदड़ मची कि दो आदमी भी एक साथ नहीं भाग सके। इस युद्ध में पिता ने पुत्र को और पुत्र ने पिताको मार डाला तथा मित्र मित्र के हाथ मारा गया। पाण्डवों के सैनिक अपने कवच उतारकर बाल खोले हुए रणभूमि से भागते दिखायी देने लगे। पाण्डव सेना को इस प्रकार बिखरी देख भगवान् श्रीकृष्ण ने रथ को रोककर अर्जुन से कहा, ‘पार्थ ! जिसके लिये तुम्हारी बहुत दिनों से अभिलाषा थी, वह समय अब आ गया है। अब जोरदार प्रहार करो, नहीं तो मोहवश प्राणों से हाथ को बैठोगे। पहले जो तुमने राजाओं के समाज में कहा था कि ‘दुर्योधन की सेना के भीष्म द्रोण आदि जो कोई भी वीर मुझसे युद्ध करने आयेंगे, उन सबको मार डालूँगा’, अब उस प्रतिज्ञा को सच्ची करके दिखाओ। अर्जुन ! देखो तो अपनी सेना किस तरह तितर_बितर हो गयी है और ये राजालोग काल के समान भीष्मजी को देखकर ऐसे भाग रहे हैं, जैसे सिंह के डर से छोटे_छोटे जंगली जीव भागते हों।“ श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन बोले, ‘ अच्छा, अब आप घोड़ों को हाँकिये और इस सैन्यसागर के बीच से होकर भीष्मजी के पास रथ ले चलिये, मैं अभी उन्हें युद्ध में मार गिराता हूँ।‘ तब माधव ने घोड़ों को हाँक दिया और जहाँ भीष्मजी का रथ खड़ा था, उधर ही बढ़ने लगे। अर्जुन को भीष्मजी के साथ युद्ध करने को तैयार देख युधिष्ठिर की भागी हुई सेना लौट आयी। अर्जुन को आते देख भीष्मजी ने सिंहनाद किया और उनके रथ पर बाणों की झड़ी लगा दी। एक ही क्षण में अर्जुन का रथ घोडों और सारथि के साथ बाणों से छिप गया, दिखायी नहीं देता था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तो बड़े धैर्यवान् थे; वे जरा भी विचलित नहीं हुए, घोडों को बराबर आगे बढ़ाये ही चले गये। इसी समय अर्जुन ने अपना दिव्य धनुष उठाया और तीन बाणों से भीष्मजी का धनुष काटकर गिरा दिया। भीष्मजी ने पलक मारते ही दूसरा महान् धनुष लेकर उसकी प्रत्यन्चा चढ़ा ली। किन्तु उसे भी उन्होंने ज्योंही खींचा अर्जुन ने काट दिया।अर्जुन की यह फुर्ती देखकर भीष्म ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘महाबाहो ! तुमने खूब किया, यह महान् पराक्रम तुम्हारे ही योग्य है। बेटा ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ; करो मेरे साथ युद्ध।‘ इस प्रकार पार्थ की बड़ाई करके दूसरा महान् धनुष हाथ में ले वे उनके रथ पर बाणों की वर्षा करने लगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने अश्व_संचालन की पूरी प्रवीणता दिखायी। वे रथ को शीघ्रतापूर्वक मण्डलाकार चलाते हुए भीष्म के बाणों को प्रायः विफल कर देते थे। यह देख भीष्म ने तीखे बाणों से श्रीकृष्ण और अर्जुन को खूब घायल किया। फिर उनकी आज्ञा से द्रोण, विकर्ण, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, कृपाचार्य, श्रुतायु, अम्बष्ठपति, विन्द, अनुविन्द और सुदक्षिण आदि वीर तथा प्रांतीय, सौवीर, वसाति, क्षुद्रक और मालवदेशीय योद्धा तुरंत ही अर्जुन पर चढ़ आये। वे हजारों घोड़े, पैदल, रथ और हाथियों के झुण्ड से घिर गये। उन्हें उस अवस्था में देख वार सात्यकि सहसा उस स्थान पर आ पहुँचा और अर्जुन की सहायता में जुट गया। उसने युधिष्ठिर की सेना को पुनः भागती देखकर कहा, ‘ क्षत्रियों ! तुम कहाँ चले ? यह सत्पुरुषों का धर्म नहीं है। वीरों ! अपनी प्रतिज्ञा न छोड़ो, वीरधर्म का पालन करो।‘ भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि पाण्डव सेना के प्रधान_प्रधान राजा भाग रहे हैं, अर्जुन युद्ध में ठण्डे पड़ रहे हैं और भीष्मजी प्रचण्ड होते जाते हैं। यह बात उनसे सही नहीं गयी। उन्होंने सात्यकि की प्रशंसा करते हुए कहा___'शिविवंश के वीर ! जो भाग रहे हैं , उनको भागने दो; जो खड़े हैं, वे भी चले जायँ। मैं इनलोगों का भरोसा नहीं करता। तुम देखो, मैं अभी भीष्म और द्रोणाचार्य को रथ से मार गिराता हूँ। कौरवसेना का एक भी रथी मेरे हाथ से बचने नहीं पायगा। अब मैं स्वयं अपना उग्र चक्र उठाकर महाबली भीष्म और द्रोण के प्राण लूँगा तथा धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को मारकर पाण्डवों को प्रसन्न करूँगा। कौरवपक्ष के सभी राजाओं का वध करके आज मैं अजातशत्रु युधिष्ठिर को राजा बनाऊँगा। इतना कहकर श्रीकृष्ण ने घोड़ों की लगाम छोड़ दी और हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर रथ से कूद पड़े। उस चक्र का  प्रकाश सूर्य के समान और प्रभाव वज्र के सदृश अमोघ था। उसके किनारे का भाग छूरे के समान तीक्ष्ण था। भगवान् कृष्ण बड़े वेग से भीष्म की ओर झपटे, उनके पैरों की धमक से पृथ्वी काँपने लगी। जैसे सिंह मदान्ध गजराज की ओर दौड़े, उसी प्रकार वे भीष्म की ओर बढ़े। उनके श्याम विग्रह पर हवा के वेग से फहराता हुआ पीताम्बर का छोर ऐसा शोभित होता था, मानो मेघ की काली घटा में बिजली चमक रही हो। हाथ में चक्र उठाये वे बड़े जोर से गरज रहे थे। उन्हें क्रोध से भरा देख कौरवों के संहार का विचार कर सभी प्राणी हाहाकार करने लगे। चक्र के साथ उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो प्रलयकालीन संवर्तक नामक अग्नि सम्पूर्ण जगत् का संहार करने के लिये उद्यत हो। उन्हें चक्र लिये अपनी ओर आते देख भीष्मजी को तनिक भी भय नहीं हुआ। वे दोनों हाथों से अपने महान् धनुष का टंकार करते हुए भगवान् से बोले, ‘ आइये, आइये, देवेश्वर ! आइये जगदाधार ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। चक्रधारी माधव ! आज बलपूर्वक मुझे इस रथ से मार गिराइये। आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं, सबको शरण देनेवाले हैं; आपके हाथ से आज यदि मैं मारा जाऊँगा तो इस लोक और परलोक में भी मेरा कल्याण होगा। भगवन् ! स्वयं मुझे मारने आकर आपने तीनों लोकों में मेरा गौरव बढ़ा दिया !’ भगवान् को आगे बढ़ते देखकर अर्जुन भी अपने रथ से उतरकर उनके पीछे दौड़े और पास जाकर उन्होंने उनकी दोनों बाहें पकड़ लीं। भगवान् रोष में भरे हुए थे, अर्जुन के पकड़ने पर भी वे रुक न सके। जैसे आँधी किसी वृक्ष को खींचे लिये चली जाय, उसी प्रकार वे अर्जुन को घसीटते हुए आगे बढ़ने लगे। तब अर्जुन उनकी बाँहें छोड़कर पैरों में पड़ गये। उन्होंने खूब बल लगाकर उनके चरण पकड़ लिये और दसवें कदम पर पहुँचते_पहुँचते किसी प्रकार उन्हें रोका। जब वे खड़े हो गये तो अर्जुन ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा, ‘केशव ! अपना क्रोध शान्त कीजिये, आप ही पाण्डवों के सहारे हैं। अब मैं भाइयों और पुत्रों की शपथ खाकर कहता हूँ, अपने काम में ढिठाई नहीं करूँगा, प्रतिज्ञा के अनुसार युद्ध करूँगा।‘ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो गये और उनका प्रिय करने के लिये पुनः चक्रसहित रथ पर जा बैठे। उन्होंने अपने पांचजन्य शंख की ध्वनि से दिशाओं को निनादित कर दिया और अर्जुन के गाण्डीव धनुष से सब दिशाओं में तीक्ष्ण बाणों की वर्षा होने लगी। तब भूरिश्रवा ने अर्जुन पर सात बाण, दुर्योधन ने तोमर शल्य ने गदा और भीष्म ने शक्ति का प्रहार किया। अर्जुन ने भी सात बाण मारकर भूरिश्रवा के बाणों को काट दिया, क्षुर से दुर्योधन का तोमर काट डाला तथा एक_एक बाण छोड़कर शल्य की गदा और भीष्म की शक्ति को भी टूक_टूक कर दिया। इसके बाद उन्होंने दोनों हाथों से गाण्डीव धनुष को खींचकर आकाश में माहेन्द्र नामक अस्त्र प्रकट किया, देखने में वह बड़ा ही अद्भुत और भयानक था। उस दिव्य अस्त्र के प्रभाव से अर्जुन ने संपूर्ण कौरव_सेना का गति रोक दी। उस अस्त्र से अग्नि के समान प्रज्वलित बाणों की वृष्टि हो रही थी और शत्रुओं के रथ, ध्वजा, धनुष और बाहुओं को काटकर वे बाण राजाओं, हाथियों और घोडों के सिंहों में घुस जाते थे। इस प्रकार तेज धारवाले बाणों का जाल बिछाकर अर्जुन ने संपूर्ण दिशाओं और उपदिशाओं को आच्छन्न कर दिया और गाण्डीव धनुष की टंकार से शत्रुओं के मन में अत्यन्त पीड़ा भर दी। रक्त की नदी बहने लगी। कौरव_सेना के प्रमुख वीरों का नाश हुआ देखकर चेदि, पांचाल और मत्स्यदेशीय योद्धा तथा समस्त पाण्डव हर्षनाद करने लगे। अर्जुन और श्रीकृष्ण ने भी हर्ष प्रकट किया। तदनन्तर, सूर्यदेव अपनी किरणों को समेटने लगे। इधर कौरव_वीरों के शरीर अस्त्र_शस्त्रों से क्षत_विक्षत हो रहे थे, युगान्तकाल के समान सब ओर फैला हुआ अर्जुन का ऐन्द्र अस्त्र भी अब सबके लिये असह्य हो चुका था___इन सब बातों का विचार करके संध्याकाल उपस्थित देख भीष्म, द्रोण, दुर्योधन और बाह्लीक आदि कौरववीर सेनापति सहित शिविर को लौट आये। अर्जुन भी शत्रुओं पर विजय और यश पाकर भाइयों और राजाओं के साथ छावनी में चले गये। कौरवों के  सौनिक शिविर में लौटते समय एक_दूसरे से कहने लगे___’अहो ! आज अर्जुन ने बहुत बड़ा पराक्रम दिखाया है, दूसरा कोई ऐसा नहीं कर सकता। अपने ही बाहुबल से उन्होंने अम्बष्ठपति, श्रुतायु, दुमर्षण, चित्रसेन, द्रोण, कृप, जयद्रथ, बाह्लीक, भूरिश्रवा, शल, शल्य और भीष्म सहित अनेक योद्धाओं पर विजय पायी है।‘

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