Monday 7 May 2018

भीष्मजी के पास जाकर सब राजाओं का तथा कर्ण का मिलना

धृतराष्ट्र ने कहा__संजय ! भीष्मजी महाबली और देवता के समान थे, उन्होंने अपने पिता के लिये आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया था। उस समय रणभूमि में उनके गिर जाने से हमारे योद्धाओं की क्या गति हुई होगी ? भीष्मजी ने अपनी दयालुता के कारण जब शिखण्डी पर बाणों का प्रहार नहीं करने का निश्चय किया,  तभी मैं समझ गया था कि अब पाण्डवों के हाथ से कौरव अवश्य मारे जायँगे। हाय ! मेरे लिये इससे बढ़कर दुःख की बात क्या होगी, जो आज अपने पिता के मरण का समाचार सुन रहा हूँ ! वास्तव में मेरा हृदय वज्र का बना हुआ है, तभी तो आज भीष्मजी मृत्यु की बात सुनकर भी इसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते। संजय ! कुरुश्रेष्ठ भीष्मजी जिस समय मारे गये, उसके बाद यदि उन्होंने कुछ किया हो तो वह भी मुझे बताओ। संजय बोला___सायंकाल में जब भीष्मजी रणभूमि में गिरे, उस समय कौरवों को बड़ा दुःख हुआ और पांचालदेशीय योद्धा आनन्द मनाने लगे। भीष्मजी बाणों की शय्या पर सोये हुए थे। उस समय आपका पुत्र दुःशासन बड़े वेग से द्रोणाचार्य की सेना में गया। उसे आते देख कौरव_सैनिक मन_ही_मन यह सोचकर कि ‘देखें, यह क्या कहता है ?’ उसे चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। दुःशासन ने द्रोणाचार्य को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाया। यह अप्रिय संवाद सुनते ही आचार्य मूर्छित हो गये। थोड़ी देर में जब सचेत हुए तो उन्होंने अपनी सेना को युद्ध बन्द करने की आज्ञा दी। कौरवों को लौटते देख पाण्डवों ने भी घुड़सवार दूतों के द्वारा सब ओर फैली हुई अपनी सेना को युद्ध से रोक दिया। क्रमशः सब सेना के लौट जाने पर राजा अपने_अपने कवच और अस्त्र_शस्त्र उतारकर भीष्मजी के पास पहुँचे। कौरव और पाण्डव दोनों ही पक्ष के लोग भीष्मजी को प्रणाम करके वहाँ खड़े हो गये।
उस समय धर्मात्मा भीष्मजी ने अपने सामने खड़े राजाओं को संबोधित करके कहा___’महान् सौभाग्यशाली महारथियों ! मैं आपलोगों का स्वागत करता हूँ। देवोपम वीरों ! इस समय आपके दर्शन से मुझे बड़ा संतोष हुआ है।‘ इस तरह सबका अभिनन्दन करके भीष्मजी ने पुनः कहा___’मेरा मस्तक नीचे लटक रहा है, आपलोग इसके लिये कोई तकिया ला दीजिये।‘ यह सुनकर राजालोग बहुत कोमल और उत्तम_उत्तम तकिये ले आये, परन्तु पितामह को वे पसंद नहीं आये। उन्होंने हँसकर कहा___’राजाओं ! ये तकिये वीरशय्या के योग्य नहीं हैं।‘ इसके बाद उन्होंने अर्जुन की ओर देखकर कहा___’बेटा धनन्जय ! मेरा मस्तक लटक रहा है, इसके लिये शीघ्र ही इस बिछौने के अनुरूप एक तकिया ला दो। तुम सब धनुर्धरों में श्रेष्ठ और शक्तिशाली हो। तुम्हें क्षत्रियधर्म का ज्ञान है और तुम्हारी बुद्धि निर्मल है, अतः तुम्हीं यह कार्य कर सकते हो।‘
अर्जुन ने भी ‘बहुत अच्छा’ कहकर इस आज्ञा को स्वीकार किया और भीष्मजी की अनुमति ले अपना गाण्डीव धनुष उठाया। उस पर तीन अभिमंत्रित बाणों को रखकर उन्होंने उन्हें मारकर भीष्मजी का मस्तक ऊँचा कर दिया ‘मेरा अभिप्राय अर्जुन की समझ में आ गया’ यह सोचकर भीष्मजी बड़े प्रसन्न हुए। उनके दिये हुए इस वीरोचित तकिये को पाकर भीष्मजी ने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा___’पाण्डुनन्दन ! तुमने इस शैय्या के योग्य तकिया लगा दिया। यदि ऐसा न करते तो मैं क्रोध में आकर तुम्हें शाप दे देता। महाबाहो ! अपने धर्म में स्थित रहनेवाले क्षत्रिय को संग्रामभूमि में इसी प्रकार शर_शय्या पर शयन करना चाहिये। अर्जुन से यों कहकर भीष्मजी ने अन्य राजा और राजकुमारों से कहा___’देखिये आपलोग, अर्जुन ने कैसा बढ़िया तकिया लगा दिया। अब मैं जबतक सूर्य उत्तरायण में नहीं आते, तब तक इस शय्या पर पड़ा रहूँगा। उस समय जो लोग मेरे पास आयेंगे, वे मेरी परलोक_यात्रा देख सकेंगे। मेरे आस_पास की भूमि में खाई खुदवा देनी चाहिये। इन सैकड़ों बाणों से बिंधा हुआ ही मैं सूर्यदेव की उपासना करूँगा। राजाओं ! अन्त में मेरी प्रार्थना यह है कि आपलोग अब आपस का वैर छोड़कर युद्ध बन्द कर दीजिये।‘ तदनन्तर, शरीर से बाण निकालने में कुशल सुशिक्षित वैद्य अपने साज_समान के साथ भीष्मजी की चिकित्सा के लिये वहाँ उपस्थित हुए। उन्हें देखकर भीष्मजी ने आपके पुत्र से कहा___’दुर्योधन ! इन चिकित्सकों को धन देकर सम्मान के साथ विदा कर दो। इस अवस्था पहुँच जाने पर अब मुझे वैद्यों से क्या काम है ? क्षत्रियधर्म में जो सर्वोत्तम गति है, वह मुझे प्राप्त हुई है; बाणशय्या पर शयन करने के पश्चात् अब चिकित्सा कराना मेरा धर्म नहीं है। इन बाणों के साथ ही मेरा दाह_संस्कार होना चाहिये।‘ पितामह की बात सुनकर दुर्योधन ने वैद्यों को धन आदि से सम्मानित करके विदा कर दिया। नाना देशों के राजा वहाँ जुटे हुए थे, वे भीष्मजी की यह धर्मनिष्ठा और साहस देखकर बहुत विस्मित हुए। इसके बाद कौरवों और पाण्डवों ने बाणशय्या पर सोया हुए भीष्मजी की तीन बार प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम किया और उनकी रक्षा प्रबंध करके वे सब लोग अपने_ अपने शिविर में लौट आये। महारथी पाण्डव  अपनी छावनी में प्रसन्न होकर बैठे थे, इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने आकर युधिष्ठिर से कहा___’राजन् ! बड़े सौभाग्य की बात है , जो आपकी जीत हो रही है। धन्य भाग, जो भीष्मजी मारे गये। ये महारथी संपूर्ण शास्त्रों के पारगामी थे। मनुष्यों से तो ये अवध्य थे ही, देवता भी इन्हें नहीं जीत सकते थे। किन्तु आपके तेज से ये दग्ध हो गये।‘ युधिष्ठिर ने कहा___’कृष्ण ! विजय तो आपकी कृपा का फल है। आप भक्तों का भय दूर करनेवाले हैं और हमलोग आपकी शरण में पड़े हैं। जिनकी रक्षा आप करते हैं, उनकी यदि विजय हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मेरा तो ऐसा विश्वास है, जिसने सर्वथा आपका आश्रय लिया है उसके लिये कोई भी बात आश्चर्यजनक नहीं है।‘ उनके ऐसा कहने पर भगवान् मुस्कराते हुए बोले___’यह कथन आपके ही अनुरूप है।‘ संजय ने कहा___राजन् ! रात बीती और सबेरा हुआ, तो कौरव और पाण्डव पितामह भीष्म के निकट उपस्थित हुए । उन्होंने वीर_शय्या पर सोया हुए पितामह को प्रणाम किया और सभी उनके पास खड़े जो गये। हजारों कन्याओं ने वहाँ आकर भीष्म के शरीर पर चन्दन, रोली, खील और फूल की मालाएँ चढ़ाकर उनकी पूजा कीं। दर्शकों में स्त्री, बूढ़े, बालक, ढोल पीटनेवाले, मच, नर्तक और शिल्पी आदि सभी श्रेणी के लोग थे। सभी बड़ी श्रद्धा से उनका दर्शन करने आये थे। कौरव और पाण्डव भी युद्ध बन्द करके कवच तथा हथियार अलग रखकर प्रेम के साथ अपनी_अपनी अवस्था के क्रम ले पितामह के पास बैठे थे।
बाणों के घाव से भीष्मजी का शरीर जल रहा था, पीड़ा से उन्हें मूर्छा आ जाती थी; उन्होंने बड़ी कठिनाई से राजाओं की ओर देखकर कहा ‘पानी चाहिये।‘ सुनते ही क्षत्रियलोग उठे और चारों ओर से उत्तमोत्तम भोजन की सामग्री तथा ठण्डे जल से भरे हुए घड़े लाकर उन्होंने भीष्मजी को अर्पण किये। यह देख भीष्मजी बोले___’अब मैं पहले भोगे हुए किसी मानवीय भोग तो स्वीकार नहीं करूँगा; क्योंकि अब मैं मानवलोक से अलग होकर बाण_शय्या पर शयन कर रहा हूँ।‘ यह कहकर वे राजाओं की बुद्धि की निंदा करते हुए बोले__’ इस समय अर्जुन को देखना चाहता हूँ।‘
यह सुनकर अर्जुन तुरंत उनके निकट पहुँचे और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े हुए विनीत भाव से खड़े होकर बोले__’दादाजी ! मेरे लिये क्या आज्ञा है ?’ अर्जुन को सामने देख धर्मात्मा भीष्म ने प्रसन्न होकर कहा__बेटा ! तुम्हारे बाणों से मेरा शरीर जल रहा है। मर्मस्थानों में बड़ी पीड़ा हो रही है। मुँह सूखा जाता है। मुझे पानी दो। तुम समर्थ हो, तुम्हीं मुझे विधिवत् जल पिला सकते हो।‘ अर्जुन ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर पितामह की आज्ञा स्वीकार की और अपने रथ पर बैठकर उन्होंने गाण्डीव धनुष चढ़ाया। उस धनुष की टंकार सुनकर सभी प्राणी थर्रा उठे और राजाओं को बड़ा भय हुआ। अर्जुन ने रथ के द्वारा ही पितामह की परिक्रमा की और एक दमकता हुआ बाण निकाला, फिर मंत्र पढ़कर उसे पांचजन्य_ अस्त्र से संयोजित किया। इसके बाद सबके देखते_देखते उन्होंने भीष्म के बगलवाली जमीन पर वह बाण मारा। उसके लगते ही पृथ्वी से अमृत के समान मधुर तथा दिव्य गन्ध और दिव्य रस से युक्त शीतल जल की निर्मल धारा निकलने लगी। उससे अर्जुन ने दिव्य कर्म करनेवाले पितामह भीष्म को तृप्त किया। अर्जुन का यह अलौकिक कर्म देखकर वहाँ बैठे हुए राजाओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे सब_के_सब भय से काँपने लगे। उस समय चारों ओर शंख और दुंदुभियों की तुमुल ध्वनि गूँज उठी। भीष्मजी ने तृप्त होकर सबके सामने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा__’महाबाहो ! तुममें ऐसा पराक्रम होना आश्चर्य की बात नहीं है। मुझे नारदजी ने पहले से ही बता दिया है कि तुम पुरातन ऋषि नर हो और इन भगवान् नरायण की सहायता से बड़े_बड़े कार्य करोगे, जिन्हें इन्द्र आदि देवता भी करने का साहस नहीं कर सकते। तुम इस भूमण्डल में एकमात्र सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो। इस युद्ध को रोकने के लिये मैंने तथा विदुर, द्रोणाचार्य, परशुराम, भगवान् श्रीकृष्ण और संजय ने भी बार_बार कहा; किन्तु दुर्योधन ने किसी की नहीं सुनी। उसकी बुद्धि विपरीत हो गयी है; वह बेहोश_सा रहता है, किसी की बात पर विश्वास नहीं करता। सदा शास्त्र के प्रतिकूल आचरण करता है। खैर, इसका फल इसे मिलेगा; भीमसेन के बल से अपमानित होकर यह मारा जायगा और सदा के लिये रणभूमि में सो रहेगा।‘ भीष्मजी की यह बात सुनकर दुर्योधन का मन बहुत दुःखी हो गया। उसे देखकर पितामह ने कहा___ ‘ राजन् ! क्रोध छोड़ दो और मेरी बात पर ध्यान दो। यह तो तुमने देखा न, अर्जुन ने किस तरह शीतल, मंद एवं सुगंधित जल की धारा प्रकट की है ? ऐसा पराक्रम करनेवाला इस जगत् में दूसरा कोई नहीं है। आग्नेय, वारुण, सौम्य, वायव्य, वैष्णव, ऐन्द्र, पाशुपात, ब्राह्म्य, पारमेष्ठ्य, प्राजापत्य, धात्र, त्वाष्ट्र, सावित्र और वैवस्वत इत्यादि अस्त्रों को इस संसार में अर्जुन या भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं। तीसरा कोई भी इनका ज्ञाता नहीं है। अतः अर्जुन को किसी प्रकार भी युद्ध में जीतना असम्भव है, इनके सभी कर्म अलौकिक हैं। इसलिये मेरी राय यही है कि तुम इनके साथ शीघ्र ही सन्धि कर लो। जबतक भगवान् श्रीकृष्ण कोप नहीं करते, जबतक भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव तुम्हारी सेना का सर्वनाश नहीं कर डालते, उसके पहले ही तुम्हारा पाण्डवों के साथ मित्रभाव हो जाना मैं अच्छा समझता हूँ। तात ! मेरे मरने के साथ ही इस युद्ध की समाप्ति कर दो, शान्त हो जाओ। मेरा कहा मानो, इसी में तुम्हारा और तुम्हारे कुल का कल्याण है। अर्जुन ने जो पराक्रम दिखाया है, वह तुम्हें सचेत करने के लिये काफी है। अब तुमलोगों में परस्पर प्रेमभाव बढ़े और बचे_खुचे राजाओं के जीवन का रक्षा हो। पाण्डवों को आधा राज्य दे दो और युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ ( दिल्ली ) को चले जायँ। सभी राजा एक_दूसरे से मिलें। पिता पुत्र से, मामा भानजे से और भाई भाई के साथ मिलकर रहें। यदि मोहवश या मूर्खता के कारण तुम मेरी इस समयोजित बात पर ध्यान न दोगे तो अन्त में पछताना पड़ेगा, सबका नाश हो जायगा___ यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। भीष्मजी सुहृद् से यह बात कहकर चुप हो गये। फिर उन्होंने अपना मन परमात्मा में लगाया। दुर्योधन को वह बात ठीक उसी तरह पसंद नहीं आयी, जैसे मरनेवाले मनुष्य को दवा पीना अच्छा नहीं लगता। तदनन्तर, भीष्मजी के मौन हो जाने पर सभी राजा अपने_ अपने शिविर में चले आये। इसी समय कर्ण भीष्मजी के मारे जाने का समाचार सुनकर कुछ भयभीत हो जल्दी से उनके पास आया। इन्हें शर_शैय्या पर पड़े देख उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसने गद्गद् कण्ठ से कहा, ‘महाबाहु भीष्मजी ! जिसे आप सदा द्वेषभरी दृष्टि से देखते थे, वही मैं राधा का पुत्र कर्ण आपकी सेवा में उपस्थित हूँ।‘ यह सुनकर भीष्मजी ने पलक उघाड़कर धीरे से कर्ण की ओर देखा। इसके बाद उस स्थान को सूना देख पहरेदारों को भी वहाँ से हटा दिया। फिर जैसे पिता पुत्र को गले लगाता है, उसी प्रकार एक हाथ से कर्ण को खींचकर हृदय से लगाते हुए स्नेहपूर्वक कहा___’आओ मेरे प्रतिस्पर्धी ! तुम सदा मुझसे लाग_डाँट रखते आये हो। यदि मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्याण नहीं होता। महाबाहो ! तुम राधा के नहीं कुन्ती के पुत्र हो।
तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं, सूर्य हैं___यह बात मुझे व्यासजी और नारदजी से ज्ञात हुई है। यह बिलकुल सच्ची बात है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तात् !  मैं सच कहता हूँ, तुमसे मेरा तनिक भी द्वेष नहीं है; तुम अकारण ही पाण्डवों पर आक्षेप करते थे, अत: तुम्हारा दुःसाहस दूर करने के लिये ही मैं कठोर वचन कहता था। नीच पुरुषों का संग करने से तुम्हारी बुद्धि गुणवानों से भी द्वेष करने लगी है। इस कारण से ही कौरवों की सभा में मैंने तुम्हें अनेकों बार कटु वचन सुनाये हैं। मैं जानता हूँ, युद्ध में तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिये असह्य है। तुम ब्राह्मणों के भक्त हो, शूरवीर हो और दान में तुम्हारी बड़ी निष्ठा है। मनुष्यों में तुम्हारे समान गुणवान् कोई नहीं है, बाण मारने में, अस्त्रों का संधान करने में, हाथ की फुर्ती में और अस्त्रबल में तुम अर्जुन और श्रीकृष्ण के समान हो। तुम धैर्य के साथ युद्ध करते हो, तेज और बल में देवता के तुल्य हो। युद्ध में तुम्हारा पराक्रम मनुष्यों से अधिक है। पूर्वकाल में तुम्हारे प्रति जो मेरा क्रोध था, उसे मैंने दूर कर दिया है। अब मुझे निश्चय हो गया है कि पुरुषार्थ ले दैव के विधान को नहीं पलटा जा सकता। पाण्डव तुम्हारे सहोदर भाई हैं; यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहो, तो उनके साथ मेल कर लो। मेरे ही साथ इस वैर का अन्त हो जाय और भूमण्डल के सभी राजा आज से सुखी हों। कर्ण ने कहा___महाबाहो ! आपने जो कहा कि मैं सूतपुत्र नहीं, कुन्ती का पुत्र हूँ___यह मुझे भी मालूम है। किन्तु कुन्ती ने तो मुझे त्याग दिया और सूत ने मेरा पालन_पोषण किया है। आजतक दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगता रहा हूँ, अब उसे हराम करने का साहस मुझमें नहीं है। जैसे वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण पाण्डवों की सहायता में दृढ़ हैं, उसी प्रकार मैंने भी दुर्योधन के लिये अपने शरीर, धन, स्त्री, पुत्र और यश को निछावर कर दिया है। जो बात अवश्य होनेवाली है, उसको पलटा नहीं जा सकता। पुरुषार्थ से दैव के विधान को कौन मेट सकता है ? आपको भी को पृथ्वी के नाश की सूचना देनेवाले अपशकुन ज्ञात हुए थे, जिन्हें आपने सभा में बताया था। मैं भी पाण्डवों और भगवान् श्रीकृष्ण का प्रभाव जानता हूँ, ये मनुष्यों के लिये अजेय हैं। तो भी मेरे मन में यह विश्वास है कि मैं पाण्डवों को रण में जीत लूँगा।
यह वैर बहुत बढ़ गया है और इसका छूटना कठिन है; इसलिये मैं अपने धर्म में स्थित रहकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुन से युद्ध करूँगा। युद्ध करने के लिये मैंने निश्चय कर लिया है, अब आप आज्ञा दें। आपकी आज्ञा लेकर ही युद्ध करने का मेरा विचार है। आज तक अपनी चपलता के कारण मैंने जो कटुवचन कहा हो या प्रतिकूल आचरण किया हो, उसे आप क्षमा करें।
भीष्मजी बोले___कर्ण ! यदि यह दारुण वैर मिट  नहीं सकता तो मैं तुम्हें युद्ध के लिये आज्ञा देता हूँ। तुम स्वर्ग की कामना से ही युद्ध करो। क्रोध और डाह छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार रण में पराक्रम दिखाओ। सदा सत्पुरुषों के आचरण का पालन करो। अर्जुन से युद्ध करके तुम क्षत्रिय धर्म से प्राप्त होनेवाले लोकों में जाओगे। अहंकार त्यागकर अपने बल और पराक्रम का भरोसा रखकर युद्ध करो। क्षत्रिय को लिये धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याण का साधन नहीं है। कर्ण ! मैंने शान्ति के लिये महान् प्रयत्न किया है, परन्तु इसमें सफल न हो सका। यह तुमसे सच कह रहा हूँ।
राजन् ! भीष्मजी ने जब ऐसा कहा तो कर्ण ने उन्हें प्रणाम किया और  उनकी आज्ञा ले रख पर बैठकर आपके पुत्र दुर्योधन के पास चला गया।

भीष्मपर्व समाप्त

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