Monday 21 May 2018

द्रोणपर्व कर्ण का युद्ध को लिये तैयार होना तथा द्रोणाचार्य का सेनापति पद पर अभिषेक

नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप अर्जुन,  उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उनके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आखिरी संपत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अंतःकरण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।
राजा जन्मेजय ने पूछा___ ब्रह्मण् ! पितामह भीष्म को पांचालकुमार शिखण्डी के हाथ से मारा गया सुनकर राजा धृतराष्ट्र तथा उनके पुत्र दुर्योधन ने क्या किया ? यह सब प्रसंग आप मुझे सुनाइये।
वैशम्पायनजी बोले___राजन् ! भीष्मजी की मृत्यु का समाचार सुनकर राजा धृतराष्ट्र एकदम चिंता और शोक में डूब गये। उनकी सारी शान्ति नष्ट हो गयी। रात_दिन उन्हें दुःख ही का विचार रहने लगा। इतने में उनके पास विशुद्धहृदय संजय आया। वह कौरवों की छावनी से रात ही में हस्तिनापुर पहुँचा था। उससे भीष्मजी के मृत्यु का विवरण सुनकर राजा धृतराष्ट्र को बड़ा ही खेद हुआ। वे आतुर होकर रोने लगे और फिर पूछा, ‘तात ! महात्मा भीष्मजी के लिये अत्यन्त शोकातुर होकर फिर कौरवों ने क्या किया ? वीर पाण्डवों की विशाल और विजयिनी वाहिनी तो तीनों लोकों में अत्यन्त भय उत्पन्न कर सकती है। अब भला, दुर्योधन की सेना में कौन महारथी है, जिसकी उपस्थिति में ऐसा महान् भय सामने आने पर भी वीरों का धैर्य बना रहे।‘
संजय ने कहा___राजन् ! भीष्मजी के मारे जाने के बाद आपके पुत्रों ने क्या_क्या किया, यह आप ध्यान देकर सुनिये। उनका निधन होने पर कौरव और पाण्डव दोनों ही अलग विचार करने लगे। उन्होंने क्षात्रधर्म की निंदा करते हुए महात्मा भीष्मजी को प्रणाम किया, फिर उनकी रक्षा का प्रबंध कर आपस में उन्हीं की चर्चा करते रहे। तदनन्तर पितामह की आज्ञा होने पर उनकी प्रदक्षिणा करके वे फिर आपस में युद्ध करने के लिये कमर कसकर चल दिये। थोड़ी ही देर में तुरही और भेरियों की ध्वनि को साथ आपके पुत्रों की और पाण्डवों की सेनाएँ युद्ध करने के लिये निकल पड़ीं।राजन् ! आपके पुत्र और आपकी नासमझी के कारण तथा भीष्मजी का वध हो जाने से अब कौरव और उनके पक्ष के सब राजा मृत्यु के समीप आ पहुँचे हैं। भीष्मजी को खोकर उन सभी को बड़ा शोक हुआ है। उनके न रहने से कौरवों की सेना अनाथ_सी हो गयी है। जिस प्रकार कोई आपत्ति आ पड़ने पर अपने बन्धु याद आने लगते हैं, उसी प्रकार अब कौरव_वीरों का ध्यान कर्ण की ओर गया; क्योंकि वह भीष्मजी के समान गुणवान् तथा समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और अग्नि के समान तेजस्वी था। कर्ण दो रथियों के बराबर था, किन्तु भीष्मजी ने बलवान् और पराक्रमी रथियों की गणना करते समय उसे अर्धरथी ठहराया था। इसलिये दस दिन तक, जबतक कि पितामह ने युद्ध किया, महायशस्वी कर्ण ने  संग्रामभूमि में पैर नहीं रखा था। अब सत्यप्रतिज्ञ भीष्मजी के धराशायी होने पर आपके पुत्रों ने कर्ण को याद किया और वे ‘अब तुम्हारे लड़ने का समय आ गया है’ ऐसा कहकर ‘कर्ण ! ‘कर्ण !’ पुकारने लगे।अब महारथी कर्ण समुद्र में डूबती नौका के समान आपके पुत्र की सेना को इस आपत्ति से  पार करने के लिये तुरंत ही कौरवों के पास आया और उनसे कहने लगा, ‘भीष्मजी में धैर्य, बुद्धि, पराक्रम, ओज,  सत्य, स्मृति आदि सभी वीरोचित गुण थे। उनके पास अनेकों दिव्य अस्त्र भी थे। साथ ही नम्रता, लज्जा, मधुर भाषण और सरलता की भी उनमें कमी नहीं थी। वे दूसरे के उपकारों को याद रखनेवाले और विप्रविद्वेषियों के विरोधी थे। उनके शान्त हो जाने से तो मुझे सब वीरों का अन्त हुआ_सा ही दिखायी देता है।‘ ऐसा कहकर तथा महाप्रतापी भीष्म के निधन और कौरवों की पराजय का विचार करके कर्ण रो बड़ा ही खेद हुआ और वह आँखों में आँसू भरकर लम्बे_लम्बे साँस लेने लगा।कर्ण के ये वचन सुनकर आपके पुत्र और सैनिक लोग भी आपस में शोक प्रकट करने लगे और अत्यन्त आतुर होकर आँखों से आँसू बहाते हुए ढाढ़ मारकर रोने लगे। तब रथियों में श्रेष्ठ कर्ण ने अन्य महारथियों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा, ‘भीष्मजी के गिर जाने से कोई सेनापति न रहने के कारण कौरवों की सेना बहुत घबरायी हुई है, शत्रुओं ने इसे निरुत्साह और अनाथ कर दिया है। किन्तु अब मैं भीष्मजी की तरह ही  इसकी रक्षा करूँगा। मैं अनुभव करता हूँ कि अब यह सारा भार मेरे ऊपर ही है। मैं रणभूमि में घूम-घूमकर अपने बाणों से पाण्डवों को यमराज के घर भेज दूँगा और सारे संसार में अपना महान् यश प्रकट करके रहूँगा। फिर अपने सारथिसेे कहा, ‘सूत ! तू मुझे कवच और शीर्षत्राण पहना तथा शीघ्र ही मेरे रथ को सोलह तरकस, दिव्य धनुष, तलवार, शक्ति, गदा और शंख आदि सभी सामग्रियों से सजाकर घोड़े जोतकर ले आ।‘संजय कहता है__राजन् ! ऐसा कहकर कर्ण युद्ध की सामग्री से भरे हुए, ध्वजा पताकाओं से सुशोभित एक सुन्दर रथ पर चढ़कर विजय प्राप्त करने के लिये चला और सबसे पहले शर_शैय्या पर पौढ़े हुए अतुलित तेजस्वी महात्मा भीष्मजी के पास पहुँचा। उन्हें देखकर कर्ण व्याकुल हो गया। उसने रथ से उतरकर हाथ जोड़कर भीष्मजी को प्रणाम किया और फिर नेत्रों में जल भरकर लड़खड़ाती जबान से कहा, ‘भरतश्रेष्ठ ! मैं कर्ण हूँ। आपका कल्याण हो, आप अपनी पवित्र दृष्टि से मेरी ओर निहारिये और अपने शांतिपूर्ण शब्दों से मुझे अनुगृहीत कीजिये। मुझे धनसंग्रह, मंत्रणा, व्यूहरचना और शस्त्रसंचालन में आपके समान कौरवों और कोई दिखायी नहीं देता। आपके सिवा ऐसा और कौन है, जो अर्जुन के साथ लोहा ले सके। बड़े_बड़े बुद्धिमानों का यही कथन है कि अर्जुन के पास अनेकों दिव्य अस्त्र हैं और वह निवातकवचादि अमानवों से तथा स्वयं महादेवजी से भी युद्ध कर चुका है। साथ ही उसने भगवान् शंकर से अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये दुर्लभ वर भी प्राप्त किया है। तो भी आपकी आज्ञा होने पर तो मैं आज ही अपने पराक्रम से उसे नष्ट कर सकता हूँ।‘
राजन् ! कर्ण के इस प्रकार कहने पर कुरुवृद्ध पितामह ने प्रसन्न होकर देश और काल के अनुसार कहा, ‘कर्ण ! तुम शत्रुओं का मान मर्दन करनेवाले और मित्रों का आनन्द बढ़ानेवाले होओ। भगवान् विष्णु जैसे देवताओं के आश्रय हैं, उसी प्रकार तुम कौरवों के आधार बनो। दुर्योधन के जय की इच्छा से तुमने अपने बाहुबल से उत्कल, मेकल, पौण्ड्र, कलिंग, अन्ध्र, निषाद, त्रिगर्त और बाह्लीक आदि देशों के राजाओं को परास्त किया था। इनके सिवा जगह_जगह और भी अनेकों वीरों को तुमने नीचा दिखाया था। भैया, देखो जैसे दुर्योधन सब कौरवों का कर्णधार है, उसी प्रकार तुम भी उसे पूरा आश्रय देना। जाओ, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ; तुम शत्रुओं के साथ संग्राम करो, युद्ध में कौरवों के पथ_प्रदर्शक बनो और दुर्योधन को जय प्राप्त कराओ। दुर्योधन के तरह तुमभी मेरे पौत्र के समान ही हो। धर्मतः जैसे मैं उसका हितैषी हूँ, वैसे ही तुम्हारा भी हूँ।‘
भीष्मजी की यह बात सुनकर कर्ण ने उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर वह सेना की ओर चला गया और उसे उत्साहित किया। कर्ण को सब सेना के आगे आता देखकर दुर्योधनादि समस्त कौरवों को बड़ा हर्ष हुआ। वे ताल ठोंककर, उछल_उछलकर, सिंहनाद करके और तरह_तरह से धनुषों की टंकार करके कर्ण का स्वागत करने लगे। फिर उससे दुर्योधन ने कहा, ‘कर्ण ! अब तुम हमारी सेना के रक्षक हो, इसलिये मैं इसे सनाथ समझता हूँ। तुम इस बात का निर्णय करो कि क्या करने से हमारा हित हो सकता है।‘ कर्ण ने कहा___राजन् ! आप तो बड़े बुद्धिमान हैं, आप अपना विचार कहिये; क्योंकि स्वयं राजा कर्तव्य का जैसा ठीक_ठीक निर्णय कर सकते हैं, वैसा कोई दूसरा पुरुष नहीं कर सकता। इसलिये हम आपकी ही बात सुनना चाहते हैं। दुर्योधन ने कहा___पहले आयु, बल और विद्या में बढ़े_चढ़े पितामह भीष्म हमारे सेनापति थे। उन्होंने सब योद्धाओं को साथ रखते हुए शत्रुओं का संहार किया और भीषण युद्ध करते हुए दस दिन तक हमारी रक्षा की। अब वे तो स्वर्गवास की तैयारी में हैं, अतः उनके स्थान पर तुम्हारे विचार से किसे सेनापति बनाना उचित होगा ? नायक के बिना तो सेना एक मुहूर्त भी नहीं ठहर सकती। जिस प्रकार बिना मल्लाह का नौका और बिना सारथि का रथ चाहे जिधर चलने लगते हैं, उसी प्रकार बिना सेनापति की सेना बेकाबू हो जाती है। इसलिये मेरे पक्ष के सब वीरों पर दृष्टि डालकर तुम यह निश्चय करो कि भीष्म के बाद कौन उपयुक्त सेनापति होगा। इस पद के लिये तुम जिसे कहोगे, उसी को हम सहर्ष अपना सेनापति बनायेंगे। कर्ण बोला___ यहाँ जितने राजालोग उपस्थित हैं, वे सभी बड़े महानुभाव हैं और निःसंदेह इस पद के योग्य हैं। से सभी कुलीन, गठीले शरीरवाले, युद्धकला में कुशल तथा बल, पराक्रम और बुद्धि से सम्पन्न हैं; सभी शास्त्रज्ञ, बुद्धिमान और युद्ध में पीठ न दिखानेवाले हैं। किन्तु एक साथ सभी को तो सेनानायक नहीं बनाया जा सकता। इसलिये जिस एक में सबसे अधिक गुण हों, उसी को इस पद पर नियुक्त करना चाहिये। मेरे विचार से तो समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण को ही सेनापति बनाना उचित है; क्योंकि ये सभी योद्धाओं के आचार्य और गुरु हैं तथा वयोवृद्ध भी हैं। ये साक्षात् शुक्राचार्य और वृहस्पति के समान हैं तथा इन्हें कोई परास्त भी नहीं कर सकता। अत: इनके रहते और कौन हमारा सेनापति हो सकता है ? आपके ये गुरुदेव सभी सेनानायकों में, सभी शस्त्रधारियों में और सभी बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार देवताओं  ने स्वामी कार्तिकेयजी को अपना सेनाध्यक्ष बनाया था, उसी प्रकार आप इन्हें अपना सेनापति बनाइये।
कर्ण की यह बात सुनकर दुर्योधन ने सेना के बीच में खड़े हुए आचार्य द्रोण के पास जाकर कहा, ‘भगवन् ! वर्ण, कुल, उत्पत्ति, विद्या, आयु, बुद्धि, पराक्रम, युद्धकौशल, अजेयता, अर्थज्ञान, नीति, विजय, तपस्या और कृतज्ञता आदि सभी गुणों में आप सबसे बढ़े_चढ़े हैं। आपके समान राजाओं में भी हमारा कोई रक्षक नहीं है। अतः इन्द्र जिस प्रकार देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा कीजिये। हम आपके नेतृत्व में ही शत्रुओं पर विजय करना चाहते हैं। अतः आप हमारे सेनापति बनने की कृपा करें। यदि आप हमारे सेनापति हो जायेंगे, तो हम अवश्य ही राजा युधिष्ठिर और उनके अनुयायी और बन्धु_बान्धवोंसहित जीत लेंगे।‘ दुर्योधन के इस प्रकार कहने पर उसे हर्षित करते हुए सब राजाओं ने द्रोणाचार्य का जय_जयकार किया। वे सब द्रोणाचार्य का उत्साह बढ़ाने लगे। तब आचार्य ने दुर्योधन से कहा, ‘राजन् ! मैं छहों अंगयुक्त वेद, मनुजी का कहा हुआ अर्थशास्त्र, भगवान् शंकर की दी हुई बाणविद्या और कई प्रकार के अस्त्र_शस्त्र जानता हूँ। तुमने विजय की अभिलाषा से मुझमें जो_जो गुण बताये हैं, उन सभी को निभाता हुआ मैं पाण्डवों के साथ संग्राम करूँगा। किंतु मैं द्रुपदपुत्र धृष्टधुम्न का वध किसी प्रकार नहीं कर सकूँगा; क्योंकि उसकी उसकी उत्पत्ति तो मेरे ही वध के लिये हुई है।‘ राजन् ! इस प्रकार आचार्य की अनुमति मिलने पर आपके पुत्र दुर्योधन ने उन्हें विधिपूर्वक सेनापति के पद पद पर अभिषिक्त किया। उस समय बाजों के घोष और शंखों की ध्वनि से सब लोगों ने हर्ष प्रकट किया तथा पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन, सूर और मागधों के स्तुतिगान और ब्राह्मणों के जय_जयकार से आचार्य का सम्मान किया गया। द्रोण के सेनापति होने से सब लोग यही समझने लगे कि हमने पाण्डवों को जीत लिया।

No comments:

Post a Comment