Monday 11 June 2018

द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा तथा उनके पहले दिन का युद्ध

संजय ने कहा___राजन् ! सेनापति का अधिकार प्राप्त करके महारथी द्रोण अपनी सेना की व्यूह_रचना कर आपके पुत्रों को सहित युद्धक्षेत्र को चले। उनकी दाहिनी ओर सिंधुराज जयद्रथ, कलिंगनरेश और आपका पुत्र विकर्ण चल रहे थे। उनकी रक्षा के लिये गन्धारनरेश की घुड़सवार सेना के सहित शकुनि उनके पीछे था। बायीं ओर कृपाचार्य, कृतवर्मा, चित्रसेन, विविंशति और दुःशासन आदि वीर थे। उनकी रक्षा का भार सुदक्षिण आदि काम्बोजवीरों पर था। उन्हीं के साथ शक और यवन_सेना भी चल रही थी। मद्र, त्रिगर्त, अम्बष्ठ, मालव, शिबि, शूरसेन, शूद्र, मलद, सौवीर, कितव तथा पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी देशों के सभी योद्धा आपके पुत्रों के सहित दुर्योधन और कर्ण के पीछे_पीछे चल रहे थे। वे सब अपनी_अपनी सेनाओं के बल और उत्साह को बढ़ाते जाते थे। समस्त योद्धाओं में श्रेष्ठ कर्ण सेना में शक्ति का संचार करता हुआ सबके आगे चल रहा था। आज कर्ण को देखकर किसी को भी भीष्मजी का अभाव नहीं खलता था। सबके मुँह पर यही बात थी कि ‘ आज कर्ण को सामने देखकर पाण्डवलोग रणक्षेत्र में नहीं ठहर सकेंगे। अजी ! कर्ण तो देवताओं के सहित स्वयं इन्द्र को भी जीत सकते हैं, फिर इन बल_पराक्रमहीन पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? भीष्मजी भी थे तो बहुत पराक्रमी, परन्तु वे पाण्डवों को बचाते रहते थे। सो अब कर्ण उन्हें अपने तीखे बाणों से तहस_नहस कर देंगे।‘ राजन् ! इस प्रकार सब सैनिक कर्ण की प्रशंसा करते और मन_ही_मन उसे आदर देते चल रहे थे। रणक्षेत्र में पहुँचकर आचार्य ने अपनी सेना का शकटव्यूह बनाया। इधर धर्मराज ने पाण्डवसेना का क्रौन्चव्यूह बना रखा था। उस व्यूह के मुखस्थान पर पुरुषश्रेष्ठ श्रीकृष्ण और अर्जुन खड़े हुए अपनी ध्वजा फहरा रहे थे। इधर आपकी सेना के मुहाने पर कर्ण था। कर्ण और अर्जुन दोनो ही एक_दूसरे पर विजय पाने के लिये उतावले हो रहे थे और दोनों ही एक_दूसरे के प्राणों के ग्राहक थे। इसलिये दोनों ही की एक_दूसरे पर टकटकी लगी हुई थी। इसी समय यकायक महारथी द्रोण आगे बढ़े और सारी सेना के बीच में आपके पुत्र से कहने लगे, ‘राजन् ! तुमने भीष्मजी के बाद मुझे सेनापति के पद पर प्रतिष्ठित किया है, सो मैं उसके अनुरूप फल देना चाहता हूँ। बताओ, मैं तुम्हारा क्या काम करूँ ? तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे वही वर माँग लो।‘ इस पर राजा दुर्योधन ने कर्ण और दुःशासनादि से सलाह करके आचार्य से कहा, ‘यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं,  तो महारथी युधिष्ठिर को जीता हुआ पकड़कर मेरे पास ले आइये।‘ यह सुनकर आचार्य ने कहा, ‘तुम कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को कैद करना ही चाहते हो, उनका वध कराने के लिये तुमने वर नहीं माँगा; इसलिये वे धन्य हैं। किन्तु दुर्योधन ! तुम्हें उन्हें मरवा डालने की इच्छा क्यों नहीं है ? पाण्डवों के जीतने के पश्चात्  फिर युधिष्ठिर को ही राज्य सौंपकर तुम अपना सौहार्द तो दिखाना नहीं चाहते ? धर्मराज पर तुम्हारा स्नेह है, इसलिये वे अवश्य बड़े भाग्यवान् हैं; उनका जन्म सफल है तथा उनकी अजातशत्रुता भी सच्ची है।‘ राजन् ! आचार्य के ऐसा कहते ही आपके पुत्र के हृदय में जो भाव सदा बना रहता था, वह सहसा प्रकट हो गया। वह प्रसन्न होकर कह उठा, ‘ आचार्यपाद ! युधिष्ठिर के मारे जाने से मेरी विजय नहीं हो सकती; क्योंकि हमने यदि उन्हें मार भी डाला तो शेष पाण्डव अवश्य ही हमें नष्ट कर देंगे। सब पाण्डवों को तो देवता भी नहीं मार सकते; इसलिये उनमें से जो भी बचा रहेगा, वही हमारा अन्त कर देगा। यदि सत्यप्रतिज्ञ युधिष्ठिर मेरे काबू में आ गये तो मैं उन्हें फिर जूए में जीत लूँगा और तब उनके अनुयायी पाण्डवलोग भी फिर वन में चले जायँगे। इस तरह स्पष्ट ही बहुत दिनों के लिये मेरी जीत हो जायगी। इसी से मैं धर्मराज का वध किसी भी अवस्था में नहीं करना चाहता।‘
द्रोणाचार्य बड़े व्यवहारकुशल थे। वे दुर्योधन की कूर अभिप्राय ताड़ गये, इसलिये उन्होंने उसे एक शर्त के साथ वर देते हुए कहा___’यदि वीर अर्जुन ने युधिष्ठिर की रक्षा न की तो  युधिष्ठिर को अपने काबू में आया हुआ ही समझो। अर्जुन के ऊपर आक्रमण करने का साहस तो इन्द्र के सहित देवता और असुर,भी नहीं कर सकते। इसलिये यह काम मेरे वश का नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि वह मेरा शिष्य है और उसने मुझही से अस्त्रविद्या सीखी है, तथापि वह युवा हैं, और पुण्यशील भी हैं। मेरे बाद वह इन्द्र और रुद्र से भी अस्त्र प्राप्त कर चुका है और तुम्हारे ऊपर उसका कोप भी है ही। इसलिये उसकी उपस्थिति में मैं यह काम नहीं कर सकूँगा। अतः जैसे बने, वैसे ही तुम उसे युद्धक्षेत्र से दूर ले जाना। बस, अर्जुन के जाने के बाद तो धर्मराज तुम्हारे हाथ ही में हैं। अर्जुन के दूर चले जाने पर यदि धर्मराज एक मुहूर्त भी मेरे सामने डटे रहे तो मैं निःसंदेह उन्हें अपने वश में कर लूँगा।‘ राजन् ! द्रोणाचार्य के इस प्रकार शर्त के साथ प्रतिज्ञा करने पर भी आपके मूर्ख पुत्रों ने युधिष्ठिर को कैद किया हुआ ही समझा। दुर्योधन यह जानता था कि द्रोणाचार्य पाण्डवों पर प्रेम रखते हैं, इसलिये उनकी प्रतिज्ञा को स्थायी बनाने के लिये उसने वह बात सेना के सभी पाण्डवों में घोषित करा दी। सैनिकों ने जब सुना कि आचार्य ने राजा युधिष्ठिर को कैद करने का प्रतिज्ञा की है तो वे सिंहनाद करते हुए ताल ठोंकने लगे। अपने विश्वासपात्र गुप्तचरों से द्रोण की  इस प्रतिज्ञा का समाचार पाकर धर्मराज युधिष्ठिर ने सब भाइयों को और दूसरे राजाओं को भी बुलाया। फिर अर्जुन से कहा, ‘पुरुषसिंह ! आचार्य जो कुछ करना चाहते हैं, वह तुमने सुना ? अब किसी ऐसी नीति से काम लो , जिसमें उनका विचार सफल न हो। उन्होंने एक शर्त के साथ प्रतिज्ञा की है और उस शर्त का संबंध तुम्ही से है। अतः तुम मेरे पास ही रहकर युद्ध करो, जिससे कि द्रोण के द्वारा दुर्योधन की इच्छा पूरी न हो सके।‘ अर्जुन ने कहा___राजन् ! जिस प्रकार मैं आचार्य का वध नहीं करना चाहता, उसी प्रकार आपसे दूर होने की भी मेरी इच्छा नहीं है। ऐसा करने में भले ही मुझे युद्धस्थल में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़े। भले ही नक्षत्र सहित आकाश गिर पड़े और पृथ्वी के टुकड़े_टुकड़े हो जायँ, तथापि मेरे जीवित रहते स्वयं इन्द्र की सहायता पाकर भी आचार्य आपको कैद नहीं कर सकते। इसलिये जबतक मेरे शरीर में प्राण है, तबतक आप द्रोण से तनिक भी न डरें। मैं दावे के साथ कहता हूँ, मेरी यह प्रतिज्ञा टल नहीं सकती। जहाँ तक मुझे स्मरण है मैंने कभी झूठ नहीं बोला, कहीं पराजय प्राप्त नहीं की और न कभी कोई प्रतिज्ञा करके उसे तोड़ा ही है। महाराज ! फिर पाण्डवों के शिविर में शंख, भेरी, मृदंग और नगारों का शब्द होने लगा; पाण्डवलोग सिंहनाद करने लगे तथा उनकी प्रत्यंचाओं का टंकार और तालियों का शब्द आकाश में गूँजने लगा। यह देखकर आपकी सेना में भी बाजे बजने लगे। फिर व्यूहरचना से खड़ी हुई दोनों सेनाएँ धीरे_धीरे आगे बढ़कर आपस में युद्ध करने लगीं। संजयवीरों ने आचार्य की सेना को नष्ट_भ्रष्ट करने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु उनसे रक्षित होने के कारण वे वैसा न कर सके। इसी प्रकार दुर्योधन के महारथी योद्धा भी अर्जुन से सुरक्षित पाण्डवीसेना पर काबू न पा सके। द्रोणाचार्य के छोड़े हुए भयंकर बाण पाण्डवों की सेना को संतप्त करते हुए सब ओर सनसना रहे थे। इस समय उनमें से किसी भी वीर की दृष्टि आचार्य पर ठहर नहीं पाती थी। इस प्रकार पाण्डवों की सेना को मूर्छित_सी करके वे अपने पैने बाणों से धृष्टधुम्न की सेना को कुचलने लगे। उनके छोड़े हुए बाण अनेकों रथियों, घुड़सवारों, गजारोहियों और पैदलों का सफाया कर रहे थे। इससे शत्रुओं को बहुत भय होने लगा। आचार्य ने घूम_घूमकर सेना को घबराहट में डाल दिया और उनके भय को चौगुना कर दिया। इस समय युद्धभूमि में रक्त की भीषण नदी बहने लगी, जो सैकड़ों वीरों को यमराज के घर ले जा रही थी और जिसे देखकर कायरों के दिल बदल जाते थे। द्रोण ने राजा द्रुपद को दस बाण मारे। उनका जवाब उन्होंने अनेकों बाणों से दिया। इस पर आचार्य ने उन पर उससे भी अधिक बाण छोड़े। भीमसेन ने विविंशति पर बीस बाणों का वार किया, किन्तु इससे वह वीर टस_से_मस भी न हुआ। यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उसने यकायक भीमसेन के घोड़े मार डाले तथा उनके रथ की ध्वजा और धनुष को भी काट दिया। इससे सभी सेना ‘वाह_वाह’ करने लगी। भीमसेन शत्रु का ऐसा पराक्रम सहन न कर सके। इसलिये उन्होंने अपनी गदा से उसके सब घोड़े मार डाले। दूसरी ओर शल्य ने हँसते हुए अपने प्यारे भानजे नकुल को बींधना आरम्भ किया। प्रतापी नकुल ने बात_की_बात में शल्य के घोड़े, छत्र, ध्वजा, सूत और धनुष को नष्ट कर डाला और फिर अपना शंख बजाया। धृष्टकेतू ने कृपाचार्य के छोड़े हुए तरह_तरह के बाणों को काटकर सत्तर बाणों से उन्हें बींध दिया और तीन तीरों से उनकी ध्वजा काट डाली। तब कृपाचार्य ने बड़ी बाणवर्षा करके धृष्टकेतू को रोका और उसे अत्यंत घायल कर दिया। इस पर कृतवर्मा ने बड़ी फुर्ती से सतहत्तर बाण छोड़े। किन्तु उनसे घायल होकर भी सात्यकि पर्वत के समान अचल बना रहा।
राजा द्रुपद भगदत्त से भिड़ गये। उनका बड़ा ही अद्भुत युद्ध हुआ। भगदत्त ने राजा द्रुपद को उनके सारथि के सहित बींध डाला तथा उनके रथ और उसकी ध्वजा में भी बाण मारे। इस पर द्रुपद ने कुपित होकर भगदत्त की छाती में बाण मारा। दूसरी ओर भूरिश्रवा और शिखण्डी बड़ा भीषण युद्ध कर रहे थे। महाबली भूरिश्रवा ने बाणों की भारी बौछारों से शिखण्डी को आच्छादित कर दिया। इस पर शिखण्डी ने कुपित होकर नब्बे बाणों से भूरिश्रवा को अपने स्थान से डिगा दिया। क्रूरकर्मा राक्षस घतोत्कच और अलम्बुष दोनों ही सैकड़ों प्रकार की मायाएँ जाननेवाले थे और अभिमानी होने के कारण एक_ दूसरे को नीचा दिखाने पर तुले हुए थे। वे सबको आश्चर्यचकित करते अन्तर्धान होकर युद्ध करने लगे। इसी प्रकार चेकितान और अनुविन्द का तथा क्षत्रदेव और लक्ष्मण का भी संग्राम होने लगा। इसी समय पौरव गर्जना करता हुआ अभिमन्यु की ओर दौड़ा। दोनों का बड़ा घोर युद्ध छिड़ गया। पौरव ने बाणों की वर्षा से अभिमन्यु को बिलकुल ढक दिया। तब अभिमन्यु ने उसके ध्वजा, छत्र और धनुष काटकर पृथ्वी पर गिरा दिये। फिर सात बाणों से उसने पौरव को और पाँच से उसके सारथि तथा घोड़ों को घायल कर दिया। इसके बाद वह ढाल_तलवार लेकर पौरव के रथ के जूए पर कूद पड़ा और वहीं से उसके बाल पकड़ लिये; फिर एक लात से सारथि को रथ से गिरा दिया और तलवार से ध्वजा उड़ा दी तथा पौरव को बाल पकड़कर झकोरने लगा। जयद्रथ से पौरवक का यह दुर्दशा देखी नहीं गयी। इसलिये वह ढाल तलवार लेकर अपने रथ से कूद पड़ा। जयद्रथ को आते देखकर अभिमन्यु ने पौरव को छोड़ दिया और बाज की तरह तुरंत ही रथ से,उछलकर उसके सामने आ गया। जयद्रथ ने उस पर प्रास, पट्टिश और तलवार आदि कई प्रकार के शस्त्रों की वर्षा की; किन्तु अभिमन्यु ने उन सबको तलवार से ही काट डाला और ढाल से रोक दिया। उन दोनों वीरों की फुर्ती देखने लायक थी। उनकी तलवारों के चलाने, टकराने, रोकने तथा बाहर या भीतर की ओर घुमाने में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता था। दोनों ही वीर भीतर और बाहर की ओर घूमते हुए युद्ध के,अद्भुत पैंतरे दिखा रहे थे। इतने में ही अभिमन्यु की ढाल से लगकर जयद्रथ की तलवार टूट गयी इसलिये वह तुरंत ही अपने रथ पर चढ़ गया। इसी समय अवकाश पाकर अभिमन्यु भी अपने रथ पर जा बैठा। अभिमन्यु को रथ पर चढ़ा देखकर कौरवपक्ष के सब राजाओं ने मिलकर उसे घेर लिया। अतः उसने जयद्रथ को छोड़कर अब सभी सेना को संतप्त करना आरम्भ किया। इसी समय शल्य ने उस पर एक अग्निशिखा के समान देदीप्यमान भयंकर शक्ति छोड़ी। अभिमन्यु ने उछलकर उसे बीच में ही पकड़ लिया और उसी शक्ति को अपने पूरे बाहुबल से शल्य की ओर छोड़ा। उसने राजा शल्य के सारथि को मारकर रथ से नीचे गिरा दिया। यह देखकर राजा विराट, द्रुपद, धृष्टकेतू, युधिष्ठिर, सात्यकि, केकयराजकुमार, भीमसेन, धृष्टधुम्न, शिखण्डी, नकुल_सहदेव और द्रौपदी के पुत्रों ने वाह_वाह की ध्वनि से आकाश को गुँजा दिया तथा वे अभिमन्यु का हर्ष बढ़ाते हुए जोर_जोर से सिंहनाद करने लगे। सारथि को मरा हुआ देखकर राजा शल्य ने लोहे की ठोस गदा उठायी और क्रोध से गर्जना करते हुए वे रथ से कूद पड़े। उन्हें दण्डधर यमराज के समान अभिमन्यु की ओर झपटते देख तुरंत ही भीमसेन अपनी भारी गदा लिये उनके सामने आ गये। संग्राम में भीमसेन की गदा का प्रहार मद्रराज को छोड़कर और कोई सहन नहीं कर सकता था तथा मद्रराज  की गदा के वेग को सहनेवाला भी भीमसेन के सिवा और कोई नहीं था। वे दोनों ही वीर गंगा किनारे हुए मण्डलाकार चक्कर काटने लगे। दोनों का समानरूप से युद्ध हो रहा था, कोई भी घट_बढकर नहीं जान पड़ता था। आखिर, भीमसेन की चोटों से शल्य की भारी गदा के टुकड़े_टुकड़े हो गये तथा शल्य के प्रहारों से आग की चिनगारियाँ उगलती हुई भीमसेन की गदा बर्षाकाल में पटबीजनों से घिरे हुए वृक्ष के समान दिखायी देने लगी। इस प्रकार वे दोनों ही गदाएँ आपस में टकराकर बार_बार आग प्रकट कर देती थीं। दोनों वीरों पर हवाओं के अनेकों प्रहार हुए, किन्तु दोनों ही टस_से_मस न हुए। अन्त में बहुत घायल हो जाने के कारण वे दोनों ही युद्धभूमि में गिर गये। शल्य अत्यन्त व्याकुल होकर लम्बी_लम्बी साँसे ले रहे थे। उन्हें तुरंत ही महारथी कृतवर्मा अपने रथ में डालकर ले गया। महाबाहु भीमसेन को भी थोड़ी देर में चेत हो गया और वे खड़े होकर फिर हाथ में गदा लिये युद्ध के,मैदान में दिखायी देने लगे। मद्रराज को युद्ध के मैदान से बाहर गया देखकर आपके पुत्र अपनी चतुरंगिणी सेना के सहित थर्रा उठे तथा विजयी पाण्डवों से पीड़ित होकर भय से इधर_उधर भाग गये। इस प्रकार कौरवों को जीतकर पाण्डवलोग हर्ष में भरकर बार_बार सिंहनाद और हर्षध्वनि करने लगे तथा नरसिंगे, मृदंग और नगारे आदि बजाने लगे। तब द्रोणाचार्य ने देखा कि शत्रुओं के हाथ से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण कौरवों की
विशाल वाहिनी के पैर उखड़ गये हैं, तो उन्होंने पुकारकर कहा___ ‘शूरवीरों ! मैदान से भागो मत।‘ फिर वे क्रोध में भरकर पाण्डवों की सेना में जा घुसे और राजा युधिष्ठिर के सामने आये। युधिष्ठिर ने अपने तीखे बाणों से उन्हें घायल कर दिया। इस पर आचार्य ने उनके धनुष को काटकर बड़ी तेजी से आक्रमण किया।
आज वे धर्मराज को पकड़ना चाहते थे; इसलिये उन्हें रोकने के लिये जो_जो योद्धा सामने आये, उन्हीं को उन्होंने प्रहार करके क्षुब्ध कर दिया। उन्होंने बारह बाणों से शिखण्डी को, बीस से उत्तमौजा को, पाँच से नकुल को, सात से सहदेव को, बारह से युधिष्ठिर को, तीन_तीन से द्रौपदीपुत्रों को, पाँच से सात्यकि को और दस से मत्स्यराज विराट को घायल कर दिया। इतने में ही युगन्धर ने उनकी गति रोक दी। तब आचार्य ने राजा युधिष्ठिर को और भी घायल करके एक भाले से युगन्धर को रथ के नीचे गिरा दिया। इसी समय धर्मराज को बचाने के लिये राजा विराट, द्रुपद, केकयराजकुमार, सात्यकि, शिबि, व्याघ्रदत्त और सिंहसेन___इन सब वीरों ने बहुत से बाण बरसाकर आचार्य का रास्ता रोक दिया। पांचालदेशीय व्याघ्रदत्त ने पचास बाण मारकर द्रोण को घायल कर दिया। इससे लोगों में बड़ा कोलाहल होने लगा। सिंहसेन ने भी आचार्य को बाणों से बींध दिया और वह सब महारथियों को भयभीत करके स्वयं हर्ष से अट्टहास करने लगा। किन्तु द्रोणाचार्य ने क्रोध में भरकर दो बाणों से इन दोनों वीरों के सिर उड़ा दिये और अन्य महारथियों को बाणजाल से आच्छादित कर मृत्यु के समान युधिष्ठिर के सामने जाकर डट गये। आचार्य का ऐसा पराक्रम देखकर सब सैनिक यही कहने लगे कि ‘ये इसी समय युधिष्ठिर को पकड़कर हमारे महाराज को सौंप देंगे।‘ जिस समय आपके सैनिक इस प्रकार चर्चा कर रहे थे, उसी समय अर्जुन ने बड़ी तेजी से अपने रथ के शब्द द्वारा सब दिशाओं को गुँजाते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने युद्ध के मैदान में खून की नदी बहा दी, जिसमें रथ भँवर के समान जान पड़ते थे तथा जो शूरवीरों की हड्डियों से भरी हुई, शवरूप किनारों को बहा ले जानेवाली, बाणसमूहरूप फेन से व्याप्त तथा प्रासरूप मछलियों से भरी हुई थी। उस नदी को पार कर उन्होंने कौरववीरों को युद्ध के मैदान से भगा दिया और फिर अपनी घनघोर बाणवर्षा से शत्रुओं को,अचेत करते हुए वे सहसा द्रोणाचार्य का सेना के सामने आ गये। धनन्जय की बाणवर्षा के कारण दिशाएँ, अंतरिक्ष, आकाश और पृथ्वी___ कुछ भी दिखायी नहीं देता था; सब बाणमय_से जान पड़ते थे। इतने में ही सूर्य अस्त हो गया और अन्धकार फैलने लगा। इसलिये शत्रु, मित्र, किसी का भी पता लगना कठिन हो गया। यह देखकर द्रोणाचार्य और दुर्योधन ने अपनी सेना को युद्ध बन्द करने का आज्ञा दी तथा अर्जुन ने भी अपनी सेना को शिविर की ओर मोड़ा। इस प्रकार शत्रुओं के दाँत खट्टे कर वे श्रीकृष्ण के साथ बड़े आनन्द से सारी सेना के पीछे अपनी छावनी का ओर चले। इस समय पांचाल और संजयवीर उनकी उसी प्रकार प्रशंसा कर रहे थे, जैसे ऋषिलोग सूर्य की स्तुति करते हैं।

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