Thursday 25 July 2019

आचार्य द्रोण का आक्रमण, घतोत्कच और अश्त्थामा का घोर युद्ध

संजय कहते हैं____ सात्यकि के प्रति राजा सोमदत्त का क्रोध बहुत बढ़ा हुआ था; इसका कारण यह था कि उसने उनके पुत्र भूरिश्रवा को, जबकि वह अनशन व्रत धारण करके बैठा हुआ था, मार डाला था। सोमदत्त ने नौ बाण मारकर सात्यकि को बींध डाला। फिर सात्यकि ने भी उन्हें नौ बाणों से घायल किया। सात्यकि बलवान् था और उसका धनुष भी खूब मजबूत था; अत: उसकी मार से सोमदत्त बेतरह घायल हो गये और रथ की बैठक में मूर्छित होकर गिर पड़े। यह देख उनका सारथि उन्हें रणभूमि से दूर हटा ले गया। तब सात्यकि का वध करने की इच्छा से आचार्य द्रोण उसकी ओर झपटे। उन्हें आते देख युधिष्ठिर आदि वीर सात्यकि की रक्षा के लिये उसे घेरकर खड़े हो गये। तदनन्तर द्रोण का पाण्डवों के साथ युद्ध आरम्भ हुआ। द्रोण ने पाण्डवसेना को बाणों से आच्छादित कर दिया। फिर सात्यकि को दस, धृष्टधुम्न को बीस, भीमसेन को नौ, नकुल को पाँच, सहदेव को आठ, द्रुपद को दस, युधामन्यु को नौ और उत्तमौजा को छ: बाण मारकर बींध दिया। इसके बाद अन्य योद्धाओं को भी घायल करके वे युधिष्ठिर की ओर बढ़े। उनके बाणों की चोट से आर्तनाद करते हुए पाण्डव_सैनिक सब दिशाओं में भागने लगे। जो_जो वीर आचार्य के सामने आ जाता, उसका मस्तक काटकर उनके बाण पृथ्वी में समा जाते थे। इस प्रकार द्रोण के बाणों से आहत हुई पाण्डवसेना अर्जुन के देखते_ देखते भयभीत होकर भाग चली। यह देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा___’ गोविन्द ! अब आप आचार्य के रथ की ओर चलिये।‘ तब भगवान् ने घोड़ों को द्रोण के रथ की ओर हाँका। भीमसेन ने भी अपने सारथि विशोक को आज्ञा दी कि 'मुझे द्रोण के रथ के पास ले चलो।‘ उनकी आज्ञा पाकर सारथि ने भी अर्जुन के पीछे अपना रथ बढ़ाया। उन दोनों भाइयों को तैयार होकर द्रोणकुमार की ओर आते देखकर पांचाल, सृंजय, मत्स्य, चेदि, कारूप, और केकय महारथियों ने उनका साथ दिया। महाराज ! तदनन्तर वहाँ रोंगटे खड़े कर देनेवाला घोर संग्राम छिड़ गया। अर्जुन और भीम ने अपने साथ रथियों के भारी समूह को लेकर आपकी सेना के दक्षिण और उत्तर भाग में डेरा डाल दिया। उन दोनों वीरों को वहाँ उपस्थित देख सात्यकि और धृष्टधुम्न भी आ गये। भूरिश्रवा के वध से अश्त्थामा बहुत चिढ़ा हुआ था, उसने सात्यकि को आते देख उसे मार डालने का निश्चय करके उसपर धावा किया। यह देख भीमसेन के पुत्र घतोत्कच ने क्रोध में भरकर अपने शत्रु को रोका। घतोत्कच का रथ लोहे का बना हुआ था, उसमें आठ पहिये थे; वह बहुत बड़ा और भयंकर था, उसी में बैठकर वह अश्त्थामा की ओर चला। एक अक्षौहिणी सेना उसे चारों ओर से घेरे हुए थीं। किसी के हाथ में त्रिशूल था तो किसी के हाथ में मुद्गर; कोई पत्थर की चट्टान हाथ में लिये था और कोई वृक्ष। घतोत्कच प्रलयकाल के दण्डधारी यमराज की भाँति जान पड़ता था। उसके हाथ में उठाये हुए महान् धनुष को देखकर राजालोग भय से व्याकुल हो उठे थे। वह भीमकाय राक्षस पर्वत के समान ऊँचा था, बड़ी_ बड़ी दाढों के कारण उसका मुख विकराल तथा भयंकर दिखायी पड़ता था। कान खूँटे के समान, ठोढ़ी बहुत बड़ी, बाल ऊपर की ओर उठे हुए, आँखें भयावनी, मुँह पर चमक, पेट धँसा हुआ___ यही उसकी हुलिया थी। गले का छेद ऐसा था, मानो कोई बहुत बड़ा गड्ढा हो। सिर के बाल मुकुट से ढके हुए थे। वह मुँह बाकर खड़े हुए यमराज के समान संपूर्ण प्राणियों को त्रास पहुँचा रहा था, शत्रु उसे देखते ही व्याकुल हो जाते थे। मनुष्यों को व्यथा राक्षसराज घतोत्कच को हाथ में धनुष लिये आते देख दुर्योधन की सेना में हलचल मच गयी, सब_के_सब भय से व्याकुल हो उठे। उस राक्षस के सिंहनाद से अत्यंत भयभीत हो हाथी मूत्रत्याग करने लगे। मनुष्यों को व्यथा होने लगी। फिर तो वहाँ चारों ओर से पत्थरों की वर्षा आरम्भ हो गयी। रात्रि होने से उस समय राक्षसों का बल बहुत बढ़ा हुआ था। उनके चलाये हुए लोहे के चक्र, भुसुण्डि, प्रास, तोमर, शूल, शतध्नी और पट्टिश आदि अस्त्र_ शस्त्र वहाँ बरस रहे थे; बड़ा ही भयंकर संग्राम छिड़ा था। उसे देखकर कौरवपक्ष के राजाओ, आपके पुत्रों तथा कर्ण को भी बहुत कष्ट हुआ और वे सब दिशाओं की ओर भागने लगे। इस समय एकमात्र अभिमानी वीर अश्त्थामा ही विचलित न होकर अपनी जगह पर डटा रहा। उसने घतोत्कच की रची हुई माया अपने बाणों से नष्ट कर दी। माया का नाश होने पर घतोत्कच के क्रोध की सीमा न रही।, उसने भयंकर बाणों का प्रहार किया। वे सभी बाण अश्त्थामा के शरीर में घुस गये। तब अश्त्थामा ने भी क्रोध में भरकर घतोत्कच को दस बाणों से बींध डाला। इससे उसके मर्मस्थानों में बड़ी चोट पहुँची। अत्यन्त पीड़ित होकर उसने लाख अरोंवाला एक चक्र हाथ में लिया, जिसके किनारे की ओर छूरे लगे हुए थे; वह चक्र अश्त्थामा को लक्ष्य करके उसने चलाया, परन्तु अश्त्थामा ने बाण मारकर चक्र के टुकड़े_ टुकड़े कर दिये। वह व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह देख घतोत्कच ने अपने बाणों की वर्षा से अश्त्थामा को आच्छादित कर दिया। इतने में ही घतोत्कच का पुत्र अंजनपर्वा वहाँ आ पहुँचा। उसने अश्त्थामा को ऐसे रोक लिया जैसे आँधी के वेग को पर्वत रोक देता है। तब अश्त्थामा ने एक बाण से अंजनपर्वा की ध्वजा, दो से रथ के दोनों सारथि, तीन से त्रिवेणुक, एक से,धनुष और चार से चारों घोड़े मार गिराये। रथहीन हो जाने पर उसने तलवार उठायी, किन्तु द्रोणकुमार ने तीखे तीर से उसके भी दो टुकड़े कर दिये। तब अंजनपर्वा ने गदा घुमाकर चलायी, किन्तु द्रोणकुमार ने उसे भी बाणों से मारकर गिरा दिया। फिर तो वह प्रलयकालीन मेघ के समान गर्जना करता हुआ कूदकर आकाश में चला गया और वहाँ से वृक्षों की वर्षा करने लगा। यह देख अश्त्थामा उस मायावी को बाणों से बींधने लगा। तब वह नीचे उतरकर पुनः दूसरे रथ पर जा बैठा। इसी समय अश्त्थामा ने अंजनपर्वा को मार डाला। अपने महाबली पुत्र को अश्त्थामा के हाथ से मारा गया देख घतोत्कच क्रोध से जल उठा और अश्त्थामा के पास जाकर बोला___’द्रोणकुमार ! मैं उन पाण्डवों का पुत्र हूँ, जो युद्ध में कभी पीछे पैर नहीं हटाते। राक्षसों का राजा हूँ और रावण के समान मेरा बल है। तू इस रणांगण में खड़ा तो रह, जीतेजी नहीं जाने पायेगा। आज मैं तेरा युद्ध करने का हौसला मिटा दूँगा।‘ ऐसा कहकर क्रोध से लाल_ लाल आँखें किये वह महाबली राक्षस अश्त्थामा की ओर झपटा और उसपर रथ के धुरे के सदृश बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु घतोत्कच के बाण अभी निकट आने भी न पाते थे कि अश्त्थामा उन्हें काट गिराता था। इस प्रकार अंतरिक्ष में मानो बाणों का एक दूसरा ही संग्राम चल रहा था। जब दोनों ओर के बाण टकराते तो उनसे चिनगारियाँ टूटने लगतीं, जो उस प्रदोषकाल में आकाश के बीच जुगुनुओं की भाँति जान पड़ती थी। स्वाभिमानी अश्त्थामा के द्वारा अपनी माया नष्ट हुई देख घतोत्कच पुनः आकाश में छिप गया और दूसरी माया रचने लगा। वह एक ऊँचा पर्वत बन गया; उसके अनेकों शिखर थे जो वृक्षों से भरे हुए थे। जैसे पर्वतों से झरने गिरते हैं, उसी प्रकार उस पर्वत से भी शूल, प्रास, तलवार आदि के स्रोत बहने लगे। यह सब देखकर भी अश्त्थामा विचलित नहीं हुआ। उसने हँसते हँसते उस पर्वत पर वज्रास्त्र का प्रहार किया। उसका स्पर्श होते ही गिरिराज सहसा विलीन हो गया। उसके बाद उसने इन्द्रधनुष सहित काला मेघ बनकर पत्थरों की वर्षा से द्रोणपुत्र को ढक दिया।
अश्त्थामा अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ था, उसने अपने धनुष पर वायव्यास्त्र का संधान किया  और उससे उस काली घटा को छिन्न_भिन्न कर दिया। फिर उसने बाणों की वर्षा से संपूर्ण दिशाओं को आच्छादित करके पाण्डवों के एक लाख रथियों का सफाया कर डाला। तदनन्तर क्रोध में,भरे हुए घतोत्कच ने अश्त्थामा की छाती में दस बाण मारे। उनसे आहत होकर अश्त्थामा काँप उठा। इतने में ही घतोत्कच ने आंजलिक नामक बाण मारकर उसके धनुष को भी काट डाला। तब अश्त्थामा ने दूसरा मजबूत धनुष हाथ में लिया और घतोत्कच पर तीखे बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। तब तो घतोत्कच के क्रोध की सीमा नहीं रही, उसने भयंकर कर्म करनेवालों राक्षसों की सेना को आज्ञा दी कि ‘ वीरों ! इस द्रोण के बेटे को मार डालो।‘  आज्ञा पाते ही वे भयंकर राक्षस आँखें लाल_लाल किये, मुँह बायें अनेकों अस्त्र लेकर अश्त्थामा को मारने के लिये दौड़े। वे अश्त्थामा के मस्तक पर शक्ति, शतध्नी, परिघ, वज्र, शूल, पट्टिश, तलवार, गदा, भिन्दीपाल, मूसल, फरसा, प्रास, तोमर, कणप, कम्पन और मुद्गर आदि घोर शत्रुनाशक अस्त्र_ शस्त्रों की वर्षा करने लगे। द्रोणपुत्र के मस्तक पर शस्त्रों की बौछार होती देख आपके योद्धा बहुत दुःखी हुए, परन्तु वह स्वयं तनिक भी विचलित नहीं हुआ। वज्र के समान तीखे सायकों से उस घोर शस्त्र_ वर्षा का विध्वंस करता रहा। फिर उसने अपने तीक्ष्ण बाणों को दिव्य मंत्रों से अभिमन्त्रित करके  राक्षसों की सेना का संहार आरम्भ किया। उसके बाणों से,घायल होकर राक्षसों का समुदाय व्याकुल हो उठा। अश्त्थामा की मार पड़ने से वे  सब_के_सब क्रोध में भरकर उसके ऊपर टूट पड़े।
उस समय अश्त्थामा ने ऐसा अद्भुत पराक्रम दिखाया, जो दूसरों के लिये नहीं हो सकता था। उसने राक्षसराज घतोत्कच के देखते_ देखते प्रज्वलित बाणों से उसकी सेना को भस्मसात् कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए घतोत्कच ने दाँतों से अपना ओंठ बचाकर ताली बजायी और सिंहनाद करके आठ घंटियोंवाली एक भयानक अशनि अश्त्थामा के ऊपर छोड़ी। किन्तु उसने कूदकर वह अशनि हाथ में पकड़ ली और पुनः उसे घतोत्कच पर चला दी। घतोत्कच कूदकर रथ से अलग हो गया और वह भयंकर अशनि उसके घोड़े, सारथि, ध्वजा तथा रथ को भष्म करके पृथ्वी में समा गयी।
अश्त्थामा का वह पराक्रम देख सब योद्धा उसकी प्रशंसा करने लगे। अपना रथ नष्ट जो जाने से घतोत्कच धृष्टधुम्न के रथ पर जा बैठा और एक भयानक धनुष हाथ में ले अश्त्थामा की छाती पर तीखे बाणों से प्रहार करने लगा। इसी प्रकार धृष्टधुम्न भी निर्भीक होकर द्रोणपुत्र के हृदय में तीखे बाणों से चोट पहुँचाने लगा। इधर से अश्त्थामा भी उनपर हजारों बाणों की वर्षा करने लगा और वे दोनों अपने अस्त्रों से उसके बाणों को काटने लगे। इस प्रकार उनमें बड़ी तेजी के साथ अत्यन्त भयानक युद्ध छिड़ा हुआ था। उस समय अश्त्थामा ने वहाँ अत्यन्त अद्भुत पराक्रम प्रकट किया, जो दूसरों के लिये सर्वथा असंभव था। उसने पलक मारते ही घोड़े, सारथि, रथ, और हाथियों सहित राक्षसों की एक अक्षौहिणी सेना का सफाया कर डाला। भीमसेन, घतोत्कच,  धृष्टधुम्न, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर, अर्जुन और श्रीकृष्ण देख ही रह गये। उसके बाणों की चोट खाकर हाथी श्रृंगहीन पर्वत के समान पृथ्वी पर भहरा पड़ते थे। उसने अपने नाराचों से पाण्डवों को बींधकर द्रुपदकुमार सुरथ को मार डाला। फिर द्रुपद के छोटे भाई शत्रुंजय का काम तमाम किया। इसके बाद बलानीक, जयानीक और जयाश्र्व के प्राण लिये; फिर श्रुताह्वय को यमलोक भेज दिया। तदनन्तर तीन बाणों ये हेममाली, पुषध्र और चन्द्रसेन का वध किया। तत्पश्चात् कुन्तीभोज के दस पुत्रों को भी दस बाणों से यमलोक का अतिथि बनाया। इसके बाद उसने यमदण्ड के समान घोर बाण धनुष पर चढ़ाया और घतोत्कच की छाती में प्रहार किया। वह महान् बाण उसकी छाती छेदकर पृथ्वी में समा गया, घतोत्कच मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। उसे,मरकर गिरा हुआ समझकर धृष्टधुम्न अश्त्थामा के पास से अपना रथ दूर हटा ले गया। युधिष्ठिर की सेना के राजालोग भाग चले। वीरवर अश्त्थामा पाण्डवसेना को परास्त कर सिंह के समान गर्जना करने लगा। उस समय अन्य सब लोगों ने तथा आपके पुत्रों ने,भी द्रोणकुमार का विशेष सम्मान किया। सिद्ध, गन्धर्व, पिशाच, नाग, सुपर्ण, पितर, पक्षी, राक्षस, भूत, अप्सरा तथा देवतालोग भी अश्त्थामा की प्रशंसा करने लगे।

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