Sunday 12 April 2020

कौरवों का भयभीत होकर भागना, पिता की मृत्यु सुनकर अश्त्थामा का कोप और उसके द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग

संजय कहते हैं___ महाराज ! आचार्य द्रोण के मारे जाने के बाद कौरवों को बड़ा शोक हुआ। उनकी आँखों से आँसू बह चले। लड़ने का सारा उत्साह जाता रहा। वे आर्तस्वर से विलाप करते हुए आपके पुत्र को घेरकर बैठ गये। दुर्योधन से अब वहाँ खड़ा नहीं रहा गया, वह भागकर अन्यत्र चला गया। आपके सैनिक भूख_प्यास से विकल थे। वे ऐसे उदास दिखायी देते थे, मानो लू की लपट में झुलस गये हों। द्रोण की मृत्यु से सब पर भय छा गया था, इसलिये सब भाग गये। दुःशासन भी आचार्य की मृत्यु सुनकर घबरा गया था,  अतः वह भी हाथियों की सेना लेकर भाग निकला। बचे हुए संशप्तकों को साथ ले सुशर्मा भी पलायन कर गया। कोई हाथी पर चढ़कर भागा तो कोई रथ पर। कुछ लोग घोड़े को रणभूमि में ही छोड़कर भाग खड़े हुए। कोई पिता को जल्दी भागने को कहते थे, कोई भाइयों से। कोई मामा और मित्रों को उत्तेजित करते हुए भाग रहे थे। इस प्रकार जब आपकी सेना भयभीत एवं अशक्त होकर भागी जा रही थी, उस समय अश्त्थामा ने दुर्योधन के पास जाकर पूछा___भारत ! तुम्हारी यह सेना त्रस्त होकर भाग क्यों रहे  ? पहले की भाँति तुम्हारा मन आज स्वस्थ नहीं दिखायी देता। कर्ण आदि भी यहाँ नहीं ठहर पाते। और दिन भी भयानक युद्ध हुए हैं, पर सेना की ऐसी दशा कभी नहीं हुई। बताओ तो, किस महारथी की मृत्यु हुई है जिससे तुम्हारी सेना इस अवस्था को पहुँच गयी ?’
 द्रोणपुत्र का यह  प्रश्न सुनकर भी दुर्योधन उस घोर अप्रिय समाचार को मुँह से नहीं निकाल सका। केवल उसकी ओर देखकर आँसू बहाता रहा। इसके बाद उसने कृपाचार्य से कहा___’ आप ही सेना के भागने का कारण बता दीजिये।‘  तब कृपाचार्य बारम्बार विषादमग्न होकर अश्त्थामा से द्रोण को मारे जाने का समाचार सुनाने लगे। उन्होंने कहा___’तात ! हमलोग आचार्य द्रोण को आगे रखकर पांचाल राजाओं से संग्राम कर रहे थे। उस युद्ध में जब बहुत_ से कौरवयोद्धा मारे गये तो तुम्हारे पिता ने कुपित होकर ब्रह्मास्त्र प्रकट किया और भल्ल नामक बाणों से हजारों शत्रुओं का सफाया कर डाला। उस समय काल की प्रेरणा से पाण्डव, केकय, मत्स्य और विशेषतः पांचाल वीरों में से जो भी द्रोण के रथ के सामने आये, वे सब नष्ट हो गये। फिर तो पांचाल योद्धा भाग खड़े हुए। उनका बल और पराक्रम धूल में मिल गया। वे उत्साह खो बैठे और अचेत_ से हो गये। उन्हें द्रोण के बाणों से पीड़ित देख पाण्डवों की विजय चाहनेवाले श्रीकृष्ण ने कहा____’ये आचार्य द्रोण मनुष्यों से कभी नहीं जीते जा सकते; औरों की तो हार ही क्या है, इन्द्र भी इन्हें परास्त नहीं कर सकते। मेरा ऐसा विश्वास है कि अश्त्थामा के मारे जाने पर ये लड़ाई नहीं कर सकते; इसलिये कोई जाकर अश्त्थामा की मृत्यु की झूठी खबर सुना दे।‘  यह बात और सबने तो मान ली, केवल अर्जुन को पसंद नहीं आई। युधिष्ठिर ने भी बड़ी कठिनाई से इसे स्वीकार किया। भीमसेन ने लजाते_ लजाते तुम्हारे पिता के सामने जाकर कहा___’अश्त्थामा मारा गया;’ पर उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया। इसी बीच में भीमसेन ने मालवा के राजा इन्द्रवर्मा के अश्त्थामा नामक हाथी को मार डाला। इसे युधिष्ठिर ने भी देखा। द्रोण ने सच्ची बात का पता लगाने के लिये राजा युधिष्ठिर से पूछा___’ अश्त्थामा मारा गया या नहीं ?’ मिथ्या भाषण में कितना दोष है, यह जानते हुए भी युधिष्ठिर ने कह दिया ‘ अश्त्थामा मारा गया। परन्तु हाथी।‘  अन्तिम वाक्य उन्होंने धीरे से कहा, जिसे तुम्हारे पिता सुन न सके। अब उन्हें तुम्हारे मरने का विश्वास हो गया। वे संताप से पीड़ित हो गये। अब युद्ध में पहले_ का सा उत्साह न रहा। उन्होंने दिव्यास्त्रों का परित्याग कर दिया और समाधि लगाकर बैठ गये। उस समय धृष्टधुम्न ने पास जाकर बायें हाथ ले उनके केश पकड़ लिये और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। सब योद्धा पुकार_ पुकारकर कर रहे थे___’ न मारो, न मारो ।‘ अर्जुन तो रथ से उतरकर उसके पीछे दौड़ पड़े और बाँह उठाकर बारम्बार कहने लगे___’ आचार्य को जीवित ही उठा लाओ, मारो मत।‘ इस प्रकार सब लोग मना करते ही रह गये, परन्तु उस नृशंस ने तुम्हारे पिता को मार ही डाला। उसके मारे जाने,पर हमारा उत्साह भी जाता रहा, इसलिये भाग रहे हैं।‘ धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! आचार्य द्रोण को वारुण, आग्नेय, ब्राह्म, ऐन्द्र और नारायण_ अस्त्र का भी ज्ञान था; वे धर्म में स्थित रहनेवाले थे; तो भी धृष्टधुम्न ने उन्हें अधर्मपूर्वक मार डाला। वे शस्त्रविद्या में परशुराम की और युद्ध में इन्द्र की समानता रखते थे। उनका पराक्रम कीर्तवीर्य के समान और बुद्धि बृहस्पति के तुल्य थी। वे पर्वत के समान स्थिर और अग्नि के समान तेजस्वी थे। गम्भीरता में समुद्र को भी मात करते थे। ऐसे धर्मिष्ठ पिता को धृष्टधुम्न के द्वारा अधर्मपूर्वक मारा गया सुनकर अश्त्थामा ने क्या कहा?
 संजय कहते हैं____ पापी धृष्टधुम्न ने मेरे पिता को छल से मार डाला है___ यह सुनकर अश्त्थामा पहले तो रो पड़ा, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे; मगर फिर वह रोष से भर गया, उसका सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। बारम्बार आँखों से आँसू पोंछता हुआ वह दुर्योधन से बोला___’राजन् ! मेरे पिता ने हथियार डाल दिया था तो भी उन नीचों ने उन्हें मरवा डाला। इन धर्मध्वजियों का किया हुआ पाप आज मुझे मालूम हो गया। युधिष्ठिर ने जो भी नीचतापूर्ण क्रूर कर्म किया है, उसे भी सुन लिया। मेरे पिता रण में मृत्यु को प्राप्त होकर अवश्य ही वीरों के लोक में गये हैं; अतः उनके लिये मुझे शोक नहीं करना है। किन्तु धर्म में प्रवृत्त रहने पर भी जो उनका केश पकड़ा गया___ यही मेरे मर्मस्थानों को छेदे डालता है। मुझ जैसे पुत्र के जीवित रहते भी उन्हें यह दिन देखना पड़ा। दुरात्मा धृष्टधुम्न ने मेरा अपमान करके जो यह महान् पाप किया  है, इसका भयंकर परिणाम उसे जल्दी ही भोगना पड़ेगा। युधिष्ठिर भी कितना झूठा है ! उसने बहुत बड़ा अन्याय करके छल से मेरे पिता का हथियार डलवा दिया है। अतः आज यह पृथ्वी उस धर्मराज कहलानेवाले का रक्तपान करेगी। आज मैं अपने सत्य तथा निष्ठापूर्त कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ कि संपूर्ण पांचालों का संहार किये बिना मैं कदापि जीवित नहीं रहूँगा। हर तरह के उपायों से पांचालों के नाश का प्रयत्न करूँगा। कोमल या कठोर कर्म करके भी पापी धृष्टधुम्न का नाश कर डालूँगा। पांचालों का सर्वनाश किये बिना मैं शान्ति नहीं पा सकूँगा। संसार के लोग पुत्र की चाह इसीलिये करते हैं कि वह इहलोक तथा परलोक में महान् भय से पिता की रक्षा करेगा। परंतु मैं जीवित ही हूँ और मेरे पिता की पुत्रहीन की_सी दुर्दशा हुई है। धिक्कार है मेरे दिव्य अस्त्रों को, धिक्कार है मेरी इन भुजाओं और पराक्रम को, जो कि मेरे जैसे पुत्र को पाकर भी मेरे पिता का केश खींचा गया। अब मैं ऐसा काम करूँगा, जिससे परलोकवासी पिता के ऋण से उऋिण हो जाऊँ। श्रेष्ठ पुरुष को अपनी प्रशंसा कभी नहीं  करनी चाहिये; तथापि अपने पिता वध मुझसे सहा नहीं जाता, इसलिये अपना पौरुष कहकर सुनाता हूँ। आज श्रीकृष्ण और पाण्डव मेरा पराक्रम देखें, उनकी संपूर्ण सेना को मिट्टी में मिलाकर प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दूँगा। रथ में बैठकर संग्रामभूमि में पहुँचने पर आज मुझे देवता, गंधर्व, असुर नाग और राक्षस भी नहीं जीत सकते। संसार में मुझसे या अर्जुन से बढ़कर दूसरा कोई अस्त्रवेत्ता नहीं है। मैं एक ऐसा अस्त्र जानता हूँ जिसे न श्रीकृष्ण जानते हैं, न अर्जुन। भीमसेन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धृष्टधुम्न, शिखण्डी और सात्यकि को भी उसका ज्ञान नहीं है।
पूर्वकाल की बात है, मेरे पिता ने भगवान् नारायण को नमस्कार करके उनकी विधिवत् पूजा की थी। भगवान् ने उनका पूजन स्वीकार किया और वर माँगने को कहा। पिता ने उनसे सर्वोत्तम नारायणास्त्र की याचना की। तब भगवान् बोले___मैं यह अस्त्र तुम्हें देता हूँ, अब युद्ध में तुम्हारा मुकाबला करनेवाला कोई नहीं रह जायगा। किन्तु ब्राह्मण ! इसका सहसा प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह अस्त्र शत्रु का नाश किये बिना नहीं लौटता। अवध्य का भी वध कर डालता है। इसको शान्त करने के उपाय ये हैं___ शत्रु अपना रथ छोड़कर उतर जाय, हथियार नीचे डाल दे और हाथ जोड़कर इसकी शरण में चला जाय। और किसी उपाय से इसका निवारण नहीं होता।‘ यह कहकर उन्होंने अस्त्र दिया और मेरे पिता उसे ग्रहण करके मुझे भी सिखा दिया था। भगवान् ने अस्त्र देते समय यह भी कहा था कि ‘ तुम इस अस्त्र से अनेकों प्रकार के दिव्यास्त्रों का नाश कर सकोगे और संग्राम में बड़े तेजस्वी दिखायी दोगे।‘ ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान गये। यह नारायणास्त्र मुझे अपने पिता से मिला है। इसके द्वारा युद्ध में मैं पाण्डव, पांचाल, मत्स्य और केकयों को मार भगाऊँगा। पाण्डवों को अपमानित करके न अपने संपूर्ण शत्रुओं का विध्वंस कर डालूँगा। ब्राह्मण और गुरु से द्रोह करनेवाले पांचालकुलकलंक धृष्टधुम्न को भी आज नहीं छोड़ूँगा।‘ अश्त्थामा की बात सुनकर कौरवों की भागती हुई सेना लौट पड़ी। सभी महारथियों ने बड़े_ बड़े शंख बजाने शुरु किये। भेेेेरी बज उठी, हजारों नगाड़े पीटे जाने लगे। उन बाजों की तुमुल ध्वनि से आकाश और पृथ्वी गूँज उठी। मेघ की गम्भीरता गर्जना के समान उस तुमुल नाद को सुनकर पाण्डव महारथी एकत्र हो परामर्श करने लगे। इसी बीच अश्त्थामा ने दिव्य नारायणास्त्र को प्रकट किया।

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