Sunday 12 April 2020

अर्जुन के द्वारा युधिष्ठिर को उलाहना, भीम का क्रोध, धृष्टधुम्न का द्रोण के विषय में आक्षेप और सात्यकि के साथ उसका विवाद

संजय कहते हैं___ महाराज ! नारायणास्त्र के प्रकट होते ही मेघसहित पवन के झकोरे उठने लगे। बिना बादलों के ही गर्जना होने लगी, पृथ्वी डोल उठी, समुद्र में तूफान आ गया और पर्वतों के शिखर टूट_टूटकर गिरने लगे। उस घोर अस्त्र को देखकर देवता, दानव और गन्धर्वों पर भारी आतंक छा गया; समस्त राजालोग भय से थर्रा उठे।
धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! उस समय पाण्डवों ने धृष्टधुम्न की रक्षा के लिये क्या विचार किया ? 
संजय ने कहा___ कौरव_सेना का तुमुल_नाद सुनकर युधिष्ठिर अर्जुन से बोले___’धनंजय ! धृष्टधुम्न के द्वारा आचार्य द्रोण के मारे जाने पर कौरव बहुत उदास हो विजय की आशा छोड़ चुके थे और अपनी_ अपनी जान बचाने के लिये भागे जा रहे थे। अब देखते हैं कि पुनः उनकी सेना लौटी आ रही है; किसने उसे लौटाने है, इसके विषय में तुम्हें कुछ पता है तो बताओ। ऐसा जान पड़ता है, द्रोण के मारे जाने से कौरवों का पक्ष लेकर साक्षात् इन्द्र युद्ध करने आ रहे हैं। उनका भैरवनाद सुनकर हमारे रथी घबराये हुए हैं, सबके रोंगटे खड़े हो गये हैं। यह कौन महारथी है, जो सेना को युद्ध के लिये लौटा रहा है ?’ अर्जुन बोले___ जिस वीर ने जन्म लेते ही उच्चैःश्रवा के समान हींसना  आरम्भ किया था, जिसे सुनकर यह पृथ्वी हिल उठी और तीनों लोक थर्राने लगे थे, उस आवाज को सुनकर किसी अदृश्य रहनेवाले प्राणी ने जिसका नाम ‘अश्त्थामा’ रख दिया था वही शूरवीर अश्त्थामा है; वही सिंहनाद कर रहा है। धृष्टधुम्न ने उस समय अनाथ के समान जिसके केश पकड़कर मार डाला था, यह उन्हीं का पक्ष लेकर उसके क्रूर कर्म का बदला लेने के लिये आया है। आपने भी राज्य के लोभ से झूठ बोलकर गुरु को धोखा दिया। धर्म को जानते हुए भी यह महान् काम किया ! अतः अन्यायपूर्वक बाली के वध करने के कारण श्रीरामचन्द्रजी को जैसे अपयश मिला, उसी प्रकार आपके विषय में भी झूठ बोलकर गुरु को मरवा डालने का कलंक तीनों लोकों में फैल जायगा। आचार्य ने यह समझा था कि ‘ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सब धर्मों के ज्ञाता हैं, मेरे शिष्य हैं; ये कभी झूठ नहीं बोलेंगे।‘ इसी भरोसे उन्होंने आपका विश्वास कर लिया।।परन्तु आपने सत्य की आड़ लेकर सरासर झूठ कहा।
‘ हाथी मरा था’  इसलिये अश्त्थामा का मरने बता दिया। फिर वे हथियार डालकर अचेत हो गये; उस समय उन्हें कितनी व्याकुलता हुई थी, सो आपने देखी ही थी। पुत्र के स्नेह से शोकमग्न होकर जो रण से विमुख हो चुके थे, ऐसे गुरु को आपने सनातन धर्म की अवहेलना करके शस्त्र से मरवा डाला। अश्त्थामा पिता की मृत्यु से कुपित है, धृष्टधुम्न को वह आज काल का ग्रास बनाना चाहता.  व है। निहत्थे गुरु को अधर्म से मरवाकर अब आप अपने मंत्रियों के साथ अश्त्थामा का सामना करने जाइये, शक्ति हो तो धृष्टधुम्न की रक्षा कीजिये। मैं तो समझता हूँ, हम सबलोग मिलकर भी धृष्टधुम्न को नहीं बचा सकते। मैं बार_ बार मना करता रहा तो भी शिष्य होकर इसने गुरु की हत्या कर डाली। इसकी वजह यह है कि अब हमलोगों की आयु का अधिक अंश बीत गया है; थोड़ा ही शेष रह गया है; इसी से हमारा मस्तिष्क खराब हो गया, हमने यह महान् पाप कर डाला। जो सदा पिता की भाँति हमलोगों पर स्नेह करते थे, धर्मदृष्टि से भी जो हमारे पिता ही थे, उन गुरुदेव को  इस क्षणभंगुर राज्य के कारण हमने मरवा दिया। धृतराष्ट्र ने भीष्म और द्रोण को पुत्रों के साथ ही सारा राज्य सौंप दिया था। वे सदा उनकी सेवा में लगे रहते थे। निरंतर सत्कार किया करते थे। तो भी आचार्य मुझे ही अपने पुत्र से भी बढ़कर मानते थे। ओह ! मैंने बहुत बड़ा और भयंकर पाप किया, जो राज्य_सुख के लोभ में पड़कर गुरु की हत्या करायी। मेरे गुरुदेव को यह विश्वास था कि अर्जुन मेरे लिये पिता, भाई, स्त्री, पुत्र और प्राणों का भी त्याग कर सकता है। किन्तु मैं कितना राज्य का लोभी निकला ! वे मारे जा रहे थे और मैं चुपचाप देखता रहा। एक तो वे ब्राह्मण, दूसरे वृद्ध और तीसरे आचार्य थे ;  इस पर भी उन्होंने अपना शस्त्र नीचे डाल दिया था और महान् मुनिवृत्ति से बैठे हुए थे। इस अवस्था में राज्य के लिये उनकी हत्या कराकर अब मैं जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा समझता हूँ।
संजय कहते हैं ___ महाराज ! अर्जुन की बात सुनकर वहाँ जितने महारथी बैठे थे सब चुप रह गये; किसी ने बुरा या भला कुछ नहीं कहा। तब महाबाहु भीमसेन क्रोध में भरकर बोले___’ पार्थ ! वनवासी मुनि अथवा उत्तम व्रत का पालन करनेवाले ब्राह्मण की भाँति तुम भी धर्म  बैठे हो ! जो संकट में अपनी तथा दूसरों की रक्षा करता है, संग्राम में शत्रुओं को क्षति पहुँचाना जिसकी जीविका है, जो स्त्रियों और  सत्पुरुषों पर क्षमाभाव रखता है, वह क्षत्रिय शीघ्र ही  धर्म, यश तथा लक्ष्मी को प्राप्त करता है।
क्षत्रियों के संपूर्ण सद्गुणों से युक्त होते हुए आज मूर्खों की_ सी बातें करना तुम्हारा शोभा नहीं देता। तात ! तुम्हारा मन धर्म में लगा हुआ है, तुम्हारे भीतर दया है__ यह बहुत अच्छी बात है। किन्तु धर्म में प्रवृत्त रहने पर भी तुम्हारा राज्य अधर्मपूर्वक छीन लिया गया, शत्रुओं ने द्रौपदी को सभा में लाकर उसका केश खींचा और हम सबलोग वल्कल वस्त्र धारण कर तेरह वर्ष के लिये वन में निकाल दिये गये। क्या हमारे साथ यही वर्ताव उचित था  ये सब बातें सहन करने योग्य नहीं थीं, फिर भी हमने सब लीं। हमने जो कुछ किया है वह क्षत्रियधर्म में स्थित रहकर ही किया है। शत्रुओं के उस अधर्म को याद कर आज  मैं तुम्हारी सहायता से उन्हें उनके सहायकोंसहित मार डालूँगा। मैं क्रोध में भरकर इस पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूँ। पर्वतों को तोड़_ फोड़कर बिखेर सकता हूँ। अपनी भारी गदा की चोट से बड़े_ बड़े पर्वतीय वृक्षों को तोड़ डालूँगा। इन्द्र आदि देवता, राक्षस, असुर, नाग और मनुष्य भी यदि एक ही साथ लड़ने आ जायँ तो उन्हें बाणों से मारकर भगा दूँगा। अपने भाई के ऐसे पराक्रम को जानते हुए भी तुम्हें अश्त्थामा से भय नहीं करना चाहिये। अथवा तुम सब भाइयों के साथ यहीं खड़े रहो, मैं अकेला ही गदा हाथ में लेकर शत्रुओं को परास्त करूँगा।‘ भीमसेन के ऐसा कहने पर धृष्टधुम्न बोला___’अर्जुन ! वेदों को पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान देना और प्रतिग्रह स्वीकार करना____ ये ही छ: कर्म ब्राह्मणों के लिये प्रसिद्ध हैं। इनमें से किस कर्म का पालन द्रोणाचार्य करते थे ? अपने धर्म से भ्रष्ट होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म स्वीकार किया था। ऐसी अवस्था में यदि मैंने उनका वध किया तो तुम मेरी निंदा क्यों करते हो ? जो ब्राह्मण कहलाकर भी दूसरों के प्रति माया का प्रयोग करता है उसे यदि कोई माया से ही मार डाले तो इसमें अनुचित क्या है ? तुम जानते हो, मेरी उत्पत्ति इसी काम के लिये हुई थी; फिर भी मुझे गुरुहत्यारा क्यों कहते हो ? जो क्रोध के पराभूत हो ब्रह्मास्त्र न जाननेवालों को भी ब्रह्मास्त्र से नष्ट करता है, वह सभी तरह के उपायों से क्यों न मार डाला जाय ? उन्होंने दूसरों के नहीं; मेरे ही भाइयों का संहार किया था; अतः उसके बदले उनका मस्तक काट लेने पर भी मेरा क्रोध शान्त नहीं हुआ है। राजा भगदत्त तुम्हारे पिता के मित्र थे; उन्हें मारकर जैसे तुमने अधर्म नहीं किया, उसी प्रकार मैंने भी धर्म से ही शत्रु का वध किया है।  जब तुम अपने पितामह को भी युद्ध में मारकर धर्म का पालन समझते हो तो मैंने जो शत्रु का संहार किया, उसे अधर्म क्यों मानते हो ? बहिन द्रौपदी और उसके पुत्रों का खयाल करके ही मैं तुम्हारी कठोर बातें सहे लेता हूँ, इसमें और कोई कारण नहीं है। अर्जुन ! न तो तुम्हारे भाई असत्यवादी हैं और न मैं पापी। द्रोणाचार्य अपने ही अपराध के कारण मारे गये हैं; अतः चलकर युद्ध करो।‘
धृतराष्ट्र बोले___ संजय ! जिन महात्मा ने अंगोंसहित संपूर्ण वेद का अध्ययन किया था, जिनमें साक्षात् धनुर्वेद प्रतिष्ठित था, उन आचार्य द्रोण की वह नीच, नृशंस एवं गुरुघाती धृष्टधुम्न निंदा करता रहा और किसी क्षत्रिय ने उसपर क्रोध किया ? धिक्कार है इस क्षत्रियपन को ! बताओ, वह अनुचित बात सुनकर पाण्डव तथा दूसरे धनुर्धर राजाओं ने धृष्टधुम्न से क्या कहा ?
 संजय ने कहा___महाराज ! उस समय अर्जुन ने द्रुपदकुमार की ओर तिरछी नजर से देखा और आँसू बहाते हुए उच्छ्वास लेकर कहा___’ धिक्कार है ! धिक्कार ! !’ उस समय युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल_ सहदेव तथा श्रीकृष्ण आदि सबलोग संकोचवश चुप हो गये। केवल सात्यकि से नहीं रहा गया, वह बोल उठा___’अरे ! क्या यहाँ कोई भी मनुष्य नहीं है, जो अमंगलमयी बात करनेवाले इस पापी नराधम को शीघ्र ही मार डाले ? ओ नीच ! श्रेष्ठ पुरुषों की मण्डली में बैठकर ऐसी ओछी बातें करते तुझे लज्जा नहीं आती ? तेरी जीभ के सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते ? तेरा मस्तक क्यों नहीं फट जाता ? ०गुरु की निंदा करते समय तू रसातल में क्यों नहीं चला जाता ? स्वयं ऐसा नीच कर्म करके उलटे गुरु पर ही दोषारोपण करता है ? तुझे तो मार ही डालना चाहिये। क्षणभर भी तेरे जीवित रहने से संसार का कोई लाभ नहीं है ! नराधम ! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य है, जो धर्मात्मा गुरु का केश पकड़कर उसका वध करने को तैयार होगा ? तूने बीती तथा आगे होने वाली अपनी सात_ सात पीढ़ियों को नरक में डूबो दिया। अब यदि पुनः मेरे समीप ऐसी बात मुँह से निकालेगा तो वज्र के समान गदा मारकर तेरा सिर उड़ा दूँगा। तू हत्यारा है, तुझे ब्रह्महत्या का पाप लगा है; इसीलिये लोग तुझे देखकर प्रायश्चित के लिये सूर्यनारायण का दर्शन करते हैं। खड़ा रह, मेरी गदा की एक चोट सह ले; मैं भी तेरी गदा की अनेक चोटें सहूँगा।‘
इस प्रकार जब सात्यकि ने द्रुपदकुमार का तिरस्कार किया, तो उसने भी क्रोध में भरकर उसकी मखौल उड़ाते हुए बोला___’ सुन ली, सुन ली तेरी बात; और इसके लिये तुझे क्षमा भी करता हूँ। तेरे जैसे नीच लोगों का सत्पुरुषों पर आक्षेप करने का स्वभाव ही होता है। यद्यपि संसार में  क्षमा की बड़ी प्रशंसा की जाती है, तथापि पापी के प्रति क्षमा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वह क्षमा करनेवालों को पराजित समझता है। तू सिर से पैर तक दुराचारी, नीच और पापी है; स्वयं निंदा के योग्य होकर भी दूसरों की निंदा करना चाहता है।
भूरिश्रवा का हाथ कट गया था, वह प्राणान्त अनशन लेकर बैठा था; उस समय तूने सबके मना करने पर भी जो उसका मस्तक काट लिया, इससे बढ़कर पाप और क्या हो सकता है ? जो स्वयं ऐसा काम करे, वह दूसरों को क्या कहेगा ? तू बड़ा धर्मात्मा पुरुष था तो जब भूरिश्रवा तुझे लात मारकर जमीन पर पटककर काटने लगा, उस समय ही तूने क्यों न उसका वध किया ? स्वयं पापी होकर मुझसे क्यों कठोर बातें कह रहा है ? अब चुप रह, फिर कोई ऐसी बात मुँह से न निकालना; नहीं तो बाणों से मारकर अभी तुझे यमलोक भेज दूँगा। चुपचाप युद्ध कर, कौरवों के साथ ही प्रेतलोक में जाने का उपाय कर।‘ धृष्टधुम्न के ऐसे कठोर वचन सुनकर सात्यकि क्रोध से काँप उठा, उसकी आँखें लाल हो गयीं, हाथ में गदा ले उछलकर वह द्रुपदकुमार के पास जा पहुँचा और बोला___’ अब मैं कोई कड़ी बात न कहकर केवल तुझे मार डालूँगा; क्योंकि तू इसी के योग्य है।‘ इस प्रकार महाबली सात्यकि को धृष्टधुम्न पर सहसा टूटते देख भगवान् श्रीकृष्ण के इशारे से भीमसेन अपने रथ से कूद पड़े और अपनी दोनों बाँहों से सात्यकि को रोका, पर वह बलपूर्वक आगे बढ़ गया। उस समय उसके शरीर से पसीने छूट रहे थे। भीमसेन ने दौड़कर छठे कदम पर सात्यकि को पकड़ा और अपने दोनो पैर जमाकर खड़े हो किसी प्रकार उसे काबू में किया। इतने में ही सहदेव भी अपने रथ से कूदकर आ पहुँचा और बोला____’ नरश्रेष्ठ ! अन्धक, वृष्णि तथा पांचालों से बढ़कर हमारा कोई मित्र नहीं है। तुमलोग जैसे हमारे मित्र हो, वैसे हम भी तुम्हारे हैं। तुम तो सब धर्मों के ज्ञाता हो, मित्रधर्म का खयाल करके अपने क्रोध को रोको। तुम धृष्टधुम्न के अपराध को क्षमा करो और धृष्टधुम्न तुम्हारे।‘  जब सहदेव सात्यकि को शान्त कर रहे थे, उस समय धृष्टधुम्न ने हँसकर कहा___’भीमसेन ! छोड़ दो, छोड़ दो सात्यकि को। यह युद्ध के घमण्ड में मतवाला हो रहा है। अभी तीखे बाणों से इसका सारा क्रोध उतार देता हूँ और इसकी जीवन_ लीला भी समाप्त किये डालता हूँ।‘
उसकी बात सुनकर सात्यकि साँप के समान फुँफकारता हुआ भीमसेन की भुजाओं से छूटने का उद्योग करने लगा। दोनों वीर अपनी_ अपनी जगह पर साँप के समान गरज रहे थे। यह देख भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन तुरंत ही बीच में आ पड़े और बड़े यत्न से उन्होंने उन दोनों को शान्त किया। इस प्रकार क्रोध ले आँखें लाल किये उन दोनों,धनुर्धर वीरों को आपस में लड़ने से रोककर पाण्डवपक्ष के क्षत्रिय योद्धा शत्रुओं का सामना करने के लिये आ डटे।

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