Tuesday 19 July 2022

अर्जुन का युधिष्ठिर से क्षमा मांगना, युधिष्ठिर का अर्जुन को आशीर्वाद देना, अर्जुन की रणयात्रा और भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के पराक्रम का वर्णन

संजय कहते हैं_महाराज ! धर्मराज के मुख से वह प्रेमयुक्त वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया। इधर अर्जुन ने भगवान् के कथनानुसार जो युधिष्ठिर का प्रतिवाद किया था उससे ‘कोई पाप बन गया’ ऐसा समझकर वे पुनः बहुत उदास हो गये थे। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने हंसते_हंसते कहा_’अर्जुन ! राजा युधिष्ठिर को ‘तू’ कह देनेमात्र से जब तुम इस तरह शोक में डूब गये  राजा का वध कर देने पर तुम्हारी क्या दशा होती ? सचमुच धर्म का स्वरूप जानना बड़ा कठिन है, जिनकी बुद्धि मंद है, उनके लिए तो उसका जानना और भी मुश्किल है। तुम धर्मभीरू होने के कारण अपने भाई का वध करके निश्चय ही घोर अन्धकार में पड़ते, भयंकर नरक में गिरते। अब मेरी राय यह है कि तुम कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर को ही प्रसन्न करो, जब वे प्रसन्न हो जाएं तो हमलोग शीघ्र ही सूतपुत्र कर्ण से लड़ने के लिये चलें।‘ तब अर्जुन बहुत लज्जित होकर राजा के चरणों में पड़ गये और बोले_’राजन् ! धर्मपालन की कामना से भयभीत होकर मैंने जो कुछ कह डाला है यह उसे क्षमा कीजिये और मुझपर प्रसन्न होइये।‘ धर्मराज ने देखा अर्जुन पैरों पर पड़े हुए रो रहे हैं, तो उन्होंने अपने प्यारे भाई को उठाकर बड़े स्नेह के साथ गले लगाया और स्वयं भी फूटफूटकर रोने लगे। दोनों भाई बड़ी देर तक रोते रहे, फिर दोनों का भाव एक_दूसरे के प्रति शुद्ध हो गया, दोनों ही प्रेम और प्रसन्नता से भर गये। तदनन्तर युधिष्ठिर ने पुनः अर्जुन को बड़े प्रेम से गले लगाया और उनका मस्तक सूंघकर अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कहा_’महाबाहो ! मैं युद्ध में पूर्ण प्रयत्न के साथ लड़ रहा था, किंतु कर्ण ने समस्त सैनिकों के सामने मेरा कवच, रथ की ध्वजा, धनुष_बाण, शक्ति और घोड़े नष्ट कर डाले। उसके इस कर्म को याद करके मैं दु:ख से पीड़ित हो रहा हूं, अब जीना अच्छा नहीं लगता। यदि आज युद्ध में उस वीर को नहीं मार डालोगे तो मैं निश्चय ही अपने प्राणों को त्याग दूंगा।‘
उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा_’राजन् ! मैं नकुल_सहदेव तथा भीमसेन की सौगंध खाता हूं और अपने हथियारों को छूकर सत्य शपथ करके कहता हूं कि आज या तो मैं आज कर्ण को मार डालूंगा या स्वयं ही मरकर रणभूमि में शयन करूंगा।‘ राजा से यों कहकर अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले_’माधव ! आज युद्ध में मैं अवश्य कर्ण को मारूंगा; आपकी बुद्धि के बल से ही उस दुरात्मा का वध होगा।‘ यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले_’अर्जुन ! तुम महाबली कर्ण का वध करने में स्वयं समर्थ हो। मेरी तो सदा यह इच्छा रहती है कि तुम किसी तरह कर्ण को मारते।‘ अर्जुन से यह कहकर श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से बोले_’राजन् ! मैं और अर्जुन_दोनों आपको देखने आते थे। सौभाग्य की बात है कि आप न तो मारे गये और न उसकी कैद में ही पड़े। अब अर्जुन को शान्त करके इन्हें विजय के लिये आशीर्वाद दीजिये।‘
युधिष्ठिर बोले_भैया अर्जुन ! आओ, आओ, फिर मेरी छाती से लग जाओ। तुमने कहने योग्य और हित की बात कही है तथा मैंने उसके लिये क्षमा भी कर दी। धनंजय ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं। जाओ, कर्ण का नाश करो। यह सुनकर अर्जुन ने पुनः अपने बड़े भाई के चरण पकड़ और उनपर सिर रखकर प्रणाम किया। राजा ने उन्हें उठाकर पुनः छाती से लगाया और उनका मस्तक सूंघकर कहा_’धनंजय ! तुमने मेरा बहुत सम्मान किया है, अतः ये आशीर्वाद देता हूं कि सर्वत्र तुम्हारी महिमा बढ़े और तुम्हें सनातन विजय प्राप्त हो।‘
अर्जुन ने कहा_महाराज ! जिसने आपको बाणों से पीड़ित किया है, उस कर्ण को आज अपने पापों का भयंकर फल मिलेगा। आज उसे मारकर ही आपका दर्शन करूंगा। इस सच्ची प्रतिज्ञा के साथ मैं आपके चरणों का स्पर्श करता हूं।
यह सुनकर युधिष्ठिर का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। उन्होंने अर्जुन से फिर कहा_’पार्थ ! तुम्हें सदा ही अक्षय यश, पूर्ण आयु, मनोवांछित कामना, विजय तथा बल की प्राप्ति हो। तुम्हारे लिये मैं जो कुछ चाहता हूं, वह सब तुम्हें मिले। अब जाओ और शीघ्र ही कर्ण का नाश करो। खाइस प्रकार धर्मराज को प्रसन्न करने के अनन्तर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा_’गोविन्द ! अब मेरा रथ तैयार हो। उसमें उत्तम घोड़े जोते जायं और सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्र सजाकर रख दिये जायं फिर सूतपुत्र का वध करने के लिये आप शीघ्र ही यात्रा करें।‘ अर्जुन के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा_’तुम पार्थ के कथनानुसार सारी तैयारी करो।‘ भगवान् की आज्ञा पाते ही दारुक ने रथ को सब सामग्रियों से सुसज्जित करके उसमें घोड़े जोते दिये और उसे अर्जुन के पास लाकर खड़ा कर दिया। अर्जुन ने देखा, दारुक रथ जोतकर ले आया, तो उन्होंने धर्मराज से आज्ञा दी और ब्राह्मणों द्वारा स्वास्तिवाचन कराकर वे अपने मंगलमय रथ पर विराजमान हुए। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को आशीर्वाद दिये। कुछ दूर जाने पर उनके मन में बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे_’मैंने कर्ण को मारने की प्रतिज्ञा तो की है, किन्तु  वह किस तरह पूर्ण होगी ?’ अर्जुन को चिन्तित देख भगवान् मधुसूदन ने कहा_’गाण्डीवधारी अर्जुन ! तुमने अपने धनुष से जिन जिन वीरों पर विजय पायी है, उन्हें जीतनेवाला इस संसार में तुम्हारे सिवा कोई मनुष्य नहीं है। जो तुम्हारे_जैसे वीर नहीं हैं, उनमें से कौन ऐसा पुरुष है, जो द्रोण, भीष्म, भगदत्त, अवन्ति के राजकुमार विन्द_अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण, श्रुतायु तथा अच्युतायु का सामना करके कुशल से रह सकता था ?
तुम्हारे पास दिव्यास्त्र है, तुममें फुर्ती है, बल है, युद्ध के समय तुम्हें घबराहट नहीं होती, तुम्हें अस्त्र_शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान है। लछ्य को बेधने और गिराने की कला मालूम है। निशाना मारते समय तुम्हारा चित्त एकाग्र रहता है। तुम चाहो तो गन्धर्वों और देवताओं सहित संपूर्ण चराचर जगत् का नाश कर सकते हो ?  इस भूमंडल पर तुम्हारे समान योद्धा है ही नहीं। ब्रह्माजी ने प्रजा की सृष्टि करने के पश्चात् इस महान् गाण्डीव धनुष की भी रचना की थी, जिससे तुम युद्ध करते हो, इसलिये तुम्हारी बराबरी करनेवाला कोई नहीं है। तो भी तुम्हारे हित के लिए एक बात बता देना आवश्यक है; तुम कर्ण को अपने से छोटा समझकर उसकी अवहेलना न करना। मैं तो महारथी कर्ण को तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर समझता हूं
इसलिये पूरा प्रयास करके तुम्हें उसका वध करना चाहिए। वह अग्नि के समान तेजस्वी और वायु के समान वेगवान है, क्रोध होने पर काल के समान हो सकता है। उसके शरीर की गठन सिंह के समान है, वह बहुत बलवान है। उसकी ऊंचाई आठ रत्नी ( एक सौ अड़सठ अंगुल ) है। ( मुट्ठी बांधे हुए हाथ की माप को रत्नी कहते हैं ) । भुजाएं बड़ी_बड़ी और छाती चौड़ी है। उसको जीतना बहुत कठिन है। वह महान् शूरवीर और अभिमानी है। उसमें योद्धाओं के सभी गुण हैं। वह अपने मित्र कौरवों को अभय देने वाला और पाण्डवों से सदा द्वेष रखनेवाला है।  मेरा तो ऐसा खयाल है कि सिर्फ तुम्हीं उसे मार सकते हो और किसी के लिये उसका मारना टेढ़ी खीर है। इसलिये आज ही उस दुरात्मा, क्रूर और पापी कर्ण को मारकर अपना मनोरथ पूर्ण करो।
‘अर्जुन ! मैं तुम्हारे उस पराक्रम को जानता हूं जिसका वारण करना देवता और असुरों के लिये भी कठिन है। जैसे सिंह मतवाले हाथी को मार डालता है, उसी प्रकार तुम अपने बल और पराक्रम से शूरवीर कर्ण का संहार करो_इसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं। तुम शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष हो, तुम्हारे ही आश्रय में रहकर ये पाण्डव और पांचाल रण में डटे हुए हैं। तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हुए इन पाण्डव, पांचाल, मत्स्य, करुष तथा चेदिदेशीय वीरों ने असंख्य शत्रुओं का संहार कर डाला है। तुम्हारे संरक्षण में युद्ध करनेवाले पाण्डव महारथियों के सिवा दूसरा कौन है, जो संग्राम में कौरवों को परास्त कर सके। तुम तो देवता, असुरों और मनुष्योंसहित तीनों लोकों को युद्ध में जीत सकते हो, फिर कौरव सेना की विसात ही क्या है ? कोई इन्द्र के समान भी पराक्रमी क्यों न हो, तुम्हारे सिवा कौन राजा भगदत्त को जीत सकता था ? अक्षौहिणी सेना के स्वामी तथा युद्ध में कभी पीछे पैर न हटानेवाले भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा, कृतवर्मा, जयद्रथ, शल्य तथा दुर्योधन जैसे महारथियों पर तुम्हें छोड़ दूसरा कौन विजय पा सकता है ? भयंकर पराक्रम दिखानेवाले तुषार, यवन, खुश, दार्वाभिषार, दरद,शक, माठर, तंगण, आन्ध्र, पुदीना, किरात, म्लेच्छ, पर्वतीय तथा समुद्र के तट पर रहनेवाले योद्धा क्रोध में भरकर दुर्योधन की सहायता के लिये आते हैं, इन्हें तुम्हारे सिवा दूसरा कोई नहीं जीत सकता।
यदि तुम रक्षक न होते तो व्यूहाकार में खड़ी हुई कौरवों की विशाल सेना पर कौन चढ़ाई कर सकता था ? तुम्हारी ही सहायता से पाण्डव पक्ष के वीरों ने उसका संहार किया है। भीष्मजी अस्त्र विद्या में बड़े प्रवीण थे, उन्होंने चेदि, काशी, पांचाल, करुष, मत्स्य तथा कैकयदेशीय वीरों को बाणों से आच्छादित करके मार डाला था। वे जब एक बार धनुष की मूठ पकड़ते तो हजारों रथियों का सफाया कर डालते थे। उनके द्वारा हज़ारों मनुष्यों और हाथियों का संहार हुआ। दस दिनों के युद्ध में तुम्हारी बहुत सी सेना का विध्वंस करके उन्होंने कितने ही रथ सूने कर दिये।
संग्राम में भगवान् रुद्र और विष्णु के समान अपना भयंकर रूप प्रकट करके चेदि, पांचाल और केकयवीरों का संहार करते हुए उन्होंने रथों घोड़ों और हाथियों से भरी हुई पाण्डवसेना का विनाश कर डाला। इस प्रकार भीष्मजी अद्वितीय वीर थे, परन्तु उन्हें भी शिखण्डी ने तुम्हारे संरक्षण में रहकर अपने बाणों का निशाना बनाया। आज वे बाणशय्या पर पड़े हुए हैं। पार्थ ! जयद्रथ का वध करते समय युद्ध में तुमने जैसा पराक्रम किया था, वैसा तुम्हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है ? राजालोग सिंधुराज के वध को तुम्हारा आश्चर्यजनक पराक्रम मानते हैं; पर मैं ऐसा नहीं समझता; क्योंकि तुम्हारे जैसे वीर से ऐसा काम होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि यदि सारा क्षत्रिय समाज एकत्रित होकर तुम्हारा सामना करने आ जाय तो वह एक ही दिन में नष्ट हो जायगा और मेरे विचार से यही तुम्हारे योग्य पराक्रम होगा।‘अर्जुन ! जिस समय भीष्म और द्रोणाचार्य मारे गये, तभी से कौरवों की इस भयंकर सेना का मानो सर्वस्व लुट गया। इसके प्रधान_प्रधान योद्धा नष्ट हो गये, इसमें घोड़ों, रथों और हाथियों का अभाव हो गया। इस समय यह सेना सूर्य, चन्द्रमा और तालाबों से रहित आकाश की भांति श्रीहीन दिखाई दे रही है। इसके प्रमुख वीरों में से और सब तो मारे गये, केवल अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कर्ण, शल्य तथा कृपाचार्य_ये ही पांच महारथी बाकी रह गये हैं, इन पांचों को मारकर तुम शत्रुहीन हो जाओ और राजा युधिष्ठिर को द्वीप, नगर, समुद्र, पर्वत, बड़े_बड़े वन तथा आकाश और पातालसहित समस्त पृथ्वी अर्पण कर दो। यदि अपने गुरु आचार्य द्रोण का सम्मान करने के कारण तुम उनके पुत्र अश्वत्थामा पर कृपादृष्टि रखते हो अथवा आचार्य का गौरव रखने के लिये कृपाचार्य पर तुम्हें दया आती हो, यदि माता के बन्धुजनों के प्रति आदर_बुद्धि होने से तुम कृतवर्मा को सामने पाकर भी यमलोक नहीं भेजना चाहते तथा माता माद्री के भाई मद्रराज शल्य को भी दयावश मारना नहीं चाहते तो न सही, किन्तु पाण्डवों के प्रति अत्यंत नीचतापूर्ण वर्ताव करनेवाले इस पापी कर्ण को आज तीखे बाणों से मार ही डालो। यह तुम्हारे लिये पुण्य का काम होगा। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं; कर्ण का वध करने में कोई दोष नहीं है।
‘दुर्योधन ने पांचों पुत्रों सहित माता कुन्ती को आधीरात के समय जो लाक्षाभवन में जलाने की कोशिश की तथा तुम लोगों के साथ जो वह जुआ खेलने में प्रवृत हुआ, उन सब षड्यंत्रों का मूल कारण यह दुष्टात्मा कर्ण ही था। दुर्योधन को सदा से ही यह विश्वास था कि कर्ण मेरी रक्षा करेगा, इसीलिये वह क्रोध में भरकर मुझे भी कैद करने को तैयार हो गया था। उसमें तुम लोगों के साथ जो_जो बुराईयां की हैं, उन सबमें इस पापात्मा कर्ण की ही प्रधानता है। मित्र ! दुर्योधन के छः निर्दयी महारथियों ने मिलकर जो सुभद्राकुमार की जान ली थी, उस भयंकर संग्राम में कर्ण ने ही अभिमन्यु का धनुष काटा था। कर्ण द्वारा धनुष कट जाने पर शेष पांच महारथियों ने, जो छल_कपट में बड़े प्रवीण थे, बाणों की बौछार से उसे मार डाला। उस वीर के इस तरह मारे जाने पर प्रायः सबको दु:ख हुआ; केवल वे दुष्ट कर्ण और दुर्योधन ही जी भरकर हंसे थे।
इतना ही नहीं, इसने कौरवों की भरी सभा में द्रौपदी को इस प्रकार कटु वचन सुनाते थे_’कृष्णे ! पाण्डव तो नष्ट होकर सदा के लिये नरक में पड़ गये ! अब तू दूसरा पति वरण कर ले। आज से तू धृतराष्ट्र की दासी हुई; अतः राजमहल में आकर अपना काम संभाल। अब पाण्डव तुम्हारे स्वामी नहीं रहे। वे तेरे लिये कुछ भी नहीं कर सकते। तू दासों की स्त्री है और स्वयं भी दासी है।‘ 
‘इस तरह इस पापी ने बहुत_सी बातें कहीं, जो तुमने भी सुनी थी। इसके अलावे भी इसने तुमलोगों के साथ अन्याय करके जो_जो पाप किये हैं उन सबको तथा इसके जीवन को भी तुम्हारे बाण नष्ट करें। आज दुरात्मा कर्ण अपने शरीर पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए भयंकर बाणों की चोट सहता हुआ आचार्य द्रोण तथा भीष्म के वचन याद करें। तुम्हारे हाथों से पीड़ित हुए राजा लोग आज दीन और विषादयुक्त होकर हाहाकार मचाते हुए कर्ण को रथ से नीचे गिरता देखें। राजा शल्य भी आज तुम्हारे सैकड़ों बाणों से छिन्न_भिन्न हुए रथी और अश्व से रहित रथ को छोड़कर भयभीत होकर भाग जायं। 
पार्थ ! यदि तुम सूतपुत्र कर्ण के देखते_देखते अपनी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिये उसके पुत्र को मार डालो तो वह भीष्म, द्रोण और विदुर की बातों को याद करें। तुम्हारा मुख्य शत्रु दुर्योधन तुम्हारे हाथ से कर्ण को मारा गया देख आज अपने जीवन तथा राज्य से निराश हो जाय। जान पड़ता है पांचालदेशीय वीर, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न के पुत्र, शतानीक, नकुल_सहदेव, दुर्मुख, जन्मेजय, सुधर्मा और सात्यकि_ये कर्ण के वश में पड़ गये हैं। उनका घोर आर्तनाद सुनाई पड़ता है। जो अपने मित्र के प्राणों  की परवाह न करके सामने डटकर लड़ रहे हैं, उन सैकड़ों पांचाल वीरों को कर्ण यमलोक भेज रहा है। वे कर्ण रूपी अगाध महासागर में नाव के बिना डूब रहे हैं, अब तुम्हें ही नौका बनकर उनका उद्धार करना चाहिये। कर्ण ने भृगुवंशी परशुरामजी से जो अस्त्र प्राप्त किया था, उसी का भयंकर रूप आज प्रगट हुआ है। 
वह घोर अस्त्र अपने तेज से प्रज्जवलित हो तुम्हारी सेना को सब ओर से घेरकर संताप दे रहा है। यह देखो, भीम सृंजय योद्धाओं से घिरे हुए हैं और अत्यन्त क्रोध में भरकर कर्ण से लड़ते हुए उनके पैने बाणों से पीड़ित हो रहे हैं। मैं युधिष्ठिर की सेना में तुम्हारे सिवा और किसी वीर को ऐसा नहीं देखता, जो कर्ण से लोहा लेकर कुशलपूर्वक घर लौट आवे। इसलिये तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेज किते हुए बाणों से आज कर्ण को मारकर उज्जवल कीर्ति प्राप्त करो। वीरवर ! मैं सच कहता हूं, एक तुम्हीं कर्ण सहित कौरवों को युद्ध में जीत सकते हो, दूसरा कोई नहीं। अतः महारथी कर्ण को मारकर तुम अपना मनोरथ सफल करो।

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