Tuesday 15 August 2023

सोमतीर्थ, अग्नितीर्थ और बदरपाचन तीर्थ की महिमा

जनमेजय ने पूछा_मुनिवर ! देवताओं ने सोमतीर्थ में वरुण का किस तरह अभिषेक किया ? इसकी कथा मुझे सुनाइये। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! पहले सत्ययुग की बात है; समस्त देवता वरुण के पास जाकर बोले_'भगवन् ! देवराज इन्द्र जैसे सदा हमलोगों की भय से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप भी सब सरिताओं का पालन कीजिये। समुद्र में आपका निवास होगा और समुद्र सदा आपके अधीन रहेगा। चन्द्रमा के घटने_बढ़ने के साथ ही आपकी भी हानि और वृद्धि होगी।'वरुण ने 'एवमस्तु' कहकर देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर सबने एकत्र होकर उन्हें जल का राजा बनाया और उनका अभिषेक करके पूजन किया। तत्पश्चात् वे अपने_अपने नाम को चले गये। फिर इन्द्र जैसे देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार वरुण भी नदी, नदी, सरोवर तथा समुद्रों की रक्षा करने लगे। उस तीर्थ में पहुंचकर बलरामजी ने स्नान किया और ब्राह्मणों को दान देकर वहां से अग्नितीर्थ में गये। वहीं शमी के भीतर छिपा जाने के कारण अग्निदेव किसी को दिखाई नहीं पड़ते थे। उस समय जब संसार का प्रकाश नष्ट हो गया तो सब देवता ब्रह्माजी के पास उपस्थित हुए और बोले _'प्रभो ! भगवान् अग्निदेव नहीं दिखायी पड़ते, इसका क्या कारण है ? कहीं ऐसा न हो कि अग्नि के अभाव में संपूर्ण प्राणियों का नाश हो जाय। अतः आप अग्निदेव को प्रकट कीजिये।' जनमेजय ने पूछा _संपूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले भगवान् अग्नि अदृश्य क्यों हो गये थे ? और देवताओं ने उनका पता किस तरह लगाया ? यह सब मुझे ठीक_ठीक बताइये।वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! महर्षि भृगु ने अग्निदेव को शाप दे दिया था, इससे अत्यन्त भयभीत होकर वे शमी के भीतर छिप गये। उनके अदृश्य हो जाने पर इन्द्र आदि संपूर्ण देवताओं ने अत्यन्त दुःखी होकर उनकी खोज आरम्भ की। खोजते_खोजते अग्नितीर्थ में आकर उन्होंने अग्निदेव को शमी के भीतर छिपे देखा। उन्हें पाकर सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे जैसे आये थे वैसे ही लौट गये। अग्निदेव भी ब्रह्मवादी भृगु के शाप के अनुसार सर्वभक्षई हो गये। फिर उसी तीर्थ में स्नान करने से उन्हें ब्रह्मत्व की प्राप्ति हुई। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने भी सब देवताओं के साथ अग्नितीर्थ में डुबकी लगायी थी तथा यहां भिन्न_भिन्न देवताओं के तीर्थों का उद्घाटन किया था। बलरामजी वहां स्नान_दान करके कऔबएर तीर्थ में गये, जहां बड़ी भारी तपस्या करके कुबेर धन के स्वामी हुए थे। वहां स्नान करके बलरामजी ने ब्राह्मणों को धन दान किया,  उसके बाद कुबेरवन में जाकर उस स्थान का दर्शन किया, जहां कुबेर ने तप किया था। यक्षराज ने वहां बहुतसे वरदान प्राप्त किये थे। धन का प्रभुत्व, शंकरजी के साथ मित्रता, देवत्व, लोकपालत्व और नलकूबर जैसा पुत्र_यह सबकुछ कुबेर ने वहीं तपस्या करके पाया था। वहीं मरुद्गणों ने एकत्रित होकर कुबेर का लोकपाल के पद पर अभिषेक किया और उन्हें यक्षों का राज तथा हंसों से जीता हुआ पुष्पक विमान प्रदान किया। बलदेवजी ने वहां भी स्नान करके बहुत कुछ दान किया। इसके बाद वे बदरपाचन नामक तीर्थ में गये। वहां पूर्वकाल में भरद्वाज की अनुपम रूपवती कन्या श्रुतावती ने इन्द्र को अपना पति बनने के लिये उग्र तपस्या की थी। उसने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बहुत_से कठोर नियमों का पालन किया था। उसका सदाचार, तप और भक्ति देखकर इन्द्र उसके ऊपर प्रसन्न हो गये तथा उसे प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्होंने कहा_'शुभे ! मैं तुम्हारी तपस्या, नियम_पालन और भक्ति से बहुत संतुष्ट हूं, इसलिये तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा और यह शरीर त्यागकर तुम मेरे साथ स्वर्गलोक में निवास करोगी। महाभागे ! इस पवित्र तीर्थ में अरुंधति को यहां अकेली छोड़कर स्वयं जीविकानिर्वाह के लिए फल_फूल लाने को हिमालय पर चले गये। वहां उस समय बारह वर्षों के लिये वर्षा रुक गयी थी। जब ऋषियों को वहां कुछ भी नहीं मिला तो वे आश्रम बनाकर रहने लगे। इधर, कल्याणी अरुंधती निरंतर तपस्या में संलग्न हो गयी। उसे कठोर नियम का पालन करती देख वर्दियां भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न हो ब्राह्मण का रूप बनाकर वहां आये और बोले_'कल्याणी ! मैं भिक्षा चाहता हूं।' अरुंधती ने कहा_'विप्रवर ! अन्न तो समाप्त हो गया है, सिर्फ थोड़े_से बेर रखें हैं, इन्हें का लीजिये।' महादेवजी ने कहा, 'शुभे ! इन फलों को आग पर पका दो।' यह सुनकर  अरउन्धतईं ब्राह्मण_देवता का प्रिय करने के लिये फलों को प्रज्ज्वलित अग्नि पर रखकर पकाने लगी। उस समय उसे परम पवित्र, मनोहर और दिव्य कथाएं सुनाई देने लगीं। वह बिना खाये ही बेर पकाती और कथा सुनती रही; इतने में बारह वर्षों की वह भयंकर अनावृष्टि समाप्त हो गयी। वह दारुण समय उसे एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। तदनन्तर, सप्तर्षि भी फल लेकर वहां आ पहुंचे। तब भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा_'धर्म को जाननेवाली देवी, अब तुम पहले की ही भांति इन ऋषियों की सेवा करो। तुम्हारा तप और नियम देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है।'  'यह कहकर भगवान् शंकर ने अपना स्वरूप प्रकट किया और ऋषियों से उसके महत्वपूर्ण आचरण का वर्णन करते हुए कहा_'मुनियों ! तुमने हिमालय की घाटी में रहकर जिस तप का उपार्जन किया है और इस अरुन्धती ने यहीं रहकर जो तप किया है, इन दोनों में कोई समानता नहीं है। अरुंधती का ही तप श्रेष्ठ है। इसने बारह वर्षों तक बिना भोजन किये बेर पकाते हुए दुष्यंत तप का अनुष्ठान किया है।' कल्याणि ! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वरदान मांग लो।' तब वह बोली_'भगवन् ! यदि आप प्रसन्न हैं तो यह स्थान 'बदरपाचन' नामक तीर्थ हो जाय और सिद्धों तथा देवर्षियों को यह बहुत प्रिय जान पड़े। जो मनुष्य इस तीर्थ में पवित्रतापूर्वक तीन रात्रि निवास तथा उपवास करें, उसे बारह वर्षों तक तीर्थसेवन एवं उपवास करने का फल प्राप्त हो।'
भगवान् शंकर ने 'एवमस्तु' कहकर  उसके वर का अनुमोदन किया।। फिर सप्तर्षि यों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर वे अपने नाम को चले गये। अरुन्धती इतने दिनों तक भूख_प्यास सहकर भी न तो थकी और न उसके बदन पर उदासी ही छायी। उसको इस अवस्था में देख ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
'इस करार अरुन्धती ने यहां परम सिद्धि प्राप्त की थी, तुमने भी मेरे लिये अरुन्धती की ही भांति उत्तम व्रत का पालन किया है। मैं तुम्हारे नियम से संतुष्ट होकर इस तीर्थ के सम्बन्ध में एक विशेष वरदान देता हूं_ जो मनुष्य इस तीर्थ में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक रात भी यहां निवास करेगा, वह देह त्याग के पश्चात् दुर्लभ लोकों में जायगा।'
वैशम्पायनजी कहते हैं _पवित्र चरित्रवान श्रुतावती से ऐसा कहकर इन्द्र स्वर्ग को चले गये। उनके जाते ही वहां फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं की दुंदुभी बज उठी। सुगन्धित हवा चलने लगी। उसी समय श्रुतावती भी शरीर त्यागकर स्वर्ग चली गयी और वहां इन्द्र की पत्नी के रूप में रहने लगी। बलभद्रजी उस बदरपाचन तीर्थ में स्नान करके ब्राह्मणों को धन दान कर इन्द्रतीर्थ में चले गये।





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