Saturday 2 September 2023

इन्द्रतीर्थ और आदित्यतीर्थ की महिमा, देवल_जैगीषव्य मुनि तथा वऋद्धकन्यआक्षएत्र की कथा

वैशम्पायनजी कहते हैं_वहां जाकर बलरामजी ने विधिवत् स्नान किया और ब्राह्मणों को धन तथा रत्न दान दिये। इन्द्रतीर्थ में देवराज ने सौ यज्ञ किये थे, जिनमें बृहस्पतिजी को बहुत _सा धन दिया गया था। अनेकों प्रकार की दक्षिणाएं बांटी गयी थीं। इस प्रकार सौ यज्ञ पूर्ण करने के कारण इन्द्र 'शतक्रतु' के नाम से विख्यात हुए और उन्हीं के नाम पर परम पवित्र, कल्याणकारी एवं सनातन तीर्थ 'इन्द्रतीर्थ' कहलाने लगा। वहां स्नान_दान करने के पश्चात् बलरामजी रामतीर्थ में पहुंचे, जहां परशुरामजी ने अनेकों बार क्षत्रियों का संहार करके इस पृथ्वी पर विजय पायी और कश्यप मुनि को आचार्य बनाकर वाजपेयी तथा सौ अश्वमेध यज्ञ किये। उन्होंने समुद्रसहित संपूर्ण पृथ्वी ही दक्षिणा के रूप में दे दी थी तथा और भी नाना प्रकार के दान देकर वे वन में चले गये थे। उस पावन तीर्थ में रहनेवाले मुनियों को सादर प्रणाम करके बलरामजी यमुनातीर्थ में आये, जहां वरुण ने राजसूय यज्ञ किया था। वहां ऋषियों की पूजा करके उन्होंने सबको संतुष्ट किया था तथा दूसरे याचकों को भी उनके इच्छानुसार दान दिया। इसके बाद वे आदित्यतीर्थ में गये, जहां भगवान् सूर्य ने परमात्मा का यजन करके ज्योतिषयों का आधिपत्य तथा अनुपम प्रभाव प्राप्त किया था। इनके सिवा, इन्द्र आदि संपूर्ण देवता, विश्वेंद्र, मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सरा, द्वैपायन व्यास, शुकदेव तथा दूसरे अनेकों योगसिद्ध महात्माओं ने भी सरस्वती के उस पवित्र तीर्थ में सिद्धि प्राप्त की है। पूर्वकाल में यहां देवल मुनि गृहस्थ धर्म का आश्रय लेकर रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। मन, वाणी तथा क्रिया से भी समस्त जीव के प्रति समान भाव रखते थे। क्रोध तो उन्हें छू तक नहीं गया था। उनकी कोई निंदा करें या स्तुति, वे सबको समान समझते थे, अनुकूल या प्रतिकूल वस्तु प्राप्ति होने पर भी उनकी वृत्ति एक_सी ही रहती थी। वे धर्मराज के समान समदर्शी थे। सुवर्ण और मिट्टी के ढ़ेले को एक ही नज़र से देखते थे। देवता, अतिथि तथा ब्राह्मणों की सदा पूजा किया करते और प्रतिदिन ब्रह्मचर्य की रक्षा करते हुए धर्माचरण में संलग्न रहते थे। एक दिन जैगिषव्य मुनि उस तीर्थ में आये और अपनी योगशक्ति से भिक्षुक का वेष बनाकर देवल के आश्रम पर रहने लगे। महर्षि जैगिषव्य सिद्धि प्राप्त योगी थे और सदा योग में ही उनकी स्थिति रहती थी। यद्यपि जैगीषव्य देवल के आश्रम पर ही रहते थे, तो भी देवल मुनि उन्हें दिखाकर योग_साधना नहीं करते थे। इस तरह दोनों को वहां रहते हुए बहुत समय बीत गये।
तदनन्तर, कुछ काल तक ऐसा हुआ कि जैगीषव्य मुनि सदा नहीं दिखाई देते, केवल भोजन के समय ही देवल के आश्रम पर उपस्थित होते थे। उस समय केवल अपनी शक्ति के अनुसार शास्त्रीय विधि से उनका पूजन आप आतिथ्य_सत्कार करते थे। यह नियम भी बहुत वर्षों तक चला। एक दिन जैगिषव्य मुनि को देखकर देवल के मन में बड़ी चिंता हुई। उन्होंने सोचा 'इनकी पूजा करते_करते कितने वर्ष बीत गये;' मगर ये भिक्षु आजतक मुझसे एक भी बात नहीं बोले। यही सोचते हुए वे कलश हाथ में ले आकाश मार्ग से समुद्रतट की ओर चल दिये। वहां जाकर देखा कि भिक्षु महोदय पहले से ही समुद्र तट पर मौजूद थे। अब तो उन्हें चिंता के साथ_साथ आश्चर्य भी हुआ। सोचने लगे_'ये पहले ही कैसे आ पहुंचे ?' इन्होंने तो स्नान भी समाप्त कर लिया है !' तदनन्तर महर्षि देवल ने भी विधिवत् स्नान करके गायत्री-मंत्र का जप किया। जब नित्य नियम समाप्त हो गया तो वे पुनः आश्रम की ओर चले। वहां पहुंचते ही उन्हें जैगिषव्य मुनि बैठे दिखायी पड़े। तब देवल मुनि पुनः विचार में पड़ गये_'मैंने तो इन्हें समुद्र तट पर देखा है, ये आश्रम पर कब और कैसे आ गये।' यह सोचकर उनके मन में जैगीषव्य को ठीक _ठीक जानने की इच्छा हुई, फिर तो वे उस आश्रम से आकाश की ओर उड़े। ऊपर जाकर उन्हें बहुत _सी अन्तरिक्ष चारी सिद्धों का दर्शन हुआ, साथ ही, उन सिद्धों के द्वारा पूजे जाते हुए जैगीषव्य मुनि भी दिखाई पड़े। इसके बाद देवल ने उन्हें स्वर्ग लोक जाते देखा, वहां से पितृलोक में, पितृलोक से यमलोक में, वहां से चन्द्रलोक में तथा चन्द्रलोक से एकान्त में यज्ञ करनेवाले अग्निहोत्रियों के उत्तम लोकों में उन्हें गमन करते देखा। इसी तरह दर्श_पौर्णमास मांग करनेवालों के लोकों में तथा अन्य बहुतेरे लोकों में भी वे जाते दिखायी पड़े। रुद्रों, वसुओं तथा वृहस्पति के स्थान पर भी वे पहुंच गये। तत्पश्चात् वे पतिव्रताओं के लोक में जाकर अन्तर्ध्यान हो गये। फिर देवल मुनि उन्हें न देख सके। तब उन्होंने जैगीषव्य के प्रभाव, व्रत और अनुपम योगसिद्धि के विषय में विचार करते हुए सिद्धों से पूछा_'अब मुझे महान् तेजस्वी जैगीषव्य नहीं दिखाई देते, आपलोग उनका पता बतावें।' सिद्धों ने कहा_'देवल ! जैगीषव्य ब्रह्मलोक में चले गये, वहां तुम्हारी गति नहीं है।'सिद्धों की बात सुनकर देवल मुनि क्रमश: नीचे के लोकों में होते हुए भूमि पर उतरने लगे। वे अपने आश्रम पर पहुंचे तो वहां पहले से ही बैठे हुए जैगीषव्य पर उनकी दृष्टि पड़ी। वे उनके तप और जोग का प्रभाव देख चुके थे, इसलिये अपनी धर्मयुक्त शुद्ध बुद्धि से कुछ देर विचार किया; फिर  वे मुनि की शरण में गये और बोले_'भगवन् ! मैं मोक्षधर्म का आश्रय लेना चाहता हूं।'  उनकी बात सुनकर और संन्यास लेने का विचार जानकर जैगीषव्य ने उन्हें ज्ञानोपदेश दिया; साथ ही योग की विधि बताकर शास्त्र के अनुसार कर्तव्य_अकर्तव्य का भी उपदेश दिया। मुनिवर देवल ने भी गृहस्थ धर्म का परित्याग करके मोक्षधर्म में प्रीति लगायी और परा_सिद्धि और परम योग को प्राप्त किया। राजा जनमेजय ! जैगीषव्य और देवल दोनों महात्माओं का जहां आश्रम था, वह उत्तम स्थान ही तीर्थ बन गया। बलरामजी ने उस तीर्थ में आचमन करके ब्राह्मणों को दान किया और अन्य धार्मिक कार्य सम्पन्न करके वहां से चलकर सारस्वत तीर्थ में पहुंचे, जहां पूर्वकाल में बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई थी, उस समय सरस्वतीपुत्र सारस्वत मुनि ने ब्राह्मणों को वेद पढ़ाया था। सारस्वत मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए उस तीर्थ।था में धन दान करके बलरामजी वहां से आगे बढ़े और जहां वृद्ध कन्या ने तप किया था, उस प्रसिद्ध तीर्थ में जा पहुंचे। जनमेजय ने पूछा_मुने ! पूर्वकाल में कुमारी ने किस उद्देश्य से तप किया था? जिस प्रकार वह तपस्या में प्रवृत हुई, उसका सारा वृतांत सुनाइये। वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! प्राचीन काल में एक 'कुणिगर्ग' नामक महान् यशस्वी ऋषि हो गये हैं; उन्होंने बड़ी तपस्या करके अपने मन से ही एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न की। पुत्री को देखकर मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। कुछ काल के पश्चात् वे इस शरीर का त्याग करके स्वर्ग में चले गये। अब आश्रम का भार उस कन्या के ऊपर आ पड़ा। वह बहुत क्लेश उठाकर उग्र तपस्या में संलग्न हुई और निरंतर उपवास करती हुई पितरों तथा देवताओं की पूजा करने लगी। उसे उग्र तपस्या करते बहुत समय बीत गया। वह बूढ़ी और दुबली हो गयी। तब उसने परलोक में जाने का विचार किया। उसकी देहत्याग की इच्छा देख नारदजी ने आकर कहा_'देवी ! तुम्हारा तो अभी संस्कार ही नहीं हुआ है, फिर तुम्हें उत्तम लोक कैसे मिल सकता है? यह बात मैंने देवलोक में सुनी है। तुमने तपस्या तो बहुत बड़ी की, पर तुम्हें उत्तम लोकों पर अधिकार नहीं प्राप्त हो सका।' नारदजी की बात सुनकर वह ऋषियों की सभा में जाकर बोली_'जो कोई मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग ले लूंगी।' उसके ऐसा कहने पर गालव के पुत्र श्रृंगवान् ने कहा_'कल्याणी ! मैं इस शर्त पर तुम्हारा पाणिग्रहण करूंगा कि विवाह हो जाने पर तुम एक रात मेरे साथ निवास करो।' वृद्धा कुमारी ने 'हां' कहकर अपना हाथ मुनि के साथ में दे दिया। गालवनन्दन ने शास्त्रीय विधि के अनुसार हवन आदि करके उसका पाणिग्रहण संस्कार किया। रात्रि के समय वह सुन्दरी तरुण बनकर मुनि के पास गयी। उस समय उसके शरीर पर दिव्य वस्त्र और आभूषण शोभा पा रहे थे। दिव्य हार तथा दिव्य अंगरागों की सुगंध फैल रही थी। उसकी छवि से चारों ओर प्रकाश_सा हो रहा था। उसे देखकर श्रृंगवान् ऋषि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक रात उसके साथ निवास किया। सवेरा होते ही वह मुनि से बोली_'विप्रवर ! आपने जो शर्त की थी , उसके अनुसार मैं आपके साथ रह चुकी, अब आज्ञा दीजिए, मैं जाती हूं।' यह कहकर वह वहां से चल दी। जाते_जाते उसने फिर कहा_'जो अपने चित्त को एकाग्र कर देवताओं को तृप्त करके इस तीर्थ में निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षों तक ब्रह्मचर्य_पालन करने का फल मिलेगा।'  ऐसा कहकर वह साध्वी देह त्यागकर स्वर्ग में चली गयी और मुनि उसके दिव्य रूप का चिंतन करते हुए बहुत दु:खी हो गये। उन्होंने प्रतिज्ञा के अनुसार उसके तप का आधा भाग ले लिया और उससे अपने को सिद्ध बनाकर उसी की गति का अनुसरण किया। राजन् ! यही वृद्ध कन्या का परिचय है, जो तुम्हें सुना दिया। बलरामजी ने इसी तीर्थ में आने पर शल्य की मृत्यु का समाचार सुना था। वहां भी उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत कुछ दान दिया। तत्पश्चात् समन्तपंचक द्वार से निकलकर उन्होंने ऋषियों से कुरुक्षेत्र_सेवन का फल पूछा। तब उन महात्माओं ने बलरामजी से उस क्षेत्र के सेवन का ठीक _ठीक फल बताया।


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