Friday 8 September 2023

समन्तपंचक तीर्थ ( कुरुक्षेत्र ) की महिमा तथा नारदजी के कहने से बलदेवजी का भीम और दुर्योधन का युद्ध देखने जाना

ऋषियों ने कहा_बलरामजी ! समन्तपंचक क्षेत्र सनातन है, यह प्रजापति की उत्तर वेदी कहलाता है। प्राचीन काल से देवताओं ने यहां बहुत बड़ा यज्ञ किया था तथा बुद्धिमान महात्मा राजर्षि कुरु ने पहले बहुत वर्षों तक इस क्षेत्र की जमीन जोती थी, इसलिये उन्हीं के नाम पर यह 'कुरुक्षेत्र' कहा जाने लगा।
बलरामजी ने पूछा _मुनीवरों ! महात्मा कुरु ने इस क्षेत्र में हल क्यों चलाया ?
ऋषियों ने कहा_बलरामजी ! पूर्वकाल में राजा कुरु जब यहां प्रतिदिन उठकर हल चलाया करते थे, उन्हीं दिनों की बात है, इन्द्र ने स्वर्ग से आकर कुरु से इसका कारण पूछा_'राजन् ! आप इतना रयइस क्यों कर रहे हैं ? यहां का जमीन जोतने से आपका क्या अभिप्राय है ?'  कुरु ने कहा_' इन्द्र ! जो लोग इस क्षेत्र में मरेंगे वे पुण्यवानों के लोक में जायेंगे।' यह जवाब सुनकर इन्द्र को हंसी आ गई। वे चुपचाप स्वर्ग लौट आये। इससे राजर्षि करु का उत्साह कम नहीं हुआ, वे वहां की जमीन जोतने में लगे ही रह गये। इन्द्र ने की बार आकर प्रश्न किया, किन्तु वहीं उत्तर पाकर वे हर बार लौट गये। कुरु ने भी कठोर तपस्या के साथ हर जोतना आरम्भ किया। तब इन्द्र ने उनका मनोभाव देवताओं से कह सुनाया। सुनकर देवता बोले_'अगर संभव हो तो राजर्षियों को वरदान देकर राजी कर लीजिये। नहीं तो यदि वे अपने प्रयत्न में सफल हो गये और मनुष्य यज्ञ किये बिना ही स्वर्ग में आने लगे तो हमलोगों का यज्ञभाग नष्ट हो जायगा। Wतब इन्द्र ने कुरु के पास आकर कहा_'राजन् ! अब आप कष्ट न उठाइये, मेरी बात मानिये; मैं वरदान देता हूं कि जो मनुष्य अथवा पशु यहां निराहार रहकर या युद्ध में मारे जाकर शरीर त्याग करेंगे, वे स्वर्ग के अधिकारी होंगे।' राजा कुरु ने 'बहुत अच्छा' कहकर इन्द्र की आज्ञा स्वीकार की और इन्द्र भी राजा की अनुमति ले प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग को चले गये।
बलरामजी ! इस प्रकार शुभ उद्देश्य से राजर्षि कुरु ने इस क्षेत्र को जोता था। पृथ्वी पर इससे बढ़कर कोई पवित्र स्थान नहीं है। जो मनुष्य यहां तप करेंगे, वे देहत्याग के पश्चात् ब्रह्मलोक जायेंगे। जो दान करेंगे उनका दिया हुआ हजार गुना होकर फल देगा। जो सदा यहां निवास करेंगे, उन्हें यमराज के राज्य में नहीं जाना पड़ेगा। यदि राजा लोग यहां आकर बड़े _बड़े यज्ञ करें तो जबतक यह पृथ्वी कायम रहेगी तब तक के लिये उन्हें स्वर्ग में रहने का सौभाग्य प्राप्त होगा। साक्षात् इन्द्र ने भी कुरुक्षेत्र के विषय में यह उद्गार प्रकट किया है_'कुरुक्षेत्र की धूल भी यदि हवा से उड़कर किसी पापी के ऊपर पड़ जाये तो वह उसे उसे उत्तम लोक में पहुंचाती है। यहां  बड़े_बड़े देवता, उत्तम ब्राह्मण तथा नृग आदि नरेश भी यज्ञ करके उत्तम गति को प्राप्त कर चुके हैं। तरन्तुक से लेकर आरन्तुक तक तथा रामहृद से आरम्भ करके यमचक्रकत के बीच का जो स्थान है वहीं कुरुक्षेत्र और समन्तपंचक तीर्थ है। इसे प्रजापति की उत्तर वेदी भी कहते हैं। यह क्षेत्र बहुत ही पवित्र और कल्याणकारी है, देवताओं ने भी इसका सम्मान किया है। यह सभी सद्गुणों से सम्पन्न है; अतः यहां मरे हुए सब क्षत्रिय अक्षय गति को प्राप्त होंगे।' इस प्रकार साक्षात् इन्द्र ने यह बात कही और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवताओं ने इसका समर्थन किया था। वैशम्पायनजी कहते हैं_ तदनन्तर कुरुक्षेत्र का दर्शन और वहां बहुत _सा दान करके बलरामजी एक दिव्य आश्रम के निकट गये। वहां पहुंचकर उन्होंने मुनियों से पूछा_'यह सुन्दर आश्रम किसका है ?' तब उन्होंने कहा_'बलरामजी ! पहले तो यहां भगवान् विष्णु तपस्या कर चुके हैं, फिर अक्षय फल देनेवाले कई यज्ञ भी इस आश्रम पर हुए हैं। बाल्यकाल से ही ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाली एक सिद्ध ब्राह्मणी भी यहां तपस्या कर चुकी है। यह शाण्डिल्य मुनि की पुत्री थी।'
ऋषियों की बात सुनकर बलभद्रजी ने उन्हें प्रणाम किया और हिमालय के समीप उस आश्रम में गये। वहां के उत्तम तीर्थ का तथा सरस्वती के उद्गमभूत श्रोत का दर्शन करके उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। इसके बाद कआरपवन तीर्थ में जाकर उन्होंने वहां के स्वच्छ, शीतल एवं जल में डुबकी लगायी तथा देवताओं और पितरों का तर्पण करके ब्राह्मणों को दान दिया। फिर एक रात वहां निवास करके वे ब्राह्मणों और संन्यासियों के साथ मित्रावरुण के पवित्र आश्रम पर गये। वह स्थान यमुना के तट पर है। सर्वप्रथम उस स्थान पर आकर इन्द्र, अग्नि तथा अर्यमा बहुत प्रसन्न हुए थे। बलरामजी वहां स्नान_दान करके ऋषियों और सिद्धों के साथ बैठकर उत्तम कथाएं सुनने लगे।
उसी समय देवर्षि नारदजी दण्ड, कमण्डलु और मनोहर वीणा लिये वहां आ पहुंचे। उन्हें आते देख बलरामजी उठकर खड़े हो गये और उनका विधिवत् पूजन करके उनसे कौरवों का समाचार पूछने लगे। नारदजी, जिस प्रकार कौरवों का महासंहार हुआ था, वह सब ज्यों_का_त्यों सुना दिया। तब बलभद्रजी ने दी:ख प्रकट करते हुए कहा_' तपोधन ! उस क्षेत्र की क्या अवस्था है तथा वहां आये हुए राजाओं की क्या दशा हुई है ? यह सब संक्षेप के साथ मैं पहले ही सुन चुका हूं। अब मुझे वहां का विस्तृत समाचार जानने की उत्कण्ठा हो रही है।'
नारदजी ने कहा_ भीष्मजी तो पहले ही मारे गये, उनके बाद द्रोणाचार्य, जयद्रथ, कर्ण और उसके पुत्र भी परलोक पहुंच गये। भूरिश्रवा, शल्य तथा दूसरे महाबली राजाओं की भी यही दशा हुई है। ये सब राजा और राजकुमार दुर्योधन की विजय के लिये अपने प्राणों की बलि दे चुके हैं। अब जो मरने से बचे हैं, उनके नाम सुनिये। दुर्योधन की सेना में कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा_ये ही तीन प्रधान वीर बचे हुए हैं। किन्तु जब शल्य मारे गये तो ये भी डर के मारे पलायन कर गये। उस समय दुर्योधन बहुत दु:खी हुआ और भागकर द्वैपायण सरोवर में जा छिपा। माया से सरोवर का पानी बांधकर वह भीतर हो रहा था, इतने में पाण्डवलोग भगवान् श्रीकृष्ण के साथ वहां आ पहुंचे और उसे कड़वी बातें सुनाकर कष्ट पहुंचाने लगे। वह भी बलवान ही ठहरा, इनके ताने क्यों सहता ? हाथ में गदा लेकर उठ पड़ा और भीमसेन से युद्ध करने के लिये उनके पास जाकर खड़ा हो गया। अब उन दोनों में भयंकर युद्ध छिड़नेवाला है, यदि आप देखने को उत्सुक हैं तो शीघ्र जाइये, विलंब न कीजिये। अपने दोनों शिष्यों का युद्ध देखिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं _नारदजी की बात सुनकर बलरामजी ने अपने साथ आये हुए ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विदा कर दिया और सेवकों को द्वारका चले जाने की आज्ञा दी। फिर वे, जहां सरस्वती का श्रोत निकला हुआ है, उस श्रेष्ठ पर्वत शिखर से नीचे उतरे और उस तीर्थ का महान् फल सुनकर ब्राह्मणों के समीप उसकी महिमा का इस प्रकार वर्णन करने लगे _'सरस्वती के तट पर निवास करने में जो सुख है, आनन्द है, वह अन्यत्र कहां मिल सकता है? उसमें जो गुण हैं, वे और कहां हैं? सरस्वती का सेवन करके स्वर्गलोक में पहुंचे हुए मनुष्य उसका सदा ही स्मरण करते रहेंगे। सरस्वती सब नदियों में पवित्र है, वह संसार का कल्याण करने वाली है, सरस्वती को पाकर मनुष्य इहलोक और परलोक में पापों के लिये शोक नहीं करते।'
तदनन्तर, बारंबार सरस्वती की ओर देखते हुए बलरामजी सुंदर रथ पर सवार हुए और शिष्यों का युद्ध देखने के लिये तेज चाल से चलकर द्वैपायन सरोवर के पास जा पहुंचे


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