Sunday 7 January 2024

दुर्योधन का विलाप तथा अश्वत्थामा का विषाद, प्रतिज्ञा और सेनापति के पद पर अभिषेक

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! मेरा पुत्र बड़ा क्रोधी था, पाण्डवों से वैर रखने के कारण उसपर बड़ा भारी संकट आ पहुंचा। बताओ, जब जांघें टूट जाने से वह पृथ्वी पर गिरा और भीमसेन ने उसके सिर पर पैर रखा, उसके बाद उसने क्या कहा ? संजय ने कहा_महाराज ! जांघ टूट जाने पर जब दुर्योधन धरती पर गिरा तो धूल में सन गया। फिर बिखरे हुए बालों को समेटता हुआ वह दसों दिशाओं की ओर देखने लगा। तत्पश्चात् बड़ी कोशिश किसी तरह बालों बांधकर उसने आंसू भरे नेत्रों से मेरी ओर देखा और अपनी दोनों भुजाओं को धरती पर पैर रखकर उच्छवास लेते हुए कहा_'ओह ! भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, शकुनि जैसे वीर मेरे रक्षक थे; तो भी मैं इस दशा को आ पहुंचा ! निश्चय ही काल का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता।
जो एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था, उसकी आज यह अवस्था ! संजय ! मेरे पक्ष के योद्धाओं में जो लोग जीवित हैं, उनसे कहना कि 'भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम को तोड़कर दुर्योधन को मारा है। क्रूर कर्म करनेवाले पाण्डवों ने भीष्म, द्रोण, भूरिश्रवा और कर्ण को कपटपूर्वक मारने के पश्चात् मेरे साथ छल करके एक और कलंक का टीका लगा लिया। मुझे विश्वास है, उन्हें इस कुकर्म के कारण सत्पुरुषों के समाज में पछताना पड़ेगा। कौन ऐसा विद्वान होगा, जो मर्यादा का भंग करने वाले मनुष्य के प्रति सम्मान प्रकट करेगा ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जांघें टूट गयी हैं; ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे ज्यादा आश्चर्य की बात और क्या होगी ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जांघें टूट गयीं है; ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या होगी ?मेरे माता_पिता बहुत दु:खी होंगे, उनसे यह संदेश कहना__मैंने यज्ञ किये, जो भरण_पोषण करने योग्य थे, उनका पालन किया और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर अच्छी तरह शासन किया। शत्रु जीवित थे, तो भी उनके मस्तक पर पैर रखा और शक्ति के अनुसार मित्रों का प्रिय किया। अपने बन्धु_बान्धवों का आदर तथा वश में रहनेवालों का सत्कार किया। धर्म, अर्थ तथा काम का सेवन किया; दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण करके जीता और दास की भांति राजाओं पर हुक्म चलाया। जो अपने प्रिय व्यक्ति थे, उनकी सदा ही भलाई की। फिर मुझसे अच्छा अन्त किसका हुआ होगा ? विधिवत् वेदों का स्वाध्याय किया, नाना प्रकार के दान दिये और आयउभर में मुझे कभी कोई रोग नहीं हुआ ! मैंने अपने धर्म से लोकों पर विजय पायी है तथा धर्मात्मा क्षत्रिय जैसी मृत्यु चाहते हैं, वही मुझे प्राप्त हो गयी। इससे अच्छा अन्त किसका होगा ?  संतोष की बात है कि मैं पीठ दिखाकर भागा नहीं, मेरे मन में कोई दुर्विचार नहीं उत्पन्न हुआ। तो भी सोये अथवा पागल हुए मनुष्य को जहर देकर मार डाला जाय, उसी तरह उस पापी ने युद्ध धर्म का उल्लंघन करके मेरा वध किया है। तत्पश्चात् आपके पुत्र ने संदेशवाहकों से कहा_'अश्त्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य से मेरी बात कह देना_अनेकों बार युद्ध के नियमों को भंग करके पाप में प्रवृत हुए इन पाण्डवों का आपलोग कभी भी विश्वास न कीजियेगा। मैं भीम के द्वारा अधर्म पूर्वक मारा गया हूं। जो मेरे ही लिये स्वर्ग में गये हैं उन आचार्य द्रोण, कर्ण, शल्य, वृषसेन, शकुनि, जलसन्धि, भगदत्त, भूरिश्रवा, जयद्रथ तथा दु:शासन कुमार और अन्य हजारों राजाओं के पीछे अब मैं भी स्वर्गलोक में चला जाऊंगा। चिंता यही है कि अपने भाइयों और पति की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरी दु:खाना बहिन दु:शीला की क्या हालत होगी। पुत्र और पौत्रों की बिलखती हुई बहुओं के साथ मेरे माता-पिता किस अवस्था में पहुंचेंगे ! बेटे और पति की मृत्यु सुनकर बेचारी लक्ष्मण की माता भी तुरंत प्राण दे देगी। व्याख्यान देने में कुशल और संन्यासी के वेष में चारों ओर घूमने _फिरनेवाले चार्वाक को यदि मेरी हालत मालूम हो जायगी तो अवश्य ही वे मेरे वैर का बदला लेंगे। मैं तो त्रिभुवन में प्रसिद्ध इस पवित्र तीर्थ समन्तपंचक में प्राण त्याग कर रहा हूं, इसलिये मुझे अक्षय लोकों की प्राप्ति होगी।' राजन् ! आपके पुत्र का यह विलाप सुनकर हजारों मनुष्यों की आंखों में आंसू भर आये। वे व्याकुल होकर वहां से इधर_उधर हट गये। दूतों ने आकर अश्वत्थामा से गदायुद्ध की सारी बातें तथा राजा को अन्यायपूर्वक गिराये जाने का समाचार भी कह सुनाया। इसके बाद वहां थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् वे जहां से आये थे, वहीं लौट गये। संदेशवाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा_जो स्वयं भी तीखे बाण, गंदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे_तेज चलनेवाले घोड़े से जीते हुए रथ पर सवार होकर तुरंत युद्धभूमि में गया । वहां पहुंचकर देखा कि दुर्योधन धरती पर गिरा हुआ छटपटा रहा है और उसका सारा शरीर खून से भींगा हुआ है। क्रोध के मारे उसकी भौंहें तनी और आंखें चढ़ी हुई थीं, वह अमर्ष से भरा दिखाई देता था। अपने राजा को इस अवस्था में पड़ा देख कृपाचार्य आदि को बड़ा मोह हुआ। वे रथों से उतरकर दुर्योधन के पास ही जमीन पर बैठ गये। उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आंसू भर आये, वह सिसकता हुआ कहने लगा_'राजन् ! निश्चय ही इस मनुष्यलोक में कुछ भी सत्य नहीं है, जहां तुम्हारे_जैसा राजा धूल लोट रहा है। अन्यथा जो एक दिन समस्त भूमण्डल का स्वामी था, जिसने सबपर हुक्म चलाया, वहीं आज इस निर्जन वन में अकेला कैसे पड़ा हुआ है। आज मुझे दु:शासन नहीं दिखाई देता, महारथी कर्ण तथा संपूर्ण हितैषी मित्रों का भी दर्शन नहीं होता_यह क्या बात है ?
वास्तव में काल की गति को जानना बड़ा कठिन है। जरा समय का उलट_फेर तो देखो, तुम मूर्धाभिषिक्त एकराजाओं के अग्रगण्य होकर भी आज तिनकों सहित धूल में लोट रहे हो ! महाराज ! तुम्हारा वह श्वेत क्षत्र कहां है? चंवर कहां है ? और वह विशाल सेना कहां चली गयी ? किस कारण से कौन_सा काम होगा, इसको समझना बड़ा मुश्किल है; क्योंकि तुम समस्त प्रजा के माननीय राजा होकर भी आज इस दशा को पहुंच गये। तुम तो इन्द्र से भी भिड़ने का हौसला रखते थे; जब तुमपर भी यह विपत्ति आ गयी तो यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति स्थिर नहीं होती।' अत्यन्त दु:खी हुए अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन की आंखों में शोक के आंसू उमड़ आये। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि से यह समयोचित वचन कहा_'मित्रों ! इस मर्र्त्यलोक का ऐसा ही नियम है, यह विधाता का बनाया हुआ धर्म है; इसलिये कालक्रम से एक_न_एक दिन समस्त प्राणियों का मरण होता है। वहीं आज मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आपलोग अपनी आंखों से देख रहे हैं।एक दिन मैं इस भूमण्डल का पालन करनेवाला राजा था और आज इस अवस्था को पहुंचा हुआ हूं। तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि युद्ध में बड़ी _से_बड़ी विपत्ति आने पर भी कभी पीछे नहीं हटा। पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से। मैंने युद्ध में सदा ही उत्साह दिखाया है और अपने बंधु_बांधवों के मारे जाने पर भी स्वयं भी युद्ध में ही प्राण त्याग रहा हूं, इससे मुझे विशेष संतोष है। सौभाग्य की बात है कि आप लोगों को इस नरसंहार से मुक्त देख रहा हूं। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं_यह मेरे लिये भी प्रसन्नता की बात है। आप लोगों का मुझपर स्वाभाविक स्नेह है; इसलिये मेरे मरने से दु:खी हो रहे हैं; किन्तु चिंता करने की कोई बात नहीं है। यदि वेद प्रमाण भूत है, तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है; इसलिये मैं कदापि शोक के योग्य नहीं हूं। आपलोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप पराक्रम दिखाया और सदा ही विजय दिलाने का प्रयत्न किया है; किन्तु दैव के विधान का कौन उल्लंघन कर सकता है ?' महाराज ! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आंखों में फिर से आंसू उमड़ आये तथा वह शरीर की पीड़ा से भी अत्यन्त व्याकुल हो गया; इसलिये अब आगे कुछ न बोल सका, चुप हो रहा। राजा की यह दशा देख अश्वत्थामा की आंखें भर आयीं, उसे बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही शत्रुओं पर अमर्ष भी हुआ। वह क्रोध से आगबबूला हो गया और हाथ से हाथ दबाता हुआ कहने लगा, 'राजन् ! उन पापियों ने क्रूरकर्म करके मेरे पिता को भी मारा था। किन्तु उसका मुझे उतना संताप नहीं है, जितना आज तुम्हारी दशा देखकर हो रहा है। अच्छा, अब मेरी बात सुनो_'मैंने जो यज्ञ किये, कुएं तालाब आदि बनवाये तथा और जो दान, धर्म एवं पुण्य किये हैं, उन सबको तथा सत्य की भी शपथ खाकर कहता हूं_आज मैं श्रीकृष्ण के देखते_देखते हरेक उपाय से काम लेकर पांचालों को यमलोक भेज दूंगा। इसके लिये तुम आज्ञा दे दो।अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन मन_ही_मन प्रसन्न हुआ और कृपाचार्य से बोला_'आचार्य ! आप शीघ्र ही जल से भरा हुआ कलश ले आइये।' कृपाचार्य ने ऐसा ही किया। जब कलश लेकर वे राजा के निकट आये, तो उसने कहा_'विप्रवर ! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो द्रोण कुमार को सेनापति के पद पर अभिषेक कर दीजिये; आपका भला होगा। राजा की आज्ञा से कृपाचार्य ने अश्वत्थामा का अभिषेक किया। इसके बाद वह दुर्योधन को हृदय से लगाकर संपूर्ण दिशाओं को सिंहनाद से प्रतिध्वनित करता हुआ वहां से चल दिया। दुर्योधन खून में डूबा हुआ रात_भर वहीं पड़ा रहा। युद्धभूमि से दूर जाकर वे तीनों महारथी आगे के कार्यक्रम पर विचार करने लगे।

शल्य पर्व समाप्त

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