Saturday 27 January 2024

सौप्तिक पर्व___तीन महारथियों का एक वन में विश्राम करना और अश्वत्थामा का पाण्डवों को कपटपूर्ण मारने का निश्चय करके कृपाचार्य और कृतवर्मा से सलाह लेना


नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं जयमुदीरयेत्।।_अर्थ_अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा
 नरस्वरूप नरररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रगट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्ति पूर्वक अन्त:करन को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।

तब अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा_ये तीनों
 वीर दक्षिण की ओर चले और सूर्यास्त के समय शिविर के पास पहुंच गये। इतने में ही विजयाभिलाषी पाण्डव वीरों का भीषण नाद सुनायी दिया; अत: उनकी चढ़ाई की आशंका से वे भयभीत होकर पूर्व की ओर भागे कुछ दूर जाकर उन्होंने मुहूर्त भर विश्राम किया। राजा धृतराष्ट्र ने कहा_संजय ! मेरे पुत्र दुर्योधन में दस हजार हाथियों का बल था। उसे भीमसेन  की मृत्यु का संवाद सुनकर भी मार डाला_इस बात पर एकाएक विश्वास नहीं होता।
मेरे पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर था। उसे भी पाण्डवों ने संग्रामभूमि में नष्ट कर दिया। इससे निश्चय होता है कि प्रारब्ध से पार पाना किसी प्रकार संभव नहीं है। भैया संजय ! मेरा हृदय अवश्य ही फौलाद का बना हुआ है जो अपने सौ पुत्रों के मृत्यु का संवाद सुनकर भी इसके हजारों टुकड़े नहीं हुए। भला, अब पुत्रहीन होकर हम बूढ़े _बुढ़िया कैसे जीवित रहेंगे ? मैं एक राजा का पिता और स्वयं राजा ही था। सो अब पाण्डवों का दास बनकर किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करूंगा ? ओह ! जिसने अकेले ही मेरे सौ_के_सौ पुत्रों का वध कर डाला और मेरी जिंदगी के आखिरी दिन दु:समय कर दिये, उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूंगा ? अच्छा संजय ! यह तो बताओ कि इस प्रकार बेटा दुर्योधन के अधर्म पूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया ?संजय ने कहा_'राजन् ! आपके पक्ष के ये तीनों वीर थोड़ी ही दूर गये थे कि इन्होंने तरह_तरह के वृक्ष और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा। वहां थोड़ी देर विश्राम करके उन्होंने घोड़ों को पानी पिलाया और थकावट दूर हो जाने के बाद उस सघन वन में प्रवेश किया। वहां चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वट_वृक्ष दिखायी दिया। वहां चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वट_वृक्ष दिखायी दिया, जिसकी हज़ारों शाखाएं सब ओर फैली हुईं थीं। उस वट के पास पहुंचकर वे महारथी अपने रथों से उतर गये और स्नानादि करके संध्यावन्दन करने लगे। इतने में ही भगवान भास्कर अस्ताचल के शिखर पर पहुंच गये और संपूर्ण संसार में निशादेवी का आधिपत्य हो गया। सब ओर छिटके हुए ग्रह, नक्षत्र और तारों से सुशोभित गगनमण्डल दर्शनीय विज्ञान के समान शोभा पाने लगा। अभी रात्रि का आरम्भ काल ही था। कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा दु:ख और शोक में डूबे हुए उस वटवृक्ष के निकट पास_ही पास बैठ गये और कौरवों तथा पाण्डवों के विगत   संहार के लिये शोक प्रकट करने लगे। अत्यन्त थके होने के कारण नींद ने उन्हें धर दबाया। इससे आचार्य कृप और कृतवर्मा सो गये। यद्यपि ये महामूल्य पलंगों पर सोनेवाले, सब प्रकार की सुख_सामग्रियों से सम्पन्न और दु:ख के अनभ्यासी थे, तो भी वे अनाथों की तरह पृथ्वी पर ही पड़ गये। किन्तु अश्वत्थामा इस समय अत्यन्त क्रोध और रोष में भरा हुआ था। इसलिये उसे नींद नहीं आयी। उसने चारों ओर वन में दृष्टि डाली तो उसे उसे उस वटवृक्ष पर बहुत _से कौए दिखायी दिये। उस रात हजारों कौओं ने उस वृक्ष पर बसेरा लिया था और वे आनंद से अलग_अलग घोंसलों में सोये हुए थे। इसी समय उसे एक भयानक उल्लू उस ओर आता दिखाई दिया। वह धीरे-धीरे गुनगुनाता वट की एक शाखा पर कूदा और उसपर सोये हुए अनेकों कौओं को मारने लगा। उसने अपने पंजों से किन्हीं कौओं के पर नोच डाले, किन्हीं के सिर काट लिये और किन्हीं के पैर तोड़ दिये। इस प्रकार अपनी आंखों के सामने आये हुए अनेकों कौओं को उसने बात_की_बात में मार डाला। इससे वह सारा वट_वृक्ष कौवों के शरीर के अंगावयवओं से भर गया। रात्रि के समय उल्लू का यह कपटपूर्ण व्यवहार देखकर अश्वत्थामा ने भी वैसा ही करने का संकल्प लिया। उस एकान्त देश में वह विचारने लगा, 'इस पक्षी ने अवश्य ही मुझे संग्राम करने की युक्ति का उपदेश किया है। यह समय भी इसी के योग्य है। पाण्डव_लोग विजय पाकर बड़े तेजस्वी, बलवआन् और उत्साही हो रहे हैं। इस समय मैं अपनी शक्ति से तो उन्हें मार नहीं सकता और राजा दुर्योधन के सामने उनका वध करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। अब यदि मैं न्यायानुसार युद्ध करूंगा तो नि:संदेह मुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। हां, कपट से और सफलता हो सकती है और शत्रुओं का भी खूब संहार हो सकता है। पाण्डवों ने भी तो पद_पदपर अनेकों निंदनीय और कुत्सित कर्म किये हैं। युद्ध के अनुभवी लोगों का ऐसा कथन भी है कि जो सेना नींद में आधी रात के समय बेहोश हो, जिसका नायक नष्ट हो चुका हो, जिसके योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये हों और जिसमें मतभेद पैदा हो गया हो, उसपर भी शत्रु को प्रहार करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके द्रोणपुत्र ने रात्रि के समय सोये हुए पाण्डव और पांचाल-वीरों को नष्ट करने का निश्चय किया। फिर उसने कृतवर्मा और कृपाचार्य को जगाकर अपना निश्चय सुनाया। वे दोनों महावीर अश्वत्थामा की बात सुनकर बड़े लज्जित हुए और उन्हें उसका कोई उत्तर न सूझा। तब अश्वत्थामा ने एक मुहूर्त तक विचार करके अश्रुगद्गद् होकर कहा, 'महाराज दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। उन्हें अनेकों क्षुद्र योद्धाओं ने मिलकर भीमसेन के हाथ से मरवा दिया। पापी भीम ने एक मूर्धाभिषिक्त सम्राट के मस्तक पर लात मारी_यह उसका कितना खोटा काम था। हाय ! पाण्डवों ने कौरवों का कैसा भीषण संहार किया है कि आज हम इस महान् संहार से हम तीन ही बच पाये हैं। मैं तो इस सबको समय का फेर ही समझता हूं। यदि मोहवश आप दोनों की बुद्धि नष्ट नहीं हुई है तो इस घोर संकट के समय हमारा क्या कर्तव्य है, यह बताने की कृपा करें।'

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