युधिष्ठिर ने कहा_'अर्जुन ! थोड़ी देर तक मन को एकाग्र करके मेरी बात सुनो और उसपर विचार करो; फिर तुम भी मेरे कथन का अनुमोदन करोगे। क्या तुम्हारे कहने से मैं उस मार्ग पर न चलूं, जिसपर श्रेष्ठ पुरुष सदा ही चलते आये हैं ? नहीं, मुझसे यह न होगा ; मैं तो सांसारिक सुखों पर लात मारकर अवश्य उसी मार्ग पर चलूंगा और वन में फल_मूल खाकर कठोर तपस्या करूंगा। सवेरे तथा सायंकाल में स्नान करके विधिवत् अग्नि में आहुति डालूंगा और शरीर पर मृगछाला तथा बल्कि वस्त्र धारण कर मस्तक पर जटा रखूंगा। सर्दी_गर्मी, हवा तथा भूख_प्यास का कष्ट सहन करूंगा और शास्त्रोक्त विधि से तप करके अपने शरीर को सुखा डालूंगा। एकान्त में रहकर तत्व का विचार करूंगा और कच्चा_पक्का_जैसा भी फल मिल जायगा, उसी को खाकर जीवन_निर्वाह करूंगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के कठोर_से_कठोर नियमों का पालन करके इस शरीर की आयु समाप्त होने की बाट देखता रहूंगा। अथवा मुनिवृति से रहता हुआ मस्तक मुड़ा लूंगा और एक_एक दिन एक_एक वृक्ष से भिक्षा मांगकर देह को दुर्बल कर डालूंगा। प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर पेड़ के नीचे ही निवास करूंगा। किसी के लिये न शोक करूंगा न हर्ष । निंदा तथा स्तुति को समान समझूंगा। आशा और ममता को धो बहाकर निर्द्वन्द हो जाउंगा। कभी किसी भी वस्तु का संग्रह न करूंगा। आत्मा में ही रमण करता हुआ सदा प्रसन्न रहूंगा। दूसरों से कोई भी बात नहीं करूंगा तथा अंधों, गूंगों और बहरों की तरह विचरता रहूंगा। चर और अचर रूप में जो चार प्रकार के जीव हैं, उनमें से किसी की भी हिंसा नहीं करूंगा। सब प्राणियों पर मेरी समान वृद्धि होगी, न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा, न किसी को देखकर भौंहें टेढ़ी करूंगा। चेहरे पर सदा प्रसन्नता छायी रहेगी, सब इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में रखूंगा। कोई भी राह पकड़कर आगे बढ़ता रहूंगा, किसी से रास्ता नहीं पूछूंगा। किसी खास देश या दिशा में जाने की इच्छा न रखूंगा। यात्रा का कोई विशेष उद्देश्य न होगा; न आगे की उत्सुकता होगी न पीछे फिरकर देखूंगा।
चित्त में कोई भी विकार नहीं रहेगा, अन्तरात्मा पर दृष्टि रखूंगा और देहाभिमान से रहित हो जाऊंगा। भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन _इसका विचार नहीं करूंगा। एक घर से भिक्षा न मिली तो दूसरे घर से मांगूंगा, वहां भी न मिलने पर तीसरे घर से। इस प्रकार न मिलने की दशा में सात घरों तक मांगूंगा, आंठवएं पर नहीं जाऊंगा।जब घरों में धुआं निकलना बन्द हो गया हो, अंगारे बुझ गये हों, सब लोग खा_पी चुके हों, परोसी हुई थाली का इधर_उधर ले जाने का काम समाप्त हो गया हो, भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय में मैं एक ही समय भिक्षा के लिये जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बंधन तोड़कर पृथ्वी पर विचरता रहूंगा। न जीवन से राग होगा न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बांह बंसुले से काटता है और दूसरा दूसरी बांह पर चंदन चढ़ाता है तो मैं उन दोनों पर समान भाव ही रखूंगा। न एक का मंगल चाहूंगा न दूसरे का अमंगल। केवल शरीर निर्वाह के लिये पलकों के खोलने _मीचने तथा खाने_पीने आदि का कार्य करूंगा, परन्तु इसमें भी आसक्ति नहीं रखूंगा। संपूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन के संकल्प को अपने अधीन रखूंगा। बुद्धि के मल का परिमार्जन करके सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहूंगा। इस प्रकार वीतराग होकर विचरने से मुझे अक्षय शान्ति मिलेगी। इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं के आक्रमण होता ही रहता है; जिसके कारण यहां का जीवन कभी स्वस्थ नहीं रहता। इस अपार_सा संसार का तो त्यागने में ही सुख है।आज बहुत दिनों बाद मुझे विशुद्ध विवेकरूपी अमृत प्राप्त हुआ है; इसके द्वारा मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन स्थान को प्राप्त करना चाहता हूं। अतः उपर्युक्त धारणा के द्वारा निरंतर विचरता हुआ मैं जन्म, मृत्यु, व्याधि और वेदनाओं से भरे हुए इस शरीर का अन्त करके निर्भय पद को प्राप्त हो जाऊंगा।
यह सुनकर भीमसेन बोले_राजन् ! जब आपने राजधर्म की निंदा करके आलस्यपूर्ण जीवन करने का ही निश्चय कर रखा था तो बेचारे कौरवों का नाश कराने से क्या लाभ था ? आपका यह विचार यदि पहले ही मालूम हो गया होता तो हमलोग न हथियार उठाते, न किसी का वध करते। आपकी ही तरह शरीर त्यागने का संकल्प लेकर हम भी भीख ही मांगते। ऐसा करने से राजाओं के साथ यह भयंकर संग्राम तो नहीं होता। बुद्धिमान पुरुषों ने क्षत्रियों का यह धर।म बताया है कि ये राज्य पर अधिकार जमावें और यदि उसमें कुछ लोग बाधा उपस्थित करें तो उन्हें मार डालें। दुष्ट कौरव भी हमारे लिये राज्य_प्राप्ति में बाधक थे, इसीलिये हमने उनका वध किया है, अब आप धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। अन्यथा हमलोगों का सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जायगा; जैसे कोई मनुष्य मन में किसी तरह की आशा रखकर बहुत बड़ी मंजिल तय कर लें और वहां पहुंचकने पर उसे निराश होकर लौटना पड़े, यही दशा हमलोगों की भी होगी। आप जिस संन्यास की बात सोचते हैं, उसका यह समय नहीं है। जिनकी विचारदृष्टि सूक्ष्म है, वे बुद्धिमान पुरुष ऐसे अवसर पर त्याग की प्रशंसा नहीं करते, वे तो इसे स्वधर्म का उल्लंघन समझते हैं। जो पुत्र _पौत्र के पालन में असमर्थ हो, देवता, ऋषि और पितरों का तर्पण न कर सके और अतिथियों को भोजन देने की शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य जंगलों में जाकर मौज से अकेला जीवन व्यतीत कर सकता है।आप जैसे शक्तिशाली पुरुषों का यह काम नहीं है। राजा को तो कर्म करना ही चाहिये; जो कर्मों को छोड़ बैठता है उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती।
तत्पश्चात् अर्जुन ने कहा_महाराज ! इसी विषय में एक बार तपस्वियों के साथ इन्द्र का संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास में आपको सुनाता हूं। एक समय की बात है, कुछ कुलीन ब्राह्मण बालक_जो अभी बहुत नादान थे, जिन्हें मूंछ तक नहीं आयी थी_घर_बार छोड़कर जंगल में चले आये, संन्यासी बन गये। इसी को धर्म मानकर वे प्रसन्न थे। भाई_बन्धु और मां_बाप की सेवा से मुंह मोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने लगे। एक दिन उनपर इन्द्र देव की कृपा हुई। वे सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके उनके पास गये और उन्हें सुनाकर कहने लगे_'यज्ञशिष्ठ अन्न भोजन करनेवाले महात्माओं ने जो कर्म किया है; वह दूसरे मनुष्यों से होना कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। उनका मनोरथ सफल हुआ और वे धर्मात्मा पुरुष उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं।' ऋषियों ने कहा_वाह ! यह पक्षी यज्ञशइष्ठ अन्न भोजन करनेवालों की प्रशंसा करता है, यह तो हमलोगों की ही प्रशंसा हुई; क्योंकि हमलोग ही यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं। पक्षी ने कहा_अरे ! मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं करता। तुम तो जूठा खानेवाले और मूर्ख हो, पाप_पंक में फंसे हुए हो। यज्ञशिष्ट अन्न खानेवाले तो दूसरे ही होते हैं। ऋषियों ने कहा_पक्षी ! यह बड़ा कल्याणकारी साधन है_ऐसा समझकर ही हम इस मार्गं का अवलम्ब किये बैठे हैं। अब तुम्हारी बात सुनकर तुमपर हमारी श्रद्धा हुई है, अतः: जो अत्यन्त कल्याण करनेवाला साधन हो, वहीं हमें बताओ। पक्षी ने कहा_यदि तुम्हारा मुझपर विश्वास है तो मैं यथार्थ बात बताता हूं, सुनो। चौपायों में गौ, धातुओं में सोना, शब्दों में प्रणव आदि मंत्र और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण के लिये जातकर्म आदि संस्कार शास्त्रविहित है; ब्राह्मण जबतक जीवित रहे, समय_समय पर उसका संस्कार होता रहना चाहिये। मरने के पश्चात् भी उसका श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि_संस्कार तथा घर पर श्राद्ध आदि वेद_विधि के अनुसार होना उचित है। वेदोक्त यज्ञ_यागादि कर्म ही उसके लिये स्वर्ग में पहुंचाने वाले उत्तम मार्ग हैं। वैदिक कर्म ही सिद्धि का क्षेत्र है सभी प्राणी इसकी इच्छा रखते हैं। जहां इन कर्मों का विधिवत् संपादन होता है, वह गृहस्थ_आश्रम ही सबसे बड़ा आश्रम है। जो कर्म की निंदा करते हैं, उन्हें कुमार्गगामी समझना चाहिये। उन्हें बड़ा पाप लगता है। देव यज्ञ, पितृ यज्ञ और ब्रह्मयज्ञ_ ये ही तीन सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग कर और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथ का आश्रय लेनेवाले हैं। हवन के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों को और श्राद्ध द्वारा पितरों को तृप्त करना_यह सनातन धर्म है; इसका पालन करते हुए गुरुजनों की सेवा करना ही कठोर तप है। इस दुष्कर तपस्या को करके ही देवताओं ने बहुत बड़ी विभूति पायी है। जिनकी किसी के प्रति इर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्दों से रहित हैं, ऐसे ब्राह्मण इसी को तप मानते हैं। संसार में व्रत को ही तप कहते हैं, किन्तु वह इसकी अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। जो यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं, उन्हें अविनाशी पद की प्राप्ति होती है। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा परिवार के अन्य लोगों को अन्न देकर जो स्वयं सबसे पीछे खाते हैं, वे ही यज्ञशिष्ट भोजन करनेवाले कहे गये हैं। अपने धर्म पर आरूढ़ होकर सुन्दर व्रत का पालन और सत्य_भाषण करते हुए वे इस जगत् के गुरु समझे जाते हैं।