Thursday, 3 July 2025

अर्जुन द्वारा दण्ड नीति का समर्थन और भीम का युधिष्ठिर को राज्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयास

वैशम्पायनजी कहते हैं_ द्रुपदकुमारी की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले अर्जुन फिर कहने लगे_"राजन् ! दण्ड ही समस्त प्रथाओं का शासन और उनकी रक्षा करता है, सबके सो जाने पर दण्ड जागता रहता है, इसलिये विद्वानों ने दण्ड को राजा का धर्म बताया है। दण्ड से ही धर्म, अर्थ और काम की रक्षा होती है; इसलिये दण्ड त्रिवर्ग कहलाता है। दण्ड ही धन और धान्य की रखवाली करता है, इसलिये आप दण्ड धारण कीजिये। संसार की ओर देखिये_ कितने ही पापी दण्ड के भय से पाप नहीं करते, दण्ड से ही सारी व्यवस्था ठीक _ठीक चलती है। बहुत_से मनुष्य दण्ड के डर से ही एक_दूसरे का सर्वनाश नहीं करते। यदि दण्ड सबकी रक्षा न करता तो संसार के प्राणी घोर अन्धकार में डूब जाते। यह उच्छृंखल मनुष्यों का दमन करता और दुष्टों को दण्ड देता है। इसलिये विद्वान पुरुष इसे 'दण्ड कहते हैं। यदि ब्राह्मण अपराध करें तो उसे वाणी से अपमानित करना ही उसका दण्ड है, क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकरयंक्ष सेवा लेना उसका दण्ड है; वैश्य का दण्ड उससे जुर्माना वसूल करना है; किन्तु शूद्र के लिये सेवा के अतिरिक्त दूसरा कोई दण्ड नहीं है, उससे दण्ड के रूप में काम ही लिया जाता है। मनुष्यों को प्रमाद से बचाने और और उनके धन की रक्षा के लिये जो एक मर्यादा बांधी गयी है, उसी को दण्ड कहते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वाणप्रस्थ और संन्यासी _ये सब दण्ड के भय से अपने_अपने मार्ग पर स्थित रहते हैं। बिना भय के न कोई यज्ञ करता है, न दान देता है और न प्रतिज्ञा_पालन पर ही दृढ़ रहना चाहता है। "रुद्र, कार्तिकेय, इन्द्र, अग्नि, वरुण, यम, काल, वायु, मृत्यु, कुबेर, रवि, बसु, साध्य तथा विश्वेदेव_ ये सभी देवता दण्ड देनेवाले हैं; अतः: इनके प्रताप के सामने माथा टेककर ब लोग इन्हें प्रणाम करते हैं, सभी इनकी पूजा करते हैं। मैं संसार में क्षकिसी को ऐसा नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता है; क्योंकि प्रत्येक क्रिया में कुछ_न_कुछ हिंसा का संबंध हो ही जाता है। ) जो विधाता का विधान है, उसमें विद्वान पुरुष को मोह नहीं होता। महाराज ! जिस जाति में आपका जन्म हुआ है, उसी के अनुसार आपको वर्ताव करना चाहिये। पानी में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत _से कीड़े होते हैं; कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो इनकी हिंसा से सर्वथा बचा रहता हो। परंतु इसे जीवन_निर्वाह के सिवा और क्या कहां जा सकता है ? कितने ऐसे सूक्ष्म कीटाणु होते हैं, जिनका अनुमान से ही पता लगता है । मनुष्यों के पलक गिरने मात्र से उनके कंधे टूट जाते हैं। अतः ऐसे जीवों की हिंसा से कहां तक बचाव हो सकता है ?"
"जबसे जगत् में दण्ड नीति का प्रचार हुआ है, तबसे संपूर्ण प्राणियों के सभी कार्य सुचारु रूप से होने लगे हैं। संसार में भले_बुरे का विचार करनेवाला दण्ड यदि न होता तो सब जगह अंधेर मचा रहता, किसी को कुछ भी सूझ न पड़ता। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निंदा करनेवाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर जल्दी राह पर आ जाते हैं। दुनिया में सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है, सब दण्ड से विवश होकर ही ठीक रास्ते पर रहते हैं। दण्ड के भय से ही लोगों की मर्यादा _पालन में प्रवृति होती है। चारों वर्णों के लोग आनन्द से रहें, सबमें अच्छी नीति का वर्ताव हो और पृथ्वी पर धर्म तथा अर्थ की रक्षा रहे _इस उद्देश्य से ही विधाता ने दण्ड का विधान किया है। यदि पक्षी तथा हिंसक जीव दण्ड से डरते न होते तो वे पशुओं, मनुष्यों तथा यज्ञ के लिये रखें हुए हविष्यों को भी खा जाते। चारों ओर धर्म-कर्म ओं का लोप हो जाता और सारी मर्यादाएं टूट जातीं। इतना ही नहीं, जिनमें विधिपूर्वक बड़ी_बड़ी दक्षिणाए़ दी जाती हैं, वे संवत्सर यज्ञ भी बेखटके नहीं होने पाते। आश्रम_धर्म का ठीक_ठीक पालन नहीं होता और कोई भी विद्या नहीं पढ़ पाता। डंडे पड़ने का डर न होता तो रथों में जुते हुए ऊंट, बैल, घोड़े, खच्चर तथा गदहे उन्हें खींचते ही नहीं। सेवक अपने स्वामी का तथा बालक माता_पिता का कहना नहीं मानते और युवती स्त्री अपने सती धर्म पर स्थिर नहीं रहती। दण्ड पर ही सारी प्रजा टिकी हुई है, दण्ड से ही भय होता है, मनुष्यों का इहलोक और परलोक दण्ड पर ही प्रतिष्ठित है जहां दण्ड देने का सुंदर विधान है, वहां छल, पाप और ठगी नहीं देखने में आती। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य के सब कार्य धन के अधीन है, परन्तु धन दण्ड के अधीन है। देखिये, दण्ड की कितनी महिमा है। "लोक_यात्रा का निर्वाह करने के लिये धर्म का प्रतिपादन किया गया है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें सब_के_सब गुण ही हों अथवा जो सर्वथा गुणों से वंचित ही हो। प्रत्येक कार्य में अच्छाई और बुराई दोनों ही देखने में आती है। इन सब बातों का विचार करके आप भी प्राचीन धर्म का पालन कीजिये। यज्ञ कीजिये, दान दीजिये तथा प्रजा एवं मित्रों की रक्षा कीजिये।" अर्जुन की बात समाप्त होने पर भीमसेन कहने लगे_"राजन् ! आप सब धर्मों के ज्ञाता हैं, आपसे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैंने की बार निश्चय किया कि 'न बोलूं, न बोलूं, मगर अधिक दु:ख होने के कारण बोलना ही पड़ता है। आपका यह अत्यन्त मोह देखकर हमलोग विकल और निर्बल हो रहे हैं। आप संसार की गति और अगति दोनों जानते हैं, भविष्य और वर्तमान में भी आपसे कुछ छिपा नहीं है। ऐसी स्थिति में भी आपको राज्य के प्रति आकृष्ट करने का जो कारण है, उसे बता रहा हूं; ध्यान देकर सुनें।
मनुष्य की दो प्रकार की व्याधियां होती हैं; एक शारीरिक और दूसरी मानसिक। इन दोनो की उत्पत्ति अन्योनाश्रित है। एक के बिना दूसरी का होना संभव नहीं है। कभी शारीरिक व्याधि से मानसिक व्याधि होती है, कभी मानसिक व्याधि से शारीरिक व्याधि। जो मनुष्य बीते हुए शारीरिक अथवा मानसिक दु:ख के लिये शोक करता है, वह एक दु:ख से दूसरे दु:ख को प्राप्त होता है। उसे दोनों प्रकार के अनर्थों से कभी छुटकारा नहीं मिलता। "इसलिये जैसे भीष्म और द्रोण के साथ आपका युद्ध हुआ था, उसी प्रकार अपने मन के साथ भी आपको लड़ना चाहिये। उसका समय अब आ गया है। इस युद्ध में न बाणों का काम है, न मित्र और बन्धुओं की सहायता का। अकेले आपको लड़ना है। मन को जीते बिना आपकी क्या दशा होगी, मैं कह नहीं सकता। हां, उसे जीतकर आप अवश्य कृतार्थ हो जायेंगे। प्राणियों के आवागमन का विचार कर अपनी बुद्धि को स्थिर कीजिये और बाप_दादों का राज्य चलाइये। सौभाग्य की बात है कि पापी दुर्योधन सेवकों सहित मारा गया; अब आप अश्वमेध यज्ञ करके विधिपूर्वक दक्षिणा दीजिये। हम सब लोग आपके दास हैं।








Wednesday, 25 June 2025

युधिष्ठिर को नकुल, सहदेव तथा द्रौपदी को समझाना

अर्जुन का बात समाप्त होने पर नकुल ने भी उन्हीं का अनुमोदन करते हुए राजा युधिष्ठिर सेश् कहा_'राजन् ! विशाखनृप नामक क्षेत्र में संपूर्ण 
देवताओं द्वारा की हुई अग्नि स्थापना के चिह्न मौजूद हैं; इससे आपको समझना चाहिए कि देवता भी वैदिक कर्मों और उनके फलों में विश्वास करते हैं। जो वेदों की आज्ञा के विरुद्ध चलते हैं; उन्हें तो महान् नास्तिक मानना चाहिए। वैदिक कर्मों का परित्याग करके कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता है। वेदवेत्ता विद्वान कहते हैं _यह गृहस्थाश्रम सब आश्रमों में श्रेष्ठ है। श्रोत्रिय ब्राह्मणों की राय भी सुन लीजिये _'जो धर्मपूर्वक उपार्जन किये हुये धन का यज्ञादि कर्मों में उपयोग करता है, वह शुद्ध आत्मा मनुष्य ही त्यागी है।'जिनका कोई घर_बार नहीं, जो इधर_उधर विचरते और मौन रहकर वृक्ष के नीचे सो रहते हैं, जो कभी रसोई नहीं बनाते और मन तथा इन्द्रियों को वश में रखते हैं, ऐसे त्यागियों को भिक्षु ( संन्यासी ) कहते हैं। जो ब्राह्मण क्रोध और हर्ष नहीं करता, किसी की चुगली नहीं करता तथा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करता है, वह त्यागी कहलाता है। एक दिन महर्षियों ने चारों आश्रमों को विवेक के तराजू पर तौला; तीन आश्रम एक ओर थे और अकेला गृहस्थाश्रम दूसरी ओर। किन्तु वह विचार से उन तीनों की अपेक्षा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। तब से उन्होंने निश्चय किया कि यही मुनियों का मार्ग है, यही लोक वेत्ताओं की गति है। जो ऐसी भावना रखता है, वह भी त्यागी है। घर छोड़कर जंगल में चले जाने से कोई त्यागी नहीं होता। जंगल में जाकर भी जिसके हृदय में कामना जाग्रति होती है, उसके गले में यमराज मौत का फंदा डाल देते हैं; शम, दम, धैर्य, सत्य शौच, सरलता, यज्ञ धारणा तथा धर्म_इन सबका ही निरंतर पालन ऋषियों के लिये बताया गया है। पितरों, देवताओं और अतिथियों का पोषण तो गृहस्थाश्रम में ही होता है। केवल इसी आश्रम में धर्म, अर्थ और काम _ये तीन पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं। यहां रहकर वेदविहित विधि का पालन करने वाले त्यागी का कभी विनाश नहीं होता_वह पारलौकिक उन्नति से कभी वंचित नहीं होता। कुछ ऋषि सद्ग्रंथों का स्वाध्यायरूप यज्ञ करनेवाले होते हैं, कुछ ज्ञानयज्ञ में तत्पर रहते हैं और कुछ लोग मन में ही ध्यानरूप महान् यज्ञ का विस्तार करते हैं। चित्त को एकाग्र करनारूप जो साधन_मार्ग है, उसका आश्रय देनेवाला द्विज ब्रह्मभूत हो जाता है, देवता भी उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं। जिसपर कुटुम्ब का भार हो, उस राजा के लिये गृह_त्याग का विधान नहीं देखने में आता। उसे तो राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध या और कोई शास्त्रीय यज्ञ करके उसमें धन का दान करना चाहिए। राजा के प्रमाद से लुटेरे प्रबल होकर प्रजा को लूटने लगते हैं, उस अवस्था में यदि राजा ने प्रजा को शरण नहीं दी तो उसे कलियुग का मूर्तिमान स्वरूप ही समझना चाहिए। जो दान नहीं देते, शरणागतों की रक्षा नहीं करते, वे राजा पाप के भागी होते हैं; उन्हें दु:ख_ही_दु:ख भोगना पड़ता है, सुख तो कभी नसीब नहीं होता। भीतर और बाहर जो कुछ भी मन को फंसानेवाली चीजें हैं उन्हें छोड़ने से मनुष्य त्यागी बनता है, सिर्फ घर छोड़ देने से त्याग की सिद्धि नहीं होती। जो शास्त्रीय विधान में सदा लगा रहता है, उसकी कभी हानि नहीं होती। महाराज ! पूर्ववर्ती राजाओं ने जिसका सेवन किया है, उस स्वधर्म में स्थित रहकर शत्रुओं पर विजय पाने के पश्चात् भला, आपके सिवा दूसरा कौन शोक करेगा ?' तदनन्तर सहदेव ने कहा_'भारत ! केवल बाहर के पदार्थों का त्याग करने से सिद्धि नहीं मिलती।
शरीर से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को छोड़ देने से भी सिद्धि मिलती है कि नहीं, इसमें संदेह है। टफबाहरी पदार्थों का त्याग करके दैहिक सुख_भोगों में आसक्त रहनेवाले को जिस धर्म अथवा सुख की प्राप्ति होती है, वह हमारे हितैषी मित्रों को मिले। दो अक्षरों का 'मम' ( यह मेरा है_ऐसा भाव ) मृत्यु है और तीन अक्षरों का 'न मम' ( यह मेरा नहीं है_ऐसा भाव ) अमृत सनातन ब्रह्म है। महाराज ! यदि जीव नित्य है, इसका अविनाशी होना निश्चित है, तो प्राणियों का शरीर_मात्र वध करने मात्र से वास्तव में उनकी हिंसा नहीं होगी। इसके विपरीत यदि शरीर के साथ ही जीव की उत्पत्ति या उसके नष्ट होने के साथ ही जीव का भी नाश माना जाय, तब तो सारा वैदिक कर्म मार्ग ही व्यर्थ सिद्ध होगा। इसलिये  विज्ञ पुरुष को एकांत में रहने का विचार छोड़कर पूर्वपुरुषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है, उसी का आश्रय लेना चाहिए। राजन् ! वन में रहकर वहां के फल_फूलों से जीविका चलाता हुआ भी जो द्रव्यों में ममता रखता है, वह मौत के मुंह में हैं। प्राणियों का बाह्य स्वरूप कुछ और होता है और आन्तरिक स्वरूप कुछ और ; आप उसपर गौर कीजिये। जो सबके भीतर विराजमान आत्मा को देखते हैं, वे ही महान् भय से छुटकारा पाते हैं। आप मेरे पिता, माता, भाई तथा गुरु_ सब कुछ हैं। मैं आर्त हूं इसलिये दु:ख में न जाने क्या_क्या प्रलाप कर गया हूं; आप उसे क्षमा करें। मैंने झूठा_सच्चा जो भी कहा है, वह आपके चरणों में भक्ति होने के कारण ही कहा है।' वैशम्पायनजी कहते हैं_इस प्रकार अपने भाइयों के मुख से वेद के सिद्धांतों को सुनकर भी जब युधिष्ठिर चुप ही रह गये तो धर्म को जाननेवाले द्रौपदी उनकी ओर देखकर उन्हें मधुर वचनों से समझाती हुई कहने लगी_"महाराज ! आपके ये भाई आपका संकल्प सुनकर सूख गये हैं, पपीहे की तरह रट लगा रहे हैं। फिर भी आप अपनी बातों से इन्हें प्रसन्न नहीं करते। क्यों ? ये सदा आपके लिये दु:ख_ही_दु:ख उठाते आये हैं ? अब तो इन्हें उचित बातें सुनाकर आनंदित कीजिये। आपको याद होगा, जब द्वैतवन में ये सभी भाई आपके साथ सर्दी _गर्मी और आंधी पानी का कष्ट भोग रहे थे। उन दिनों आपने इन्हें धैर्य देते हुए कहा था_'बन्धुओं ! हमलोग युद्ध में दुर्योधन को मारकर इस संपूर्ण पृथ्वी का राज भोगेंगे। उस समय बड़े _बड़े यज्ञ करके पर्याप्त दान_दक्षिणा बांटते रहने से तुम्हारा वनवास का यह दु:ख सुख के रूप में परिणत हो जायगा।' धर्मराज ! यदि यही करना था, तो उस समय आपने वैसी बातें क्यों कहीं ? जब स्वयं उपर्युक्त बातें कहकर हौसला बढ़ाया, तो अब क्यों आप हमलोगों का दिल तोड़ रहे हैं ? आपको दण्ड आदि के द्वारा इस पृथ्वी का पालन करना चाहिये; क्योंकि दण्ड न देनेवाले क्षत्रिय की शोभा नहीं होती, दण्ड न देनेवाला राजा इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता तथा उसकी प्रजा को भी सुख नहीं मिलता। राजाओं का परम धर्म तो यही है कि दुष्टों को दण्ड दें, सत्पुरुषों का पालन करें और युद्ध में कभी पीछे पीठ न दिखावे। 'जो अवसर देखकर क्षमा भी करता है और क्रोध भी, दान देता और कर लेता है, शत्रुओं को भय दिखाता र शरणागतों को निर्भय बनाता है तथा दुष्टों को दण्ड देता और दिनों पर अनुग्रह करता है, वह राजा धर्मात्मा कहलाता है। आपको यह पृथ्वी न तो शास्त्र सुनाने से मिली है, न दान में; न किसी को समझा_बुझाकर इसे हड़प लिया है, न यज्ञ में प्राप्त किया है और न भीख मांगकर ही पाया है। आपने तो शत्रुओं की प्रबल सेना का संहार करके इसपर विजय पायी है, इसलिये आप इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। महाराज! अनेकों देशों में एक संपूर्ण जम्मूद्वीप पर आपने कर लगाया; जम्मूद्वीप के समान ही जो मेरुगिरि के पश्चिम क्रौंचद्वीप है, उसपर अधिकार जमाया, मेरी से पूर्व दिशा में क्रौंचद्वीप के समान ही जो शाकद्वीप है, उसपर भी कर लगाया तथा मेरी से उत्तर ओर जो शाकद्वीप के समान ही भद्राद्वीप है, उसके उपर भी शासन किया है। इनके अतिरिक्त जो भी बहुत _से देशों के आश्रय भूत द्वीप और अन्तर्द्वीप हैं, समुद्र लांघकर उनपर भी आपने अधिकार प्राप्त किया। भाइयों की सहायता से ऐसे अनुपम पराक्रम करके द्विजातियों द्वारा सम्मानित होकर भी आप प्रसन्न क्यों नहीं होते ? मेरे अनुरोध से आप इन भाइयों का अभिनन्दन कीजिये। "महाराज ! मेरी सास कभी झूठ नहीं बोलीं, वे सर्वज्ञ हैं और सबकुछ उनकी दृष्टि के सामने है उन्होंने मुझसे कहा था 'पांचालकुमारी ! राजा युधिष्ठिर बड़े पराक्रमी हैं, ये हजारों राजाओं का संहार करके तुम्हें बड़े सुख से रखेंगे।' किन्तु आज आपका मोह देखकर उनकी बात भी व्यर।था होती दिखाई देती है। जब जेठा भाई उन्मत्त हो जाता है, तो छोटे भाई भी उसी का अनुसरन करने लगते हैं। आपके उन्माद से सब पाण्डव भी उन्मत्त हो गये हैं। जो उन्नमत्तता का काम करता है, उसका कभी भला नहीं होता; उन्नमआर्ग से चलनेवाले की तो दवा करानी चाहिये। मैं ही संसार की समस्त स्त्रियों में नीच हूं, जो बेटों के मारे जाने पर भी जीवित रहना चाहती हूं। ये सब लोग समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, फिर भी आप मानते नहीं। मैं सच कहती हूं, आप संपूर्ण पृथ्वी का राज्य छोड़कर अपने लिये स्वयं विपत्ति बुला रहे हैं। महाराज ! आप मान्धाता और अम्बरीष के समान तेजस्वी हैं; संपूर्ण प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए, पर्वत, वन तथा द्वीपों सहित इस पृथ्वी का शासन कीजिये। उदास न होइये। नाना प्रकार के यज्ञ करके ब्राह्मणों को दान दीजिये।"

Saturday, 24 May 2025

युधिष्ठिर का वनवासी, मुनि एवं संन्यासी होने का विचार तथा भीम और अर्जुन द्वारा उसका विरोध

युधिष्ठिर ने कहा_'अर्जुन ! थोड़ी देर तक मन को एकाग्र करके मेरी बात सुनो और उसपर विचार करो; फिर तुम भी मेरे कथन का अनुमोदन करोगे। क्या तुम्हारे कहने से मैं उस मार्ग पर न चलूं, जिसपर श्रेष्ठ पुरुष सदा ही चलते आये हैं ? नहीं, मुझसे यह न होगा ; मैं तो सांसारिक सुखों पर लात मारकर अवश्य उसी मार्ग पर चलूंगा और वन में फल_मूल खाकर कठोर तपस्या करूंगा। सवेरे तथा सायंकाल में स्नान करके विधिवत् अग्नि में आहुति डालूंगा और शरीर पर मृगछाला तथा बल्कि वस्त्र धारण कर मस्तक पर जटा रखूंगा। सर्दी_गर्मी, हवा तथा भूख_प्यास का कष्ट सहन करूंगा और शास्त्रोक्त विधि से तप करके अपने शरीर को सुखा डालूंगा। एकान्त में रहकर तत्व का विचार करूंगा और कच्चा_पक्का_जैसा भी फल मिल जायगा, उसी को खाकर जीवन_निर्वाह करूंगा। इस प्रकार वनवासी मुनियों के कठोर_से_कठोर नियमों का पालन करके इस शरीर की आयु समाप्त होने की बाट देखता रहूंगा। अथवा मुनिवृति से रहता हुआ मस्तक मुड़ा लूंगा और एक_एक दिन एक_एक वृक्ष से भिक्षा मांगकर देह को दुर्बल कर डालूंगा। प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर पेड़ के नीचे ही निवास करूंगा। किसी के लिये न शोक करूंगा न हर्ष । निंदा तथा स्तुति को समान समझूंगा। आशा और ममता को धो बहाकर निर्द्वन्द हो जाउंगा। कभी किसी भी वस्तु का संग्रह न करूंगा। आत्मा में ही रमण करता हुआ सदा प्रसन्न रहूंगा। दूसरों से कोई भी बात नहीं करूंगा तथा अंधों, गूंगों और बहरों की तरह विचरता रहूंगा। चर और अचर रूप में जो चार प्रकार के जीव हैं, उनमें से किसी की भी हिंसा नहीं करूंगा। सब प्राणियों पर मेरी समान वृद्धि होगी, न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा, न किसी को देखकर भौंहें टेढ़ी करूंगा। चेहरे पर सदा प्रसन्नता छायी रहेगी, सब इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में रखूंगा। कोई भी राह पकड़कर आगे बढ़ता रहूंगा, किसी से रास्ता नहीं पूछूंगा। किसी खास देश या दिशा में जाने की इच्छा न रखूंगा। यात्रा का कोई विशेष उद्देश्य न होगा; न आगे की उत्सुकता होगी न पीछे फिरकर देखूंगा।
चित्त में कोई भी विकार नहीं रहेगा, अन्तरात्मा पर दृष्टि रखूंगा और देहाभिमान से रहित हो जाऊंगा। भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन _इसका विचार नहीं करूंगा। एक घर से भिक्षा न मिली तो दूसरे घर से मांगूंगा, वहां भी न मिलने पर तीसरे घर से। इस प्रकार न मिलने की दशा में सात घरों तक मांगूंगा, आंठवएं पर नहीं जाऊंगा।जब घरों में धुआं निकलना बन्द हो गया हो, अंगारे बुझ गये हों, सब लोग खा_पी चुके हों, परोसी हुई थाली का इधर_उधर ले जाने का काम समाप्त हो गया हो, भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय में मैं एक ही समय भिक्षा के लिये जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बंधन तोड़कर पृथ्वी पर विचरता रहूंगा। न जीवन से राग होगा न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बांह बंसुले से काटता है और दूसरा दूसरी बांह पर चंदन चढ़ाता है तो मैं उन दोनों पर समान भाव ही रखूंगा। न एक का मंगल चाहूंगा न दूसरे का अमंगल। केवल शरीर निर्वाह के लिये पलकों के खोलने _मीचने तथा खाने_पीने आदि का कार्य करूंगा, परन्तु इसमें भी आसक्ति नहीं रखूंगा। संपूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन के संकल्प को अपने अधीन रखूंगा। बुद्धि के मल का परिमार्जन करके सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहूंगा। इस प्रकार वीतराग होकर विचरने से मुझे अक्षय शान्ति मिलेगी। इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं के आक्रमण होता ही रहता है; जिसके कारण यहां का जीवन कभी स्वस्थ नहीं रहता। इस अपार_सा संसार का तो त्यागने में ही सुख है।आज बहुत दिनों बाद मुझे विशुद्ध विवेकरूपी अमृत प्राप्त हुआ है; इसके द्वारा मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन स्थान को प्राप्त करना चाहता हूं। अतः उपर्युक्त धारणा के द्वारा निरंतर विचरता हुआ मैं जन्म, मृत्यु, व्याधि और वेदनाओं से भरे हुए इस शरीर का अन्त करके निर्भय पद को प्राप्त हो जाऊंगा।
यह सुनकर भीमसेन बोले_राजन् ! जब आपने राजधर्म की निंदा करके आलस्यपूर्ण जीवन करने का ही निश्चय कर रखा था तो बेचारे कौरवों का नाश कराने से क्या लाभ था ? आपका यह विचार यदि पहले ही मालूम हो गया होता तो हमलोग न हथियार उठाते, न किसी का वध करते। आपकी ही तरह शरीर त्यागने का संकल्प लेकर हम भी भीख ही मांगते। ऐसा करने से राजाओं के साथ यह भयंकर संग्राम तो नहीं होता। बुद्धिमान पुरुषों ने क्षत्रियों का यह धर।म बताया है कि ये राज्य पर अधिकार जमावें और यदि उसमें कुछ लोग बाधा उपस्थित करें तो उन्हें मार डालें। दुष्ट कौरव भी हमारे लिये राज्य_प्राप्ति में बाधक थे, इसीलिये हमने उनका वध किया है, अब आप धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का उपभोग कीजिये। अन्यथा हमलोगों का सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जायगा; जैसे कोई मनुष्य मन में किसी तरह की आशा रखकर बहुत बड़ी मंजिल तय कर लें और वहां पहुंचकने पर उसे निराश होकर लौटना पड़े, यही दशा हमलोगों की भी होगी। आप जिस संन्यास की बात सोचते हैं, उसका यह समय नहीं है। जिनकी विचारदृष्टि सूक्ष्म है, वे बुद्धिमान पुरुष ऐसे अवसर पर त्याग की प्रशंसा नहीं करते, वे तो इसे स्वधर्म का उल्लंघन समझते हैं। जो पुत्र _पौत्र के पालन में असमर्थ हो, देवता, ऋषि और पितरों का तर्पण न कर सके और अतिथियों को भोजन देने की शक्ति न रखता हो, ऐसा मनुष्य जंगलों में जाकर मौज से अकेला जीवन व्यतीत कर सकता है।आप जैसे शक्तिशाली पुरुषों का यह काम नहीं है। राजा को तो कर्म करना ही चाहिये; जो कर्मों को छोड़ बैठता है उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती। 
तत्पश्चात् अर्जुन ने कहा_महाराज ! इसी विषय में एक बार तपस्वियों के साथ इन्द्र का संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास में आपको सुनाता हूं। एक समय की बात है, कुछ कुलीन ब्राह्मण बालक_जो अभी बहुत नादान थे, जिन्हें मूंछ तक नहीं आयी थी_घर_बार छोड़कर जंगल में चले आये, संन्यासी बन गये। इसी को धर्म मानकर वे प्रसन्न थे। भाई_बन्धु और मां_बाप की सेवा से मुंह मोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने लगे। एक दिन उनपर इन्द्र देव की कृपा हुई। वे सुवर्णमय पक्षी का रूप धारण करके उनके पास गये और उन्हें सुनाकर कहने लगे_'यज्ञशिष्ठ अन्न भोजन करनेवाले महात्माओं ने जो कर्म किया है; वह दूसरे मनुष्यों से होना कठिन है। उनका यह कर्म बड़ा पवित्र और जीवन बहुत उत्तम है। उनका मनोरथ सफल हुआ और वे धर्मात्मा पुरुष उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं।' ऋषियों ने कहा_वाह ! यह पक्षी यज्ञशइष्ठ अन्न भोजन करनेवालों की प्रशंसा करता है, यह तो हमलोगों की ही प्रशंसा हुई; क्योंकि हमलोग ही यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं। पक्षी ने कहा_अरे ! मैं तुम्हारी प्रशंसा नहीं करता। तुम तो जूठा खानेवाले और मूर्ख हो, पाप_पंक में फंसे हुए हो। यज्ञशिष्ट अन्न खानेवाले तो दूसरे ही होते हैं। ऋषियों ने कहा_पक्षी ! यह बड़ा कल्याणकारी साधन है_ऐसा समझकर ही हम इस मार्गं का अवलम्ब किये बैठे हैं। अब तुम्हारी बात सुनकर तुमपर हमारी श्रद्धा हुई है, अतः: जो अत्यन्त कल्याण करनेवाला साधन हो, वहीं हमें बताओ। पक्षी ने कहा_यदि तुम्हारा मुझपर विश्वास है तो मैं यथार्थ बात बताता हूं, सुनो। चौपायों में गौ, धातुओं में सोना, शब्दों में प्रणव आदि मंत्र और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण के लिये जातकर्म आदि संस्कार शास्त्रविहित है; ब्राह्मण जबतक जीवित रहे, समय_समय पर उसका संस्कार होता रहना चाहिये। मरने के पश्चात् भी उसका श्मशान भूमि में अन्त्येष्टि_संस्कार तथा घर पर श्राद्ध आदि वेद_विधि के अनुसार होना उचित है। वेदोक्त यज्ञ_यागादि कर्म ही उसके लिये स्वर्ग में पहुंचाने वाले उत्तम मार्ग हैं। वैदिक कर्म ही सिद्धि का क्षेत्र है सभी प्राणी इसकी इच्छा रखते हैं। जहां इन कर्मों का विधिवत् संपादन होता है, वह गृहस्थ_आश्रम ही सबसे बड़ा आश्रम है। जो कर्म की निंदा करते हैं, उन्हें कुमार्गगामी समझना चाहिये। उन्हें बड़ा पाप लगता है। देव यज्ञ, पितृ यज्ञ और ब्रह्मयज्ञ_ ये ही तीन सनातन मार्ग हैं। जो मूर्ख इनका परित्याग कर और किसी मार्ग से चलते हैं, वे वेदविरुद्ध पथ का आश्रय लेनेवाले हैं। हवन के द्वारा देवताओं को, स्वाध्याय के द्वारा ऋषियों को और श्राद्ध द्वारा पितरों को तृप्त करना_यह सनातन धर्म है; इसका पालन करते हुए गुरुजनों की सेवा करना ही कठोर तप है। इस दुष्कर तपस्या को करके ही देवताओं ने बहुत बड़ी विभूति पायी है। जिनकी किसी के प्रति इर्ष्या नहीं है, जो सब प्रकार के द्वन्दों से रहित हैं, ऐसे ब्राह्मण इसी को तप मानते हैं। संसार में व्रत को ही तप कहते हैं, किन्तु वह इसकी अपेक्षा मध्यम श्रेणी का है। जो यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करते हैं, उन्हें अविनाशी पद की प्राप्ति होती है। देवताओं, पितरों, अतिथियों तथा परिवार के अन्य लोगों को अन्न देकर जो स्वयं सबसे पीछे खाते हैं, वे ही यज्ञशिष्ट भोजन करनेवाले कहे गये हैं। अपने धर्म पर आरूढ़ होकर सुन्दर व्रत का पालन और सत्य_भाषण करते हुए वे इस जगत् के गुरु समझे जाते हैं।

Thursday, 1 May 2025

युधिष्ठिर का घर छोड़कर वन में जाने का विचार और अर्जुन द्वारा इसका विरोध

नारदजी ने कहा_राजन् ! एकबार कर्ण की जरासंध के साथ भी मुठभेड़ हुई थी, उसमें परास्त होकर जरासंध ने कर्ण को अपना मित्र बना लिया और उसे चम्पा नगरी उपहार में दे दी। पहले कर्ण केवल अंगदेश का राजा था, किन्तु इसके बाद वह दुर्योधन की अनुमति से चम्पा ( चम्पारण ) में भी राज्य करने लगा। इसी प्रकार एक समय इन्द्र ने आपकी भलाई करने के लिये कर्ण से कवच और कुण्डलों की भीख मांगी थी। ये कवच और कुण्डल दिव्य थे तथा कर्ण के देह के साथ उत्पन्न हुए थे, तो भी उसने इन्द्र को ये दोनों वस्तुएं दान कर दीं। इसीलिए अर्जुन श्रीकृष्ण के सामने उसे मारने में सफल हो सके। एक तो उसे अग्निहोत्री ब्राह्मण तथा महात्मा परशुराम ने शाप दे दिया था, दूसरे उसने स्वयं भी कुन्ती कुन्ती को वरदान दिया था कि मैं तुम्हारे चार पुत्रों को नहीं मारूंगा। इसके सिवा महारथियों की गणना करते समय भीष्म ने कर्ण को 'अर्धरथी' कहकर अपमानित किया था, इसके बाद शल्य ने भी उसका तेज नष्ट कर दिया और भगवान् कृष्ण ने नीति से काम लिया। इतनी बातें तो कर्ण के विपरीत हुईं और अर्जुन को रुद्र, यम, वरुण, कुबेर, द्रोण तथा कृपाचार्य से दिव्यास्त्र प्राप्त हुए थे, जिनका उपयोग करके उन्होंने कर्ण का वध किया है। फिर भी वह युद्ध में मारा गया है, इसलिये शोक के योग्य नहीं है।वैशम्पायनजी कहते हैं_इतना कहकर देवर्षि नारद चुप हो गये और राजा युधिष्ठिर शोकमग्न हो चिंता में डूब गये। उनकी यह अवस्था देखकर कुन्ती शोक से विह्वल हो उठी और मधुर वाणी से अर्थभरे वचन कहने लगी_'बेटा ! कर्ण के लिये शोक न करो। चिंता छोड़ो और मेरी बात सुनो । मैंने और भगवान् सूर्य ने कर्ण को यह जताने की कोशिश की थी कि युधिष्ठिर आदि तुम्हारे भाई हैं। एक हितैषी सुहृद् को जो कुछ कहना चाहिये, सूर्यदेव ने वह सब कहां। उन्होंने उसे स्वप्न में तथा मेरे सामने बहुत समझाया। परन्तु हमलोग अपने प्रयत्न में सफल न हो सके। वह मौत के वशीभूत होकर बदला लेने को तैयार था, इसलिये मैंने भी उसकी उपेक्षा कर दी।' माता की बात सुनकर धर्मराज के नेत्रों में आंसू भर आये। वे शोक से व्याकुल होकर कहने लगे।'मां ! तुमने यह रहस्यमयी बात छिपा रखी थी, इसीलिये आज मुझे कष्ट भोगना पड़ता है।' फिर उन्होंने दु:खी होकर संसार की सब स्त्रियों को शाप दे दिया _'आज से कोई भी स्त्री गुप्त बात छिपाकर न रख सकेगी।' इसके बाद वे मरे हुए पुत्र_पौत्र, संबंधी तथा सुहृदों को याद करके बहुत विकल हो गये और अर्जुन की ओर देखकर कहने लगे_'अर्जुन ! यदि हमलोग वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी क्षत्रियों के नगरों में जाकर भिक्षा से अपना जीवन_निर्वाह कर लेते तो आज अपने कुटुंब को निर्वंश करके हमें यह दुर्गति नहीं भोगनी पड़ती। क्षत्रिय के आचार और उसके बल, पौरुष तथा अमर्ष को भी धिक्कार है, जिनके कारण हम इस विपत्ति में पड़ गये। क्षमा, दम, शौच, वैराग्य, मात्सर्य का अभाव, अहिंसा और सत्य बोलना _ये वनवासियों के धर्म ही श्रेष्ठ हैं। किन्तु हमलोग तो लोभ और मोह के कारण राज्य पाने की इच्छा से दम्भ और मान का आश्रय ले इस दुर्दशा में फंसे गये हैं। इस समय तीनों लोकों का राज्य देकर भी कोई हमें प्रसन्न नहीं कर सकता ! हाय ! हमने इस पृथ्वी पर अधिकार पाने के लिये अवध्य राजाओं की भी हत्या की और अब अपने बन्धु_बांधवों के बिना हम अर्ध भ्रष्ट की भांति जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ओह ! जिन बांधवों का हमने वध किया है उन्हें तो सारी पृथ्वी, सुवर्ण के ढेर और बहुत _सेज्ञगाय घोड़े आदि की प्राप्ति होने पर भी हमें नहीं मारना चाहिये था; किन्तु हमने उन्हें मार ही डाला। यह शोक हमें चैन लेने नहीं देता।
धनंजय ! सुना है मनुष्य का किया हुआ पाप शुभ कर्मों के आचरण से, दूसरों को कहकर सुनाने से, पश्चाताप से तथा दान, तप, त्याग, तीर्थयात्रा एवं श्रुति स्मृतियों का पाठ करने से भी नष्ट होता है। श्रुति ने कहा है कि त्यागी पुरुष को जन्म_मरण की प्राप्ति नहीं होती_वह अमृतत्व को प्राप्त होता है। इसके अनुसार योग मार्ग को प्राप्त करके जब बुद्धि स्थिर हो जाती है, उस समय मनुष्य परमआत्वभआव को प्राप्त हो जाता है। यह सोचकर मैं भी शीत_उष्ण आदि द्वन्दधर्मओं से रहित हो मुनिवृति से रहकर ज्ञानोपार्जन करना चाहता हूं। इसलिये मैंने सारा संग्रह, संपूर्ण राज्य तथा सुख_भोग आदि को त्याग देने का निश्चय किया है। अब मैं ममता और शोक से रहित हो सब प्रकार के बंधनों से छूटकर कहीं जंगल में चला जाऊंगा, मुझे राज्य अथवा भोगों से कोई मतलब नहीं है। यह कहकर जब धर्मराज चुप हो गये तो अर्जुन यह कहकर जब धर्मराज चुप हो गये तो अर्जुन बोले_'महाराज ! यह बहुत अफसोस की बात है और हददर्जे की कायरता है, जो आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राज्यलक्ष्मी को ठुकरा देने के लिये उद्यत हुए हैं। यदि त्याग ही देना था तो क्रोध में आकर इसी के लिये तमाम राजाओं की हत्या क्यों करायी ? अपने समृद्धिशाली राज्य का परित्याग करके जब हाथ में खप्पर लेकर घर_घर भीख मांगते फिरेंगे, उस समय संसार क्या कहेगा ?बोले_'महाराज ! यह बहुत अफसोस की बात है और हददर्जे की कायरता है, जो आप अलौकिक पराक्रम करके प्राप्त की हुई इस उत्तम राज्यलक्ष्मी को ठुकरा देने के लिये उद्यत हुए हैं। यदि त्याग ही देना था तो क्रोध में आकर इसी के लिये तमाम राजाओं की हत्या क्यों करायी ? अपने समृद्धिशाली राज्य का परित्याग करके जब हाथ में खप्पर लेकर घर_घर भीख मांगते फिरेंगे, उस समय संसार क्या कहेगा ? क्या कारण है कि सब प्रकार के शुभ कर्मों का अनुष्ठान छोड़कर अशुभ एवं अकिंचन बनकर आप गंवार मनुष्यों की तरह भिक्षा मांगना पसंद करते हैं। इस उत्तम राजवंश में जन्म लेकर संपूर्ण पृथ्वी को अपने अधीन करके अब आप धर्म और अर्थ का परित्याग कर वन की ओर जा रहे हैं ! यह मूर्खता नहीं तो क्या है ? जब आप ही हवन एवं यज्ञ_यागादि कर्मों को त्याग देंगे तो दूसरे असाधु पुरुष आपका ही आदर्श सामने रखकर यज्ञों का उच्छेद कर डालेंगे। उस दशा में इसका सब पाप आपको लगेगा। सर्वस्व त्यागकर अकिंचन हो जाना, दूसरे दिन के लिये संग्रह न करके प्रतिदिन मांगकर खाना _यह मुनियों का धर्म है, राजाओं का नहीं; राजधर्म का पालन तो धन से ही होता है। महाराज ! धन से धर्म भी होता है, लौकिक कामनाएं भी पूर्ण होती हैं और स्वर्ग का साधनभूत यज्ञ भी सम्पन्न होता है; यही नहीं, धन के बिना तो संसार की जीविका ही नहीं चल सकती। जिसके पास धन होता है उसी के पास बहुत _से मित्र  तथा बन्धु_बान्धव होते हैं वहीं मर्द समझा जाता है और वही पण्डित माना जाता है। निर्धन मनुष्य जब धन चाहता है तो उसे उसकी प्राप्ति कठिन हो जाती है; मगर धनवान का धन बढ़ता रहता है। जैसे जंगल में एक हाथी के पीछे बहुत _से हाथी चले आते हैं, उसी प्रकार धन ही धन को खींच लाता है। धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्ति, आनन्द तथा शास्त्रों का अभ्यास _ये सब कुछ सम्भव है। धन से वंश की मर्यादा बढ़ती है और धन से धर्म की भी वृद्धि होती है, निर्धन को  न तो इस लोक में सुख है न परलोक में ! क्योंकि धन के बिना मनुष्य धार्मिक कृत्यों का विधिवत् अनुष्ठान नहीं कर सकता। जिनके पास धन की कमी है, गऔओं और सेवकों का अभाव है, जिसके यहां अतिथियों का आना_जाना नहीं होता, वही मनुष्य दुर्बल है। केवल शरीर की दुर्बलता से कोई दुर्बल नहीं कहा जाता। राजा को हर तरह से धन संग्रह करना चाहिये और उसके द्वारा यत्नपूर्वक यज्ञादि का अनुष्ठान भी करते रहना चाहिये। यही सनातन काल से वेदों की भी आज्ञा है धन से ही मनुष्य यज्ञ करते और कराते हैं, पढ़ने _पढ़ाने का कार्य भी धन से ही सम्पन्न होता है। राजा लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका तन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभकर्मों का अनुष्ठान करते हैं। किसी भी राजा के पास हम ऐसा धन नहीं देखते, जो दूसरों के यहां से न आया हो। प्राचीनकाल में जो राजर्षि हो गये हैं और इस समय स्वर्ग में निवास करते हैं, उन्होंने भी राजधर्म की ऐसी ही व्याख्या की है। राजन् ! पहले यह पृथ्वी राजा दिलीप के अधिकार में थी; फिर क्रमश: इसपर नृग, नहुष, अम्बरीष और मान्धाता का अधिपत्य हुआ। वहीं आज आपके अधीन हुई है। अतः उन्हीं राजाओं की भांति आपके लिये भी, जिसमें सब कुछ दक्षिणा के रूप में दान कर दिया जाता है वैसे सर्वस्वदक्षिण नामक द्रव्यमान यज्ञ करने का समय प्राप्त हुआ है। जिनका राजा दक्षिणायुक्त अश्वमेध यज्ञ करता है, वे सभी प्रजाएं उस यज्ञ के अन्त में अवभऋथ_स्नान करके पवित्र होती है। अतः आप समस्त प्राणियों के कल्याणार्थ यज्ञ कीजिये। क्षत्रियों के लिये यही सनातन मार्ग है, यही अभ्युदय का पथ है।'





Thursday, 17 April 2025

शान्ति पर्व ____शोकाकुल युधिष्ठिर को शान्त्वना देते हुए देवर्षि नारद का उन्हें कर्ण का पूर्वचरित्र सुनाना

नारायणं नमस्यकृत्यं नरं चैव नरोत्तम। देवीं सरस्वतीं व्यासं तो जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अंत:करण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं_अपने समस्त सुहृदों को जलांजलि देने के पश्चात् पाण्डव, विदुर, धृतराष्ट्र तथा भरतवंश की संपूर्ण स्त्रियां आत्मशुद्धि के लिये एक मास तक नगर से बाहर गंगा तट पर टिकी रहीं। उस समय धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के पास बहुत से सिद्ध, महात्मा तथा ब्रह्मर्षि पधारे। इनमें द्वैपायन व्यास, नारद, देवल, देवस्थान, कण्व तथा इन सबके शिष्य भी थे। इनके अतिरिक्त भी अनेक वेदवेत्ता ब्राह्मण, गृहस्थ एवं स्नातक पधारे थे। राजा युधिष्ठिर ने उन सब महर्षियों का विधिवत् पूजन किया। इसके बाद वे उनके दिये हुए बहुमूल्य आसनों पर विराजमान हुए। समयोचित पूजा स्वीकार करके वे ऋषि _महर्षि गंगा के पावन तट पर शोक से व्याकुल हुए महाराज युधिष्ठिर को धैर्य बंधाने लगे।
सबसे पहले नारदजी ने व्यास आदि मुनियों से वार्तालाप करके राजा युधिष्ठिर के प्रति इस प्रकार कहा_'राजन् ! आपने अपने बाहुबल तथा भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से इस संपूर्ण पृथ्वी पर धर्मपूर्वक विजय पायी है। सौभाग्य की बात है कि आप इस भयंकर संग्राम में जीते_जागते बच गये। अब क्षत्रिय धर्म के पालन में तत्पर रहते हुए आप प्रसन्न तो हैं न ? इस राज्यलक्ष्मी को पाकर आपको कोई शोक तो नहीं सताता ?युधिष्ठिर ने कहा_मुनिवर ! भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रय, ब्राह्मणों की कृपा तथा भीम और अर्जुन के बल से मैंने संपूर्ण पृथ्वी पर विजय तो पा ली; परन्तु मेरे हृदय में प्रतिदिन यह एक महान् दु:ख बना रहता है कि मैंने लओभवश अपने कुल का संहार करा दिया।सुभद्राकुमार अभिमन्यु और द्रौपदी के प्यारे पुत्रों को मरवाकर अब यह विजय भी पराजय_सी ही जान पड़ती है। द्रौपदी सदा हमलोगों का प्रिय तथा हित करने में लगी रहती है, इस बेचारी के पुत्र और भाई सब मारे गये, जब इसकी ओर देखता हूं तो मुझे बहुत कष्ट होता है। नारदजी ! यह सब दु:ख तो था ही, एक दूसरी बात और बता रहा हूं, मेरी माता कुन्ती कुन्ती ने कर्ण के जन्म का रहस्य छिपाकर मुझे और भी दु:ख में डाल दिया है। जिनमें दस हजार हाथियों का बल था, संसार में जिनकी समानता करनेवाला कोई भी महारथी नहीं था, जो बुद्धिमान, दाता, दयालु और व्रत का पालन करनेवाले थे, जिनमें शौर्य का पूरा अभिमान था, जो फुर्ती से अस्त्र चलानेवाले तथा विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेवाले थे, जिनका पराक्रम अद्भुत था, उन विद्वान् कर्ण को माता कुन्ती ने ही गउप्तररूप से जन्म दिया था, वे हमलोगों के भाई थे। जलदान करते समय कुन्ती ने यह रहस्य बताया कि वे भगवान् सूर्य के अंश से उत्पन्न हुए थे। पूर्वकाल की बात है जब कुन्ती के गर्भ से सर्वगुण संपन्न कर्ण का प्रादुर्भाव हुआ, उस समय माता ने इन्हें पेंटी में रखकर गंगा की धारा में बहा दिया था। जिन्हें सारा संसार राधा का पुत्र समझता था, वे कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र और हमलोगों के सहोदर भाई थे। मैंने अनजान में राज्य के लोभ से अपने भाइयों को मरवा डाला_यह स्मरण करके मेरे बदन में आग_सी लग जाती है। हम पांचों में से कोई भी उन्हें अपने भाइ के रूप में नहीं जानता था, किन्तु वे हमलोगों को जानते थे। सुना है मेरी माता कुन्ती हमलोगों से सन्धि कराने के लिये उनके पास गयी थीं; इन्होंने बताया 'बेटा ! तुम राधा के नहीं, मेरे पुत्र हो।' किन्तु कर्ण ने इनकी अभिलाषा नहीं पूरी की_वे सन्धि के लिये नहीं सहमत हुए। उन्होंने यही उत्तर दिया_'मां ! मैं राजा दुर्योधन को छोड़ने में असमर्थ हूं। यदि तुम्हारी बात मानकर युधिष्ठिर से सन्धि कर लेता हूं तो नीच, नृशंस और कृतध्न समझा जाऊंगा। लोग यही कहेंगे कि कर्ण अर्जुन से डर गया। इसलिये समर में श्रीकृष्ण सहित अर्जुन को जीत लेने के पश्चात् मैं युधिष्ठिर से सन्धि करूंगा।' यह सुनकर कुन्ती ने कहा, 'अच्छी बात है;तुम अर्जुन से युद्ध करो, किन्तु शेष चार भाइयों को अभयदान दे दो।' इतना कहकर माता कांपने लगीं, इनकी यह अवस्था देख बुद्धिमान कर्ण ने कहा_'देवि ! तुम्हारे चार पुत्र मेरे चंगुल में फंसे जायेंगे, तो भी उन्हें जान से नहीं मारूंगा। यदि मैं मारा गया तो अर्जुन रहेंगे, अर्जुन मरे तो मैं रहूंगा; इस प्रकार तो तुम्हारे पांच पुत्र तो हर हालत में जीवित रहेंगे।' कुन्ती बोलीं _'बेटा ! अपने भाइयों का कल्याण करना।' फिर ये घर चली आयीं। इस रहस्य को न तो कुन्ती ने प्रकट किया, न कर्ण ने; इसलिये भाई के हाथ से सहोदर भाई का वध हुआ _अर्जुन ने वीरवर कर्ण को मार डाला। इससे मेरे हृदय को बड़ी व्यथा हो रही है। कर्ण और अर्जुन की सहायता पाकर तो मैं इन्द्र को भी जीत सकता था। धृतराष्ट्र के दुरात्मा पुत्र जब सभा में द्रौपदी को क्लेश दे रहे थे और कर्ण की कठोर बातें सुनायी देतीं थीं, उस समय मुझे सहसा रोष चढ़ आता था, किंतु कर्ण के चरणों पर दृष्टि जाते ही शान्त हो जाता था। मुझे कर्ण के दोनों पैर माता कुन्ती के चरणों जैसे ही मालूम होते थे। किन्तु बहुत सोचने पर भी मैं इसका कारण नहीं जान पाता था। भगवन् ! कर्ण के पहिये को पृथ्वी क्यों निगल गयी मेरे भाई को ऐसा श्राप क्यों प्राप्त हुआ ? यह मुझे बताइये। मैं आपसे ये सभी बातें ठीक_ठीक सुनना चाहता हूं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं, भूत_भविष्य की सारी बातें जानते हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर नारद मुनि कर्ण को जिस तरह शाप प्राप्त हुआ था, वह सारी कथा कहने लगे_'भारत ! यह देवताओं की गुप्त बात है, किन्तु मैं तुम्हें बता रहा हूं। एक समय सब देवताओं ने विचार किया कि कौन सा ऐसा उपाय हो, जिससे भूमण्डल का सारा क्षत्रिय_समाज शस्त्रों के आघात से पवित्र होकर स्वर्ग सिधारे। यह सोचकर उन्होंने सूर्य द्वारा कुमारी कुन्ती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न कराया। वहीं कर्ण हुआ। उसने आचार्य द्रोण से धनुर्वेद का अभ्यास किया। वह बचपन से ही भीमसेन का बल, अर्जुन की अस्त्र चलाने में फुर्ती, आपकी बुद्धि, नकुल_सहदेव की विनय तथा श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की मित्रता देखकर जला करता था आपके ऊपर प्रजा का अनुराग जानकर वह चिन्ता से दग्ध होता रहता था। इसलिये उसने बाल्यकाल में ही राजा दुर्योधन से मित्रता कर ली।' 'धनंजय का धनुर्विद्या में अधिक पराक्रम देखकर एक दिन कर्ण ने द्रोणाचार्य से एकांत में कहा_'गुरुदेव ! मैं ब्रह्मास्त्र को छोड़ने और लौटाने की विद्या जानता हूं।' कर्ण की अर्जुन के साथ जजों लाग_डांट थी, उसे द्रोणाचार्य जानते थे; उसकी दुष्टता से भी वे अपरिचित नहीं थे। इसीलिए उसकी प्रार्थना सुनकर उन्होंने कहा_'कर्ण ! शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय ही ब्रह्मास्त्र सीखने का अधिकारी है, दूसरा नहीं।' उनके ऐसा कहने पर कर्ण ने 'बहुत अच्छा' कहकर उनका सम्मान किया। फिर उनकी आज्ञा लेकर वह सहसा वहां से चल दिया। जाते_जाते महेंन्द्र पर्वत पर पहुंचा और परशुरामजी के निकट जा भृगुवंशी ब्राह्मण के रूप में अपना परिचय दे उसने गुरु बुद्धि से उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया और शिष्यभाव से उनकी शरण में गया। परशुरामजी ने भी गोत्र आदि पूछकर उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया और कहा 'वत्स ! तुम्हारा स्वागत है, तुम प्रसन्नतापूर्वक यहां रहो।' "कर्ण महेंन्द्र पर्वत पर रहकर अभ्यास करने लगा। उस समय वहां उसे गन्धर्व, राक्षस, यक्ष तथा देवताओं से मिलने का अवसर प्राप्त होते रहता था। इसलिये उन सके साथ उसका बड़ा प्रेम हो गया। एक दिन की बात है, वह आश्रम के पास ही समुद्र के किनारे _किनारे टहल रहा था। अकेला था तथा हाथों में तलवार तथा धनुष लिये हुए था। उसी समय एक वेदपाठी की गौ उधर आ निकली। मुनि अग्निहोत्र में लगे हुए थे। कर्ण ने अनजान में उसे कोई हिंसक जीव समझकर मार डाला। जब मालूम हुआ तो उसने अपने अज्ञानवश किये हुए अपराध को ब्राह्मण को जाकर कह सुनाया। ब्राह्मण देवता को प्रसन्न करने के लिये कर्ण बोला_'भगवन् ! मैंने नजआन में आपकी यह गाय मार डाली है; इसलिये आप मुझपर कृपा करके यह अपराध क्षमा कर दीजिये।' "ब्राह्मण बिगड़ उठा और उसको डांटता हुआ बोला_'दुराचारी ! तू मार डालने योग्य है; ले, इस पाप का फल भोग ! अन्त समय में पृथ्वी तेरे रथ के पहिये को निगल जायगी; उस समय तू घबराया होगा उसी अवस्था में, शत्रु तेरा मस्तक काट डालेगा।' यह शाप सुनकर कर्ण ने बहुत _सी गौएं, धन तथा रत्न दे ब्राह्मण को प्रसन्न करने की चेष्टा की। तब उसने फिर कहा_'सारा संसार मिलकर भी मेरी बात झूठी नहीं कर सकता।' उसके ऐसा कहने पर कर्ण को बड़ा भय हुआ। दीनता से उसका मुंह नीचे की ओर झुक गया। फिर मन_ही_मन इस दुर्घटना को याद करता हुआ वह परशुरामजी के पास लौट आया। "कर्ण की भुजाओं का बल, गुरु के प्रति उसका प्रेम, इन्द्रियसंयम तथा सेवाभाव को देखकर परशुरामजी उसपर बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने प्रयोग और उपसंहार सहित संपूर्ण ब्रह्मास्त्र विद्या उसे विधिपूर्वक सिखा दी। तदनन्तर एक दिन परशुरामजी कर्ण के साथ अपने आश्रम के पास ही घूम रहे थे। उपवास करने के कारण उनका शरीर दुर्बल हो गया था, अतः थकावट आ जाने से उन्हें नींद सताने लगी। कर्ण के ऊपर उनका पूर्ण विश्वास और स्नेह था, इसीलिये उसकी गोद में सिर रखकर सो गये। इतने में लार, मज्छआ, मांस और रक्त का आहार करनेवाला एक भयंकर कीड़ा, जो बड़ा तीखा डंक मारता था, कर्ण के पास आया और उसकी जांघ पर चढ़ गया। जांघ में घाव करके वह उसका रक्तपान करने लगा। इस प्रकार कीड़े के काटने से उसे व्यथा होती रही; किन्तु उसने धैर्यपूर्वक उसे सहन किया और गुरु के जाग उठने के डर से कीड़े को नहीं हटाया, बल्कि उसकी ओर से उपेक्षा कर दी। "कर्ण के देह से निकले हुए रक्त की धारा से जब परशुरामजी का शरीर भींगने लगा तो वे सहसा जाग उठे और शंकित होकर बोले_'अरे ! तू तो अशुद्ध हो गया ! यह क्या कर रहा है ? भय छोड़कर ठीक _ठीक बता।' तब कर्ण ने उन्हें कीड़े के काटने की बात बता दी। ज्योंहि उन्होंने उस कीट की ओर दृष्टिपात किया, उसके प्राण _पखेरू उड़ गये; यह एक अद्भुत घटना हुई। इतने में एक भयंकर राक्षस आकाश में खड़ा दिखाई दिया। वह दोनों हाथ जोड़कर परशुरामजी से बोला_'मुनिवर ! आपने मुझे इस नरक के कष्ट से छुटकारा दिला दिया, यह मेरा बड़ा प्रिय कार्य हुआ । मैं आपको प्रणाम करता हूं और अब जहां से आया था वहीं जा रहा हूं।' परशुरामजी ने पूछा 'अरे ! तू कौन है और कैसे इस नरक में पड़ा था ?' उसने उत्तर दिया _'तात !  सतयुग की बात है, मैं दंश नामक असुर था। एक दिन मैंने भऋगउमउनइ की प्राण प्यारे पत्नी का बलपूर्वक अपहरण किया; इस क्रोध में आकर महर्षि ने यह शाप दिया _'पापी ! तू कीड़ा होकर नरक में पड़ेगा।' तब मैंने उनसे प्रार्थना की 'ब्रह्मण् ! इस शाप का अन्त भी होना चाहिएये।' उन्होंने कहा 'मेरे वंश में उत्पन्न हुए परशुराम की दृष्टि पड़ने से इस शाप का अन्त होगा।' इस प्रकार मैं इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ था और आज आपका समागम होने से मेरा इस पाप योनि से उद्धार हुआ है।' यह कहकर वह महान् असुर परशुरामजी को प्रणाम करके चला गया। "अब परशुरामजी ने क्रोध में भरकर कर्ण से कहा_'मूर्ख ! तूने इस कीड़े के काटने की जो भयंकर पीड़ा बर्दाश्त की है, इसे ब्राह्मण कभी नहीं सह सकता। तेरा धैर्य तो क्षत्रिय के समान जान पड़ता है। सच_सच बता, तू कौन है ?' उनका प्रश्न सुनकर कर्ण शाप के भय से उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करता हुआ बोला_'ब्रह्मण् !मैं ब्राह्मण और क्षत्रिय से भिन्न सूत जाति में उत्पन्न हुआ हूं। लोग मुझे राधा का पुत्र कर्ण कहते हैं। ब्रह्मास्त्र के लोभ से मैंने झूठा परिचय दिया था, मुझपर कृपा कीजिये। विद्या प्रदान करनेवाला गुरु नि:संदेह पिता के समान ही है, इसीलिये आपके निकट अपना भार्गव_गोत्र बतलाया था।' "यह कहकर कर्ण दीनभाव से हाथ जोड़कर उनके सामने पृथ्वी पर पड़ गया और थर_थर कांपने लगा। यह देख परशुरामजी ने हंसते हुए_से कहा_'मूर्ख ! तूने ब्रह्मास्त्र के लोभ से झूठ बोलकर मेरे साथ कपट किया है, इसलिये जब संग्राम में तू अपने समान योद्धा से युद्ध करेगा तो तेरी मृत्यु निकट आ जायगी, उस समय तुझे मेरे दिये हुए ब्रह्मास्त्र का स्मरण नहीं रहेगा। अब तू यहां से चला जा, मिथ्यावादी के लिये यहां स्थान नहीं है। परन्तु मेरे आशीर्वाद से युद्ध में कोई भी क्षत्रिय तरी समानता नहीं कर सकेगा।' परशुरामजी के ऐसा कहने पर कर्ण उन्हें प्रणाम करके वहां से लौट आया और दुर्योधन से बोला_मैं ब्रह्मास्त्र सीख आया।"





Monday, 24 March 2025

सब स्त्रियों का अपने सम्बन्धियों जलांजलि देना तथा कुन्ती के मुख से कर्ण के जन्म का रहस्य खुलने पर भाइयों के सहित राजा युधिष्ठिर का शोकाकुल होना

सब स्त्रियों का अपने सम्बन्धियों जलांजलि देना तथा कुन्ती के मुख से कर्ण के जन्म का रहस्य खुलने पर भाइयों के सहित राजा युधिष्ठिर का शोकाकुल होना


वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! सबलोग साधुजन सेवित पुण्यतोया भागीरथी नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने अपने आभूषण और दुपट्टे उतार दिये। फिर कुरुकुल की स्त्रियों ने अत्यंत दु:खित होकर रोते_रोते अपने पुत्र और पतियों को जलांजलि दी तथा धर्मविधि को जाननेवाले पुरुषों ने भी अपने सुहृदों को जलदान किया। जिस समय वे वीर पत्नियां जलदान कर रही थीं, शोकाकुला कुन्ती नू रोते_रोते धीमे स्वर में कहा, 'पुत्रों ! जिसे अर्जुन ने संग्राम में परास्त किया है, जो वीरों के सभी लक्षणों से सम्पन्न था, जिसे तुम राधा की कोख से उत्पन्न हुआ सूतपुत्र मानते हो, जिसने दुर्योधन की सारी सेना का नियंत्रण किया था, पराक्रम में जिसके समान प‌थ्वी में कोई भी राजा नहीं था और जो दिव्य कवच एवं कुण्डल धारण किये था, वह सूर्य के समान तेजस्वी कर्ण तुम्हारा बड़ा भाई था। भगवान् सूर्य के द्वारा मेरे उदर से उत्पन्न हुआ था। उसके लिये तुम जलांजलि दो।' माता के ये अप्रिय वचन सुनकर सभी पाण्डव कर्ण के लिये शोकाकुल होकर बड़े उदास हो गये। फिर राजा युधिष्ठिर ने लम्बी _लम्बी सांसें लेते हुए राजा से पूछा, 'माताजी ! कर्ण तो साक्षात् समुद्र के समान गम्भीर थे, उनकी वाणवर्षा के सामने अर्जुन के समान और कोई वीर टिक नहीं सकता था, उन्होंने किस प्रकार देवपुत्र होकर आपके गर्भ से जन्म लिया था ! वैसे कोई आग को कपड़े से ढ़ांप ले, उसी प्रकार आपने इस बात को अबतक कैसे छिपा रखा था ? हम जैसे अर्जुन के बाहुबल का भरोसा रखते, उसी प्रकार कौरवों को तो उन्हीं के बल का भरोसा था। ओह ! इस रहस्य को छिपाकर तो आपने हमारा सत्यनाश ही कर दिया। आज कर्ण की मृत्यु से हम सब भाइयों को बड़ा दु:ख हो रहा है।  अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, पांचालवीर और कौरवों के मारे जाने से मुझे जितना दु:ख है, उससे सऔगउनआ कर्ण की मृत्यु से हो रहा है। अब तो मुझे कर्ण किसी शोक है, उससे मैं ऐसे जल रहा हूं, मानो किसी ने आग लगा दी हो। यदि हमें यह बात मालूम होती तो हमारे लिये पृथ्वी की तो क्या, स्वर्ग की भी कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती। फिर तो यह कुरुकुल को उच्छेद करनेवाला भीषण संग्राम भी न होता।'
इस प्रकार तरह_तरह से अत्यंत विलाप करके धर्मराज युधिष्ठिर ने रोते _रोते कर्ण को जलांजलि दी। उस समय वहां सहसा सभी स्त्रियां रो पड़ीं। इसके बाद कुरुराज युधिष्ठिर ने भ्रातृप्रेमवश कर्ण की सब स्त्रियों को वहां बुलवाया और उनको साथ लेकर शास्त्रविधि से कर्ण का प्रेतकर्म किया। फिर वे कहने लगे, 'मैं बड़ा पापी हूं, मैंने न जानने के कारण ही अपने बड़े भाई का वध करा दिया। अतः उनकी पत्नियों के हृदय मेरे प्रति कोई छिपा हुआ द्वेष हो तो वह दूर हो जाना चाहिये।' ऐसा कहकर वे विकल चित्त से गंगाजी से बाहर निकले और अपने सब भाइयों के सहित तट पर आये।

स्त्री पर्व समाप्त



Wednesday, 19 March 2025

राजा धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर की बातचीत तथा मरे हुए योद्धाओं का दाहकर्म

श्रीकृष्ण कहने लगे_गान्धारी ! उठो, उठो, मन में शोक मत करो। इन कौरवों का संहार तो तुम्हारे ही अपराध से हुआ है। तुम अपने दुष्ट पुत्र को भी बड़ा साधु समझती थी। जो बड़ा ही निष्ठुर, व।अर्थ और वैर बांधनेवाला और बड़े _बूढ़ों की आज्ञा का भी उल्लंघन करनेवाला था, उसी दुर्योधन को तुमने सिर पर चढ़ाकर रखा था। फिर अपने किये हुए अपराध को तुम मेरे माथे क्यों मढ़ती हो? वैशम्पायनजी कहते हैं_श्रीकृष्ण के ये अप्रिय वचन सुनकर गांधारी चुप रह गयी। फिर धर्म को जाननेवाले राजर्षि धृतराष्ट्र ने अपने अज्ञान जनित मोह को दबाकर धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा, 'युधिष्ठिर ! इस युद्ध में जो सेना मारी गयी है, उसके परिमाण का तुम्हें पता हो तोहमें बताओ। युधिष्ठिर ने कहा_महाराज ! इस युद्ध में एक अरब छाछठ करोड़, बीस हजार वीर मारे गये हैं। इनके सिवा चौदह हजार योद्धा अज्ञात हैं और दस हजार एक सौ पैंसठ वीरों का पता नहीं है। धृतराष्ट्र ने पूछा_महाबाहो ! मैं तुम्हें सर्वज्ञ मानता हूं, इसलिये यह तो बताओ, उन सबकी क्या गति हुई है ? युधिष्ठिर बोले_ महाराज !  जिन सच्चे वीरों ने इस युद्ध अग्नि में अपने शरीरों को हर्षपूर्वक होता है, वे तो इनके समान ही पुण्य लोक को प्राप्त हुए हैं; जो यह सोचकर कि 'एक दिन मरना तो है ही, इसलिये लड़कर ही मर जाओ' हर्षहीन हृदय से लड़ते-लड़ते मारे गये हैं, वे गन्धर्वों के साथ जा मिले हैं और जो संग्रामभूमि में रहते हुए भी प्राणों की भिक्षा मांगते या युद्ध से भागते हुए शस्त्रों द्वारा मारे गये हैं, वे यक्षों के लोक में गये हैं। किन्तु जिन महापुरुषों को शत्रुओं ने गिरा दिया था, जिनके पास युद्ध करने का कोई साधन भी नहीं रहा था, जो शस्त्रहीन हो गये थे और बहुत लज्जित होकर भी जिन्होंने शत्रुओं के सामने पीठ नहीं दिखायी_इस प्रकार क्षात्रधर्म का पालन करते हुए जो तीखे शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो गये थे, वे तो ब्रह्मलोक को ही गये हैं _इस विषय में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। इसके सिवा जो लोग किसी भी प्रकार इस युद्धभूमि के भीतर मार दिये गये हैं, वे उत्तर कुरु देश में जन्म लेंगे। धृतराष्ट्र ने पूछा_बेटा ! तुम्हें ऐसा कौन सा ज्ञानबल प्राप्त है, जिससे इन बातों को तुम सिद्धों के समान देख रहे हो ? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो मुझे बताओ।
युधिष्ठिर बोले_पिछले दिनों में आपकी आज्ञा से वन में विचरते समय जब मैं तीर्थयात्रा कर रहा था, उस समय मुझे देवर्षि लौमशजी के दर्शन हुए थे। उन्हीं से मुझे यह अनुस्मृति प्राप्त हुई थी और उससे भी पहले ज्ञानयोग के प्रभाव से मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी थी। धृतराष्ट्र ने कहा_युधिष्ठिर ! यहां जो अनेकों अनाथ और सनाथ योद्धा मरे पड़े हैं, क्या उनके शरीरों को तुम विधिवत् दाह करा दोगे ? इनमें अनेकों ऐसे होंगे जो न तो अग्निहोत्री रहे होंगे और न उनका संस्कार करनेवाला ही कोई होगा। भैया ! यहां तो बहुतों के अन्त्येष्टि कर्म करने हैं, हम किस_किसका करें ? राजा धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर ने कौरवों के पुरोहित सुधर्मा और अपने पुरोहित धौम्य को तथा संजय, विदुर, युयुत्सु इन्द्र सेन आदि सेवक और सब सारथियों को आज्ञा दी कि 'आपलोग विधिपूर्वक इन सभी के प्रेतकर्म कराइये, जिससे कोई भी शरीर अनाथ की तरह नष्ट न हो।' धर्मराज की आज्ञा पाते ही सबलोग चन्दन, अगर, काष्ठ, घी, तेल सुगन्धित द्रव्य और रेशमी वस्त्र आदि सब सामान जुटाने में लगे गये। उन्होंने टूटे_फूटे रथ और तरह_तरह के शस्त्रोंके ढ़ेर लगा दिये। फिर बड़ी तत्परता से चिताएं तैयार कर उनपर मुख्य_मुख्य राजाओं के शव रखकर शास्त्रोक्त विधि से उनका दाहकर्म कराया। राजा दुर्योधन, उसके निन्यानवे भाई, राजा शल्य, शल, भूरिश्रवा, जयद्रथ, अभिमन्यु, दु:शासन के पुत्र, लक्ष्मण, धृष्टकेतू, बऋहन्त, सोमदत्त, सैकड़ों सृंजयवीर, राजा क्षेमधन्वा, विराट, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र, शकुनि, अचल, वृषक, भगदत्त, कर्ण, कर्ण के पुत्र, केकयराज, त्रिगर्तराज, घतोत्कच, अलंबउष और जरासंध_इन सबका तथा और भी हजारों राजाओं का उन्होंने धृत की धाराओं में प्रज्जवलित हुई अग्नि में दाह कराया किन्हीं_किन्हीं के लिये श्राद्धकर्म भी कराये गये, किन्हीं के लिये सामान कराया गया और किन्हीं के लिये उनके सम्बन्धियों को बहुत शोक भी हुआ। उस रात्रि में सामगान की ध्वनि और स्त्रियों के रुदन से सभी जीवों को बड़ा कष्ट हुआ। इसके बाद वहां अनेकों देशों से आये हुए जो अनाथ लोग मारे गये थे, उन सबकी हजारों ढेरियां कराकर उन्हें धीमी भीगी हुई लकड़ियों से जलवा दिया। इस प्रकार सब राजाओं का दाहकर्म करके कुराज युधिष्ठिर महाराज धृतराष्ट्र को लेकर गंगाजी की ओर चले।

Thursday, 6 March 2025

गान्धारी का अन्य मरे हुए वीरों को देखकर विलाप करना और श्रीकृष्ण को शाप देना

गान्धारी ने फिर कहा_श्रीकृष्ण ! देखो, वह अनेकों महारथियों को धराशायी करके खून में लथपथ हुआ कर्ण रणांगन में पड़ा हुआ है। वह बड़ा ही असहनशील, महान् क्रोधी , प्रचंड धनुर्धर और बड़ा बली था। किन्तु आज अर्जुन के हाथ से मारा जाकर वह पृथ्वी पर सोया हुआ है।
मेरे महारथी पुत्र भी पाण्डवों के भय से इसे ही आगे करके युद्ध करते थे। धर्मराज युधिष्ठिर इससे सदा ही घबराये रहते थे, इसकी ओर से चिंतित रहने के कारण तेरह वर्ष तक उन्हें सुख से नींद नहीं आयी। यह प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी और हिमाचल के समान निश्छल था और यही दुर्योधन का प्रधान अवलम्ब था।
किन्तु देखो, आज यह वायु द्वारा उखाड़े हुए वृक्ष के समान पृथ्वी पर पड़ा है। इसकी पत्नी वृषसेन की माता प।द्वीप पर पड़ी है और तरह_तरह से विलाप करती बड़ा ही करुणक्रन्दन कर रही है। हाय ! बड़े खेद की बात है। महाबाहु कर्ण को रणभूमि में अचेत पड़ा देखकर सुषेण की माता अत्यन्त आतुर होकर मूर्छित हो गयी है। देखो, कुछ होश होने पर उठकर वह पृथ्वी पर गिर गयी है और पुत्र के वध से अत्यन्त आतुर होकर बड़ा ही विलाप कर रही है। इधर देखो, यह भीमसेन का मारा हुआ अवन्तइनरएश पड़ा है। उसकी रानियां भी चारों ओर से घेरकर उसकी सार_संभाल में लगी हुई हैं। श्रीकृष्ण ! महाराज प्रतीप के पुत्र बाह्लीक बड़े साहसी और धनुर्धर थे। वे भी भाले की चोट से मरकर रणभूमि में सोये हुए हैं। मर जाने पर भी इनके मुख की कान्ति फीकी नहीं पड़ी है। उधर, राजा जयद्रथ पड़ा हुआ है। इसे तो अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये ग्यारह अक्षौहिणी सेना को पार करके मारा था। इसकी अनुरागी नि पत्नियां चारों ओर से इसकी संभाल कर रही हैं।
जनार्दन ! जिस समय वह वन में द्रौपदी को हरकर ले गया था, पाण्डव लोग तो इसे तभी मार डालते; उस समय केवल दु:शला की ओर देखकर ही उन्होंने इसे छोड़ दिया था। हाय ! एक बार फिर उन्होंने दु:शला का मान क्यों नहीं रखा ? देखो, बताओ, मेरी बच्ची दु:खी होकर कैसा विलाप कर रही है। कृष्ण! बताओ मेरे लिये इससे बढ़कर दु:ख क्या होगा कि मेरी अल्पवयस्का पुत्री विधवा हो गयी और बहुओं के पति मारे गये। हाय ! तनिक मेरी दु:शला की ओर तो देखो। पति का सिर न मिलने के कारण वह शोक और भय से रहित_सी होकर उसे इधर_उधर ढ़ूंढ़ती फिर रही है। इधर ये नकुल के मामा राजा शल्य मरे पड़े हैं। इन्हें धर्म को जानने वाले स्वयं धर्मराज ने ही संग्राम में मारा था। इनकी तुम्हारे साथ सदा से स्पर्धा रहती थी। युद्धस्थल में कर्ण का सामर्थ्य करते समय वे पाण्डवों को विजय दिलाने के लिये उसका तेज क्षीण करते रहे थे। देखो, इन्हें चारों ओर से इनकी रानियों ने घेर रखा है। उधर वे पर्वतीय रजा भगदत्त हाथी का अंकुश लिये पृथ्वी पर मरे पड़े हैं। इनके साथ अर्जुन का बड़ा ही प्रचंड, रोमांचकारी और भीषण युद्ध हुआ था। एक बार तो इनके युद्धकौशल को देखकर अर्जुन भी दंग रह गया था, किन्तु अंत में ये उसी के हाथ से मारे गये। देखो, जिनके समान बल और पराक्रम में संसार भर में कोई नहीं था, वे ही भीषण कर्म करनेवाले भीष्मजी इधर शरशैय्या पर शयन कर रहे हैं। केशव ! इस प्रतापी नरसूर्य ने शत्रुओं को अपने शस्त्रों के ताप से झुलसा डाला था। हाय ! आज यह अस्त होना चाहता है। आज वीरोचित शरशैय्या पर पड़े हुए इन अखंड ब्रह्मचारी भीष्मजी के दर्शन तो करो। ये आजतक अपने व्रत से नहीं डिगे। भगवान् स्वामी कार्तिकेय जैसे सरकण्डों के समूह पर सुशोभित हुए और उसी प्रकार ये कर्णिक, नालिक और नाराच जाति के बाणों की सेज बिछाकर सोये हुए हैं। अर्जुन ने इनके सिर के नीचे तीन बाण मारकर इन्हें बिना ही रूई का तकिया दिया है। अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये ये अखंड ब्रह्मचारी रहे, जिससे इन्हें बड़ी भारी कीर्ति मिली। युद्ध में इनकी बराबरी करनेवाला
कोई नहीं था। ये बड़े ही धर्मात्मा और सर्वज्ञ हैं तथा मनुष्य होने पर भी तत्वज्ञान के प्रभाव से देवताओं के समान प्राण धारण किये हुए हैं।
आज जब भीष्मजी भी बाणों के लक्ष्य बनकर रणक्षेत्र में पड़े हुए हैं तो मुझे यही निश्चय होता है कि वास्तव में न कोई युद्धकुशल है, न पराक्रमी है और न विद्वान हैं। विधाता जिसे जीवन में सफलता दे देता है, उसी को लोग श्रेष्ठ कहने लगते हैं। माधव ! जब ये देवतुल्य भीष्मजी स्वर्ग को सिधार जायेंगे तो कुरुकुल के लोग धर्म के विषय में अपना संदेह किससे पूछेंगे ? इधर देखो, ये कौरवों के माननीय आचार्य द्रोण पड़े हुए हैं। चार प्रकार के अस्त्रों का ज्ञान जैसा इन्द्र को है, वैसा या तो परशुरामजी को है या आचार्य द्रोण को था। जिनकी कृपा से अर्जुन ने अनेकों दुष्कर कार्य किये, वे ही द्रोण आज मरे पड़े हैं; इनकी शस्त्रविद्या भी इन्हें नहीं बचा सकी ! इनके जिन वन्दनईय चरणों का सैकड़ों शिष्य पूजन किया करते थे, देखो ! आज उन्हीं को गीदड़ खींच रहे हैं। इनके मरण की व्यथा से कृपा अचेत_सी हो गयी है और अत्यन्त दीन_सी होकर इनके पास बैठी है। देखो तो सही, उसके बाल बिखरे हुए हैं और वह मुख नीचा किये फूट_फूटकर रो रही है। इनके शिष्यों ने चिता में अग्नि स्थापित करके उसे सब ओर से प्रज्जवलित कर दिया है और उसपर आचार्य के शव को रखकर वे सामान करते हुए रो रहे हैं। देखो, अब वे कृपी को आगे रखकर चिंता की प्रदक्षिणा करके गंगाजी की ओर जा रहे हैं।माधव ! पास ही पड़े हुए इस भूरिश्रवा को तो देखो। इसकी पत्नियां मरे हुए अपने पति को घेरे खड़ी हैं और तरह_तरह से शोक कर रही हैं। शोक के वेग ने इन्हें बहुत ही कृश कर दिया है और ये आर्त स्वर से विलाप करती बार_बार पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर जाती हैं इनकी ऐसी दयनीय दशा देखकर चित्त में बड़ा ही दु:ख होता है। देखो, यह कह रही हैं_'सात्यकि का यह काम बड़ा ही अधर्म पूर्ण और अकीर्तिकर हुआ है।' एक स्त्री ने पति की भुजा को गोद में रख लिया है। वह दीनतापूर्वक विलाप करती हुई कह रही है_'यह वह हाथ है जिसने अनेकों शूरवीरों का संहार किया था, अपने मित्रों को अभयदान दिया था और सहस्त्रों गौएं दान की थीं। जिस समय दूसरे के साथ संग्राम करने में लगे होने से तुम असावधान थे, उस समय श्रीकृष्ण के समीप ही अर्जुन ने इसे काट डाला था।' इस प्रकार अर्जुन की निंदा करके वह सुन्दरी चुप हो गयी है। उसके साथ ही उसकी दूसरी सौतें भी शोक में डूबी हुई हैं। यह सहदेव का मारा हुआ गांधार राज महावली शकुनि है। आज यह भी लड़ाई के मैदान में सोया हुआ है। यह बड़ा ही मायावी था। इसे सैकड़ों _हजारो़ प्रकार के रूप बनाने आते थे। किन्तु आज पाण्डवों के प्रताप से इसकी सारी माया भस्म हो गयी है। इस कपटी ने ध्यूतसभा में अपनी माया के प्रभाव से ही युधिष्ठिर का सारा साम्राज्य जीत लिया था, किन्तु आज वह अपना जीवन भी हार बैठा ! कृष्ण ! देखो, यह दुर्धर्ष वीर कम्बोजकुमार पड़ा है। यह कम्बोजदेश के गलीचों पर सोने योग्य था, किन्तु आज मौत के मुख में पड़कर धूलि की शैय्या पर सो रहा है ! देखो, यह कलिंगराज पड़ा है। उसके पास ही मगधदेश का राजा जयत्सेन है। उसकी स्त्रियां उसे चारों ओर से घेरकर अत्यन्त विह्वल होकर रो रही हैं। इधर कोसलनरेश राजकुमार वऋहद्वल को भी उसकी स्त्रियों ने घेर रखा है और वे फूट_फूटकर रो रही हैं। देखो, वे धृष्टद्युम्न के वीर पुत्र पड़े हैं और उधर आचार्य ही के गिराये हुए पांचालराज द्रुपद सोये हुए हैं। ये बूढ़े पांचालराज की द:खाना स्त्रियां और बहुएं उनका अग्निसंस्कार कर बायीं ओर से प्रदक्षिणा करके जा रही हैं। देखो, इधर द्रोण के मारे हुए चेदिराज धृष्टकेतू को उसकी स्त्रियां ले जा रही हैं। वह बड़ा ही शूरवीर और महारथी था। हजारों शत्रुओं का संहार करने के बाद ही यह मारा गया है। इसकी सुन्दर भार्याएं इसे गोद में लेकर विलाप कर रही हैं । उधर द्रोण ही का बींधा हुआ इसका पुत्र पड़ा है। मेरे पुत्र दुर्योधन के लड़के वीरवर लक्ष्मण ने भी इसी तरह अपने पिता का अनुगमन किया है। देखो, ये अवन्तिराज विन्द और अनुविन्द मरे पड़े हैं। ये इस समय भी अपने हाथों में धनुष _बाण और खड्ग पकड़े हुए हैं। कृष्ण ! पांचों पाण्डव और तुम तो अवश्य हो। इसी से द्रोण, भीष्म, कर्ण, कृप, दुर्योधन, अश्वत्थामा, जयद्रथ, सोमदत्त, विकर।ण और कृतवर्मा _जैसे वीरों की मार से बच गये हों। माधव ! निश्चय ही विधाता के लिये कोई काम कर डालना विशेष कठिन नहीं है। देखो न, क्षत्रियों ने ही इन शूरवीर क्षत्रियों का बात_की_बात में संहार कर डाला। मेरे पुत्रों का नाश तो उसी दिन हो चुका था, जब तुम अपने संधि के प्रयत्न में असफल होने पर उपलव्य की ओर लौटे थे। महामति भीष्म और विदुरजी ने मुझे उसी समय कहा दिया था कि अब अपने पुत्रों की मोह_ममता छोड़ दो। उनकी वह दृष्टि मिथ्या कैसे हो सकती थी। आज इसी से इतनी जल्दी मेरे पुत्र भस्मीभूत हो गये। वैशम्पायनजी कहते हैं_जन्मेजय ! श्रीकृष्ण से इतना कहकर गांधारी शोक से अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। दु:ख की अधिकता से उसकी विचारशक्ति नष्ट हो गयी और उसका धैर्यशक्ति नष्ट हो गयी।और उसका धैर्य टूट गया। जब उसे चेत हुआ तो पुत्रशोक की प्रबलता से उसके अंग_अंग क्रोध से भर गये और श्रीकृष्ण पर दोषदृष्टि करके वह कहने लगी, 'कृष्ण ! पाण्डव और कौरव आपस की फूट के कारण ही नष्ट हुए हैं। किन्तु तुमने समर्थ होते हुए भी इनकी उपेक्षा क्यों कर दी । तुम्हारे पास अनेकों सेवक थे और बड़ी भारी सेना थी। तुम दोनों ही को दबा सकते थे और अपने वाक्कौशल से उन्हें समझा भी सकते थे।
किन्तु तुमने अपनी इच्छा से ही इस कौरवों के संहार की उपेक्षा कर दी थी। सो अब तुम उसका फल भोगो। मैंने पति की सेवा करके जो तप संचय किया है, उसी के प्रभाव से मैं तुम्हें शाप देती हूं_'तुमने कौरव और पाण्डव दोनों भाइयों के आपस में प्रहार करते समय उनकी उपेक्षा कर दी थी। इसलिये तुम भी अपने बन्धु _बांधवों का वध करोगे। आज से छत्तीसवें वर्ष तुम भी बन्धु_बान्धव, मंत्री और पुत्रों के नाश हो जाने पर  एक साधारण कारण से अनाथ की तरह मारे जाओगे। आज जैसे ये भरत_वंश की स्त्रियां विलाप कर रही हैं, उसी प्रकार तुम्हारे कुटुम्ब की स्त्रियां भी अपने बन्धु_बान्धवों के मारे जाने पर सिर पकड़कर रोवेगी।' गान्धारी के ये कठोर वचन सुनकर महामना श्रीकृष्ण ने कुछ मुस्कराते हुए कहा, ' मैं तो जानता था कि यह बात इसी प्रकार होनी है। 
तुमने जो कुछ होना था, उसी के लिये शाप दिया है। इसमें संदेह नहीं, वृष्णिवंशियों का नाश दैवी कोप से ही होगा। इसका नाश करने में भी मेरे सिवा और कोई समर्थ नहीं है। मनुष्य तो क्या, देवता या असुर भी इनका संहार नहीं कर सकते। इसलिये ये यदुवंशी आपस के कलह से ही नष्ट होंगे।'
श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर पाण्डवों को बड़ा भय हुआ। वे अत्यंत व्याकुल हो गये और उन्हें अपने जीवन की आशा भी नहीं रही।








Wednesday, 5 February 2025

युद्धभूमि में पहुंचकर स्त्रियों का विलाप करना और गांधारी का श्रीकृष्ण से उनकी दशा का वर्णन करना

श्री वैशम्पायनजी कहते हैं _ जनमेजय ! गांधारी बड़ी ही पतिव्रता, भाग्यवती और तपस्विनी थी।
वह सर्वदा सत्य भाषण ही करती थी। महर्षि व्यास के वर से उसे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी थी। उसके प्रभाव से उसे दूर ही से कौरवों की संहारभूमि दिखाई दे रही थी। उसे देखकर वह तरह_तरह से विलाप करने लगी। बहुत दूर होने पर भी उसे वह रणक्षेत्र पास_ही_सा जान पड़ता था। वह बड़ा ही रोमांचकारी था ; हड्डी, केश और चर्बी से भरा हुआ था। उसमें खून की धाराएं बह रही थी; सब ओर सहस्त्रों लोथें पड़ी थीं तथा ख़ून में लथपथ हाथी, घोड़े, रथ और योद्धाओं के मस्तक हीन शरीर एवं श्रीहीन मस्तक पड़े हुए थे।अब भगवान् व्यास की आज्ञा पाकर राजा युधिष्ठिर आदि सब पाण्डव महाराज धृतराष्ट्र और श्रीकृष्ण को आगे कर कुरुकुल की सब स्त्रियों को लेकर रणक्षेत्र की ओर चले। कुरुक्षेत्र में पहुंचकर उन विधवा स्त्रियों ने युद्ध में मरे हुए अपने भाई, पुत्र, पिता और पति आदि को देखा। उस भीषण संहारभूमि को देखकर वे रआजमहइलआएं चित्कार करती हुईं अपने बहुमूल्य रथों से गिर पड़ीं। इस अभूतपूर्व दृश्य को देखकर वे दु:ख से अत्यंत व्याकुल हो गयीं। उनमें से किसी के तो शरीर मुरझा गये और कोई पृथ्वी पर पछाड़ खाने लगीं। वे बहुत थकी हुई थीं और अनाथ हो चुकी थी। इस समय उन्हें कुछ भी होश_हवास नहीं था। पांचाल और करुकुल की स्त्रियों के लिये यह बड़ा ही करुणा पूर्ण प्रसंग था।
तब दु:खिनी महिलाओं के आर्तनाद से उस भीषण युद्धस्थल में बड़ा कोहराम मचा देख धर्मज्ञा गान्धारी ने श्रीकृष्ण को बुलाकर कहा, 'माधव ! देखो तो ये मेरी विधवा बहुएं बाल बिखरे कुर्सियों के समान विलाप कर रही हैं। ये उन भरतकुलभूषणों को याद कर_करके अलग _अलग अपने पुत्र, भाई, पिता और पतियों की ओर दौड़ जाती हैं। वीरवर ! इस ऐसे यद्धस्थल को देखकर तो मैं शोक से जली जाती हूं। मधुसूदन ! इस पांचाल और कौरव वीरों को मारे जाने से मुझे तो ऐसा जान पड़ता है मानो पांचों भूतों का ही नाश हो गया। क्या कोई पुरुष ऐसी कल्पना भी कर सकता था कि इस युद्ध में जयद्रथ, कर्ण, द्रोण, भीष्म और अभिमन्यु जैसे वीर भी स्वाहा हो जायेंगे ? हाय ! मेरे लिये इससे बढ़कर और क्या दु:ख होगा । अवश्य ही पहले जन्मों में मुझसे कोई पाप कर्म हो गया है। इसी से मुझे अपनी आंखों अपने पुत्र, पौत्र और भाइयों की मृत्यु देखनी पड़ी है। पुत्रशोकाकुला गांधारी ने इसी प्रकार दीनतापूर्वक विलाप करते हुए श्रीकृष्णसे की बातें कही; इतने में ही उसकी दृष्टि अपने मृतक पुत्र दुर्योधन पर पड़ी। दुर्योधन को मारा हुआ देखते ही शोकाकुल गांधारी कटे हुए केले के समान सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। होश आने पर जब उसने दुर्योधन को खून में लथपथ हुए पृथ्वी पर पड़ा देखा तो वह उससे लिपटकर 'हा पुत्र ! हां पुत्र!' ऐसा कहकर रोने लगी। फिर उसे अपने आंसुओं से सींचती हुई श्रीकृष्ण से कहने लगी, 'वार्ष्णेय ! जब यह बंधुओं को विध्वंस करनेवाला ठन गया तो दुर्योधन ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा था, 'माताजी ! मुझे आशीर्वाद दो कि युद्ध में मेरी विजय हो।' तब मैंने यही कहा था कि 'जय तो वहीं रहती है, जहां धर्म रहता है; किन्तु यदि तुम युद्ध करने में घबराये नहीं तो तुम्हे देवताओं के समान शस्त्रों से मरने पर प्राप्त होनेवाले लोक अवश्य मिलेंगे।' इस प्रकार मैंने तो पहले ही दुर्योधन से ऐसी बात कह दी थी। इसलिये मुझे इसके लिये शोक नहीं है। मुझे तो महाराज के लिये चिन्ता है, जिनके सभी सभी संबंधी संग्राम में काम आ गये हैं। जरा काल के उलट_फेर को तो देखो ! जो दुर्योधन मूर्धाभिषिक्त राजाओं के आगे_आगे चलता था, वहीं धूल में पड़ा हुआ है। आज वीरशय्या पर शत्रु के सामने मुंह किये पड़ा है, इसलिये इसे कोई साधारण गति नहीं मिली होगी। ओह ! जो ग्यारह अक्षौहिणी सेना को लेकर युद्ध के मैदान में उतरा था, वह दुर्योधन अपने अन्याय से ही आज मारा गया। यह अभागा बड़ा मूर्ख था। इसने अपने पिता और विदुरजी_जैसे वृद्ध पुरुषों का अपमान किया, इसी से आज काल के गाल में चला गया। जिसने तेरह वर्ष तक पृथ्वी का निष्कण्टक राज किया, वहीं मेरा पुत्र आज मरकर पृथ्वी पर सो रहा है। श्रीकृष्ण ! तुम सुवर्ण की वेदी के समान तेजस्विनी लक्ष्मण की माता को तो देखो। आज उसके भी बाल बिखरे हुए हैं। मेरा यह पुत्रवधू बड़े उदार हृदय की है। पता नहीं इसकी स्थिति कैसी है। यह अपने पति के लिये शोकाकुल है या पुत्र के लाये ? कभी यह पति की ओर देखती है तो कभी पुत्र कि ओर देखने लगती है। किन्तु कुछ भी हो, यदि वेद और शास्त्र सच्चे हैं तो दुर्योधन अवश्य ही अपने बाहुबल के प्रताप से अविनाशी लोक प्राप्त किये होंगे। माधव ! देखो, इधर मेरे सौ पुत्र पड़े हुए हैं। इन सबको भीमसेन ने ही अपनी गदा से पछाड़ा है ! मुझे तो इसी से अधिक दु:ख होता है कि पुत्रों के मारे जाने से आज ये छोटी_छोटी पुत्रवधूएं बाल खोले रणभूमि में फिर रही हैं। हाय ! जो कभी पैरों में आभूषण पहने राजमहल की भूमि पर विचरती थीं, वे ही आज आपत्ति में पड़कर इन खून से लथपथ कठोर रणांगन में घूम रही हैं।
इस सुकुमारी राजदुलारी लक्ष्मण की माता को देखकर तो मेरे मन को किसी प्रकार ढ़ाढ़स नहीं बांधता। देखो ! इन महिलाओं में से कोई भाइयों को, कोई पिताओं को और कोई पुत्रों को पड़ें देखकर उनकी भुजाएं पकड़_पकड़कर पछाड़ खा रही हैं। यही नहीं, इस दारुण संहार में अपने संबंधियों के मारे जाने से तुम्हें कोई मध्यम और वृद्ध अवस्था की स्त्रियों का रुदन सुनाई पड़ेगा। 'इधर देखो, यह दु:शासन पड़ा हुआ है। शत्रुसूदन महावीर भीम ने इसे युद्ध में पछाड़कर इसके शरीर का खून पिया है। हाय ! द्रौपदी के कहने से और जुए के समय सहे हुए दु:खों को याद करके भीम ने मेरू इस पुत्र की कैसी दुर्गति की है। कृष्ण ! मैंने तो दुर्योधन को उसी समय कहा था कि 'तू मौत कई फांसी में बंधे हुए शकुनि का साथ छोड़ दें। अपने इस कुबुद्धि मामा को तू पूरा कलहप्रिय समझ। तू इसे अभी त्यागकर पाण्डवों के साथ संधि कर ले। मूर्ख ! क्या तू नहीं जानता भीमसेन कैसा असहनशील है, जो हाथी को उल्का के समान जलाने के समान तू उसे अपने वावाणों से बींधा करता है ?' आज उसी का फल है कि भीमसेन का पछाड़ा हुआ दु:शासन अपनी लंबी _लंबी भुजाओं को फैलाया हुआ पृथ्वी पर सो रहा है। क्रोधी भीमसेन ने दु:शासन को युद्ध में मारकर उसका खून पिया, यह तो उसका बड़ा ही भीषण काम था। 'माधव ! देखो, यह मेरा पुत्र विकर्ण पड़ा हुआ है।  इसकी तो सभी बुद्धिमान प्रशंसा करते थे। भीम ने इसे भी सैकड़ों टुकड़े करके मार डाला है। कर्णिक, नाविक और नारायण जाति के बाणों से यद्यपि इसके मर्मस्थान छिन्न-भिन्न हो गये हैं, तो भी इसकी कान्ति अभी तक बनी हुई है। यह शत्रुओं का संहार करने वाला दउर्मउख सोया हुआ है। समरशूर भीम ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए इसे भी मार डाला है। श्रीकृष्ण ! इसके सामने तो संग्राम में कोई भी नहीं टिक सकता था। इसे शत्रुओं ने कैसे मार डाला। इधर देखो, यह धृतराष्ट्र नन्दन चित्रसेन मरा पड़ा है; यह तो धनुर्धरों के लिये आदर्श रूप था। 'केशव ! इस अभिमन्यु को तो बल और शौर्य में अर्जुन तथा तुम्हारी अपेक्षा भी श्रेष्ठ कहा जाता था, इसने तो अकेले ही मेरे पुत्र के अभेद्य व्यूह को तोड़ डाला था। सो, देखो यह भी अनेकों को मारकर स्वयं मरा पड़ा है। किन्तु मैं देखती हूं कि मर जाने पर भी अतुलित तेजस्वी अभिमन्यु का तेज फीका नहीं पड़ा है। देखो, यह विराटपुत्री अनिन्दिता उत्तरा अपने वीर और अल्पवयस्क पति को देखकर कैसा शोक कर रही है। यह बार_बार अपने पति के पास आकर आपने हाथ से उसके शरीर पर लगी हुई धूल झाड़ रही है। कृष्ण ! यह अभिमन्यु तो बल, वीर्य, तेज और रूप में बहुत कुछ तुम्हारे ही समान है। किन्तु हाय ! शत्रुओं का शिकार होकर आज यह पृथ्वी पर पड़ा है। देखो ! उत्तरा उसके खून सने हुए बालों को हाथ से सुलझा रही है और गोदी में उसका सिर रखकर मानो वह जीवित है, इस प्रकार पूछ रही है कि 'आप तो साक्षात्  श्रीकृष्ण के भांजे और गाण्डीवधारी अर्जुन के पुत्र हैं ! आपको संग्रामभूमि में उन महारथियों ने कैसे मार डाला ।क्रूरकर्मा कृपाचार्य, कर्ण, जयद्रथ तथा द्रोण और अश्वत्थामा को धिक्कार है, जिन्होंने मुझे विधवा बना दिया। युद्ध में अनेकों योद्धाओं ने मिलकर आपको मार डाला, यह देखकर भी आपके पिता अबतक कैसे जी रहे हैं। 'प्राणनाथ ! आपने शस्त्रों से जिन पुण्य लोकों पर विजय पायी है, वहीं मैं भी धर्म तथा अपने इन्द्रिय_निग्रह के बल पर शीघ्र ही आ रही हूं; आप मेरी बांट देखिये ! सम्भवतः: मृत्युकाल आये बिना किसी का मरना बड़ा कठिन होता है, तभी तो मैं अभागिनि आपको मरा देखकर भी अबतक जी रही हूं। वीर ! इस लोक में तो आपके साथ मेरा छ: महीने का ही सहवास बंदा था। सातवें महीने में ही आप परलोक सिधार गये।'उत्तरा को इस प्रकार विलाप करते देखकर मत्स्यराज की दूसरी स्त्रियां उसे खींचकर अन्यत्र ले जा रही हैं। किन्तु राजा विराट को मरा हुआ देखकर वे स्वयं भी विलाप कर रही हैं। धूप, आयास और परिश्रम के कारण इन सभी के मुंह उतर गये हैं। इधर ये रणभूमि के अग्रभाग में ही उत्तर, कम्बोजकुमार, सुदक्षिण और लक्ष्मण आदि की बच्चे मरे परे हैं। माधव ! जरा इनपर भी तो दृष्टि डालो।'







Thursday, 9 January 2025

पाण्डवों का राजा धृतराष्ट्र और गांधारी से मिलना, गांधारी का भीमसेन पर क्रोध तथा व्यासजी और भीमसेन का उसे शान्त करना

श्री वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! इधर महाराज युधिष्ठिर ने सुना कि हमारे बूढ़े ताऊजी संग्राम में मरे हुए वीरों का अन्त्येष्टि कर्म कराने के लिये हस्तिनापुर चल दिये हैं। तब वे शोकाकुल धृतराष्ट्र के पास अपने भाइयों को लेकर चले। इस समय श्रीकृष्ण, सात्यकि और युयुत्सु भी उनके साथ हो लिए तथा पांचाल महिलाओं के साथ द्रौपदी ने भी उनका अनुसरण किया। गंगा तट पर पहुंचकर राजा युधिष्ठिर ने कुररी की तरह विलाप करती हुई स्त्रियों केअनेकों यूथ देखे। वहां हाथ उठाकर आर्त स्वर से रोती हुई हजारों स्त्रियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। वे कहने लगीं, 'राजन् ! आज आपकी धर्मज्ञान और दयालु था कहां चली गयी जो इस तरह अपने चाचा, ताऊ, भाई, गुरु, पुत्र और मित्रों को भी मार डाला। इन सबको और अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों को भी खोकर अब आप इस राज्य को लेकर क्या करेंगे ?' इस प्रकार रोती हुई उन सब स्त्रियों को पार करके महाराज युधिष्ठिर अपने ज्येष्ठ पइतऋव्य राजा धृतराष्ट्र के पास पहुंचे और उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद उनके अन्य साथियों ने भी धर्मानुसार धृतराष्ट्र को प्रणाम करके अपने_अपने नाम लिये। उन्होंने उदास चित्त से युधिष्ठिर को गले लगाया। फिर उनका चित्त एकदम कठोर हो गया और वे अग्नि के समान भीम को भस्म कर डालने का विचार करने लगे। श्रीकृष्ण पहले ही उनका अभिप्राय ताड़ गये थे। इसलिये उन्होंने भीमसेन को हाथों से पकड़कर रोक लिया और भीम के एक लोहे की मूर्ति आगे कर दी। राजा धृतराष्ट्र बड़े बली थे। उन्होंने लोहे के भीम को ही सच्चा भीमसेन समझकर अपनी भुजाओं से दबोचकर तोड़ डाला। धृतराष्ट्र में दस हजार हाथियों का बल था ; इसलिये उन्होंने लोहे के भीम को तोड़ तो डाला, परंतु इससे उनकी छाती पर बहुत दबाव पड़ने से उनके मुंह से खून निकलने लगा और वे खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय संजय ने उन्हें थामकर शान्त किया। क्रोध शांत होने पर वे अत्यंत शोकाकुल हुए और 'हा भीम ! 'हा भीम ! कहकर रोने लगे। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि अब इनका क्रोध उतर गया है और  और भीमसेन का वध कर डालने की आशंका से ये बहुत व्याकुल हो रहे हैं तो उन्होंने कहा, 'राजन् ! आप शोक न करें। आपके हाथ से भीमसेन का वध नहीं हुआ है। यह तो उनकी लोहे की मूर्ति ही है, इसी को आपने कुचल डाला है। आपको क्रोध के वशीभूत देखकर  मैंने भीमसेन को आपके पास आने से रोक लिया था। जिस प्रकार काल के पास पहुंचकर कोई जीता नहीं बच सकता, उसी प्रकार आपकी भुजाओं के बीच में पड़कर किसी के प्राण नहीं बच सकते। यही सोचकर आपके पुत्र ने भीमसेन की जो लोहे की मूर्ति बनवा रखी थी नहीं मैंने आपके आगे कर दी थी। पुत्रशोक की आग ने आपको धर्म से विचलित कर दिया है, इसी से आपको भीमसेन का वध करने की इच्छा हुई थी। किन्तु आपके लिये यह उचित नहीं है कि आप भीम का वध करें। अतः हमने सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के उद्देश्य से जो कुछ किया है, उसका आप भी अनुमोदन करें, मन को व्यर्थ शोकाकुल न करें। राजन् ! आपने वेद और सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है तथा पुरान और सब प्रकार के राजधर्म भी सुने हैं। ऐसे बुद्धिमान और विद्वान होकर भी आप अपने ही अपराध से होनेवाले इस कुटुम्बनाश को देखकर इतने कुपित क्यों होते है। मैंने तो आपसे पहले ही निवेदन किया था और भीष्म, द्रोण, विदुर एवं संजय ने भी बहुत कुछ समझाया था; किन्तु उस समय तो आपने हमारी बात मानी नहीं। जो पुरुष  हित की बात समझाने पर भी अपने हिताहित को नहीं परख पाता, वह अन्याय का आश्रय लेने से आपत्तियों के आने पर शोक ही करता है। इस आपत्ति में तो आप अपने ही अपराध में पड़े हैं, फिर भीमसेन पर क्रोध क्यों करते हैं। दुर्योधन ने ईर्ष्यावश सभा में द्रौपदी को बुलवाया था; उस वैर का बदला लेने के लिये ही तो भीमसेन ने उसे मारा है। आप अपने और अपने दुष्ट पुत्र के अपराधों की ओर तो देखिये। आप ही ने तो निर्दोष पाण्डवों को राज्य से निकलवाया था राजन् ! इस प्रकार श्रीकृष्ण ने जब साफ_साफ सब बातें कही तो राजा धृतराष्ट्र कहने लगे, 'माधव ! तुम जैसा कहते हो, वह सब ठीक है। यह अच्छा ही हुआ कि तुम्हारे रोक लेने से भीमसेन मेरी भुजाओं के बीच में नहीं आया। अब मैं स्वस्थ हूं, मेरा क्रोध शान्त हो गया है और मैं पाण्डु के शूरवीर मध्यम पुत्र को देखना चाहता हूं। मेरे सब पुत्र और प्रधान_प्रधान राजा लोग तो मारे गये‌। अब तो मेरी शान्ति और प्रीति के आश्रय में पाण्डु पुत्र ही हैं।' ऐसा कहकर उन्होंने भीम_अर्जुन और नकुल_सहदेव_सभी को रोते_रोते गले लगाया और 'तुम्हारा कल्याण हो'ऐसा कहकर आशीर्वाद दिया। इसके बाद उनकी आज्ञा लेकर सब पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास आये। पाण्डवों के प्रति गांधारी के मन में पाप है _इस बात को महर्षि व्यास पहले ही ताड़ गये थे। इसलिये वे बड़ी तेजी से वहां पहुंचे। वे दिव्यदृष्टि से और अपने मन की एकाग्रता से सभी प्राणियों का आन्तरिक भाव समझ लेते थे। इसलिए गांधारी के पास जाकर उससे कहने लगे, 'गांधारी ! तुम पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर पर क्रोध मत करो, शान्त हो जाओ। तुम जो बात मुंह से निकालना चाहती हो, उसे रोक लो और मेरी बात पर ध्यान दो। गत अठारह दिनों में तुम्हारा विजयाभिलाषी पुत्र नित्य ही तुमसे प्रार्थना करता कि 'मैं शत्रुओं के साथ संग्राम करने के लिये जा रहा हूं; माताजी ! आप मेरे कल्याण के लिये आशीर्वाद दीजिये।' उसके इस प्रकार प्रार्थना करने पर आप हर बार यही कहती थी कि 'जहां धर्म है, वहीं विजय है।' इस प्रकार पहले तुम्हारे मुंह से जो सच्ची बात निकालती थी, वह मुझे याद आती है। यों भी तुम सब प्राणियों का हित चाहनेवाली हो। इस समय प्राण्डवो ने विजय पायी है और इसमें संदेह नहीं कि युधिष्ठिर ही अधिक धर्मनिष्ठ भी हैं। तुम तो सदा से ही बड़ी क्षमावती हो, फिर इस समय तुमने क्षमा को क्यों छोड़ दिया है ? धर्मज्ञान ! तुम अधर्म को छोड़ दो; क्योंकि तुमने अपने धर्म पर दृष्टि रखकर ही ये शब्द कहे थे कि 'जहां धर्म है, वहीं विजय है।' अतः तुम अपने क्रोध को शान्त करो। तुम संत।यभआषण करनेवाली हो, तुम्हारा ऐसा आचरण नहीं होना चाहिए।' गांधारी ने कहा_भगवन् ! पाण्डवों के प्रति मेरा कोई दुर्भाव नहीं है और न मैं इनका नाश ही चाहती हूं। किन्तु पुत्रशोक के कारण मेरा मन जबरदस्ती व्याकुल _सा हो रहा है। इस कुन्ती पुत्रों की रक्षा करना जैसा कुन्ती का कर्तव्य है, वैसा ही मेरा भी है और जैसा यह मेरा कर्तव्य है, वैसा ही महाराज का भी है। यह कौरवों का संहार तो दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दु:शासन के अपराध से ही हुआ है। इसमें अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव या युधिष्ठिर का कोई दोष नहीं है। कौरवों ने अभिमान में भरकर युद्ध किया और वे अपने दूसरे साथियों के सहित आपस ही में लड़ मरे।
किन्तु साहसी भीम ने दुर्योधन को गदा युद्ध के लिये बुलाकर फिर श्रीकृष्ण के सामने ही उसकी नाभि के नीचे गदा की चोट की_इस अनुचित कार्य ने ही मेरे क्रोध को भड़का दिया है। धर्मज्ञ महापुरुषों ने जिसे 'धर्म' कहा है, क्या शूरवीर अपने प्राणों के लोभ से भी रणभूमि में छोड़ सकते हैं ? गांधारी का यह बात सुनकर भीमसेन ने बहुत डरते _डरते उनसे विनयपूर्वक कहा, 'माताजी ! यह धर्म हो या अधर्म, मैंने तो डरकर अपनी रक्षा के लिये ही ऐसा किया था, सो अब आप क्षमा करें। उस महाबली पुत्र को धर्मयुद्ध में तो कोई नहीं मार सकता था। किन्तु पहले उसने भी तो अधर्म से ही राजा युधिष्ठिर को जीता था और हमें बार_बार तंग किया था। इस समय भी मुझे डर था कि कहीं दुर्योधन गदा युद्ध में मुझे मार न डाले, इसी से मैंने यह काम कर हो गया।गान्धारी ने कहा_भैया ! तुम मेरे पुत्र की ऐसी प्रसंसा कर रहे हो, इसलिये यह तो उसका वध नहीं कहा जा सकता। परंतु तुमने जो संग्रामभूमि में दु:शासन का खून पीता, उस काम को तो सभी सत्पुरुष निंदा करेंगे, ऐसा काम तो आर्य पुरुष कभी नहीं करते। तुमने यह बड़ा ही क्रूर कर्म किया, ऐसा करना उचित नहीं था। भीमसेन बोले_माताजी ! आप चिन्ता न करें। वह खून मेरे दांत और ओठों के आगे नहीं गया। इस बात को कर्ण जानता था। मैंने तो अपने हाथ में ही खून सान लिये थे। जब द्यूतक्रीड़ा के समय दु:शासन ने द्रौपदी के केश पकड़े थे, उसी समय क्रोध में भरकर मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका था। यदि मैं उसे पूरा न करता तो अनन्त वर्षों तक क्षात्रधर्म से पतित समझा जाता। इसी से मैंने यह काम किया था। गांधारी ने कहा_भीम ! अब हम बूढ़े हो गये हैं, हमारा राज्य भी तुमने छीन लिया। ऐसी स्थिति में हम दोनों कंधों के सहारे के लिये लकड़ी के समान तुमने एक भी पुत्र को जीवित क्यों नहीं छोड़ा ? यदि तुम मेरे एक पुत्र को भी छोड़ देते तो तुम्हारे कारण मैं इतना दु:ख न पाती, यही समझ लेती कि तुमने अपने धर्म का पालन किया है‌।

भीमसेन से ऐसा कहकर अपने पुत्र_पौत्रों के नाश से पीड़िता गांधारी क्रोध में भरकर बोली_'राजा युधिष्ठिर कहां है ?' यह सुनते ही धर्मराज भय से कांपते हुए हाथ जोड़े उसके सामने आये और बड़ी मीठी वाणी में बोले, ' देवि ! आपके पुत्रों का संहार करनेवाला मैं क्रूरकर्मा युधिष्ठिर आपके सामने खड़ा हूं। पृथ्वी भर के राजाओं का नाश करने में मैं ही हेतु हूं, इसलिये शाप के योग्य हूं; आप मुझे शाप दीजिये। मैं अपने सुहृदों का शत्रु हूं; अतः: ऐसे_ऐसे शत्रुओं का संहार कराकर अब मुझे जीवन, राज्य या धन_किसी की भी इच्छा नहीं है।' महाराज युधिष्ठिर गांधारी के पास खड़े हुए ये सब बातें कह गये। किन्तु उसके मुंह से कोई बात न निकली। वह बार_बार लंबी_लंबी सांसे लेती रही। वे झुककर उसके चरणों में गिरना ही चाहते थे कि दीर्घदर्शी गांधारी की दृष्टि पट्टी में से होकर उनके नखों पर पड़ी। इससे उनके सुन्दर नख उसी समय काले पड़ गये। यह देख अर्जुन तो श्रीकृष्ण के पीछे खिसक गये तथा और भाई भी इधर_उधर छिपने लगे‌ । उन्हें इस प्रकार कसमसाते देखकर गांधारी का क्रोध खण्डा पड़ गया और उसने माता के समान उन्हें धीरज दिया। फिर उसकी आज्ञा पाकर वे अपनी माता कुन्ती के पास गये। कुन्ती ने अपने पुत्रों को बहुत दिनों पर देखा था इसलिये उनके कष्टों का स्मरण करके उसका हृदय भर आया और वह अंचल से मुंह ढ़ांककर आंसू बहाने लगी। उसके साथ पांडवों के आंखों में भी आंसू आ गये। उसके प्रत्येक पुत्रों के अंगों पर बार_बार हाथ फेरकर देखा। सभी के शरीर शस्त्रों की चोट से घायल हो रहे थे। पुत्रहीना द्रौपदी को देखकर उसे बड़ा ही अनुताप हुआ। उसने देखा कि पांचाल कुमारी पृथ्वी पर पड़े _पड़े रो रही है। द्रौपदी कह रही थी_आयें ! अभिमन्यु के सहित आज आपके सभी पौत्र कहां चले गये। अब जब मेरे बच्चे ही नहीं बचे तो मैं राज्य को लेकर क्या करूंगी ? तब कुन्ती ने उसे धैर्य बंधाया। इसके बाद वह शोकाकुला द्रौपदी को उठाकर अपने साथ ले गांधारी के पास आयी। उसके साथ ही सब पाण्डव वहां पहुंचे। तब गांधारी ने बहू द्रौपदी और यशस्विनी कुन्ती से कहा, ' बेटी ! इस प्रकार व्याकुल मत हो; मेरी ओर तो देख, मुझपर कैसा दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा है। मैं तो इस नरसंहार को समय के उलट_फेर से हुआ ही समझती हूं। यह रोमांचकारी काण्ड होना ही था, इसी से हुआ है। विदुरजी ने जो बात कही थी, वह ज्यों_की_त्यों सामने आ गयी। जैसी तू है, वैसी ही मैं भी हूं। बता कौन किसको धीरज बंधाने ? वास्तव में इस श्रेष्ठ कुल का संहार तो मेरे अपराध से ही हुआ है‌।