श्रीकृष्ण कहने लगे_गान्धारी ! उठो, उठो, मन में शोक मत करो। इन कौरवों का संहार तो तुम्हारे ही अपराध से हुआ है। तुम अपने दुष्ट पुत्र को भी बड़ा साधु समझती थी। जो बड़ा ही निष्ठुर, व।अर्थ और वैर बांधनेवाला और बड़े _बूढ़ों की आज्ञा का भी उल्लंघन करनेवाला था, उसी दुर्योधन को तुमने सिर पर चढ़ाकर रखा था। फिर अपने किये हुए अपराध को तुम मेरे माथे क्यों मढ़ती हो? वैशम्पायनजी कहते हैं_श्रीकृष्ण के ये अप्रिय वचन सुनकर गांधारी चुप रह गयी। फिर धर्म को जाननेवाले राजर्षि धृतराष्ट्र ने अपने अज्ञान जनित मोह को दबाकर धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा, 'युधिष्ठिर ! इस युद्ध में जो सेना मारी गयी है, उसके परिमाण का तुम्हें पता हो तोहमें बताओ। युधिष्ठिर ने कहा_महाराज ! इस युद्ध में एक अरब छाछठ करोड़, बीस हजार वीर मारे गये हैं। इनके सिवा चौदह हजार योद्धा अज्ञात हैं और दस हजार एक सौ पैंसठ वीरों का पता नहीं है। धृतराष्ट्र ने पूछा_महाबाहो ! मैं तुम्हें सर्वज्ञ मानता हूं, इसलिये यह तो बताओ, उन सबकी क्या गति हुई है ? युधिष्ठिर बोले_ महाराज ! जिन सच्चे वीरों ने इस युद्ध अग्नि में अपने शरीरों को हर्षपूर्वक होता है, वे तो इनके समान ही पुण्य लोक को प्राप्त हुए हैं; जो यह सोचकर कि 'एक दिन मरना तो है ही, इसलिये लड़कर ही मर जाओ' हर्षहीन हृदय से लड़ते-लड़ते मारे गये हैं, वे गन्धर्वों के साथ जा मिले हैं और जो संग्रामभूमि में रहते हुए भी प्राणों की भिक्षा मांगते या युद्ध से भागते हुए शस्त्रों द्वारा मारे गये हैं, वे यक्षों के लोक में गये हैं। किन्तु जिन महापुरुषों को शत्रुओं ने गिरा दिया था, जिनके पास युद्ध करने का कोई साधन भी नहीं रहा था, जो शस्त्रहीन हो गये थे और बहुत लज्जित होकर भी जिन्होंने शत्रुओं के सामने पीठ नहीं दिखायी_इस प्रकार क्षात्रधर्म का पालन करते हुए जो तीखे शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो गये थे, वे तो ब्रह्मलोक को ही गये हैं _इस विषय में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। इसके सिवा जो लोग किसी भी प्रकार इस युद्धभूमि के भीतर मार दिये गये हैं, वे उत्तर कुरु देश में जन्म लेंगे। धृतराष्ट्र ने पूछा_बेटा ! तुम्हें ऐसा कौन सा ज्ञानबल प्राप्त है, जिससे इन बातों को तुम सिद्धों के समान देख रहे हो ? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो मुझे बताओ।
युधिष्ठिर बोले_पिछले दिनों में आपकी आज्ञा से वन में विचरते समय जब मैं तीर्थयात्रा कर रहा था, उस समय मुझे देवर्षि लौमशजी के दर्शन हुए थे। उन्हीं से मुझे यह अनुस्मृति प्राप्त हुई थी और उससे भी पहले ज्ञानयोग के प्रभाव से मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी थी। धृतराष्ट्र ने कहा_युधिष्ठिर ! यहां जो अनेकों अनाथ और सनाथ योद्धा मरे पड़े हैं, क्या उनके शरीरों को तुम विधिवत् दाह करा दोगे ? इनमें अनेकों ऐसे होंगे जो न तो अग्निहोत्री रहे होंगे और न उनका संस्कार करनेवाला ही कोई होगा। भैया ! यहां तो बहुतों के अन्त्येष्टि कर्म करने हैं, हम किस_किसका करें ? राजा धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर ने कौरवों के पुरोहित सुधर्मा और अपने पुरोहित धौम्य को तथा संजय, विदुर, युयुत्सु इन्द्र सेन आदि सेवक और सब सारथियों को आज्ञा दी कि 'आपलोग विधिपूर्वक इन सभी के प्रेतकर्म कराइये, जिससे कोई भी शरीर अनाथ की तरह नष्ट न हो।' धर्मराज की आज्ञा पाते ही सबलोग चन्दन, अगर, काष्ठ, घी, तेल सुगन्धित द्रव्य और रेशमी वस्त्र आदि सब सामान जुटाने में लगे गये। उन्होंने टूटे_फूटे रथ और तरह_तरह के शस्त्रोंके ढ़ेर लगा दिये। फिर बड़ी तत्परता से चिताएं तैयार कर उनपर मुख्य_मुख्य राजाओं के शव रखकर शास्त्रोक्त विधि से उनका दाहकर्म कराया। राजा दुर्योधन, उसके निन्यानवे भाई, राजा शल्य, शल, भूरिश्रवा, जयद्रथ, अभिमन्यु, दु:शासन के पुत्र, लक्ष्मण, धृष्टकेतू, बऋहन्त, सोमदत्त, सैकड़ों सृंजयवीर, राजा क्षेमधन्वा, विराट, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र, शकुनि, अचल, वृषक, भगदत्त, कर्ण, कर्ण के पुत्र, केकयराज, त्रिगर्तराज, घतोत्कच, अलंबउष और जरासंध_इन सबका तथा और भी हजारों राजाओं का उन्होंने धृत की धाराओं में प्रज्जवलित हुई अग्नि में दाह कराया किन्हीं_किन्हीं के लिये श्राद्धकर्म भी कराये गये, किन्हीं के लिये सामान कराया गया और किन्हीं के लिये उनके सम्बन्धियों को बहुत शोक भी हुआ। उस रात्रि में सामगान की ध्वनि और स्त्रियों के रुदन से सभी जीवों को बड़ा कष्ट हुआ। इसके बाद वहां अनेकों देशों से आये हुए जो अनाथ लोग मारे गये थे, उन सबकी हजारों ढेरियां कराकर उन्हें धीमी भीगी हुई लकड़ियों से जलवा दिया। इस प्रकार सब राजाओं का दाहकर्म करके कुराज युधिष्ठिर महाराज धृतराष्ट्र को लेकर गंगाजी की ओर चले।
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