Tuesday 20 December 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन और श्रीकृष्ण का विवाद, दुर्योधन का सभा त्याग, धृतराष्ट्र का गान्धारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

दुर्योधन और श्रीकृष्ण का विवाद, दुर्योधन का सभा त्याग, धृतराष्ट्र का गान्धारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना

ये अप्रिय बातें सुनकर राजा दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से कहा, 'केशव ! आपको अच्छी तरह सोच-समझकर बोलना चाहिये। आप तो पाण्डवों के प्रेम की दुहाई देकर उल्टी-सीधी बातें करते हुए बिशेषरूप से मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं। सो क्या आप बलाबल का विचार करके ही सर्वदा मेरी निंदा किया करते हैं? मैं देखता हूँ आप, विदुरजी, पिताजी, आचार्यजी और दादाजी अकेले मेर ही ऊपर सारे दोष लाद रहे हैं। मैने तो खूब विचारकर देख लिया, मुझे अपना कोई भी बड़े-से-बड़ा या छोटे-से-छोटा दोष दिखायी नहीं देता। पाण्डवलोग अपने ही शौक से जूआ खेलने में प्रवृत हुए थे; उसमें मामा शकुनि ने उनका राज्य जीत लिया, इसी से उन्हें वन जाना पड़ा। बताइये, इसमें मेरा क्या अपराध था, जो हमारे साथ वैर ठानकर वे विरोध कर रहे हैं ? हम जानते हैं पाण्डवों में हमारा सामना करने की शक्ति नहीं है, फिर भी बड़े उत्साह के साथ वे हमारे प्रति शत्रुओं का-सा वर्ताव क्यों कर रहे हैं ? हम उनके भयानक कर्मों को देखकर या आपलोगों की भीषण बातों को सुनकर डरनेवाले नहीं है। इस प्रकार तो हम इन्द्र के सामने भी नहीं झुक सकते। कृष्ण ! हमें तो ऐसा कोई भी क्षत्रिय दिखायी नहीं देता, जो युद्ध में हमें जीतने की हिम्मत रखता हो। भीष्म, द्रोण, कृप और कर्ण को तो देवतालोग भी युद्ध में नहीं जीत सकते; पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? फिर स्वधर्म का पालन करते हुए हम यदि युद्ध में काम ही आ गये तो स्वर्ग प्राप्त करेंगे। यह तो क्षत्रियों का प्रधान धर्म है। इस प्रकार यदि हमें युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई तो कोई पछतावा नहीं होगा; क्योंकि उद्योग करना ही पुरुष का धर्म है। ऐसा करते हुए मनुष्य चाहे नष्ट भले ही हो जाय, किन्तु उसे झुकना नहीं चाहिये। मुझ-जैसा वीर पुरुष तो धर्म रक्षा के लिये केवल ब्राह्मणों को नमस्कार करता है और किसी को कुछ भी नहीं समझता। यही क्षत्रिय का धर्म है और यही मेरा मत है। पिताजी मुझे पहले जो राज्य का भाग दे चुके हैं, उसे मेरे जीवित रहते कोई ले नहीं सकता। मेरी बाल्यावस्था में अज्ञान या भय के कारण ही पाण्डवों को राज्य मिल गया था। अब वह उन्हें फिर नहीं मिल सकता। केशव ! जबतक मैं जीवित हूँ, तबतक तो पाण्डवों को इतनी भूमि भी नहीं दे सकता जितनी कि एक बारीक सूई की नोक से छिद सकती है। दुर्योधन की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण की त्यौरी चढ़ गयी। फिर उन्होंने कुछ देर बिचारकर कहा---"दुर्योधन ! यदि तुम्हें वीरशय्या की इच्छा है तो कुछ दिन अपने मंत्रियों के सहित धैर्य धारण करो। तुम्हे अवश्य वही मिलेगी और तुम्हारी यह कामना पूर्ण होगी। पर याद रखो, बड़ा भारी जनसंहार होगा। और तुम जो ऐसा मानते हो कि पाण्डवों के साथ मेरा कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ, सो इस विषयमें यहाँ जो राजा लोग उपस्थित हैं वे ही विचार करें। देखो, पाण्डवों के वैभव से जल-भुनकर तुमने और शकुनि ने ही तो जूआ खेलने की खोटी सलाह की थी। जूआ तो भले आदमियों की बुद्धि को भ्रष्ट करनेवाला है ही। जो दुष्ट पुरुष इसमें प्रवृत होते हैं, उनमें कलह और क्लेश की ही वृद्धि होती है। और तुमने द्रौपदी को सभा में बुलाकर खुल्लमखुल्ला जैसी-जैसी अनुचित बातें कहीं थी, अपनी भाभी के साथ ऐसी कुचाल क्या कोई भी कर सकता है ? अपने सदाचारी, अलोलुप और सर्वदा धर्म का आचरण करनेवाले भाइयों के साथ कौन भला आदमी ऐसा दुर्व्यवहार कर सकता है ?  उस समय कर्ण, दुःशासन और तुमने क्रूर और नीच पुरुषों के समान अनेकों कटु शब्द कहे थे। तुमने वारणावत में बालक पाण्डवों को उनकी माता के सहित फूँक डालने का बड़ा भारी यत्न किया था। उस समय पाण्डवों को बहुत सा समय अपनी माता के सहित छिपे-छिपे एकचक्रा नगरी में बिताना पड़ा था। इसके सिवा विष देने आदि अनेकों उपायों से तुम पाण्डवों के मारने का यत्न करते रहे हो; परन्तु तुम्हारा कोई उद्योग सफल नहीं हुआ। इस प्रकार पाण्डवों के प्रति तुम्हारी सर्वदा खोटी बुद्धि और कपटमय आचरण रहा है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि महात्मा पाण्डवों के प्रति तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। यदि तुम पाण्डवों को उनका पैतृक भाग नहीं दोगे तो पापात्मन् ! याद रखो, तुम्हे ऐश्वर्य से भ्रष्ट होकर और उनके हाथ से मरकर वह देना पड़ेगा। तुमने कुटिल पुरुषों के समान पाण्डवों के साथ अनेकों न करने योग्य काम किये हैं और आज भी तुम्हारी उल्टी चाल ही दिखायी दे रही है। तुम्हारे माता-पिता, पितामह, आचार्य और विदुरजी बार-बार कह रहे हैं कि तुम सन्धि कर लो; फिर भी तुम सन्धि करने को तैयार नहीं हो। अपने इन हितैषियों की बात को न मानकर तुम कभी सुख नहीं पा सकते। तुम जो काम करना चाहते हो, वह तो अधर्म और अपयश का ही कारण है।' जिस समय भगवान् कृष्ण यह सब बातें कह रहे थे, उस समय बीच ही में दुःशासन दुर्योधन से कहने लगा, राजन् ! आप यदि आप अपनी इच्छा से पाण्डवों के साथ सन्धि नहीं करेंगे तो मालूम होता है ये भीष्म, द्रोण और हमारे पिताजी आपको, मुझे और कर्ण को बाँधकर पाण्डवों के हाथ में बाँधकर पाण्डवों के हाथ में सौंप देंगे।'  भाई की यह बात सुनकर दुर्योधन का क्रोध और बढ़ गया और वह साँप की तरह फुँफकार मारता हुआ विदुर, धृतराष्ट्र, बाह्लीक, कृप, सोमदत्त, भीष्म, द्रोण और श्रीकृष्ण---इन सभी का तिरस्कार कर वहाँ से चलने को तैयार हो गया। उसे जाते देख उसके भाई, मंत्री और सब राजालोग भी सभा छोड़कर चल दिये। तब पितामह भीष्म ने कहा, 'राजकुमार दुर्योधन बड़ा दुष्टचित्त है। वह दूषित उपायों का ही आश्रय लेता है। इसे राज्य का झूठा अभिमान है तथा क्रोध और लोभ ने इसे दबा रखा है। श्रीकृष्ण ! मैं तो समझता हूँ इन सब क्षत्रियों का काल आ गया है। इसी से अपने मंत्रियों के सहित ये सब दुर्योधन का अनुसरण कर रहे हैं।' भीष्म की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा---'कौरवों में जो बयोवृद्ध हैं, उन सभी की यह बड़ी भूल है कि वे ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त दुर्योधन को बलात् कैद नहीं कर लेते। इस विषय में मुझे जो बात मुझे स्पष्टतया हित की जान पड़ती है, वह मैं आपसे साफ-साफ कहे देता हूँ।  आपको यदि यह अनुकूल और रुचिकर जान पड़े तो कीजियेगा। देखिये, भोजराज उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा दुराचारी और दु्बुद्धि था।  उसने पिता के जीवित रहते उनका राज्य छीन लिया था। अन्त में उसे प्राणों से हाथ धोना पड़ा। अतः आपलोग भी दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन---इन चारों को बाँधकर पाण्डवों को सौंप दीजिये। कुल की रक्षा लिये एक पुरुष को, ग्राम की रक्षा लिये कुल को , देश की रक्षा के लिये ग्राम को, और अपनी रक्षा के लिये सारी पृथ्वी को त्याग देना चाहिये। इसलिये आपलोग भी दुर्योधन को कैद करके पाण्डवों से सन्धि कर लीजिये। इससे आपके कारण इन सब क्षत्रियों का नाश तो न होगा।' श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा---"भैया ! तुम परम बुद्धिमती गान्धारी के पास जाओ और उसे यहाँ लिवा लाओ। मैं उसके साथ दुरात्मा दुर्योधन को समझाऊँगा।' तब विदुरजी दीर्घदर्शिनी गान्धारी को सभा में ले आये। उससे धृतराष्ट्र ने कहा, 'गान्धारी ! तुम्हारा यह दुष्ट पुत्र मेरी बात नहीं मानता। इसने अशिष्ट पुरुषों के समान सब मर्यादा छोड़ दी है। देखो, वह हितैषियों की बात न मानकर इस समय अपने पापी और दुष्ट साथियों के सहित सभा से चला गया है।' पति की यह बात सुनकर गान्धारी ने कहा---राजन् ! आप पुत्र के मोह में फँसे हुए हैं, इसलिये इस विषय में आप ही अधिक दोषी हैं। आप यह जानकर भी कि दुर्योधन बड़ा पापी है, उसी की बुद्धि के पीछे चलते रहे हैं। दुर्योधन को भी तो काम, क्रोध और लोभ ने अपने चंगुल में फंसा रखा है। अब आप बलात् भी उसे इस मार्ग से नहीं हटा सकेंगे। आपने इस मूर्ख, दुरात्मा, कुसंगी और लोभी पुत्र को बिना कुछ सोचे-समझे राज्य की बागडोर सँभला दी; उसी का आप यह फल भोग रहे हैं। आप अपने घर में जो फूट पड़ रही है, उसकी उपेक्षा क्यों करते हैं ? इस तरह स्वजनों के फूटने पर तो शत्रुलोग आपकी हँसी करेंगे। देखिये, यदि साम या भेद से ही विपत्ति टल सकती है तो तो कोई भी बुद्धिमान् स्वजनों के दण्ड का प्रयोग क्यों करेगा ? इसके बाद राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी के कहने से विदुरजी दुर्योधन को फिर सभा में लिवा लाये। दुर्योधन की आँखें क्रोध से लाल हो रहीं थी और वह सर्प के समान फुफकारें-सी भर रहा था। इस समय माता क्या कहती हैं---यह सुनने के लिये फिर राजसभा में आ गया। तब गान्धारी ने दुर्योधन को झिड़ककर संधि करने के लिये इस प्रकार कहा, 'बेटा दुर्योधन ! मेरी यह बात सुनो। इससे तुम्हारा और तुम्हारी संतान का हित होगा तथा भविष्य में भी तुम्हे सुख मिलेगा। तुमसे तुम्हारे पिता, भीष्मजी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और विदुरजी ने जो बात कही है, उसे तुम स्वीकार कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे तो, सच मानो, इससे पितामह भीष्म की, पिताजीकी, मेरी और द्रोणाचार्य आदि अपने हितैषियों की तुम्हारे द्वारा बड़ी सेवा होगी। भैया ! राज्य को पाना, बचाना और भोगना अपने वश की बात नहीं है। जो पुरुष जितेन्द्रिय होता है, वही राज्य की रक्षा कर सकता है। काम और क्रोध तो मनुष्य को अर्थ से च्युत कर देते हैं। हाँ, इन दोनो शत्रुओं को जीतकर तो राजा सारी पृथ्वी को जीत सकता है। जिस प्रकार उद्दण्ड घोड़े मार्ग ही में मूर्ख सारथि को मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन्द्रियों को काबू में न रखा जाय तो वे मनुष्य का नाश करने के लिये भी पर्याप्त है। जो पुरुष पहले अपने मन को जीत लेता है, उसकी अपने मंत्रियों और शत्रुओं को जीतने की इच्छा भी व्यर्थ नहीं जाती। इस प्रकार इन्द्रियाँ जिसके वश में है,मंत्रियों पर जिसका अधिकार है, अपराधियों को जो दण्ड दे सकता है और जो सब काम सोच समझकर करता है, उसके पास चिरकाल तक लक्ष्मी बनी रहती है। तात ! भीष्मजी और द्रोणाचार्यजी ने जो कुछ कहा है, वह ठीक ही है। वास्तव में, श्रीकृष्ण और अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता। इसलिये तुम श्रीकृष्ण की शरण लो। यदि ये प्रसन्न होंगे तो दोनो ही पक्षों का हित होगा। भैया ! युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उसमें धर्म और अर्थ ही नहीं है, तो सुख कहाँ से होगा ? युद्ध में विजय मिल ही जायगी---ऐसा भी नहीं कहा जा सकता; इसलिये तुम युद्ध में मन मत लगाओ। यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो तो पाण्डवों का जो न्यायोचित भाग है, वह उन्हें दे दो। पाण्डवों को जो तेरह वर्ष तक घर से बाहर रखा गया, वह भी बड़ा अपराध हुआ है। अब सन्धि करके तुम इसका मार्जन कर दो। तुम जो पाण्डवों का भाग भी हड़पना चाहते हो वैसा करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है और ये कर्ण तथा दुःशासन भी ऐसा कर नहीं सकेंगे। तुम्हारा जो ऐसा विचार है कि भीष्म, द्रोण और कृप आदि महारथी अपनी पूरी शक्ति से मेरी ओर से युद्ध करेंगे---यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि इन आत्मज्ञों की दृष्टि में तो तुम्हारा और पाण्डवों का समान स्थान है। इसलिये इनके लिये तुम दोनो का राज्य और प्रेम भी समान ही है तथा धर्म को को ये उससे अधिक मानते हैं। इस राज्य का अन्न खाने के कारण ये अपने प्राण भले ही त्याग दें, किन्त राजा युधिष्ठिर की ओर कभी टेढ़ी दृष्टि नहीं करेंगे। तात ! संसार में लोभ करने से किसी को सम्पत्ति नहीं मिलती। अतः तुम लोभ छोड़ दो और पाण्डवों से सन्धि कर लो।

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