Thursday 8 December 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना तथा भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र के द्वारा उनका समर्थन

श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना तथा भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र के द्वारा उनका समर्थन
भगवान् वेदव्यास, भीष्म और नारदजी ने भी दुर्योधन को अनेक प्रकार से समझाया। उस समय नारदजी ने जो बातें कहीं थी, वो इस प्रकार हैं---'उस समय नारदजी ने जो बातें कहीं थी, वो इस प्रकार हैं---'संसार में सहृदय श्रोता मिलना कठिन है और हित की बात करनेवाला सुहृद भी दुर्लभ है; क्योंकि जिस संकट में अपने सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते हैं, वहाँ भी सच्चा मित्र संग बना रहता है। अतः कुरुनन्दन तुम्हें अपने हितैषियों की बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिये; इस तरह हठ करना ठीक नहीं है, क्योंकि हठ का परिणाम बड़ा ही दुखदायी होता है।' धृतराष्ट्र ने कहा---भगवन् ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ही है। मैं भी यही चाहता हूँ, परन्तु ऐसा कर नहीं पाता। इसके बाद श्रीकृष्ण से कहने लगे---'केशव ! आपने जो कुछ कहा है वह सब प्रकार सुखप्रद, सद्गति देनेवाला, धर्मानुकूल और न्यायसंगत है; किन्तु मैं स्वाधीन नहीं हूँ। मन्दमति दुर्योधन मेरे मन के अनुकूल आचरण नहीं करता और न शास्त्र का ही अनुसरण करता है। आप किसी प्रकार उसे समझाने का प्रयत्न करें। वह गान्धारी, बुद्धिमान विदुरजी तथा भीष्मादि जो हमारे अन्य हितैषी हैं, उनकी शुभ शिक्षा पर भी कुछ ध्यान नहीं देता। अब स्वयं आप ही इस पापबुद्धि, क्रूर और दुरात्मा दुर्योधन को समझाइये। यदि इसने आपकी बात मान ली तो आपके हाथ से अपने सुहृदों का यह बड़ा भारी काम हो जायगा।' तब सब प्रकार के धर्म और अर्थ के रहस्य को जाननेवाले श्रीकृष्ण मधुर वाणी में दुर्योधन से कहने लगे---'कुरुनन्दन !  मेरी बात सुनो। इससे तुम्हारे परिवार को बड़ा सुख मिलेगा। तुमने बड़े बुद्धिमानों के कुल में जन्म लिया है, इसलिये तुम्हे यह शुभ काम कर डालना चाहिये। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वैसा काम तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में पैदा हुए हैं तथा दुष्टचित्त, क्रूर और निर्लज्ज हैं। इस विषय में तुम्हारी जो हठ है वह बड़ी भयंकर, अधर्मरूप और प्राणों की प्यासी है। उससे अनिष्ट ही होगा। उसका कोई प्रयोजन भी नही है और न वह सफल ही हो सकती है। इस अनर्थ को त्याग देने पर ही तुम अपना तथा अपने भाई, सेवक और मित्रों का हित कर सकोगे तथा तुम जो अधर्म और अपयश की प्राप्ति करनेवाला काम करना चाहते हो, उससे छूट जाओगे। देखो, पाण्डवलोग बड़े बुद्धिमान, शूरवीर, उत्साही, आत्मज्ञ और बहुश्रुत है; तुम उनके साथ सन्धि कर लो। इसी में तुम्हारा हित है और यही महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बाह्लीक, अश्त्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा तुम्हारे अधिकांश बन्धु-बान्धवों और मित्रों को प्रिय भी हैं। भाई ! सन्धि करने में ही सारे संसार की शान्ति है। तुममें लज्जा, शास्त्रज्ञान और अक्रूरता आदि गुण भी हैं। अतः तुम्हे अपने माता-पिता की आज्ञा में ही रहना चाहिये। पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसे सब लोग हितकारी मानते हैं। जब मनुष्य बड़ी भारी विपत्ति में पड़ जाता है, तब उसे अपने पिता की ही सीख याद आती है। तुम्हारे पिताजी को तो पाण्डवों से सन्धि करना अच्छा मालूम होता है। अतः तुम्हे और तुम्हारे मंत्रियों को भी यह प्रस्ताव अच्छा लगना चाहिये।जो पुरुष मोहवश हित की बात नहीं मानता, उस दीर्घसूत्री का कोई काम पूरा नहीं होता और कोरा पश्चाताप ही उसके पल्ले पड़ता है। किन्तु जो हित की बात सुनकर अपने मत को छोड़ पहले उसी का आचरण करता है, वह संसार में सुख और समृद्धि को प्राप्त करता है। जो पुरुष अपने मुख्य सलाहकारों को छोड़कर नीच प्रकृति के पुरुषों का संग करता है, वह बड़ी भारी विपत्ति में पड़ जाता है और फिर उसे उससे निकलने का रास्ता नहीं मिलता। 'तात ! तुमने जन्म से ही अपने भाइयों के साथ कपट का व्यवहार किया है; तो भी यशस्वी पाण्डवों ने तुम्हारे प्रति सद्भाव ही रखा है। तुम्हे भी उनके प्रति वर्ताव करना चाहिये। वे तुम्हारे खास भाई ही हैं, उनपर तुम्हे रोष नहीं रखना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष ऐसा काम करते हैं, जो अर्थ, धर्म और काम की प्राप्ति करानेवाला हो; और यदि उससे इन तीनों की सिद्धि होने की सम्भावना नहीं होती तो वे धर्म और अर्थ को ही सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। अर्थ, धर्म और काम---ये तीनों अलग-अलग हैं। बुद्धिमान पुरुष इनमें से धर्म के अनुकूल रहते हैं, मध्यम पुरुष अर्थ को प्रधान मानते हैं और मूर्ख कलह के हेतुभूत काम के गुलाम बने रहते हैं। किन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर् को छोड़ देता है, वह दूषित उपायों से अर्थ और कामप्राप्ति की वासना में फँसकर नष्ट हो जाता है। अतः जो पुरुष अर्थ और काम के लिये उत्सुक हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। विद्वान् लोग धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र कारण बताते हैं। जो पुरुष अपने से सद्व्यवहार करनेवाले लोगों से दुर्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से वन के समान आप ही अपनी जड़ काटता है। मनुष्य को चाहिये कि जिसे नीचा दिखाने की इच्छा न हो, उसकी बुद्धि लोभ से भ्रष्ट न करे। इस प्रकार जिसकी बुद्धि लोभ से दूषित नहीं है, उसी का मन कल्याण साधन में लग सकता है। ऐसा शुद्धबुद्धिवाला पुरुष, पाण्वों का तो क्या, संसार में किन्हीं साधारण मनुष्यों का भी अनादर नहीं करता। किन्तु क्रोध के चंगुल में फँसा हुआ मनुष्य अपना हिताहित कुछ नहीं समझता। लोक और वेद में जो बड़े-बड़े प्रमाण प्रसिद्ध हैं, उनसे भी वह गिर जाता है। अतः दुर्जनों की अपेक्षा यदि तुम पाण्डवों का संग करोगे तो तुम्हारा ही कल्याण होगा। तुम जो पाण्डवों की ओर मुँह मोड़कर किसी दूसरे के भरोसे अपनी रक्षा करना चाहते हो तथा दुःशासन, कर्ण और शकुनि के हाथ में अपना ऐश्वर्य सौंपकर पृथ्वी को जीतने की आशा रखते हो; सो याद रखो---ये तुम्हे ज्ञान, धर्म और अर्थ की प्राप्ति नहीं करा सकते। पाण्डवों के मने इनका कुछ भी पराक्रम नहीं चल सकता। तुम्हें साथ रखकर भी ये सब राजा पाण्डवों की टक्कर से नहीं झेल सकते। तुम्हारे पास यह जितनी सेना इकट्ठी हुई है, वह क्रोधित भीमसेन के मुख की ओर तो आँख भी नहीं उठा सकती। ये भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, भूरिश्रवा, अश्त्थामा और जयद्रथ मिलकर भी अर्जुनका मुकाबला नहीं कर सकते। अर्जुन को युद्ध में परास्त करना तो समस्त देवता, असुर, गन्धर्व और मनुष्यों के भी वश की बात नहीं है। इसलिये तुम युद्ध में अपना मन मत लगाओ।
अच्छा ! भला तुम इन सब राजाओं में कोई ऐसा वीर दिखाओ जो रणभूमि में अर्जुन का सामना करके फिर सकुशल लौट आ सकता हो। इसके लिये विराटनगर में अकेले अर्जुन की अनेकों महारथियों से युद्ध करने की जो अद्भुत बात सुनी जाती है, वही प्रमाण है। अजी ! जिसन संग्राम में साक्षात् श्रीशंकर को भी संतुष्ट कर दिया, उस अजेय और विजयी वीर अर्जुन को तुम जीतने की आशा रखते हो ? फिर जब मैं भी उसके साथ हूँ तब तो, साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हो, ऐसा कौन है जो अपने मुकाबले में आये हुए अर्जुन को युद्ध के लिये ललकार सके।जो पुरुष अर्जुन को जीतने की शक्ति रखता है वह तो अपने हाथों से पृथ्वी को उठा सकता है, क्रोध से सारी प्रजा को भष्म कर सकता है और देवताओं को भी स्वर्ग से गिरा सकता है। तुम तनिक अपने पुत्र, भाई, बन्धु-बान्धव और सम्बन्धियों की ओर तो देखो। ये तुम्हारे लिये नष्ट न हों। देखो ! कौरवों का बीज बना रहने दो, इस वंश का पराभव मत करो; अपने को 'कुलघाती' मत कहलाओ और अपनी कीर्ति को कलंकित मत करो। महारथी पाण्डव तुम्हे ही युवराज बनायेंगे और इस साम्राज्य पर तुम्हारे पिता धृतराष्ट्र को ही स्थापित करेंगे। देखो, बड़े उत्साह से अपने पास आती हुई राजलक्ष्मी का तिरस्कार मत करो और पाण्डवों को आधा राज्य देकर यह महान् ऐश्वर्य प्राप्त कर लो। यदि तुम पाण्डवों से सन्धि कर लोगे और अपने हितैषियों का बात मानोगे तो चिरकाल तक अपने मित्रों के साथ आनन्दपूर्क सुख भोगोगे।' श्रीकृष्ण का यह भाषण सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्म ने दुर्योधन से कहा---'तात ! अपने सुहृदों का हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण ने तुम्हे समझाया है, इसका यही आशय है कि तुम अब भी मान जाओ और व्यर्थ की असहिष्णुता छोड़ दो। यदि तुम महामना श्रीकृष्ण की बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा कभी हित नहीं हो सकता और न तुम सुख ही पा सकोगे। श्रीकेशव ने जो कुछ कहा है, वह धर्म और अर्थ के अनुकूल है। तुम उसे स्वीकार कर लो, व्यर्थ प्रजा का संहार मत कराओ। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हे तथा तुम्हारे मन्त्री, पुत्र और बन्धु-बान्धवों को अपने प्राणों से भी हाथ धोने पड़ेंगे। भरतनन्दन ! श्रीकृष्ण, धृतराष्ट्र और विदुर के नीतियुक्त का उल्लंघन कर तुम अपने को कुलघ्न, कुपुरुष, कुमति और कुमार्गगामी मत कहलाओ तथा अपने माता-पिता को शोकसागर में मत डुबाओ।'  इसके बाद द्रोणाचार्य ने कहा---'राजन् ! श्रीकृष्ण और भीष्मजी बड़े बुद्धिमान, मेधावी, जितेनद्रिय, अर्थनिष्ठ और बहुश्रुत हैं। उन्होंने तुम्हारे हित की ही बात कही है, तुम उसे मान लो और मोहवश श्रीकृष्ण का तिरस्कार मत करो। जो लोग तुम्हे युद्ध के लिये उत्साहित कर रहे हैं, उनसे तुम्हारा कुछ भी काम बन नहीं सकेगा; ये तो संग्राम में शत्रुओं के प्रति वैर-विरोध का घण्टा दूसरों के ही गले में ही बाँधेंगे। तुम अपनी प्रजा और पुत्र तथा बन्धु और बान्धवों के प्राणों को संकट में मत डालो। यह बात निश्चय मानो कि जिस पक्ष में श्रीकृष्ण और अर्जुन होंगे, उसे कोई भी जीत नहीं सकेगा। यदि तुम अपने हितैषियों की बात नहीं मानोगे तो पीछे तुम्हे पछतावा ही हाथ लगेगा। परशुरामजी ने अर्जुन के विषय में जो कुछ कहा है, वास्तव में वह उससे भी बढ़कर है, तथा देवकीनन्दन श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिये भी दुःसह हैं। किन्तु राजन् ! तुम्हारे सुख और हित की बात कहने से बनता क्या है ? अस्तु, तुमसे सब बातें समझाकर कह दी गयीं; अब जो तुम्हारी इच्छा हो, वह करो। मैं तुमसे और अधिक कुछ नहीं कहना चाहता। इसी बीच में विदुरजी भी बोल उठे---'दुर्योधन ! तुम्हारे लिये तो मुझे कोई चिन्ता नहीं है; मुझे तो तुम्हारे इस बूढ़े माँ-बाप की ओर देखकर ही शोक होता है, जो तुम्हारे-जैसे दुष्टहृदय पुरुष के संरक्षण में होने से एक दिन अपने सब सलाहकार और सुहृदों के मार जाने पर कटे हुए पक्षियों के समान असहाय होकर भटकोगे।' अन्त में राजा धृतराष्ट्र कहने लगे---'दुर्योधन ! महात्मा कृष्ण ने जो बात कही है, वह सब प्रकार कल्याण करनेवाली हैं। तुम उसपर ध्यान दो और उसी के अनुसार आचरण करो। देखो, पुण्यकर्मा श्रीकृष्ण की सहायता से हम सब राजाओं से अपने अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर सकते हैं। तुम इनके साथ राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और वह काम करो, जिससे सब भरतवंशियों का मंगल हो। मेरी समझ में तो यह संधि करने का ही समय है, तुम इसे हाथ से मत जाने दो। देखो, श्रीकृष्ण सन्धि के लिये प्रार्थना कर रहे है और तुम्हारे हित की बात कह रहे हैं। इस समय यदि तुम इनकी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा पतन किसी प्रकार नहीं रुक सकेगा।

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