Wednesday 30 November 2016

उद्योग-पर्व---परशुरामजी और महर्षि कण्व का सन्धि के लिये अनुरोध तथा दुर्योधन की उपेक्षा

परशुरामजी और महर्षि कण्व का सन्धि के लिये अनुरोध तथा दुर्योधन की उपेक्षा
जब भगवान् कृष्ण ने ये सब बातें कहीं तो सभी सभासदों का रोमांच हो आया और वे चकित से हो गये। वे मन-ही-मन तरह-तरह से विचार करने लगे। उनके मुख से कोई भी उत्तर नहीं मिला। सब राजाओं को इस प्रकार मौन हुआ देख उस सभा में बैठे हुए महर्षि परशुरामजी कहने लगे, "राजन् ! तुम सब प्रकार का संदेह छोड़कर मेरी एक सत्य बात सुनो। वह तुम्हे अच्छी लगे तो उसके अनुसार आचरण करो। पहले दम्भोदव नाम का एक सार्वभौम राजा हो गया है। वह महारथी सम्राट नित्यप्रति प्रातःकाल उठकर ब्राह्मण और क्षत्रियों से पूछा करता था कि 'क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में कोई ऐसा शस्त्रधारी है, जो युद्ध में मेरे समान अथवा मुझसे बढ़कर हो ?' इस प्रकार कहते हुए वह राजाअत्यन्त गर्वोन्मत्त होकर इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर विचरता था। राजा का ऐसा घमण्ड देखकर कुछ तपस्वी ब्राह्मणों ने उससे कहा, 'इस पृथ्वी पर ऐसे दो सत्पुरुष हैं, जिन्होंने संग्राम में अनेकों को परास्त किया है। उनकी बराबरी तुम कभी नहीं कर सकोगे।' इसपर उस राजा ने पूछा, 'वे वीर पुरुष कहाँ हैं ? उन्होंने कहाँ जन्म लिया है ? वे क्या काम करते हैं ? और वे कौन हैं ?' ब्राह्मणों ने कहा, 'वे नर और नारायण नाम के दो तपस्वी हैं, इस सम वे मनुष्यलोक से आये हुए हैं; तुम उनके साथ युद्ध करो। वे गन्धमादन पर्वत पर बड़ा ही घोर और अवर्णनीय तप कर रहे हैं।'  "राजा को यह बात सहन नहीं हुई। वह उसी समय बड़ी भारी सेना सजाकर उनके पास चल दिया और गन्धमादन पर जाकर उनकी खोज करने लगा। थोड़ी ही देर में उसे वे दोनो मुनि दिखायी दिये। उनके शरीर के शिराएँ तक दीखने लगीं थीं। शीत, घाम और वायु को सहन करने के कारण वे बहुत ही कृश हो गये थे। राजा उनके पास गया और चरण-स्पर्श कर उनसे कुशल पूछी। मुनियों ने भी फल, मूल, आसन और जल से राजा का सत्कार करके पूछा, 'कहिये हम आपका क्या काम करें ?' राजा ने उन्हें आरम्भ से ही सब बातें सुनाकर कहा कि 'इस समय मैं आपसे युद्ध करने के लिये आया हूँ। यह मेरी बहुत दिनों की अभिलाषा है, इसलिये इसे स्वीकार करके ही आप मेरा आतिथ्य कीजिये।' नर-नारायण ने कहा, 'राजन् ! इस आश्रम में क्रोध-लोभ आदि दोष नहीं रह सकते; यहाँ युद्ध की तो कोई बात ही नहीं है, फिर अस्त्र-शस्त्र और कुटिल प्रकृति के लोग कैसे सह सकते हैं ? पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, तुम किसी दूसरी जगह जाकर युद्ध के लिये प्रार्थना करो।' नर-नारायण के इसी प्रकार बार-बार समझाने पर भी दम्भोदव की युद्धलिप्सा शान्त न हुई और इसके लिये उनसे आग्रह करता ही रहा। "तब भगवान् नर ने एक मुट्ठी सींके लेकर कहा, 'अच्छा, तुम्हे युद्ध की बड़ी लालसा है तो अपने हथियार उठा लो और अपनी सेना को तैयार करो।' यह सुनकर दम्भोदव और उनके सैनिकों ने उनपर बड़े पैने बाणों की वर्षा करना आरम्भ कर दिया। भगवान् नर ने एक सींक को अमोघ अस्त्र के रूप में परिणत करके छोड़ा। इससे यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि मुनिवर नर ने उन सब वीरों के आँख, नाक और कानों को सींकों से भर दिया। इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सींकों से भर दिया। इसी प्रकार सारे आकाश को सफेद सीकों से भरा देखकर राजा दम्भोदव उनके चरणों में गिर पड़ा और 'मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो' इस प्रकार चिल्लाने लगा। तब शरणागतवत्सल नर ने शरणापन्न राजा से कहा, 'राजन् ! तुम ब्राह्मणों की सेवा करो और धर्म का आचरण करो; ऐसा काम फिर कभी मत करना। तुम बुद्धि का आश्रय लो और लोभ को छोड़ दो तथा अहंकारशून्य, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, मृदुल और शान्त होकर प्रजा का पालन करो। अब भविष्य में तुम किसी का अपमान मत करना।" "इसके बाद राजा दम्भोदव उन मुनीश्वरों के चरणों में प्रणाम कर अपने नगर मे लौट आया और अच्छी तरह धर्मानुकूल व्यवहार करने लगा। इस प्रकार उस समय नर ने बड़ा भारी काम किया था। इस समय नर ही अर्जुन है। अतः जबतक वे अपने श्रेष्ठ धनुष गाण्डीव पर बाण न चढ़ावें, तभीतक तुम मान छोड़कर अर्जुन की शरण ले लो। जो संपूर्ण जगत् के निर्माता, सबके स्वामी और समस्त कर्मों के साक्षी हैं, वे नारायण अर्जुन के सखा हैं। इसलिय युद्ध में उनके पराक्रम को सहना तुम्हारे लिये कठिन होगा। अर्जुन में अगनित गुण हैं और श्रीकृष्ण तो उनसे भी बढ़कर हैं। कुन्तीपुत्र अर्जुन के गुणों का तो तुम्हें भी कई बार परिचय मिल चुका है। जो पहले नर और नारायण थे वे ही इस समय अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों को तुम समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ और बड़े वीर समझो। यदि तुम्हे मेरी बात ठीक जान पड़ती हो और मेरे प्रति किसी प्रकार का संदेह न हो तो तुम सद्बुद्धि का आश्रय लेकर पाण्डवों के साथ सन्धि कर लो।" परशुरामजी का भाषण सुनकर महर्षि कण्व भी दुर्योधन से कहने लगे---लोकपितामह ब्रह्मा और नर-नारायण---ये अक्षय और अविनाशी है। अदिति के पुत्रों में केवल विष्णु ही सनातन, अजेय, अविनाशी, नित्य एवं सबके ईश्वर हैं। उनके सिवा चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ग्रह और तारे----ये सभी विनाश का कारण उपस्थित होने पर भी नष्ट हो जाते हैं। जब संसार का प्रलय होता है तो ये सभी पदार्थ तीनों लोकों को त्यागकर नष्ट हो जाते हैं और सृष्टि का आरम्भ होने पर बार-बार आरम्भ होने पर बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं। इन सब बातों पर विचार करके तुम्हें धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सन्धि कर लेनी चाहिये, जिससे कौरव और पाण्डव मिलकर पृथ्वी का पालन करे। दुर्योधन ! तुम ऐसा मत समझो कि मैं बड़ा बली हूँ। संसार में बलवानों की अपेक्षा भी दूसरे बली पुरुष भी दिखायी देते हैं। सच्चे शूरवीरों के सामने सेना की शक्ति कुछ काम नहीं करती। पाण्डवलोग तो सभी देवताओं के समान शूरवीर और पराक्रमी हैं। वे स्वयं वायु, इन्द्र, धर्म और दोनो अश्विनीकुमार ही हैं। इन देवताओं की ओर तो तुम देख भी नहीं सकते। इसलिये इनसे विरोध छोड़कर सन्धि कर लो। तुम्हे इन तीर्थस्वरूप श्रीकृष्ण के द्वारा अपने कुल की रक्षा का प्रयत्न करना चाहिये। यहाँ महान् तपस्वी नारदजी विराजमान हैं। ये श्रीविष्णुभगवान् के महात्म्य को प्रत्यक्ष जानते हैं और वे चक्र-गदाधर श्रीविष्णु ही यहाँ श्रीकृष्णरूप में विद्यमान हैं। महर्षि कण्व की बात सुनकर दुर्योधन लम्बी-लम्बी साँस लेने लगा, उसकी त्योरी चढ़ गयी और वह कर्ण की तरफ देखकर जोर-जोर से हँसने लगा। उस दुष्ट ने कण्व के कथन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और ताल ठोककर इस प्रकार कहने लगा, 'महर्षे ! जो कुछ होनेवाला है और जैसी मेरी गति होनी है, उसी के अनुसार ईश्वर ने मुझे रचा है और वैसा ही मेरा आचरण है। उसमें आपके कथन से क्या होना है ?"

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