Tuesday 22 November 2016

उद्योग-पर्व---राजा दुर्योधन का निमंत्रण छोड़कर भगवान् का विदुरजी के यहाँ भोजन तथा उनसे बातचीत करना

राजा दुर्योधन का निमंत्रण छोड़कर भगवान् का विदुरजी के यहाँ भोजन तथा उनसे बातचीत करना
श्रीकृष्ण के पहुँचते ही दुर्योधन अपने मंत्रियों सहित आसन से खड़ा हो गया। भगवान् दुर्योधन और उसके मंत्रियों से मिलकर फिर वहाँ एकत्रित हुए सब राजाओं से उनकी आयु के अनुसार मिले। इसके पश्चात् वे एक अत्यन्त विशद सुवर्ण के पलंग पर बैठ गये। स्वागत सत्कार के अनन्तर राजा दुर्योधन ने भोजन के लिये प्रार्थना की, किन्तु श्रीकृष्ण ने उसे स्वीकार नहीं किया। तब दुर्योधन ने श्रीकृष्ण से आरम्भ में मधुर किन्तु परिणाम में शठता से भरे हुए शब्दों में कहा, 'जनार्दन ! हम आपको जो अच्छे-अच्छे खाद्य और पेय पदार्थ तथा वस्त्र और शय्याएँ भेंट कर रहे हैं, उन्हें आप स्वीकार क्यों नहीं करते ? आपने तो दोनो ही पक्षों को सहायता दी है और आप हित भी दोनो का ही करना चाहत हैं। इसके सिवा आप महाराज धृतराष्ट्र के सम्बन्धी और प्रिय भी हैं ! धर्म और अर्थ का रहस्य भी आप अच्छी तरह जानते ही हैं। अतः इसका क्या कारण है, यह मैं सुनना चाहता हूँ।' दुर्योधन के इस प्रकार पूछने पर महामना मधुसूदन ने अपनी विशाल भुजा उठाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा 'राजन् ! ऐसा नियम है कि दूत अपना उद्देश्य पूर्ण होने पर ही भोजनादि ग्रहण करते हैं। अतः जब मेरा काम पूरा हो जाय, तब तुम भी मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना। मैं काम, क्रोध, द्वेष,स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़कर किया जाता है। सो तुम्हारा तो मेरे प्रति ्रेम नहीं है और मैं किसी आपत्ति में ग्रस्त नहीं हूँ। देखो, पाण्डव तो तुम्हारे भाई ही हैं; वे सदा अपने स्नेहियों के अनुकूल रहते हैं और उनमें सभी सद्गुण विद्यमान हैं। फिर भी तुम बिना कारण जन्म से ही उनसे द्वेष करते हो। उनके साथ द्वेष करना ठीक नहीं है। वे तो सर्वदा अपने धर्ममें ही स्थित रहते हैं। उनसे जो द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। धर्मात्मा पाण्डवों के साथ तो तुम मुझे एकरूप हुआ ही समझो। जो पुरुष काम और क्रोध का गुलाम है तथा मूर्खतावश गुणवानों और विद्वानों से द्वेष करता है, उसी को अधम कहते हैं। तुम्हारे इस सारे अन्न का सम्बन्ध दुष्ट पुरुषों से है, इसलिये यह खानेयोग्य नहीं है। मेरा तो यही विचार है कि मुझे केवल विदुरजी का अन्न खाना चाहिये।'  दुर्योधन से ऐसा कहकर श्रीकृष्ण उसके महल से निकलकर विदुरजी के घर आ गये। विदुरजी के घर पर ही उनसे मिलने के लिये भीष्म, द्रोण, कृप, बाह्लीक तथा कुछ अन्य कुरुवंशी आये। उन्होंने कहा, 'वार्ष्णेय ! हम आपको उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण अनेकों भवन समर्पित करते हैं, वहाँ चलकर आप विश्राम कीजिये।'  उनसे श्रीमधुसूदन ने कहा---'आप सब लोग पधारें, आप मेरा सब प्रकार सत्कार कर चुके।' उनसे श्रीमधुसूदन ने कहा---'आप सब लोग पधारें, आप मेरा सब प्रकार सत्कार कर चुके।' कौरवों के चले जाने पर विदुरजी ने बड़े उत्साह से श्रीकृष्ण का पूजन किया। फिर उन्होंने उन्हें अनेक प्रकार के उत्तम और पुणयुक्त भोज्य और पेय पदार्थ दिये। उन पदार्थों से श्रीकृष्ण ने पहले ब्राह्मणों को तृप्त किया और फिर अपने अनुयायियों के सहित बैठकर स्वयं भोजन किया। जब भोजन के पश्चात् भगवान् विश्राम करने लगे तो रात्रि के समय विदुरजी ने उनसे कहा---"केशव ! आप यहाँ आये, यह विचार आपने ठीक नहीं किया। मन्दमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनो को ही छोड़ बैठा है। वह क्रोधी और गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला है; धर्मशास्त्र को तो वह कुछ समझता ही नहीं, अपनी ही हठ रखता है। उसे किसी सन्मार्ग में ले जाना ही असंभव है। वह विषयों का कीड़ा, अपने को बड़ा बुद्धिमान माननेवाला, मित्रों से द्रोह करनेवाला, सभी  को शंका की दृष्टि से देखनेवाला, कृतध्न और बुद्धिहीन है। इसके सिवा उसमें और भी अनेकों दोष हैं। आप उससे हित की बात कहेंगे तो भी वह क्रोधवश कुछ सुनेगा नहीं। भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, अश्त्थामा और जयद्रथ के कारण उसे इस राज्य को स्वयं ही हड़प जाने का पूरा भरोसा है। इसलिये उसे सन्धि करने का विचार ही नहीं होता। उसे तो पूरा विश्वास है कि अकेला कर्ण ही मेरे सारे शत्रुओं को जीत लेगा। इसलिये वह सन्धि नहीं करेगा।आप तो सन्धि का प्रयत्न कर रहे हैं; किन्तु धृतराष्ट्र के पुत्रों ने तो यह प्रतिज्ञा कर ली है कि 'पाण्डवोंको उनका भाग कभी नहीं देंगे।' जब उनका ऐसा विचार है तो उनसे कुछ भी कहना व्यर्थ ही होगा। "श्रीकृष्ण ! पहले जिन राजाओं ने आपके साथ वैर ठाना था, उन सबने अब आपके भय से दुर्योधन का आश्रय लिया है। वे सब योद्धा दुर्योधन के साथ मेल करके अपने प्राण तक निछावर करके पाण्डवों से लड़ने को तैयार हैं। अतः आप उन सबके बीच में जायँ---यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती। यद्यपि देवतालोग भी आपके सामने नहीं टिक सकते और मैं आपके प्रभाव, बल और बुद्धि को अच्छी तरह जानता हूँ, तथापि आपके प्रति प्रेम और सौहार्द का भाव होने के कारण मैं ऐसा कह रहा हूँ। कमलनयन ! आपका दर्शन करके आज मुझे जैसी प्रसन्नता हो रही है, वह मैं आपसे क्या कहूँ ? आप तो सभी देहधारियों के अन्तरात्मा हैं, आपसे छिपा ही क्या है ?" श्रीकृष्ण ने कहा---विदुरजी ! एक महान् बुद्धिमान को जैसी बात कहनी चाहिये और मुझ जैसे प्रेमपात्र से आपको जो कुछ कहना चाहिये तथा आपके मुख से जैसा धर्म और अर्थ से युक्त वचन निकलना चाहिये, वैसी ही बात आपने माता-पिता के समान स्नेहवश कही है। मैं दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रियवीरों के वैरभाव आदि सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह धर्मतः प्राप्त कार्य को करे। यथाशक्ति प्रयत्न करने पर भी यदि वह उसे पूरा न कर सके तो भी उसे पुण्य तो अवश्य ही मिल जायगा---इसमें मुझे संदेह नहीं है। दुर्योधन और उसके मंत्रियों को भी मेरी शुभ, हितकारी एवं धर्म एवं अर्थ के अनुकूल बात माननी ही चाहिये। मैं तो निष्कपटभाव से कौरव, पाण्डव और पृथ्वीतल के समस्त क्षत्रियों के हित का प्रयत्न करूँगा। इस प्रकार हित का प्रयत्न करने पर भी यदि दुर्योधन मेरी बात में शंका करे तो भी मेरा चित्त तो प्रसन्न ही होगा और मैं अपने कर्तव्य से उऋण भी हो जाऊँगा।' श्रीकृष्ण सन्धि करा सकते थे तो भी उन्होंने क्रोध के आवेश में आये हुए कौरव-पाण्डवों को रोका नहीं'---यह बात मूढ़ अधर्मी न कहें, इसलिये मैं यहाँ सन्धि कराने के लिये आया हूँ। दुर्योधन ने यदि मेरी धर्म और अर्थ के अनुकूल हित की बात सुनकर भी उसपर ध्यान न दिया तो वह अपने किये का फल भोगेगा। इसके पश्चात् यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण पलंग पर लेट गये। वह सारी रात महात्मा विदुर और श्रीकृष्ण के इसी प्रकार बात करते-करते बीत गयी।

No comments:

Post a Comment