Thursday 10 November 2016

उद्योगपर्व---हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ और कौरवों की सभा में परामर्श

हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ और कौरवों की सभा में परामर्श
इधर जब दूतों के द्वारा राजा धृतराष्ट्र को पता लगा कि श्रीकृष्ण आ रहे हैं तो उन्हें हर्ष से रोमांच हो आया और उन्होंने बड़े आदर से भीष्म, द्रोण, संजय, विदुर, दुर्योधन और उसके मंत्रियों से कहा, 'सुना है, पाण्डवों के काम से हमसे मिलने के लिये श्रीकृष्ण आ रहे हैं। वे सब प्रकार हमारे माननीय और पूज्य हैं। सारे लोकव्यवहार उन्हीं में अधिष्ठित हैं, क्योंकि वे समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं; उनमें धैर्य, वीर्य, प्रज्ञा और ओज---सभी गुण हैं। वे सनातन धर्मरूप हैं, इसलिये सब प्रकार सम्मान के योग्य हैं। उनका सत्कार करने में ही सुख है, असत्कृत होने पर वे दुःख के निमित्त बन जाते हैं। यदि हमारे सत्कार से वे संतुष्ट हो गये तो समस् राजाओं के समान हमारे सभी अभीष्ट सिद्ध हो जायेंगे। दुर्योधन ! तुम उनके स्वागत सत्कार की आज ही से तैयारी करो और रास्ते में सब प्रकार की आवश्यक सामग्री से सम्पन्न विश्रामस्थान बनवाओ। तुम ऐसा उपाय कर, जिसे श्रीकृष्ण हमारे ऊपर प्रसन्न हो जायँ। भीष्मजी ! इस विषय में आपकी क्या सम्मति है ?'  तब भीष्मादि सभी सभासदों ने राजा धृतराष्ट्र के कथन की प्रशंसा की और कहा कि 'आपका विचार बहुत ठीक है।' उन सबकी अनुमति जानकर दुर्योधन ने जहाँ-तहाँ सुन्दर विश्रामस्थान बनवाने आरम्भ कर दिये। जब उसने देवताओं के स्वागत के योग्य सब प्रकार की तैयारी करा ली तो राजा धृतराषट्र को इसकी सूचना दे दी। किन्तु श्रीकृष्ण ने उन विश्रामस्थान और तरह-तरह के रत्नों की ओर दृष्टि भी नहीं डाली। दुर्योधन के सब तैयारी की सूचना पाकर राजा धृतराष्ट्र ने विदुरजी से कहा---विदुर ! श्रीकृष्ण उपल्व्य से इस ओर आ रहे हैं। आज उन्होंने वृकस्थल में विश्राम किया है। कल प्रातःकाल से यहाँ आ जायेंगे। वे बड़े ही उदारचित्त, पराक्रमी और महाबली हैं। यादवों का जो विस्तृत राज्य है, उसका पालन और रक्षण करनेवाले ये ही हैं। ये तो तीनों लोकों के पितामह और ब्रह्माजी के भी पिता हैं। इसलिये हमारी स्त्री, पुरुष, बालक, बृद्ध ---जितनी प्रजा है, उसे साक्षात् सूर्य के समान श्रीकृष्ण के दर्शन करने चाहिये। सब ओर बड़ी-बड़ी ध्वजा और पताकाएँ लगवा दो तथा उनके आने के मार्ग को झड़वा-बुहरवाकर उसपर जल छिड़कवा दो।देखो, दुःशासन का भवन दुर्योधन के महल से भी अच्छा है। उसे शीघ्र ही साफ कराकर अच्छी तरह से सुसज्जित करा दो।उस भवन में बड़े सुन्दर-सुन्दर कमरे और अट्टालिकाएँ हैं, उसमें सब प्रकार का आराम है और एक ही समय सब ऋतुओं का आनन्द मिल सकता है। मेरे और दुर्योधन के महलों में जो-जो बढ़िया चीजें हैं, वे सब उसी में सजा दो तथा उनमें से जो-जो पदार्थ श्रीकृष्ण के योग्य हों वे अवश्य उनकी भेंट कर दो। विदुरजी ने कहा---राजन् ! आप तीनों लोकों में बड़े सम्मानित हैं और इस लोक में बड़े प्रतिष्ठित तथा माननीय माने जाते हैं। इस समय आप जो बातें कह रहे हैं, वह शास्त्र या उत्तम युक्ति के आधार पर ही कही जान पड़ती है। इससे मालूम होता है कि आपकी बुद्धि स्थिर है। बयोबृद्ध तो आप हैं ही। किन्तु मैं आपको वास्तविक बात बताये देता हूँ। आप धन देकर या किसी दूसरे प्रयत्न द्वारा श्रीकृष्ण को अर्जुन से अलग नहीं कर सकेंगे।  मैं श्रीकृष्ण की महिमा जानता हूँ और पाण्डवों पर उनका जैसा सुदृढ़ अनुराग है, वह भी मुझसे छिपा नहीं है। अर्जुन तो उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं, उसे तो वे छोड़ ही नहीं सकते। वे जल से भरे हुए घड़े, पैर धोने के जल और कुशल-प्रश्न के सिवा आपकी और किसी चीज की ओर तो आँख उठाकर भी नहीं देखेंगे। हाँ, उन्हें अतिथि सत्कार प्रिय अवश्य है और वे सम्मान के योग्य हैं भी। इसलिये उनका सत्कार तो अवश्य कीजिये। इस समय श्रीकृष्ण दोनों पक्षों के हित की कामना से जिस काम के लिये आ रहे हैं, उसे आप पूरा करें। वे तो पाण्डवों के साथ आपकी और दुर्योधन की सन्धि कराना चाहते हैं। उनकी इस बात को आप मान लीजिये। महाराज ! आप पाण्डवों के पिता हैं, वे आपके पुत्र हैं; आप बृद्ध हैं, वे आपके सामने बालक हैं। वे आपके पुत्रों की तरह वर्ताव कर रहे हैं, आप भी उनके साथ पिता के तरह वर्ताव करें। दुर्योधन बोला---पिताजी ! विदुरजी ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है। श्रीकृष्ण का पाण्डवों के प्रति बड़ा प्रेम है। उन्हें उधर से कोई तोड़ नहीं सकता। अतः आप उनके त्कार के लिये जो तरह-तरह की वस्तुएँ देना चाहते हैं, वे उन्हें कभी नहीं देनी चाहिये। दुर्योधन की यह बात सुनकर पितामह भीष्म ने कहा---श्रीकृष्ण ने अपने मन मे जो कुछ करने का निश्चय कर लिया होगा, उसे किसी भी प्रकार बदल नहीं सकेगा। इसलिये वे जो कुछ कहें, वही बात निःसंशय होकर करनी चाहिये। तुम श्रीकृष्णरूप सचिव के द्वारा पाण्डवों से शीघ्र ही सन्धि कर लो। धर्मप्राण श्रीकृष्ण अवश्य ऐसी ही बातें कहेंगे, जो धर्म के अर्थ के अनुकूल होंगी। अतः तुम्हे और तुम्हे सम्बन्धियों को उनके साथ प्रियभाषण करना चाहिये।' दुर्योधन ने कहा---पितामह ! मुझे यह बात मंजूर नहीं है कि जबक मेरे शरीर में प्राण हैं, तबतक मैं इस राजलक्ष्मी को पाण्डवों के साथ मिलकर भोगूँ। जिस महत्कार्य को करने का मैने विचार किया है, वह तो यह है कि मैं पाण्डवों के पक्षपाती कृष्ण को कैद कर लूँ। उन्हें कैद करते ही समस्त यादव, सारी पृथ्वी और पाण्डवलोग मेरे अधीन हो जायेंगे और वे प्रातःकाल यहाँ आ ही रहे हैं। अब आपलोग मुझे ऐसी सलाह दीजिये, जिससे इस बात का कृष्ण को पता न लगे और किसी प्रकार की हानि भी न हो।श्रीकृष्ण के विषय में यह भयंकर बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र और उनके मंत्रियों को बड़ी चोट लगी और वे व्याकुल हो गये। फिर उन्होंने दुर्योधन से कहा---'बेटा ! तू अपने मुँह से ऐसी बात न निकाल। यह सनातन धर्म के विरुद्ध है। श्रीकृष्ण तो दूत बनकर आ रहे हैं। यों भी वे हमारे संबंधी और सुहृद हैं। उन्होंने कौरवों का कुछ बिगाड़ा भी नहीं है। फिर वे कैद किये जाने योग्य कैसे हो सकते हैं ?'  भीष्म ने कहा---धृतराष्ट्र ! मालूम होता है कि तुम्हारे इस मंदमति पुत्र को मौत ने घेर लिया है। इसके सुहृद और सम्बन्धी कोई हित की बात बताते हैं तो भी यह अनर्थ को ही गले लगाना चाहता है। यह पापी तो कुमार्ग में चलता ही है, इसके साथ तुम भी अपने हितैषियों की बात पर ध्यान न देकर इसी की लीक पर चलना चा हते हो। तुम नहीं जानते, यह दुर्बुद्धि यदि श्रीकृष्ण के मुकाबले खड़ा हो गया तो एक क्षण में अपने सब सलाहकारों के सहित नष्ट हो जायगा। इस पापी ने धर्म को तो एकदम तिलांजली दे दी है, इसका हृदय बड़ा ही कठोर है। मैं इसकी यह अनर्थपूर्ण बातें बिलकुल नहीं सुन सकता। ऐसा कहकर पितामह भीष्म अत्यन्त क्रोध में भरकर उसी समय सभा से उठकर चले गये।

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