Thursday 17 November 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में प्रवेश तथा राजा धृतराष्ट्र, विदुर और कुन्ती के यहाँ जाना

श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर में प्रवेश तथा राजा धृतराष्ट्र, विदुर और कुन्ती के यहाँ जाना
इधर श्रीकृष्ण के नगर के समीप पहुँचने पर दुर्योधन के सिवा और सब धृतराष्ट्रपुत्र तथा भीष्म, द्रोण और कृप आदि खूब बन-ठनकर उनकी आगवानी के लिये आये। उनके सिवा अनेकों नगर-वासी भी कृष्णदर्शन की लालसा से पैदल और तरह-तरह की सवारियों में बैठकर चले। रास्तें ही भी भीष्म, द्रोण और सब धृतराष्ट्रपुत्रों से भगवान से समागम हो गया और  उनसे घिरकर उन्होंने हस्तिनापुर में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण के सम्मान के लिये सारा नगर खूब सजाया गया था।  राजमार्ग से तो अनेकों बहुमूल्य और दर्शनीय वस्तुएँ बड़े ढ़ंग से सजायी गयी थी। श्रीकृष्ण को देखने के लिये उत्कण्ठा के कारण उस दिन कोई भी स्त्री, बूढ़ा या बालक घर में नहीं टिका। सभी लोग राजमार्ग में आकर पृथ्वी पर झुक-झुककर श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने इस सारी भीड़ को पार करके महाराज धृतराष्ट्र के राजभवन में प्रवेश किया। यहमहल आसपास के अनेकों भवनों से सुशोभित था। इनमें तीन ड्योढ़ियाँ थीं। उन्हें लाँघकर श्रीकृष्ण राजा धृतराष्ट्र के पास पहुँच गये। श्रीरघुनाथजी के पहुँचते ही कुरुराज धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण आदि सभी सभासदों के सहित खड़े हो गये। उस समय कृपाचार्य, सोमदत्त और बाह्लीक ने भी अपने आसनों से उठकर श्रीकृष्ण का सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के पास जाकर वाणी द्वारा उनका सत्कार किया। इस प्रकार उनकी धर्मानुसार पूजा कर वे क्रमशः सभी राजाओं से मिले और आयु के अनुसार उनका यथायोग्य सम्मान किया।श्रीकृष्ण के लिये वहाँ एक सुन्दर सुवर्ण का सिंहासन रखा हुआ था। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वे उसपर विराज गये। महाराज धृतराष्ट्र ने भी उनका विधिवत् पूजन करके सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के पास जाकर वाणी द्वारा उनका सत्कार किया। इस प्रकार उनकी धर्मानुसार पूजा कर वे क्रमशः सभी राजाओं से मिले और आयु के अनुसार उनका यथायोग्य सम्मान किया। श्रीकृष्ण के लिये वहाँ एक सुवर्ण का सिंहासन रखा हुआ था। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वे उसपर विराज गये। महाराज धृतराष्ट्र ने उनका विधिवत् पूजन करके सत्कार किया। इसके पश्चात् कुरुराज से आज्ञा लेकर वे विदुरजी के भव्य भवन में आये।विदुरजी ने सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लेकर उनकी आगवानी की और अपने घर लाकर पूजन किया। फिर वे कहने लगे---'कमलनयन ! आज आपके दर्शन करके मुझे जैसा आनन्द हो रहा है, वह मैं आपसे किस प्रकार कहूँ; आप तो समस्त देहधारियों के अन्तरात्मा ही हैं।' अतिथि-सत्कार हो जाने पर धर्मज्ञ विदुरजी ने भगवान् से पाण्डवों की कुशल पूछी। विदुरजी पाण्डवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहनेवाले थे।क्रोध तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करता था। अतः श्रीकृष्ण ने, पाण्डवलोग जो कुछ करना चाहते थे, वे सब बातें उन्हें विस्तार से सुना दी। इसके बाद दोपहरी बीतने पर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती के पास गये। विदुरजी ने सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ लेकर उनकी आगवानी की और अपने घर लाकर पूजन किया। फिर वे कहने लगे---'कमलनयन ! आज आपके दर्शन करके मुझे जैसा आनन्द हो रहा है, वह मैं किस प्रकार कहूँ; आप तो समस्त देहधारियों की अन्तरात्मा ही हैं। विदुरजी पाण्डवों के प्रेमी तथा धर्म और अर्थ में तत्पर रहनेवाले थे, क्रोध तो उन्हें स्पर्श भी नहीं करता था। अतः श्रीकृष्ण ने, पाण्डवलोग जो कुछ करना चाहते थे, वे सब बातें उन्हें विस्तार से सुना दीं। इसके बाद दोपहरी बीतने पर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी बुआ कुन्ती के पास गये। श्रीकृष्ण को आये देख वह उनके गले से चिपट गयी और अपने पुत्रों को याद करके रोने लगी। आज पाण्डवों के सहचर श्रीकृष्ण को भी उसने बहुत दिनों पर देखा था। इसलिये उन्हें देखकर उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी। तब अतिथिसत्कार हो जाने पर श्रीश्यामसुन्दर बैठ गये तो कुन्ती ने गद्गद्कण्ठ होकर कहा, 'माधव ! मेरे पुत्र बचपन से ही गुरुजनों की सेवा करनेवाले थे। उनका आपस में बड़ा स्नेह था, दूसरे लोग उनका आदर कपते थे और वे भी सबके प्रति समानभाव रखते थे। किन्तु  इन कौरवों ने कपटपूर्वक उन्हें राजच्युत कर दिया और अनेकों मनुष्यों के बीच में रहने योग्य होने पर भी वे निर्जन वन में भटकते रहे। वे हर्ष-शोक को वश में कर चुके थे और सर्वदा सत्य-भाषण करते थे। इसलिये उन्होंने उसी समय राज्य से और भोगों से मुँह मोड़ लिया और मुझे रोती छोड़कर वन को चल दिये। भैया ! जब वे वन को गये थे, मेरे हृदय को तो वे उसी समय साथ लेकर गये थे। मैं तो अब बिलकुल हृदयहीना हूँ। जो बड़ा ही लज्जावान्,  सत्य का भरोसा रखनेवाला, जितेन्द्रिय, प्राणियों पर दया करनेवाला, शील और सदाचार से सम्पन्न, धर्मज्ञ, सर्वगुणसम्पन्न और तीनों लोकों का राजा बनने योग्य है। समस्त कुरुवंशियों में श्रेष्ठ वह अजातशत्रु युधिष्ठिर इस समय कैसा है ? जिसमें दस हजार हाथियों का बल है, जो वायु के समान वेगवान् है, अपने भाइयों का नित्य प्रिय करने के कारण जो उन्हें बहुत प्यारा है, जिसने भाइयों के सहित कीचक तथा क्रोधवश, हिडिम्ब और बक आदि असुरों को बात-की-बात में मार डाला था, अतः जो पराक्रम में इन्द्र और क्रोध में साक्षात् शंकर के समान है, उस महाबली भीम का इस समय क्या हाल है ? जो तेज में सूर्य, मन के संयम में महर्षि, क्षमा में पृथ्वी और पराक्रम में इन्द्र के समान है तथा समस्त प्राणियों को जीतनेवाला और स्वयं किसी के काबू में आनेवाला नहीं है, वह तुम्हारा भाई और सखा अर्जुन इस समय कैसे हैं ?  सहदेव भी बड़ा ही दयालु, लजालु, अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता, मृदुलस्वभाव और धर्मज्ञ और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। वह धर्म और अर्थ में कुशल तथा अपने भाइयों की सेवा करने में तत्पर रहता है। उसके शुभ आचरण की सब भाई बड़ी प्रशंसा किया करते हैं। इस समय उसकी क्या दशा है ? नकुल भी बड़ा सुकुमार, शूरवीर और दर्शनीय युवा है। अपने भाइयों का तो वह बाह्य प्राण ही है। वह अनेक प्रकार के युद्ध के में कुशल है तथा बड़ा ही धनुर्धर और पराक्रमी है। कृष्ण ! इस समय वह कुशल से है न ? पुत्रवधू द्रौपदी तो सभी गुणों से सम्पन्न, परम रूपवती एवं अच्छे कुल की बेटी है।  मुझे वह अपने सब पुत्रों से भी अधिक प्रिय है। वह सत्यवादिनी अपने प्यारे पुत्रों को भी छोड़कर वनवासी की सेवा कर रही है। इस समय उसका क्या हाल है ? "कृष्ण ! मेरी दृष्टि में कौरव और पाण्डवों में कभी कोई भेद-भाव न रहा। उसी सत्य के प्रभाव से अब मैं शत्रुओं का नाश होने पर पाण्डवों सहित तुमको राज्यसुख भोगते देखूँगी। परंतप ! जिस समय अर्जुन का जन्म होने पर मैं सौरी में थी, उस रात्रि में मुझे जो आकाशवाणी हुई थी कि 'तेरा यह पुत्र सारी पृथ्वी को जीतेगा, इसका यश स्वर्ग तक फैल जायगा, यह महायुद्ध में कौरवों को मारकर उनका राज्य प्राप्त करेगा और फिर अपने भाइयों सहित तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा' उसे मैं दोष नहीं देती; मैं तो सबसे महान् नारायण-स्वरूप धर्म को ही नमस्कार करती हूँ। वही सम्पूर्ण जगत् का विधाता है और वही संपूर्ण प्रजा को धारण करनेवाला है। यदि धर्म सच्चा है तो तुम भी वह सब काम पूरा कर लोगे, जो उस समय देववाणी ने कहा था। "माधव ! तुम धर्मप्राण युधिष्ठिर से कहना कि 'तुम्हारे धर्म की बड़ी हानि हो रही है; बेटा ! तुम उसे इस प्रकार व्यर्थ बरबाद मत होने दो।' कृष्ण ! जो स्त्री दूसरों की आश्रिता होने पर जीवननिर्वाह करे, उसे तो धिक्कार ही है। दीनता से प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा है। तुम अर्जुन और नित्य उद्योगशील भीमसेन से कहना कि 'क्षत्राणियाँ जिस काम के लिये पुत्र उत्पन्न करती हैं, उसे करने का समय आ गया है। ऐसा अवसर आने पर भी यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो इसे व्यर्थ ही खो दोगे। तुम सब लोकों में सम्मानित हो; ऐसे होकर भी यदि तुमने कोई निन्दनीय कर्म कर डाला तो फिर कभी तुम्हारा मुँह नहीं देखूँगी। अरे ! समय आ पड़े तो अपने प्राणों का भी लोभ मत करना।' माद्री के पुत्र नकुल तथा सहदेव सर्वदा क्षात्रधर्म पर डटे रहनेवाले हैं। उनसे कहना कि 'प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों की इच्छा करना; क्योंकि जो मनुष्य क्षात्रधर्म के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है, उसके मन को पराक्रम से प्राप्त हुए भोग ही सुख पहुँचा सकते हैं।' "शत्रुओं ने राज्य छीन लिया---यह कोई दुःख की बात नहीं है; जुए में हारना भी दुःख का कारण नहीं है। मेरे पुत्रों को वन में रहना पड़ा---इसका भी मुझे दुःख नहीं है। किंतु इससे बढ़कर दुःख की और कौन बात हो सकती है कि मेरी युवती पुत्रवधू को, जो केवल एक ही वस्त्र पहने हुए थी, घसीटकर सभा में लाया गया और उसे उन पापियों के कठोर वचन सुनने पड़े। हाय ! उस समय वह मासिक-धर्म में थी। किन्तु अपने वीर पतियों की उपस्थिति में भी वह क्षत्राणी अनाथा-सी हो गयी। पुरुषोत्तम ! मैं पुत्रवती हूँ, इसके सिवा मुझे तुम्हारा, बलराम का और प्रद्मुम्न का भी पूरा-पूरा आश्रय है। फिर भी मैं ऐसे दुःख भोग रही हूँ। हाय ! दुर्धर्ष भीम और युद्ध से पीठ न फेरनेवाले अर्जुन के रहते मेरी यह दशा !" कुन्ती पुत्रों के दुःख से अत्यन्त व्याकुल थी। उसकी ऐसी बातें सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे---'बुआजी ! तुम्हारे समान सौभाग्यवती और कौन स्त्री होगी। तुम राजा शूरसेन की पुत्री हो और महाराज अजमीठ के वंश में विवाही गयी हो !  तुम सब प्रकार के शुभगुणों से सम्पन्न ह तथा अपने पतिदेव से भी तुमने बड़ा सम्मान पाया है। तुम वीरमाता और वीरपत्नी हो। तुम जैसी महिलाएँ ही सब प्रकार के सुख-दुःखों को सह सकती हैं। पाण्डवलोग निद्रा-तन्द्रा, क्रोध-हर्ष, क्षुधा-पिपासा, शीत-घाम---इन सब को जीतकर वीरोचित आनन्द का भोग करते हैं। उन्होंने और द्रौपदी ने  आपको प्रणाम कहलाया है और अपनी कुशल कहकर तुम्हारा कुशल समाचार पूछा है। तुम शीघ्र ही पाण्डवों को निरोग और सफल मनोरथ देखोगी। उनके सारे शत्रु मारे जायेंगे और वे संपूर्ण लोकों का आधिपत्य पाकर राज्यलक्ष्मी से सुशोभित होंगे। ' श्रीकृष्ण के इस प्रकार ढ़ाढ़स बँधाने पर कुन्ती ने अपने अज्ञानजनित मोह को दूर करके कहा---कृष्ण ! पाण्डवों के लिये जो-जो हित की बात हो और उसे जिस-जिस प्रकार तुम करना चाहो उसी-उसी प्रकार करना, जिससे कि धर्म का लोप न हो और कपट का आश्रय न लेना पड़े। मैं तुम्हारे सत्य और कुल के प्रभाव को अ्छी तरह जानती हूँ। अपने मित्रों का काम करने में तुम जिस बुद्धि और पराक्रम से काम लेते हो, वे भी मुझसे छिपे नहीं हैं। हमारे कुल में तुम मूर्तिमान् धर्म, सत्य और तप ही हो। तुम सबकी रक्षा करनेवाले हो, तुम्ही परम-ब्रह्म हो और तुममें ही सारा प्रपंच अधिष्ठित है। तुम जैसा कह रहे हो, तुम्हारे द्वारा वह बात उसी प्रकार सत्य होकर रहेगी। इसके पश्चात् महाबाहु श्रीकृष्ण कुन्ती से आज्ञा ले, उसकी प्रदक्षिणा करके दुर्योधन के महल की ओर गये।

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