Sunday 27 November 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण का कौरवों की सभा में आना तथा सबको पाण्डवों का संदेश सुनाना

श्रीकृष्ण का कौरवों की सभा में आना तथा सबको पाण्डवों का संदेश सुनाना
प्रातःकाल उठकर श्रीकृष्ण ने स्नान, जप और अग्निहोत्र से निवृत हो उदित होते हुए सूर्य को उपस्थान किया और फिर वस्त्र और आभूषणादि धारण  किये। इसी समय राजा दुर्योधन और सबल के पुत्र शकुनि ने उसके पास आकर कहा---'महाराज धृतराष्ट्र तथा भीष्मादि सब कौरव महानुभाव सभा में आ गये हैं और आपकी बाट देख रहे हैं।'  तब श्रीकृष्णचन्द्र ने बड़ी मधुरवाणी से उन दोनो का अभिनन्दन किया। इसके बाद सारथि ने आकर श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनका उत्तम घोड़ों से जुता हुआ शुभ्र रथ लाकर खड़ा कर लिया। श्रीयदुनाथ उस रथ पर सवार हुए। उस समय कौरव वीर उन्हें सब ओर से घेरकर चले। भगवान् के पीछे उन्हीं के रथ में समस्त धर्मों को जाननेवाले विदुरजी भी सवार हो गये तथा दुर्योधन और शकुनि एक दूसरे रथ में बैठकर उनके पीछे-पीछे चले। धीरे-धीरे भगवान् का रथ राजसभा के द्वार पर आ गया और उससे उतरकर भीतर सभा में गये।जिस समय श्रीकृष्ण विदुर और सात्यकि का हाथ पकड़कर सभाभवन पधारे, उस समय उनकी कान्ति से समस्त कौरवों  को निस्तेज सा कर दिया। उनके आगे-आगे दुर्योधन और कर्ण तथा पीछे कृतवर्मा और वृष्णिवंशी वीर चल रहे थे। सभा में पहुँचने पर उनका मान करने के लिये राजा धृतराष्ट्र तथा भीष्म, द्रोण आदि सभी लोग अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये। श्रीकृष्ण के लिये राजसभा में महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से सर्वतोभद्र नाम का सुवर्णमय सिंहासन रखा गया था। उसपर बैठकर श्रीश्यामसुन्दर मुस्कुराते हुए राजा धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोण तथा दूसरे राजाओं से बातचीत करने लगे तथा समस्त कौरव और राजाओं ने सभा में पधारे हुए राजाओं ने सभा में पधारे हुए श्रीकृष्ण का पूजन किया। इस समय श्रीकृष्ण ने सभा के भीतर ही अन्तरिक्ष में नारदादि ऋषियों को खड़े देखा। तब उन्होंने धीरे से शान्तनुनन्दन भीष्मजी से कहा, 'इस राजसभा को देखने के लिये ऋषिलोग आये हुए हैं। उनका आसनादि देकर बड़े सत्कार से आवाहन कीजिये। उनके बिना बैठे यहाँ कोई भी बैठ नहीं सकेगा। उन शुद्धचित्त मुनियों की शीघ्र ही पूजा कीजिये।' इतने ही में मुनियों को सभा के द्वार पर आया देख भीष्मजी ने बड़ी शीध्रता से सेवकों आसन लाने की आज्ञा दी। वे तुरन्त ही बहुत से आसन ले आये। जब ऋषियों ने आसन पर बैठकर अर्ध्र्धादि ग्रहण कर लिया तो श्रीकृष्ण तथा अन्य सब राजा भी अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। महामति विदुरजी श्रीकृष्ण के सिंहासन से लगे हुए एक मणिमय आसनपर, जिसपर श्वेत रंग का मृगचर्म बिछा हुआ था, बैठे। राजाओं को श्रीकृष्ण का बहुत दिनों पर दर्शन हुआ था; अतः जैसे अमृत पीते-पीते कभी तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार वेउन्हें देखते-देखते अघाते नहीं थे। उस सभा में सभी का मन श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, इसलिये किसी के मुख से कोई भी बात नहीं निकलती थी। जब सभा में सब राजा मौन होकर बैठ गये तो श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखते हुए बड़ी गम्भीर वाणी में कहा---राजन् ! मेरा यहाँ आने का उद्देश्य यह है कि क्षत्रिय वीरों का संहार हुए बिना ही कौरव और पाण्डवों में सन्धि हो जाय। इस समय राजाओं में कुरुवंश ही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। इसमें शास्त्र और सदाचार का सभ्यक आदर है तथा और भी अनेकों शुभ गुण हैं। अन्य राज्यवंशों की अपेक्षा कुरुवंशियों में कृपा, दया, करुणा, मृदुता, सरलता, क्षमा और सत्य---ये विशेषरूप से पाये जाते हैं। इस प्रकार के गुणों से गौरवान्वित इस वंश में आपके कारण यदि कोई अनुचित बात हो तो यह उचित नहीं है। यदि कौरवों में गुप्त या प्रकटरूप से कोई असद्व्यवहार होता है तो उसे रोकना तो आपही का काम है। दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ की ओर से मुँह फेरकर क्रूर पुरुषों के से आचरण करते हैं। अपने खास भाइयों के साथ इनका अशिष्ट पुरुषों का-सा आचरण है तथा चित्त पर लोभ का भूत सवार हो जाने से इन्होंने धर्म की मर्यादा को एकदम छोड़ दिया है। ये सब बातें आपको मालूम ही हैं। यह भयंकर आपत्ति इस समय कौरवों पर आयी है और यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह सारी पृथ्वी को चौपट कर देगी। यदि आप अपने कुल को नाश से बचाना चाहें तो अब भी इसका निवारण किया जा सकता है। मेरे विचार से इन दोनो पक्षों में सन्धि होनी बहुत कठिन नहीं है। इस समय शान्ति कराना आपके और मेरे ही हाथ में है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिये और मैं पाण्डवों को नियम में रखूँगा। आपके पुत्रों को बाल-बच्चों सहित आपकी आज्ञा में रहना ही चाहिये। यदि ये आपकी आज्ञा में रहेंगे तो इनका बड़ा भारी हित हो सकता है। महाराज ! आप पाण्डवों की रक्षा में रहकर धर्म और अर्थ का अनुष्ठान कीजिये। आपको ऐसे रक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। भरतश्रेष्ठ ! जिनके अंदर भीष्म, द्रोण, कृप, कर्ण, विविंशति, अश्त्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लीक, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सात्यकि और युयुत्सु जैसे वीर हों उनसे युद्ध करने की किस बुद्धिहीन की हिम्मत हो सकती है। कौरव और पाण्डवो के मिल जाने से आप समस्त लोकों का आधिपत्य प्राप्त करेंगे था शत्रु आपका कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे; तथा जो राजा आपके समकक्ष या आपसे बड़े हैं, वे भी आपके साथ सन्धि कर लेंगे। ऐसा होने से आप अपने पुत्र, पौत्र, पिता भाई और सुहृदों से सब प्रकार सुरक्षित रहकर सुख से जीवन व्यतीत कर सकेंगे। यदि आप पाण्डवों को ही आगे रखकर इनका पूर्ववत् आदर करेंगे तो इस सारी पृथ्वी का आनन्द से भोग कर सकेंगे। महाराज ! युद्ध करने में तो मुझे बड़ा भारी संहार दिखायी दे रहा है। इस प्रकार दोनो पक्षों का नाश कराने में आपको क्या धर्म दिखायी देता है। अतः आप इस लोक की रक्षा कीजिये और ऐसा कीजिये, जिसमें आपकी प्रजा का नाश न हो। यदि आप सत्वगुण को धारण कर लेंगे तो सबकी रक्षा ठीक हो जायगी। महाराज ! पाण्डवों ने आपको प्रणाम कहा है और आपकी प्रसन्नता चाहते हुए ह प्रार्थना की है कि 'हमने अपने साथियों के सहित आपकी आज्ञा से ही इतने दिनों तक दुःख भोगा है। हम बारह वर्ष तक वन में रहे हैं और फिर तेरहवाँ वर्ष जनसमूह में अज्ञातवासरूप से रहकर बिताया है। वनवास की शर्त होने के समय हमारा यही निश्चय था कि जब हम लौटेंगे तो आप हमारे ऊपर पिता की तरह रहेंगे। हमने उस शर्त का पूरी तरह पालन किया है; इसलिये अब आप भी जैसा ठहरा था, वैसा ही वर्ताव कीजिये। आप धर्म और अर्थ का स्वरूप जानते हैं, इसलिये आपको हमारी रक्षा करनी चाहिये। गुरु के प्रति शिष्य का जैसा गौरवयुक्त व्यवहार होना चाहिये, आपके साथ हमारा वैसा ही वर्ताव है। इसलिये आप हमारे प्रति गुरु का-सा आचरण कीजिये। हमलोग यदि मार्गभ्रष्ट हो रहे हैं तो आप हमें ठीक रास्ते पर लाइये और स्वयं भी सन्मार्ग पर स्थित होइये।' इसके सिवा आपके उन पुत्रों ने इन सभासदों से कहलाया है कि जहाँ धर्मज्ञ सभासद् हों, वहाँ कोई अनुचित बात नहीं होनी चाहिेये। यदि सभासदों को देखते हुए अधर्म से धर्म का और असत्य से सत्य का नाश हो तो उनका भी नाश हो जाता है। इस समय पाण्डवलोग धर्म पर दृष्टि लगाये चुपचाप बैठे हैं। उन्होंने धर्म के अनुसार सत्य और न्याययुक्त बात ही कही है। राजन् ! आप पाण्डवों को राज्य दे दीजिये---इसके सिवा आपसे और क्या कहा जा सकता है ?  इस सभा में जो राजालोग बैठे हैं, उन्हें कोई और बात कहनी हो तो कहें। यदि धर्म और अर्थ का विचार करके मैं सच्ची बात कहूँ तो यही कहना होगा कि इन क्षत्रियों को आप मृत्यु के फंदे से छुड़ा दीजिये।भरतश्रेष्ठ ! शान्ति धारण कीजिये, क्रोध के वश न होइये और पाण्डवों को उनका यथोचित पैतृक राज्य दे दीजिये। ऐसा करके आप अपने पुत्रों सहित आनन्द से भोग कीजिये। राजन् ! इस समय आप अपने अर्थ को अनर्थ मान रखा है। आपके पुत्रों पर लोभ ने अधिकार जमा रखा है, आप उन्हें जरा काबू में रखिये। पाण्डव तो आपकी सेवा के लिये भी तैयार हैं। इन दोनों आपको जो बात अधिक हितकर जान पड़े, उसी पर डट जाइये।

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