Sunday 25 December 2016

उद्योग-पर्व---दुर्योधन की कुमंत्रणा, भगवान् का विश्वरूपदर्शन और कौरवसभा से प्रस्थान

दुर्योधन की कुमंत्रणा, भगवान् का विश्वरूपदर्शन और कौरवसभा से प्रस्थान
माता के कहे हुए इन नीतियुक्त वाक्यों पर दुर्योधन ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वह बड़े क्रोध से सभा को छोड़कर अपने दुष्टबुद्धि मंत्रियों के पास चला आया।फिर दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन---इन चारों ने मिलकर यह सलाह की कि 'देखो, यह कृष्ण राजा धृतराष्ट्र और भीष्म के साथ मिलकर हमें कैद करना चाहता है; सो पहले हमींलोग इसे बलात् कैद कर लें। कृष्ण को कैद हुआ सुनकर पाण्डवों का सारा उत्साह ठण्डा पड़ जायगा और वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे। सात्यकि इशारों से ही दूसरों के मन की बात जान लेते थे। वे तुरंत ही उनका भाव ताड़ गये और सभा से बाहर आकर कृतवर्मा से बोले, 'शीघ्र ही सेना सजाओ और जबतक मैं इनके कुविचार की श्रीकृष्ण को सूचना दूँ, तुम स्वयं कवच धारण कर सेना को व्यूहरचना की रीति से खड़ी करके सभाभवन के द्वार पर आ जाओ।' फिर सिंह जैसे गुफा में जाता है, उसी प्रकार सभा में जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण से उनका वह कुविचार कह दिया। फिर वे मुस्कुराकर राजा धृतराष्ट्र और विदुर से कहने लगे, 'सत्पुरुषों की दृष्टि में दूत को कैद करना धर्म, अर्थ और काम के सर्वथा विरुद्ध है; किन्तु ये मूर्ख यही करने का विचार कर रहे हैं। इनका यह मनोरथ किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। ये बड़े ही क्षुद्रहृदय हैं; इन्हेंनहीं सूझता कि श्रीकृष्ण को कैद करना वैसा ही है, जैसे कोई बालक जलती हुई आग कोकपड़े में लपेटना चाहे।' सात्यकि की यह बात सुनकर दीर्घदर्शी विदुरजी ने धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् ! मालूम होता है आपके सभी पुत्रों को मौत ने घेर रखा है; इसलिये वे न करने योग्य और अपयश की प्राप्ति करनेवाला काम करने पर कमर कसे हुए हैं। देखिये न, ये लोग आपस में मिलकर बलात् इन कमलनयन श्रीकृष्ण का तिरस्कार करके इन्हे कैद करने का विचार कर रहे हैं ! किन्तु ये नहीं जानते कि आग के पास जाे ही जैसे पतंगे नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह श्रीकृष्ण के पास पहुँचते ही इनका खोज मिट जायगा।' इसके बाद श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा---'राजन् !यदि ये क्रोध में भरकर मुझे कैद करने का साहस कर रहे हैं तो आप जरा आज्ञा दे दीजिये; फिर देखें ये मुझे कैद करते हैं या मैं इन्हें बाँध लेता हूँ। अच्छा, यदि मैं इसी समय इन्हें और इनके अनुयायियों को बाँधकर पाण्डवों को सौंप दूँ तो मेरा यह काम अनुचित तो नहीं होगा ? राजन् ! मैं आपके सब पुत्रों को आज्ञा देता हूँ; दुर्योधन की जैसी इच्छा है, वह वैसा कर देखे।' इस पर महाराज धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा---तुम शीघ्र ही पापी दुर्योधन को ले आओ; संभव है, इस बार मैं उसके अनुयायियों सहित उसे ठीक रास्ते पर ला सकूँ।' विदुरजी ने दुर्योधन की इच्छा न होने पर भी उसे फिर सभा में ले आये। इस समय उसके भाई और राजालोग भी उसके साथ ही लगे हुए थे।तब राजा धृतराष्ट्र ने उससे कहा, 'क्या रे कुटिल दुर्योधन ! तू अपने पापी साथियों के साथ मिलकर एकदम पापकर्म करने पर ही उतारू हो गया है ?  याद रख, तुझ जैसा मूढ़ और कुलकलंक पुरुष जो कुछ करने का विचार करेगा, वह कभी पूरा नहीं होगा; उससे सत्पुरुष तेरी निंदा करेंगे। कहते हैं तू अपने पापी साथियों से मिलकर इन श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता है ? सो इन्हें तो इन्द्र के सहित सब देवता भी अपने काबू में नहीं कर सकते। तेरा यह दुःसाहस तो ऐसा है, जैसे कोई बालक चन्द्रमा को पकड़ना चाहे। मालूम होता है तुझे श्रीकेशव के प्रभाव का कुछ भी पता नहीं है। अरे ! जैसे वायु को हाथ से नहीं पकड़ा जा सकता और पृथ्वी को सिरपर नहीं उठाया जा सकता, वैसे ही श्रीकृष्ण को कोई बल से नहीं बाँध सकता।' इसके बाद विदुरजी बोले---दुर्योधन ! तू मेरी बात सुनो। देखो, श्रीकृष्ण को कैद करने का विचार नरकासुर ने भी किया था; किन्तु सब दानवों के साथ मिलकर भी वह ऐसा नहीं कर सका। फिर तुम इन्हें अपने बल-बूते पर पकड़ने का साहस कैसे करते हो ? इन्होंने बाल्यावस्था में ही पूतना और बकासुर को मार डाला था, गोव्धन पर्वत को हाथ में उठा लिया था तथा अरिष्ठासुर, धेनुकासुर, चाणूर, केशी और कंस को भी धूल में मिला दिया था। इसके सिवा ये जरासन्ध दानव का, शिशुपाल, वाणासुर तथा और भी अनेकों राजाओं को नीचा दिखा चुके हैं। साक्षात् वरुण, अग्नि और राजाओं को नीचा दिखा चुके हैं। अपने अन्य अवतारों में ये मधु कैटभ और हयग्रीवादी अनेक दैत्यों को पछाड़ चुके हैं। ये संपूर्ण प्रवृतियों के प्रेरक हैं, किन्तु स्वयं किसी की भी प्रेरणा से कोई काम नहीं करते। ये ही सकल पुरुषार्थों के कारण हैं। ये जो कुछ करना चाहें वही काम अनायास कर सकते हैं। तुम्हें इनके प्रभाव का पता नहीं है। देखो, यदि तुम इनका तिरस्कार करने का साहस करोगे तो उसी प्रकार तुम्हारा नाम-निशान मिट जायगा, जैसे अग्नि में गिरकर पतंगा नष्ट हो जाता है। विदुरजी का वक्तव्य समाप्त होने पर भगवान् कृष्ण ने कहा---'दुर्योधन ! तुम तो अज्ञानवश यह समझते हो कि मैं अकेला हूँ और मुझे दबाकर कैद करना चाहते हो, सो याद रखो, समस्त पाण्डव और वृष्णि तथा अंधकवंशीय यादव भी यहीं हैं। वे ही नहीं, आदित्य, रुद्र, वसु और समस्त महर्षिगण भी यहीं मौजूद हैं।' ऐसा कहकर शत्रुदमन श्रीकृष्ण ने अट्टहास किया। बस, तुरन्त ही उनके सब अंगों में बिजली-सी कान्तिवाले अंगष्टाकार सब देवता दिखायी देने लगे। उनके ललाटदेश में ब्रह्मा, वक्षःस्थल में रुद्र, भुजाओं में लोकपाल और मुख में अग्निदेव थे। आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनीकुमार, इन्द्र सहित मरुद्गण, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस---ये सब उनके शरीर से अभिन्न जान पड़ते थे। उनकी दोनो भुजाओं से बलभद्र और अर्जुन प्रकट हुए। उनमें धनुर्धर अर्जुन दाहिनी ओर और हलधर बलराम बायीं ओर थे।भीम, युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव उनके पृष्ठभाग में थे तथा प्रद्युम्नादि अंधक और वृष्णिवंशी यादव अस्त्र-शस्त्र लिये उनके आगे दीख रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण के अनेकों भुजाएँ दिखायी देती थीं। उनमें वे शंख, चक्र, गदा, शक्ति, धनुष, हल और नन्दक खड्ग लिये हुए थे। उनके नेत्र, नासिका और कर्णरन्ध्रों से बड़ी भीषण आग की लपटें तथा सूर्य की-सी किरणें निकल रही थीं। श्रीकृष्ण के इस भयंकर रूप को देखकर सब राजाओं ने भयभीत होकर नेत्र मूँद लिये। केवल द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर, संजय और ऋषिलोग ही उसका दर्शन कर सके; क्योंकि भगवान् ने उन्हे दिव्यदृष्टि दे दी थी। सभाभवन में भगवान् का यह अद्भुत कृत्य देखकर देवताओं की दुंदुभियों का शब्द होने लगा तथा आकाश से पुष्पों की झड़ी लग गयी। तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा, 'कमलनयन ! सारे संसार के हितकर्ता आप ही हैं, अतः आप हमपर कृपा कीजिये। मेरी प्रार्थना है कि इस समय मुझे दिव्य नेत्र प्राप्त हों; मैं केवल आपही के दर्शन करना चाहता हूँ, फिर किसी दूसरे को देखने की मेरी इच्छा नहीं है।' इसपर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा, 'कुरुनन्दन तुम्हारे अदृश्यरूप से दो नेत्र हो जायँ।' जब सभा में बैठे हुए राजा और ऋषियों ने देखा कि महाराज धृतराष्ट्र को नेत्र प्राप्त हो गये हैं तो उन्हें बड़ा ही आश्चर्यहुआ और वे श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे।उस समय पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली पड़ गयी और सब राजा भौचक्के-से रह गये। फिर भगवान् ने उस स्वरूप को तथा अपनी दिव्य, अद्भुत और चित्र-विचित्र माया को समेट लिया। इसके पश्चात् वे ऋषियों से आज्ञा ले सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़े सभाभवन से चल दिये। उनके चलते ही नारदा दि ऋषि भी अन्तर्धान हो गये। श्रीकृष्ण को जाते देख राजाओं के सहित सब कौरव भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। किन्तु श्रीकृष्ण ने उन राजाओं की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। इतने में ही दारुक उनका दिव्य रथ सजाकर ले आया। भगवान् रथ पर सवार हुए। उनके साथ ही महारथी कृतवर्मा भी चढ़ता दिखायी दिया। इस प्रकार जब वे जाने लगे तो महाराज धृतराष्ट्र ने कहा, 'जनार्दन ! पुत्रों पर मेा बल कितना काम करता है---यह आपने प्रत्यक्ष ही देख लिया। मैं तो चाहता हूँ कि किसी प्रकार कौरव पाण्डवों में मेल हो जाय और इसके लिये प्रयत्न भी करता हूँ। किन्तु अब मेरी दशा देखकर आप मुझपर संदेह न करें।' इसपर भगवान् कृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, भीष्म, विदुर, कृपाचार्य और बाह्लीक से कहा---'इस समय कौरवों की सभामें जो कुछ हुआ है, वह आपने प्रत्यक्ष देख लिया तथा यह बात भी आप सबके सामने ही की है कि मंदबुद्धि दुर्योधन किस प्रकार फुनककर सभा से चला गया था। महाराज धृतराष्ट्र भी इस विषय में अपने को असमर्थ बता रहे हैं। अतः अब मैं आपसे आज्ञा चाहता हूँ और राजा युधिष्ठिर के पास जाता हूँ।' इस प्रकार आज्ञा लेकर जब भगवान् रथ में चढ़कर चलने लगे तो भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र, बह्लीक, अश्त्थामा, विकर्ण और युयुत्सु आदि कौरववीर कुछ दूर उनके पीछे गये। इसके बाद उन सबके देखते-देखते भगवान् अपनी बुआ कुन्ती से मिलने गये।

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