Friday 10 March 2017

• कुन्ती का विदुला की कथा सुनाकर पाण्डवों के लिये संदेश देना तथा भगवान् कृष्ण का उससे विदा होकर पाण्डवों के पास जाना

भगवान् ने कुन्ती के घर जाकर उसका चरणस्पर्श किया तथा कौरवों की सभा में जो कुछ हुआ था, वह संक्षेप में सुना दिया। उन्होंने कहा, ‘बुआजी ! मैंने और रिषियों ने तरह_तरह की युक्तियों से अनेकों मानने योग्य बातें कहीं; किन्तु दुर्योधन ने किसी पर ध्यान नहीं दिया। दुर्योधन के अनुयायी इन सब वीरों के सिर पर काल मंडरा रहा है। अब मैं तुमसे आज्ञा चाहता हूँ, क्योंकि मुझे शीघ्र ही पाण्डवों के पास जाना है। बताओ, तुम्हारी ओर से मैं पाण्डवों को क्या कह दूँ ?’ कुन्ती ने कहा__केशव ! मेरी ओर से तुम राजा युध्ष्ठिर से कहना कि पृथ्वी का पालन करना तुम्हारा धर्म है। उसकी बड़ी हानि हो रही है। सो अब तुम इसे वृथा मत खोना। बेटा ! प्राचीनकाल में कि कुबेर ने राजा मुचुकुन्द को यह सारी पृथ्वी दे दी थी, परन्तु मुचुकुन्द ने इसे स्वीकार नहीं किया। जब उसने अपने बाहुबल से इसे प्राप्त किया,  तभी अपने  धर्म का आश्रय लेकर उसने इसका यथावत् शासन भी किया। राजा से सुरक्षित रहकर प्रजा जो कुछ धर्म करती है उसका चतुर्थांस राजा को मिलता है। यदि राजा धर्म का आचरण करता है तो देवलोक प्राप्त करता है और अधर्म करता है तो नरक में पडता है। यदि वह दण्डनीति का भी ठीक_ठीक प्रयोग करे तो उससे चारों वर्णों के लोग अधर्म करने से रुककर धर्ममार्ग में प्रवृत होते हैं। वास्तव में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि__इन चारों युगों का कारण राजा ही है।इस समय अपनी बुद्धि से जिस संतोष को लिये बैठे हो, उसे तो तुम्हारे पिता पाण्डु ने, मैने अथवा तुम्हारे पितामह ने कभी नहीं चाहा। मैं सर्वदा तुम्हारे यग्य, दान, तप, शौर्य, प्रग्या, संतानोत्पत्ति, महत्ता, बल और शौर्य की ही प्रार्थना करती रही हूँ। धर्मात्मा पुरुष को चाहिये कि वह राज्य प्राप्त करके किसी को दान से, किसी को बल से और किसी को मिष्टभाषण से अपने अधीन करे। महाबाहो ! तुम्हारे जिस पैतृक अंश को शत्रुओं ने हडप लिया है, तुम्हें साम, दाम, दण्ड, भेद या नीति आदि किसी भी उपाय से उसका उद्धार करना चाहिये। इससे बढ़कर दु:ख की बात क्या होगी कि तुम_सा पुत्र पाकर भी मैं दूसरों के टुकड़ों पर दृष्टि लगा के रखती हूँ। अत: धर्म के अनुसार तुम युद्ध करो।  कृष्ण ! इस प्रसंग में मैं एक प्राचीन इतिहास सुनाती हूँ। उसमें विदुला और उसके पुत्र का संवाद है। विदुला बड़ी यशस्विनी, तेज स्वभाववाली, कुलीना, धर्मशीला और दीर्घदर्शिनी थी। राजसभाओं में उसकी अच्छी ख्याति थी और शास्त्र का भी उसे अच्छा ज्ञान था। एक बार उसका औरस पुत्र एक राजा से परास्त होकर बड़ी दीनदशा से पड़ा हुआ था। उस समय उसने उसे फटकारते हुए कहा, “अरे अप्रियदर्शी ! तू मेरा पुत्र नहीं है और न तूने पिता के वीर्य से ही जन्म लिया है। तू तो शत्रुओं का आनन्द बढ़ानेवाला है। तुझमें जरा भी आत्मविश्वास नहीं है, इसलिए बहादुरों में तो तू गिना ही नहीं जा सकता। तेरी बुद्धि नपुंसकों सी हैं। अरे ! प्राण रहते तू निराश हो गया। यदि तू कल्याण चाहता है तो युद्ध का भार उठा। तू अपने आत्मा का निरादर न कर और अपने मन को स्वस्थ करके भय को त्याग दे। कायर ! खड़ा हो जा। हार खाकर मत रह। इस प्रकार तो तू अपना मान खोकर शत्रुओं को प्रोत्साहित कर रहा है। देख, प्राण जाने की नौबत आ जाया तो भी पराक्रम नहीं छोडना चाहिए। जैसे बाज नि:शंक होकर आकाश में उड़ता रहता है, उसी तरह तू भी रणभूमि में निर्भय विचर। इस समय तो तू इस प्रकार पड़ा है, जैसे कोई बिजली का मारा हुआ मुर्दा हो। बस तू खड़ा हो जा; शत्रुओं से हार खाकर पडा मत रह। तू साम, दान और भेदरूप मध्यम, उत्तम और नीच उपायों का आश्रय मत ले। दण्ड ही सर्वश्रेष्ठ है। उसी का आश्रय लेकर शत्रु के सामने डटकर गर्जना कर। वीर पुरुष रणभूमि में जाकर उच्च कोटि का मानवोचित पराक्रम दिखाकर अपने धर्म से उत्रृण होता है। वह अपनी निंदा नहीं करता। विद्वान पुरुष फल मिले या न मिले इसके लिये चिन्ता नहीं करता। वह तो निरंतर पुरुषार्थसाध्य कर्म करता रहता है। उसे अपने लिये धन की भी इच्छा नहीं होती। तू या तो अपना पुरुषार्थ बढ़ाकर जयलाभ कर, नहीं तो वीरगति को प्राप्त हो। इस प्रकार धर्म को पीठ दिखाकर किसलिये जी रहा है ? अरे नपुंसक ! इस तरह तो तेरे इष्ट_पूर्त आदि कर्म और सुयश___सभी मिट्टी में मिल गये हैं तथा तेरे भोग का साधन जो राज्य था, वह भी नष्ट हो गया है; फिर तू किसलिए जी रहा है ? ै“जा, किसी पर्वतीय किले में जाकर रह और शत्रु के ऊपर आपात्काल आने की प्रतीक्षा कर। वह अजर_अमर तो है ही नहीं। बेटा ! तेरा नाम तो संजय है, किन्तु मुझे तुझमें ऐसा कोई गुण दिखायी नहीं देता ! तू संग्राम में जय प्राप्त करके अपने नाम को सार्थक कर। जब तू बालक था, उस समय एक भूत_भविष्य को जाननेवाले बुद्धिमान ने तुझे देखकर कहा था कि ‘यह एक बार बड़ी भारी विपत्ति में पड़कर भी उन्नति करेगा।‘ उस बात को याद करके मुझे तेरी विजय की पूरी आशा है, इसीसे मैं तुझसे कह रही हूँ और फिर भी बराबर कहती रहूँगी। शम्बर मुनि का कथन है कि जहाँ ‘आज भोजन नहीं है और न कल के लिये प्रबंध है'___ऐसी चिन्ता रहती है, उससे बढ़कर बुरी कोई दशा नहीं हो सकती। जब तू देखेगा कि आजीविका न रहने से तेरे काम_काज करने वाले दास, सेवक, आचार्य और पुरोहित तुझे छोडकर चले गये हैं तो तेरा वह जीवन किस काम का होगा ? पहले मैंने या मेरे पति ने कभी किसी से ‘नहीं' नहीं कहा। अब यदि मुझे ‘नहीं' कहना पड़ा तो मेरा हृदय फट जायगा। हम सदा दूसरों को आश्रय देते रहे हैं। दूसरे की आज्ञा सुनने की हमें आदत नहीं है। यदि मुझे किसी दूसरे के सामने जीवन काटना पड़ा तो मैं प्राण त्याग दूँगी। देख, यदि तूने जीवन का लोभ न किया तो तेरे सभी शत्रु परास्त किये जा सकते हैं। तू युवा है तथा विद्या, कुल और रूप से संपन्न है। यदि तुझ जैसा जगद्विख्यात पुरुष ऐसा विपरीत आचरण करे और अपने कर्तव्य_भार को न उठावे तो मैं इसे मृत्यु ही समझती हूँ। यदि मैं तुझे शत्रु के साथ चिकनी_चुपडी बातें बनाते या उसके पीछै_पीछे चलते देखूँगी तो मेरे हृदय को कैसे शान्ति होगी ? इस कुल में ऐसा कोई पुरुष नहीं जन्मा जो अपने शत्रु का पीछलग्गू होकर रहा हो। तुझे शत्रु का सेवक होकर जीना किसी प्रकार उचित नहीं है। जिस पुरुष ने क्षत्रियकुल में जन्म लिया है और जिसे क्षात्रधर्म का ज्ञान है, वह भय अथवा आजीविका के लिये किसी के सामने नहीं झुक सकता। वह महामना वीर तो मतवाले हाथी के समान रणभूमि में विचरता है और सर्वथा देवताओं के सामने ही झुकता है। पुत्र कहने लगा___माँ ! तुम वीरों की सी बुद्धिवाली, किन्तु बड़ी ही निठुर और क्रोध करनेवाली हो। तुम्हारा हृदय तो मानो लोहे को गढ़कर ही बनाया गया है। अहो ! क्षत्रियों का धर्म बड़ा ही कठिन है, जिसके कारण स्वयं तुम्ही दूसरे की माता के समान अथवा जैसे किसी दूसरे से कह रही हो। मैं तो तुम्हारा एकलौता पुत्र हूँ। फिर भी तुम मुझसे ऐसी बात कह रही हो ! जब तुम मुझी को नहीं देखोगी तो इस पृथ्वी, गहने, भोग और जीवन से तुम्हे क्या सुख होगा ? फिर तुम्हारा अत्यन्त प्रिय पुत्र मैं तो संग्राम में काम आ जाऊँगा। माता ने कहा___संजय ! समझदारों की सब अवस्थाएँ धर्म या अर्थ के लिये ही होती है। उनपर दृष्टि रखकर ही मैं तुझे युद्ध के लिये उत्साहित कर रही हूँ। यह तेरे लिये कोई दर्शनीय कर्म करके दिखाने का समय आया है। इस अवसर पर यदि तूने कोई पराक्रम न दिखाया तथा अपने शरीर या शत्रु के प्रति कड़ाई से काम न लिया तो तेरा बड़ा तिरस्कार होगा। इस तरह जब तेरे अपयश का अवसर सिर पर नाच रहा है उस समय यदि मैं कुछ कहूँ तो लोग मेरे प्रेम को गधी का_सा कहेंगे तथा उसे सामर्थ्यहीन और निष्कारण बतावेंगे। अत: तू सत्पुरुषों से निन्दित तथा मूर्खों से सेवित मार्ग को छोड़ दे।  जिसका आश्रय प्रजा ने ले रखा है, वह तो बड़ी भारी अविद्या ही है। मुझे तो तू तभी प्रिय लगेगा, जब तेरा आचरण महापुरुषों के योग्य होगा। जो पुरुष विनयहीन, शत्रु पर चढ़ाई न करने वाले, दुष्ट और दुर्बुद्धि पुत्र या पौत्र पाकर भी सुख मानता है, उसका संतान पाना व्यर्थ है। जो अपना कर्तव्य_कर्म नहीं करते बल्कि निन्दनीय कर्म का आचरण करते हैं। उन अधम पुरुषों को तो न इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही। प्रजापति ने क्षत्रियों को युद्ध करने और विजय प्राप्त करने के लिये ही रचा है। युद्ध में जय या मृत्यु प्राप्त करने से क्षत्रिय इन्द्रलोक प्राप्त कर लेता है। शत्रु को वश में करके क्षत्रिय जिस सुख का अनुभव करता है वह तो इन्द्रभवन या स्वर्ग में भी नहीं है। पुत्र बोला__ माताजी ! यह ठीक है, किन्तु तुम्हें अपने पुत्र के प्रति तो ऐसी बातें नहीं करनी चाहिये। उस पर जड़ और मूकवत् होकर तुम्हें दयादृष्टि ही रखनी चाहिये। माता ने कहा__बेटा ! जिस प्रकार तू मुझे मेरा कर्तव्य बता रहा है, उसी प्रकार मैं तेरा कर्तव्य सुझा रही हूँ। अब तू सिंधु देश के सब योद्धाओं का संहार कर डालेगा, तभी मैं तेरी प्रशंसा करूँगी। मैं तो तेरी कठिनता से प्राप्त होनेवाली विजय ही देखना चाहती हूँ।  पुत्र ने कहा__माताजी ! मेरे पास न तो कोई खजाना है और न कोई सहायक ही है; फिर मेरी जय कैसे होगी ? इस विकट परिस्थिति का विचार करके मैं तो स्वयं ही राज्य की आशा छोड़ बैठा हूँ। ठीक वैसे ही जैसे पापां पुरुष स्वर्गप्राप्ति की आशा नहीं रखता। यदि इस स्थिति में भी तुम्हें कोई उपाय दिखाई देता हो तो मुझे बताओ; मैं जैसा तुम कहोगी, वैसा ही करूँगा। माता बोली__बेटा ! यदि आरंभ से ही अपने पास वैभव न हो तो उसके लिये अपना तिरस्कार न करें। ये धन_संपत्ति पहले न होकर पीछे हो जाते हैं तथा होकर नष्ट हो जाते हैं। अत: डाहवश किसी भी प्रकार अर्थसंग्रह की नादानी नहीं करनी चाहिये। उसके लिये तो बुद्धिमान पुरुष को धर्मानुसार ही प्रयत्न करना चाहिये। कर्मों के फल के साथ तो सदा ही अनिवार्यता लगी हुई है। कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं मिलता तो भी धर्मज्ञ पुरुष कर्म किया ही करते हैं। जो कर्म ही नहीं करते उन्हें तो कभी फल नहीं मिल सकता। अत: प्रत्येक मनुष्य को यह निश्चय रखकर कि ‘मेरा कर्म सिद्ध होगा ही' उसे करने के लिया खड़ा हो जाना चाहिये।कर्म में प्रवृत्ति होते समय पुरुष को मांगलिक कर्म करने चाहिये तथा देवताओं का पूजन करना चाहिये। ऐसा करने से राजा की उन्नति होगी। जो लोग लोभी, शत्रु के द्वारा दलित और अपमानित तथा उससे डाह करनेवाले हैं, उन्हें तू अपने पक्ष में कर ले। ऐसा करने से तू अपने बहुत से शत्रु का नाश कर सकेगा। उन्हें पहले से ही वेतन दे, रोज सवेरे उठ और सबके साथ प्रिय भाषण कर। ऐसा करने से वे अवश्य तेरा प्रिय करेंगे। जब शत्रु को मालूम हो जाता है कि मेरा प्रतिद्वंद्वी प्राणपण से युद्ध करेगा तो उसका उत्साह ढीला पड़ जाता है। कैसी भी आपत्ति आने पर राजा को घबराना नहीं चाहिये। यदि घबराहट हो भी तो घबराये हुए के समान आचरण नहीं करना चाहिये। राजा से भयभीत होकर प्रजा, सेना और मंत्री भी डरकर अपना विचार बदल लेते हैं। उनमें से कोई तो शत्रु से मिल जाते हैं, कोई छोड़कर चले जाते हैं और कोई, जिनका पहले अपमान किया होता है, राज्य छीनने को तैयार हो जाते हैं। उस समय केवल वे ही लोग साथ देते हैं, जो उनके गहरे मित्र होते हैं; किन्तु हितैषी होने पर भी शक्तिहीन होने के कारण वे कुछ कर नहीं पाते। मैं तेरे पुरुषार्थ और बुद्धिबल को जानना चाहती थी, इसी से तेरा उत्साह बढ़ाने के लिये तुझसे ये आश्वासन की बातें की हैं। यदि तुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं ठीक कह रही हूँ तो विजय प्राप्त करने के लिये कमर कसकर खड़ा हो जा। हमारे पास अभी बड़ा भारी खजाना है। उसे मैं ही जानती हूँ, और किसी को उसका पता नहीं है। वह मैं तुझे सौंपती हूँ।  संजय ! अभी तो तेरे सैकड़ों सुहृद हैं। वे सभी सुख_दुख को सहन करनेवाले और संग्राम में पीठ न दिखानेवाले हैं। राजा संजय छोटे मन का आदमी था। किन्तु माता के ऐसे वचन सुनकर उसका मोह नष्ट हो गया। उसने कहा___'मेरा यह राज्य शत्रुरूप जल में डूब गया है; अब मुझे इसका उद्धार करना है, नहीं तो मैं रणभूमि में प्राण दे दूँगा। अहा ! मुझे भावी वैभव का दर्शन करानेवाली तुम जैसी पथप्रदर्शिका माता मिली है ! फिर मुझे क्या चिंता है ? मैं बराबर तुम्हारी बातें सुनना चाहता था, इसी से बीच_बीच में कुछ कहकर फिर मौन हो जाता था। तुम्हारे अमृत के समान वचन बड़ी कठिनता से सुनने को मिले थे। उनसे मुझे तृप्ति नहीं होती थी। अब मैं शत्रुओं का दमन करने और जय प्राप्त करने के लिये अपने बन्धुओं के सहित चढ़ाई करता हूँ। कुन्ती कहती है___ श्रीकृष्ण ! माता के वाग्वाणों से चाबुक खाये हुए घोड़े के समान उसने माता के आज्ञानुसार काम किये। यह आख्यान बड़ा उत्साहवर्धक और राज की वृद्धि करनेवाला है। जब कोई राजा शत्रु से पीड़ित होकर कष्ट पा रहा हो, उस समय मंत्री उसे यह प्रसंग सुनावे। यह इतिहास सुनने से गर्भवती स्त्री निश्चय ही वीरपुत्र उत्पन्न करती है।  केशव ! तुम अर्जुन से कहना कि “तेरा जन्म होने के समय मुझे यह आकाशवाणी हुई थी कि ‘कुन्ती ! तेरा यह पुत्र इन्द्र के समान होगा। यह भीमसेन के साथ रहकर युद्धस्थल में आये हुए सभी को जीत लेगा और अपने शत्रुओं को व्याकुल कर देगा। यह सारी पृथ्वी को अपने अधीन कर लेगा और अपने शत्रुओं को व्याकुल कर देगा। यह सारी पृथ्वी को अपने अधीन कर लेगा और इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जायगा। श्रीकृष्ण की सहायता से यह सारे कौरवों को संग्राम में मारकर अपने खोये हुए पैतृक अंश को प्राप्त करेगा और फिर अपने भाइयों सहित तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा।“ कृष्ण ! मेरी भी ऐसी ही इच्छा है कि आकाशवाणी ने जैसा कहा था, वैसा ही हो; और यदि धर्म सत्य है तो ऐसा ही होगा। तुम अर्जुन और भीमसेन से कहना कि क्षत्राणियाँ जिस काम के लिये पुत्र उत्पन्न करती हैं, उसे करने का समय आ गया है।‘ द्रौपदी से कहना कि ‘बेटी ! तू अच्छे कुल में उत्पन्न हुई है। तूने मेरे सभी पुत्रों के साथ धर्मानुसार वर्ताव किया है___यह तेरे योग्य ही है।‘ तथा नकुल और सहदेव से कहना कि ‘ तुम अपने प्राणों की भी बाजी लगाकर पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों को भोगने की इच्छा करो।‘ कृष्ण ! मुझे राज्य जाने, जूए में हारने या पुत्रों को वनवास होने का दु:ख नहीं है; किन्तु मेरी युवती पुत्रवधू ने सभा में रुदन करते हुए जो दुर्योधन के कुवचन सुने थे, वे ही मुझे बड़ा दु:खदे रहे हैं। वे भीम और अर्जुन के लिये तो बड़े ही अपमानजनक थे। तुम उन्हें उनकी याद दिला देना। फिर द्रौपदी, पाण्डव तथा उनके पुत्रों से मेरी ओर से कुशल पूछना  और उन्हें बार_बार मेरी कुशल सुना देना। अब तुम जाओ, मेरे पुत्रों की रक्षा करते रहना। तुम्हारा मार्ग निर्विघ्न हो। तब भगवान्  श्रीकृष्ण ने कुन्ती को प्रणाम किया और उसकी प्रदक्षिणा करके बाहर आये। वहाँ आकर उन्होंने भीष्म आदि प्रधान_प्रधान कौरवों को विदा किया तथा कर्ण को रथ में बैठाकर सात्यकि के साथ चल दिये। भगवान् के जाने के बाद कौरवलोग आपस में मिलकर उनके विषय में अनेकों अद्भुत और  आश्चर्यजनक बातें करने लगे। नगर से बाहर आकर श्रीकृष्ण ने कर्ण के साथ कुछ गुप्त बातें कीं और फिर उसे विदा करके घोड़े हाँक दिये। वे इतनी तेजी से चले कि उस लम्बे मार्ग को बात_की_बात में तय करके उपलव्य को पहुँच गये।

No comments:

Post a Comment