Sunday 12 March 2017

दुर्योधन का पाण्डवों से कहने के लिये उलूक को अपना कटु संदेश सुनाना

महात्मा पाण्डवों ने तो हिरण्यवती नदी के तीर पर पड़ाव किया और कौरवों ने एक दूसरे स्थान पर शास्त्रोक्त विधि से अपनी छावनी डाली।  वहाँ राजन् दुर्योधन ने बड़े उत्साह से अपनी सेना ठहरायी और भिन्न_भिन्न टुकड़ियों के लिये अलग_अलग स्थान नियुक्त करके सब राजाओं का बड़ा सम्मान किया। फिर उन्होंने कर्ण, शकुनि और दु:शासन के साथ गुप्त परामर्श करके उलूक को बुलाकर कहा, “उलूक ! तुम पाण्डवों के पास जाओ और श्रीकृष्ण के सामने ही पाण्डवों से यह संदेश कहो। जिसके लिये वर्षों से विचार हो रहा था, वह कौरवों और पाण्डवों का भयंकर युद्ध अब होवेवाला है। अर्जुन ! तुमने कृष्ण और अपने भाइयों सहित संजय से जो गर्ज_गर्जकर बड़ी शेखी की बातें कही थीं, वे उसने कौरवों की सभा में सुनायी थीं। अब उन्हें कर दिखाने का समय आ गया है। राजन् ! तुम बड़े धार्मिक कहे जाते हो। अब तुमने अधर्म में मन क्यों लगाया है ? इसी को तो विडालव्रत कहते हैं। एक बार नारदजी ने मेरे पिताजी से इस प्रसंग में एक आख्यान कहा था। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। एक बार एक बिलाव  शक्तिहीन हो जाने पर गंगाजी के तट पर ऊर्ध्वबाहु होकर खड़ा हो गया और सब प्राणियों को अपना विश्वास दिलाने के लिये ‘मैं धर्माचरण कर रहा हूँ' ऐसी घोषणा करने लगा। इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर पक्षियों को उसपर विश्वास हो गया और वे उसका सम्मान करने लगे। उसने भी समझा कि मेरी तपस्या सफल तो हो गयी। फिर बहुत दिनों बाद वहाँ चूहे भी आये और उस तपस्वी को देखकर सोचने लगे कि ‘ हमारे शत्रु बहुत हैं; इसलिये हमारा मामा बनकर यह बिलाव हममें से जो बूढ़े और बालक हैं, उनकी रक्षा किया करे।‘ तब उन सबने उस विडाल के पास जाकर कहा, ‘ आप हमारे उत्तम आश्रय और परम सुहृद हैं। अत: हम सब आपकी शरण में आये हैं। आप सदा धर्म में तत्पर रहते हैं। अत: वज्रधर इन्द्र जैसे देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा करें।‘
“चूहों के इस प्रकार कहने पर उन्हें भक्षण करनेवाले विडाल ने कहा___'मैं तप भी करूँ और तुम सबकी रक्षा भी करूँ___ये दोनो काम होने का तो मुझे कोई ढंग दिखायी नहीं देता। फिर भी तुम्हारा हित करने के लिये तुम्हारी बात भी अवश्य माननी चाहिये। तुम्हें भी नित्यप्रति मेरा एक काम करना होगा। मैं कठोर नियम का पालन करते_करते बहुत थक गया हूँ। मुझे अपने में चलने_फिरने की तनिक शक्ति भी दिखायी नहीं देती। अत: आज से तुम नित्य_प्रति नदी के तीरतक पहुँचा दिया करो।‘ चूहों ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी बात स्वीकार ली और सब बूढ़े_बालक उसी को सौंप दिये। “ फिर तो वह पापी बिलाव उन चूहों को खा_खाकर मोटा हो गया। इधर चूहों की संख्या दिनोंदिन कम होने लगी। तब उन सबने आपस में मिलकर कहा, ‘क्यों जी ! मामा तो रोज_रोज फूलता जा रहा है और हम बहुत घट गये हैं। इसका क्या कारण है ?’ तब उनमें कोलिक नाम का जो सबसे बूढ़ा चूहा था, उसने कहा___'मामा को धर्म की परवा थोड़े ही है। उसने तो ढोंग रचाकर ही हमसे मेल_जोल बढ़ा लिया है। जो प्राणी केवल फल_मूल ही खाता है, उसकी विष्ठा में बाल नहीं होते। इसके अंग बराबर पुष्ट होते जा रहे हैं और हमलोग घट रहे हैं। सात_आठ दिन से डिंडिक चूहा भी दिखायी नहीं दे रहा है। कोलिक की यह बात सुनकर सब चूहे भाग गये और वह दुष्ट बिलाव भी अपना_सा मुँह लेकर चला गया।
दुष्टात्मन् ! इस प्रकार तुमने भी विडालव्रत धारण कर रखा है। जैसे चूहों ने धर्माचरण का ढोंग रच रखा था, उसी प्रकार तुम अपने सगे_सम्बन्धियों में धर्माचारी बने हुए हो। तुम्हारी बातें तो और प्रकार की हैं और कर्म दूसरे ढंग का है। तुमने दुनिया को ठगने के लिये ही वेदाभ्यास और शान्ति का स्वाँग बना रखा है। तुम यह पाखण्ड छोड़कर क्षात्रधर्म का आश्रय लो। तुम्हारी माता वर्षों से दुःख भोग रही है। उसके आँसू पोंछो और संग्राम में शत्रुओं को परास्त करके सम्मान प्राप्त करो। तुमने हमसे पाँच गाँव माँगे थे। किन्तु यह सोचकर कि किसी प्रकार पाण्डवों को कुपित करके उनसे संग्रामभूमि में दो_दो हाथ करें, हमने तुम्हारी माँग मंजूर नहीं की। तुम्हारे लिये ही मैंने दुष्टचित्त विदुर को त्यागा था। मैंने तुम्हें लाक्षाभवन में जलाने का प्रयत्न किया था__,_इस बात को याद करके तो एक बार मर्द बन जाओ। तुम जाति और बल में मेरे समान ही हो। फिर भी कृष्ण का आश्रय लिये क्यों बैठे हो ? “उलूक ! फिर पाण्डवों के पास ही कृष्ण से कहना कि तुम अपनी और पाण्डवों की रक्षा करने के लिये अब तैयार होकर हमारे साथ युद्ध करो। तुमने माया से सभा में जो भयंकर रूप धारण किया था, वैसा ही फिर धारण करके अर्जुन के सहित हमपर चढ़ाई करो। इन्द्रजाल, माया अथवा कटु भयजनक तो होते हैं; किन्तु जो रणांगण में शस्त्र धारण किये हुए हैं, उनका वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते। वे तो उनके कारण रोष में भरकर गरजने लगते हैं। हम भी यदि चाहें तो आकाश में चढ़ सकते हैं, रसातल में घुस सकते हैं और इन्द्रलोक में जा सकते हैं। किन्तु इससे न तो अपना स्वार्थ सिद्ध हो सकता है और न अपने प्रतिपक्षी को डराया ही जा सकता है। और तुमने जो कहा था कि ‘रणभूमि में  धृतराष्ट्र के पुत्रों को मरवाकर पाण्डवों को उनका राज्य दिलाऊँगा,’ सो तुम्हारा यह संदेश भी संजय ने मुझे सुना दिया था। अब तुम सत्यप्रतिज्ञ होकर पाण्डवों के लिये पराक्रमपूर्वक कमर कसके युद्ध करो। हम भी तुम्हारा पौरुष देखें। संसार में अकस्मात् ही तुम्हारा बड़ा यश फैल गया है। किन्तु आज मुझे मालूम हुआ कि जिनलोगों ने तुम्हें सिर पर चढ़ा रखा है, वे वास्तव में पुरुष चिह्न धारण करनेवाले हिजड़े ही हैं। तुम कंस के एक सेवक ही तो हो। मेरे जैसे राजा_महाराजों को तो तुम्हारे साथ युद्ध करने के लिये संग्रामभूमि में आना भी उचित नहीं है। “उस बिना मूँछों के मर्द, बहुभोजी, अज्ञान की मूर्ति, मूर्ख भीमसेन से तुम बार_बार कहना कि तुम कौरवों की सभा में पहले जो प्रतिज्ञा कर चुके हो, उसे मिथ्या मत कर देना। यदि शक्ति रखते हो तो दु:शासन का खून पीना। और तुमने जो कहा था कि ‘मैं रणभूमि में एक_साथ सब धृतराष्ट्र_पुत्रों को मार डालूँगा’, सो उसका समय भी अब आ गया है।  फिर तुम मेरी ओर से नकुल को कहना कि अब डटकर युद्ध करो। हम तो तुम्हारा पुरुषार्थ देखें। अब तुम युधिष्ठिर के अनुराग, मेरे प्रति द्वेष और द्रौपदी के क्लेश को अच्छी तरह याद कर लो। इसी तरह सब राजाओं के बीच में सहदेव से कहना कि तुम्हें जो दु:ख सहने पड़े हैं, उन्हें याद करके अब सावधानी से युद्ध करो। “विराट और द्रुपद से मेरी ओर से कहना कि तुम सब इकट्ठा होकर मुझे मारने के लिये आओ और अपने तथा पाण्डवों के लिये मेरे साथ संग्राम करो। धृष्टधुम्न से कहना कि जब तुम द्रोणाचार्य के सामने आओगे, तब तुम्हे मालूम होगा कि तुम्हारा हित किस बात में है। अब तुम अपने सुहृदों के सहित मैदान में आ जाओ। फिर शिखण्डी से कहना कि महाबाहु भीष्म तुम्हें स्त्री समझकर नहीं मारेंगे। इसलिये तुम निर्भय होकर युद्ध करना।“ इसके बाद राजा दुर्योधन खूब हँसा और उलूक से कहने लगा___'तुम कृष्ण के सामने ही अर्जुन से एक बार फिर कहना कि तुम या तो अर्जुन को परास्त करके इस पृथ्वी का शासन करो, नहीं तो हमारे हाथ से हारकर तुम्हें पृथ्वी पर शयन करना होगा। जिस काम के लिये क्षत्राणी पुत्र प्रसव करती है, उसका समय आ गया है। अब तुम संग्रामभूमि में बल, वीर्य, शौर्य, अस्त्रलाघव और पुरुषार्थ दिखाकर अपने क्रोध को ठण्डा कर लो। हमने तुम्हें जूए में हराया था, तुम्हारे सामने ही हम द्रौपदी को सभा में घसीट लाये थे, फिर हमीं ने बारह वर्ष के लिये घर से निकालकर तुम्हें वन में रखा और एक वर्ष तक विराट के घर में रहकर उनकी गुलामी करने  के लिये मजबूर किया। इन देशनिकाले, वनवास  और द्रौपदी के क्लेशों को याद करके जरा मर्द बन जाओ और कृष्ण को साथ लेकर युद्ध के मैदान में आ जाओ। तुम बहुत बढ़_बढ़कर बातें बनाया करते हो, सो यह व्यर्थ बकवाद छोड़कर जरा पुरुषार्थ दिखाए।
भला, तुम पितामह भीष्म, निष्कर्ष कर्ण, महाबली शल्य और आचार्य द्रोण को युद्ध में परास्त किये बिना कैसे राज्य पाना चाहते हो ? अजी ! पृथ्वी पर पैर रखने वाला ऐसा कौन जीव है, जिसे मारने का भीष्म और द्रोण संकल्प करें तथा जिसे इन दारुण शस्त्रों का स्पर्श भी हो जाय और फिर भी वह जीता रहे। यह मैं जानता हूँ कि श्रीकृष्ण तुम्हारे सहायक हैं और तुम्हारे पास गाण्डीव धनुष भी है। तथा तुम्हारे समान कोई योद्धा नहीं है। किंतु लो, यह सब जानकर भी मैं तुम्हारा राज्य छीन रहा हूँ। पिछले तेरह वर्षों तक तुमने तो विलाप किया है और मैने राज्य भोगा है। अब आगे भी बन्धु_बान्धवों सहित तुम्हें मारकर मैं ही राज्य शासन करूँगा। अर्जुन ! जिस समय दायित्व के दाँव पर मैंने तुम्हें जब आब में जीता था, उस समय तुम्हारा गाण्डीव कहाँ था और भीमसेन का बल कहाँ चला गया था ? उस समय तो अनिन्दिता कृष्णा कृपा के बिना गदाधारी भीमसेन और गाण्डीवधारी अर्जुन भी उस दासत्व से मुक्त नहीं हो सके थे। देखो, यह भी मेरा ही पुरुषार्थ था कि विराटनगर में भीमसेन को तो रसोई पकाते_पकाते चैन नहीं थी और तुम्हें सिर पर वेणी लटकाकर हिजड़े का रूप बनाकर राजकन्या को नचाना पड़ता था। मैं तुम्हारे या कृष्ण के भय से राज्य नहीं दूँगा। अब तुम और कृष्ण दोनो मिलकर युद्ध करो। जिस समय मेरे अमोघ बाण छूटेंगे, उस समय हजारों कृष्ण और सैकड़ों अर्जुन दसों दिशाओं में भागते फिरेंगे। फिर तुम्हारे सभी सगे_सम्बन्धी युद्ध में मारे मारेंगे। उस समय तुम्हें बड़ा संताप होगा और जिस प्रकार पुण्यहीन पुरुष स्वर्गप्राप्ति की आशा छोड़ बैठता है, उसी प्रकार तुम्हारी पृथ्वी का राज्य पाने की आशा छूट जायगी। इसलिये तुम शान्त हो जाओ।‘

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