Monday 13 March 2017

उलूक का पाण्डवों को दुर्योधन का संदेश सुनाना और फिर पाण्डवों का संदेश लेकर दुर्योधन के पास आना

इस प्रकार दुर्योधन का संदेश लेकर उलूक पाण्डवों की छावनी में आया और पाण्डवों से मिलकर राजा युधिष्ठिर से कहने लगा, ‘आप दूत के वचनों से परिचित ही हैं। इसलिये जिस प्रकार मुझसे कहा गया है, उसी प्रकार दुर्योधन का संदेश सुनाने पर आप क्रोध न करें।‘ युधिष्ठिर ने कहा___उलूक ! तुम्हारे लिये कोई भय की बात नहीं है। तुम बेखटके अदूरदर्शी दुर्योधन का विचार सुनाए उलूक ने कहा___राजन् ! महामना दुर्योधन ने सब कौरवों के सामने आपके लिये जो संदेश कहा है वह सुनिये। उन्होंने कहा है___”पाण्डव ! तुम राज्यहरण, वनवास और द्रौपदी के उत्पीड़न की बात याद करके जरा मर्द बन जाओ। भीमसेन ने सामर्थ्य न होने पर भी जो ऐसी शर्त की थी कि ‘मैं दु:शासन का रक्त पीऊँगा,’ सो यदि उनकी ताब हो तो पी लें। अस्त्र_शस्त्र में मंत्रों द्वारा देवताओं का आह्वान हो चुका है, कुरुक्षेत्र की कीचड़ सूख गयी है और मार्ग चौरस हो गये हैं; इसलिये अब कृष्ण के साथ संग्रामभूमि में आ जाओ। तुम पितामह भीष्म, दुर्धर्ष कर्ण, महाबली शल्य और आचार्य द्रोण को युद्ध में परास्त किये बिना किस प्रकार राज्य लेना चाहते हो ? भला, पृथ्वी पर पैर रखने वाला ऐसा कौन प्राणी है, जिसे मारने का भीष्म और द्रोण संकल्प लें तथा जिसे उनके दारुण शस्त्रों का स्पर्श भी हो जाय और फिर वह जीता रहे।“ महाराज युधिष्ठिर से ऐसा कह उलूक ने अर्जुन की ओर मुख करके कहा___’अर्जुन ! आपसे महाराज दुर्योधन कहते हैं कि तुम बहुत बकवाद क्यों करते हो ? ये व्यर्थ बातें बनाना छोड़कर युद्ध में सामने आ जाओ। अब तो युद्ध करने से ही कोई काम बन सकता है, बातें बनाने से कुछ नहीं होगा।
मैं जानता हूँ कि कृष्ण तुम्हारे सहायक हैं और तुम्हारे पास गाण्डीव धनुष भी है तथा तुम्हारे समान कोई योद्धा नहीं है___ यह बात भी मुझसे छिपी नहीं है। किन्तु लो, यह सब जानकर भी मैं तुम्हारा राज्य छीन रहा हूँ। पिछले तेरह वर्ष तक तुमने तो विलाप किया और मैंने राज्य भोगा है। अब आगे भी तुम्हें और तुम्हारे बन्धु_बान्धवों को मारकर मैं ही राज्यशासन करूँगा। ध्यूतक्रीडा के समय जब तुम दासत्व में बँध गये थे तो उस समय अनिन्दिता द्रौपदी के कृपा के बिना गदाधारी भीम और गाण्डीवधारी अर्जुन तो उस दासत्व से अपना छुटकारा भी नहीं करा सके थे। विराटनगर में मेरे ही कारण तुम्हें सिर पर वेणी लटकाकर हिजड़े का रूप बनाकर राजकन्या को नचाना पड़ा था। मैं तुम्हारे या कृष्ण के भय से राज्य नहीं दूँगा। अब तुम और कृष्ण दोनों मिलकर हमारे साथ युद्ध करो। जिस समय मेरे अनेक वाण छूटेंगे, उस समय हजारों कृष्ण और सैकड़ों अर्जुन दसों दिशाओं में भागते फिरेंगे। इस प्रकार जब तुम्हारे सभी सगे_संबंधी युद्ध में मारे जायेंगे तो तुम्हें बड़ा संताप होगा और जिस प्रकार पुण्यहीन पुरुष स्वर्गप्राप्ति की आशा छोड़ बैठता है उसी प्रकार तुम्हारी पृथ्वी का राज्य पाने की आशा टूट जायगी। इसलिये तुम शान्त हो जाओ।‘ पाण्डवलोग तो पहले से ही क्रोध में भरे बैठे थे। उलूक की ये बातें सुनकर वे और भी गर्म हो गये और विषधर सर्पों के समान एक दूसरे की ओर देखने लगे। तब श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर उलूक से कहा, ‘उलूक ! तुम जल्दी ही दुर्योधन के पास जाओ और उससे कहो कि हमने तुम्हारी बातें सुन ली हैं। तुम्हारा जैसा विचार है वैसा ही होगा।‘ भीमसेन कौरवों के संकेत और भाव को समझकर क्रोध से आगबबूला हो गये  और दाँत पीसकर उलूक से कहने लगे, “मूर्ख ! दुर्योधन ने तुमसे जो_जो बातें कही हैं, वे सब हमने सुन लीं। अब मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनो। तुम क्षत्रियों के सामने सूतपुत्र कर्ण और अपने पिता दुरात्मा शकुनि को सुनाते हुए दुर्योधन से कहना कि ‘ रे दुरात्मन् ! हम जो अपने ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर की प्रसन्नता के लिये सदा से तेरे अपराधों को सहते रहे हैं, मालूम होता है हमारे  उन उपकारों का तेरे हृदय में कुछ भी आदर नहीं है। धर्मराज अपने कुल के कल्याण के लिये आपस में मेल कराना चाहते थे। इसी से उन्होंने श्रीकृष्ण को कौरवों के पास भेजा था। किन्तु अवश्य ही तेरे सिरपर काल नाच रहा है, इसी से तू यमराज के घर जाना चाहता है। अच्छा तो अब निश्चय कल हमारे साथ तेरा संग्राम होगा। मैंने भी तुझे और तेरे भाइयों को मारने की प्रतिज्ञा कर ली है और ऐसा ही होगा भी। समुद्र भले ही अपनी मर्यादा को तोड़ दे  और पहाड़ों के भले ही टुकड़े_टुकड़े उड़ जाएँ, किन्तु मेरा कथन झूठा नहीं होगा। अरे दुर्बुद्धे ! साक्षात् यम, कुबेर और  रुद्र भी तेरी सहायता करें तो भी पाण्डवलोग अपनी प्रतिज्ञा पूरी करेंगे। मैं खूब जी भरकर दु:शासन का खून पीऊँगा।इस युद्ध में स्वयं भीष्मजी को आगे रखकर भी कोई क्षत्रिय मेरे पास आवेगा तो उसे तुरंत यमराज के घर भेज दूँगा।‘ इस क्षत्रियों की सभा में मैंने ये जितनी बातें कही हैं, वे सभी सत्य होंगी__यह मैं अपने आत्मा की शपथ करके कहता हूँ।“ भीमसेन की बातें सुनकर सहदेव भी क्रोध में भर गये और इस प्रकार कहने लगे, “पापी उलूक ! मेरी बात सुनो। तुम अपने पिता से जाकर कहना कि ‘यदि राजा धृतराष्ट्र से तुम्हारा सम्बन्ध न होता तो हममें यह फूट ही न पड़ती।‘ तुमने तो धृतराष्ट्र के वंश और सब लोगों का नाश कराने के लिये ही जन्म लिया है। तुम साक्षात् शत्रुता की मूर्ति, अपने कुल का उच्छेद करनेवाले और बड़े पापी हो।‘ उलूक ! याद रखो, इस संग्राम में मैं पहले तुम्हें मारूँगा और फिर तुम्हारे पिता के प्राण लूँगा।“ भीम और सहदेव की बात सुनकर अर्जुन ने मुस्कराकर भीमसेन से कहा___’भाई जी ! आपके साथ जिनलोगों का वैर है, उनके सम्बन्ध में तो आप यही समझिये कि वे संसार में हैं ही नहीं। किन्तु उलूक से आपको कोई कड़ी बात नहीं कहनी चाहिये। दूत बेचारे क्या अपराध करते हैं; उनसे तो जैसा कहने को कहा जाता है, वैसा ही वे सुना देते हैं।‘ भीमसेन से ऐसा कह उन्होंने धृष्टधुम्नादि अपने संबंधियों से कहा, ‘आपलोगों ने पापी दुर्योधन की बातें सुन लीं ? इनमें विशेष रूप से मेरी और श्रीकृष्ण की निंदा की गयी है। इन बातों को सुनकर आप हमारे ही हित की दृष्टि से रोष में भर गये हैं। किन्तु आपलोगों की सहायता और श्रीकृष्ण के प्रताप से मैं संपूर्ण क्षत्रिय राजाओं को भी कुछ नहीं समझता। अत: आप सब आज्ञा दें तो मैं उलूक को इन बातों का उत्तर दे दूँ। नहीं तो कल अपनी सेना के मुहाने पर गाण्डीव धनुष से ही इस बकवाद का जवाब दूँगा। बातों में तो नपुंसक लोग ही जवाब दिया करते हैं।‘ अर्जुन की यह बात सुनकर राजलोग उनकी प्रशंसा करने लगे। फिर महाराज युधिष्ठिर ने उन सबका उनके सम्मान और आयु के अनुसार सत्कार किया और दुर्योधन को संदेशरूप से सुनाने के लिये उलूक से कहा___उलूक ! तुम जाओ और शत्रुता की मूर्ति कुलकलंक दुर्योधन से कहो कि भाई ! तुम्हारी बड़ी पापबुद्धि है। अब तुमने हमें युद्ध के लिये आमंत्रित तो कर ही लिया है। किन्तु तुम क्षत्रिय हो, इसलिये हमारे मावनीय भीष्मादि को और स्नेहास्पद लक्ष्मणादि को आगे रखकर हमसे युद्ध मत करना। बल्कि अपने और अपने सेवकों के पराक्रम के भरोसे ही पाण्डवों को युद्ध में बुलाना। देखो, पूरा_पूरा क्षत्रियत्व निभाना। जो पुरुष दूसरों के पराक्रम का आश्रय लेकर शत्रुओं को संग्राम के लिये बुलाता है और स्वयं उनसे लोहा लेने की शक्ति नहीं रखता, उसी को नपुंसक कहते हैं।‘
श्रीकृष्ण ने कहा___उलूक ! इसके बाद तुम दुर्योधन ये मेरा संदेश कहना कि ‘ अब तुम कल ही रणभूमि में आ जाओ और अपनी मर्दानगी दिखाओ। तुम जो ऐसा समझते हो कि कृष्ण युद्ध नहीं करेगा; क्योंकि पाण्डवों ने इससे अर्जुन का सारथि बनने के लिये कहा है___क्या इसी से तुम्हें मेरा डर नहीं है? सो याद रखो, युद्ध के अन्त में कोई भी नहीं बचेगा; आग जैसे घास_फूस को जला देती है, उसी प्रकार अपने क्रोध से मैं सबको भस्म कर दूँगा। इस समय तो महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से मैं युद्ध करते हुए अर्जुन का सारथ्य ही करूँगा। अब कल तो तुम तीनों लोकों में यदि कहीं उड़कर जाना चाहोगे अथवा भूमि के भीतर घुसने का प्रयत्न करेंगे, तो भी वहीं तुम्हें अर्जुन का रथ दिखायी देगा। और तुम जो भीमसेन की प्रतिज्ञा को मिथ्या समझते हो, सो तुम समझ लो कि दु:शासन का खून तो उन्होंने आज ही पी लिया। तुम व्यर्थ ऐसी उलटी_उल्टी बातें बनाते हो; महाराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन और नकुल_सहदेव तो तुम्हें कुछ भी नहीं समझते।‘ इसके बाद महायशस्वी अर्जुन श्रीकृष्ण की ओर देखकर उलूक से कहने लगे___’जो पुरुष अपने पराक्रम के भरोसे शत्रुओं को संग्राम के लिये ललकारता है और फिर डटकर उनका मुकाबला करता है, मर्द वही है। जाओ दुर्योधन से कहना कि सव्यसाची अर्जुन ने तुम्हारी चुनौती स्वीकार कर ली है, अब आज की रात बीतते ही युद्ध आरम्भ हो जायगा। मैं तुम्हारे सामने सबसे पहले कुरुवृद्ध  पितामह भीष्म का ही संहार करूँगा। तुम्हारे अधर्मी भाई दु:शासन से भीमसेन ने क्रोध में भरकर सभा में जो बात कही थी, उसे भी तुम थोड़े ही दिनों में सत्य हुई देखोगे। दुर्योधन ! अभिमान, दर्प, क्रोध, कटुता, निष्ठुरता, अहंकार, क्रूरता, तीक्ष्णता, धर्मनिरपेक्ष, गुरुजनों की बात न मानने और अधर्म पर तुले रहने का दुष्परिणाम बहुत जल्द तुम्हारे सामने आ जायगा। भीष्म, द्रोण और कर्ण के युद्ध में काम आते ही तुम अपने जीवन, राज्य और पुत्रों की आशा छोड़ बैठोगे। जब तुम अपने भाई और पुत्रों की मृत्यु का संवाद सुनेगा और भीमसेन तुम्हें मारने लगेंगे, तभी तुम्हें अपने कुकर्मों की याद आने लगेगी। मैं तुमसे सच_सच कहता हूँ, ये सभी बातें सत्य होकर रहेंगी।‘
तदनन्तर युधिष्ठिर ने फिर कहा___’भैया उलूक ! तुम दुर्योधन से जाकर मेरी यह बात कहना कि मैं तो कीड़े_मकोड़ों को भी कष्ट पहुँचाना नहीं चाहता, फिर अपने सगे_संबंधियों के नाश की इच्छा कैसे कर सकता हूँ ? इसी से मैने पहले ही केवल पाँच गाँव माँगे थे। किन्तु तुम्हारा मन तृष्णा में डूबा हुआ है और तुम मूर्खता से ही व्यर्थ बकवाद किया करते हो। देखो, तुमने श्रीकृष्ण की भी हितकारिणी शिक्षा ग्रहण नहीं की। अब अधिक कहने_सुनने में क्या रखा है, तुम अपने बन्धु_बान्धवों के सहित मैदान में आ जाओ।‘ इसके बाद भीमसेन ने कहा___उलूक ! दुर्योधन बड़ा ही दुर्बुद्धि, पापी, शठ, क्रूर, कपिल और दुराचारी है। तुम मेरी ओर से कहना कि मैंने सभा के बीच में जो प्रतिज्ञा की थी उसे मैं सत्य की शपथ करके कहता हूँ, अवश्य सत्य करूँगा। मैं रणभूमि में दु:शासन  को पछाड़कर उसका लोहू पीऊँगा तथा तेरी जंघा को तोडूँगा और तेरे भाइयों को नष्ट कर डालूँगा। सच मान, मैं धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का काल हूँ। एक बात और भी सुन___मैं भाइयों सहित तुझे मारकर धर्मराज के सामने ही तेरे सिर पर पैर रखूँगा।‘ फिर नकुल ने कहा___’उलूक ! तुम धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन से कहना कि मैंने तुम्हारी सब बातें अच्छी तरह सुन ली हैं। तुम मुझे जैसा कहने के लिये कह रहे हो, मैं वैसा ही करूँगा।‘ सहदेव बोले, ‘दुर्योधन ! तुम्हारा जो विचार है वह सब वृथा हो जायगा और महाराज धृतराष्ट्र को तुम्हारे लिये शोक करना पड़ेगा।‘ इसके पश्चात् शिखण्डी ने कहा, ‘निःसंदेह विधाता ने मुझे  पितामह भीष्म के वध के लिये ही उत्पन्न किया है। इसलिये मैं सब धनुर्धरों के देखते_देखते उन्हें धराशायी कर दूँगा। फिर धृष्टधुम्न ने भी कहा, ‘मेरी ओर से  तुम दुर्योधन से कहना कि मैं द्रोणाचार्य को उनके साथी और सम्बन्धियों सहित मार डालूँगा।‘ अन्त में महाराज युधिष्ठिर ने करुणावश फिर कहा, ‘मैं तो किसी भी प्रकार अपने कुटुम्बियों का वध नहीं कराना चाहता। यह सब नौबत तो तुम्हारे ही दोष से आयी है। और उलूक ! अब तुम या तो जाओ या रहने की इच्छा हो तो यहीं रहो। हम भी तुम्हारे सम्बन्धी ही हैं।‘ तब उलूक महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा पा राजा दुर्योधन के पास आया और उसे अर्जुन का संदेश ज्यों_का_त्यों सुना दिया। तथा श्रीकृष्ण, भीमसेन और धर्मराज युधिष्ठिर के पुरुषार्थ का वर्णन कर नकुल, विराट, द्रुपद, सहदेव, धृष्टधुम्न, शिखण्डी और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन ने जो_जो बातें कही थीं, वे सब उसी प्रकार सुना दीं। उलूक की बातें सुनकर राजा दुर्योधन ने दुःशासन कर्ण और शकुनि से कहा कि ‘सब राजाओं को तथा अपनी और अपने मित्रों की सेना को आज्ञा दे दो कि कल सूर्योदय होने से पहले ही सब सेनापति तैयार हो जाएँ।‘ तब कर्ण की आज्ञा से दूतों ने संपूर्ण सेनाओं और राजाओं को दुर्योधन का यह आदेश सुना दिया। इधर उलूक की बातें सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भी धृष्टधुम्न के नेतृत्व में अपनी चतुरंगिनी सेना का कूच करा दिया। महारथी भीम और  अर्जुन आदि सब ओर से उसकी देखभाल करते चलते थे। उसके आगे महान् धनुर्धर धृष्टधुम्न थे। उन्होंने जिस वीर का जैसा बल और जैसा उत्साह था, उसे उसी कोटि के प्रतिपक्षी से युद्ध करने की आज्ञा दी। अर्जुन को कर्ण के साथ, भीमसेन को दुर्योधन के साथ, धृष्टकेतू को शल्य के साथ, उत्तमौजा को कृपाचार्य के साथ, नकुल को अश्त्थामा के साथ, शैव्य को कृतवर्मा के साथ, सात्यकि को जयद्रथ के साथ और शिखण्डी को भीष्म के साथ युद्ध करने के लिये नियुक्त किया। इसी प्रकार सहदेव को शकुनि से, चेकितान को शल से, द्रौपदी के पाँच पुत्रों को त्रिगर्त वीरों से और अभिमन्यु को वृषसेन तथा अन्यान्य राजाओं से भिड़ने का आदेश दिया; क्योंकि वे उसे संग्रामभूमि में अर्जुन की अपेक्षा भी अधिक शक्तिशाली समझते थे। इस प्रकार सब योद्धाओं का विभाग कर उन्होंने अपने भाग में द्रोणाचार्य को रखा और और फिर पाण्डवों के विजय के लिये रणांगण में सुसज्जित होकर खड़े हो गये।

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