Tuesday 14 March 2017

भीष्म और परशुरामजी का युद्ध और उसकी समाप्ति

भीष्मजी कहते हैं___राजन् !  तब मैंने रणभूमि में खड़े हुए परशुरामजी से कहा, ‘मुने ! आप पृथ्वी पर खड़े हैं, इसलिये मैं रथ में चढ़कर आपके साथ युद्ध नहीं कर सकता। यदि आप मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं तो रथ पर चढ़ जाइये और कवच कारण कर लीजिये।‘ परशुरामजी ने मुस्कराकर कहा, ‘भीष्म ! पृथ्वी ही मेरा रथ है, वेद घोड़े हैं। वायु सारथि है और वेदमाता गायत्री, सावित्री एवं सरस्वती कवच है। उनके द्वारा अपने शरीर को सुरक्षित करके ही मैं युद्ध करूँगा।‘ ऐसा कहकर परशुरामजी ने भीषण बाणवर्षा करके मुझे सब ओर से ढक दिया। इसी समय मैंने देखा कि वे रथ पर चढ़े हुए हैं। उसे उन्होंने मन से ही प्रकट किया था। वह बड़ा ही विचित्र और नगर के समान विशाल था। उसमें सब प्रकार के उत्तम_उत्तम अस्त्र रखे थे और दिव्य घोड़े जुते हुए थे। उनके शरीर पर सूर्य एवं चन्द्रमा के चिह्नों से सुशोभित कवच था, हाथ में धनुष सुशोभित था और पीठ पर तरकस बँधा हुआ था। उनके सारथि का काम उनका प्रिय सखा अकृतवण कर रहा था। वे मुझे आकर्षित करते हुए युद्ध के लिये पुकार रहे थे। इतने में ही उन्होंने मेरे ऊपर तीन बाण छोड़े। मैंने उसी समय घोड़ों को रुकवा दिया और धनुष को नीचे रख रथ से उतरकर पैदल ही उनके पास गया और उनका सत्कार करने के लिये विधिवत् प्रणाम करके कहा, ‘मुनिवर !  आप मेरे गुरु हैं, अब मुझे आपके साथ युद्ध करना होगा, अतः आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी विजय हो।‘ तब परशुरामजी ने कहा, ‘कुरुश्रेष्ठ ! सफलता चाहनेवाले पुरुष को ऐसा ही करना चाहिये। अपने से बड़ों के साथ युद्ध करने का यही धर्म है। यदि तुम इस प्रकार न आते तो मैं तुम्हें शाप दे देता। अब तुम सावधानी से युद्ध करो। मैं तुम्हें जय का आशीर्वाद तो नहीं दूँगा, क्योंकि यहाँ जीतने के लिये ही आया हूँ। जाओ, अब युद्ध करो; मैं तुम्हारे बर्ताव से बहुत प्रसन्न हूँ।
तब मैंने उन्हें पुनः प्रणाम किया और तुरंत ही रथ पर चढ़कर शंख बजाया। इसके बाद हम दोनों में एक_दूसरे को परास्त करने की इच्छा से बहुत दिनों तक युद्ध होता रहा। इस युद्ध में परशुरामजी मेरे ऊपर एक सौ उनहत्तर बाण छोड़े। तब मैंने भाले की जाति का एक तीक्ष्ण बाण छोड़कर उनके धनुष का किनारा काटकर गिरा दिया और सौ बाण छोड़कर उनके शरीर को बिंध दिया। उनसे पीड़ित होकर वे अचेत_से हो गये। इससे मुझे बड़ी दया आयी और  धैर्य धारण करके कहा, ‘युद्ध और क्षात्रधर्म को धिक्कार है।‘ इसके बाद मैंने उन पर और बाण नहीं छोड़े। इतने ही में दिन ढलनेपर सूर्यदेव पृथ्वी को संतप्त करके अस्ताचल की ओर चले गये और हमारा युद्ध बन्द हो गया। दूसरे दिन सूर्योदय होने पर फिर युद्ध आरम्भ हुआ। प्रतापी परशुरामजी मेरे ऊपर दिव्य अस्त्र छोड़ने लगे। किन्तु मैंने अपने साधारण अस्त्रों से ही उन्हें रोक दिया। फिर मैंने परशुरामजी पर वायव्यास्त्र  छोड़ा, पर उन्होंने उसे गुह्यकास्त्र से काट दिया। इसके बाद मैंने अभिमंत्रित करके आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया, उसे भगवान् परशुरामजी ने वारुणास्त्र से रोक दिया। इस प्रकार मैं परशुरामजी के दिव्य अस्त्रों को रोकता रहा और शत्रुदमन परशुरामजी मेरे दिव्य अस्त्रों को विफल करते रहे। तब उन्होंने क्रोध में भरकर मेरी छाती में बाण मारे। इससे मैं रथ पर गिर गया। उस समय मुझे अचेत देखकर तुरंत ही सारथि रणभूमि से अलग ले गया। चेत होने पर जब मुझे सब बातों का पता चला तो मैंने सारथि से कहा, ‘सारथे ! अब मैं तैयार हूँ, तू मुझे परशुरामजी के पास ले चल।‘ बस, सारथि तुरंत ही मुझे लेकर चल दिया और कुछ ही देर में मैं परशुरामजी के सामने पहुँच गया। वहाँ पहुँचते ही मैंने उनका अन्त करने के विचार से एक चमचमाता हुआ काल के समान कराल छोड़ा। उसकी गहरी चोट खाकर परशुरामजी अजेय होकर रणभूमि में गिर गये। इससे सब लोग हाहाकार करने लगे। मूर्छा टूटने पर वे खड़े हो गये और धनुष पर बाण चढ़ा बड़ी विह्वलता से कहने लगे, ‘भीष्म ! खड़ा रह, अब मैं तुझे नष्ट किये देता हूँ।‘ धनुष से छूटने पर वह बाण मेरे दायें कन्धे में लगा। उसके प्रहार से मैं झोंके खाते हुए वृक्ष के समान बड़ा ही विकल हो गया। फिर मैं भी बड़ी फुर्ती से बाण बरसाने लगा। किन्तु वे बाण अंतरिक्ष में ही रह गये। इस प्रकार मेरे और परशुरामजी के बाणों ने आकाश को ऐसा ढाँप लिया कि पृथ्वी पर सूर्य का ताप पड़ना बंद हो गया और वायु की गति रुक गयी। इस प्रकार असंख्य बाण पृथ्वी पर गिरने लगे। परशुरामजी ने क्रोध में भरकर मुझपर असंख्य बाण छोड़े और मैंने अपने सर्प के समान बाणों से उन्हें काट_काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया। इस प्रकार अगले दिन भी हमारा घोर संग्राम होता रहा। परशुरामजी बड़े शूरवीर और दिव्य अस्त्रों को पारदर्शी थे। वे रोज_रोज मेरे ऊपर दिव्य अस्त्रों का ही प्रयोग करते, किन्तु मैं उन्हें अपने प्राणों की बाजी लगाकर उनके विरोधी अस्त्रों से नष्ट कर देता था। इस प्रकार जब मैंने अस्त्रों से ही  उनके अनेकों दिव्यास्त्रों को नष्ट कर दिया तो वे बड़े ही कुपित हुए और प्राणपण से मेरे साथ युद्ध करने लगे। दिनभर बड़ा ही भीषण युद्ध हुआ। आकाश में धूल  छायी हुई थी। उसी ओट में भगवान् भास्कर अस्त हो गये। संसार में निशादेवी का राज्य  हो गया। सुखप्रद शीतल पवन चलने लगा। बस, हमारा युद्ध भी रुक गया। इसी तरह तेईस दिन तक हमारा संग्राम होता रहा। रोज सबेरे युद्ध आरम्भ होता और सायंकाल होने पर रुक जाता।
उस रात मैं ब्राह्मण, पितर और देवता आदि को नमस्कार कर एकान्त में शय्या पर विचारने लगा कि ‘परशुरामजी से मेरा भीषण युद्ध होते आज बहुत दिन बीत गये। परशुरामजी बड़े पराक्रमी हैं, संभवतः उन्हें मैं युद्ध में जीत नहीं सकता। यदि उन्हें जीतना मेरे लिये सम्भव हो तो आज रात्रि देवतालोग प्रसन्न होकर मुझे दर्शन दें।‘ इस प्रकार प्रार्थना कर मैं दायीं करवट से सो गया। स्वप्न में मुझे आठ ब्राह्मणों ने दर्शन दिया और चारों ओर से घेरकर कहा, ‘भीष्म ! तुम खड़े हो जाओ, डरो मत; तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं है। हम तुम्हारी रक्षा करेंगे, क्योंकि तुम हमारे अपने ही शरीर हो। परशुराम तुम्हें युद्ध में किसी प्रकार नहीं जीत सकते। देखो, यह प्रस्वाप नाम का अस्त्र है; इसके देवता प्रजापति हैं। इसका प्रयोग तुम स्वयं ही जान जाओगे, क्योंकि  अपनी पूर्वदेह में तुम्हें इसका ज्ञान था। इसे परशुरामजी अथवा पृथ्वी पर कोई दूसरा मनुष्य नहीं जानता। तुम इसे स्मरण करो और इसी का प्रयोग करो। यह स्मरण करते ही तुम्हारे पास आ जायगा। इससे परशुरामजी की मृत्यु भी नहीं होगी। इसलिये तुम्हें कोई पाप भी नहीं लगेगा। इस अस्त्र की पीड़ा से वे अचेत होकर सो जायेंगे। इस प्रकार उन्हें परास्त करके तुम सम्बोधनास्त्र से फिर जगा देना। बस, अब तुम सवेरे उठकर ऐसा ही करो। मरे और सोये हुए पुरुष को तो हम समान ही समझते हैं। परशुरामजी की मृत्यु तो कभी हो ही नहीं सकती। अतः उनका सो जाना ही मृत्यु के समान है।‘ ऐसा कहकर वे आठों ब्राह्मण अन्तर्धान हो गये। उन सभी के समान रूप थे और सभी बड़े तेजस्वी थे।
रात बीतने पर मैं जागा। उस समय इस स्वप्न की याद आने से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़ी देर में हमारा तुमुल युद्ध छिड़ गया। उसे देखकर सबके रोंगटे खड़े हो जाते थे। परशुरामजी मेरे ऊपर बाणों की वर्षा करने लगे और मैं अपने  बाणसमूह से उन्हें रोकता रहा। इतने में उन्होंने अत्यन्त क्रोध में भरकर मेरे ऊपर एक काल के समान कराल बाण छोड़ा। वह सर्प के समान सनसनाता हुआ बाण मेरी छाती में लगा। इससे मैं लोहूलुहान होकर पृथ्वी पर  गिर गया। चेत होने पर मैंने एक वज्र के समान प्रज्वलित शक्ति छोड़ी। वह उन विप्रवर की छाती में जाकर लगी। इससे वे तिलमिला उठे और कष्ट से काँपने लगे। सावधान होने पर उन्होंने मेरे ऊपर ब्रह्मास्त्र छोड़ा। उसे नष्ट करने के लिये मैंने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसने प्रज्वलित होकर प्रलयकाल का_सा दृश्य उपस्थित कर दिया। वे दोनों ब्रह्मास्त्र बीच में ही टकरा गये। इससे आकाश में बड़ा भारी तेज प्रकट हो गया।उसकी ज्वाला से सभी प्राणी विकल हो गये। तथा उनके तेज से संतप्त होकर ऋषि_मुनि, गन्धर्व और देवताओं को भी पीड़ा होने लगी, पृथ्वी डगमगाने लगी और सभी प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। आकाश में आग लग गयी, दसों दिशाओं में धुआँ भर गया तथा देवता, असुर और राक्षस हाहाकार करने लगे। इसी समय मेरा विचार प्रस्वापास्त्र छोड़ने का हुआ और संकल्प करते ही वह मेरे मन में प्रगट हो गया। उसे छोड़ने के लिये उठाते ही आकाश में बड़ा कोलाहल होने लगा और नारदजी ने मुझे कहा, ‘कुरुनन्दन ! देखो, आकाश में खड़े देवतालोग तुम्हें रोकते हुए कह रहे हैं कि तुम प्रस्वापास्त्र का प्रयोग मत करो। परशुरामजी तपस्वी, ब्रह्मज्ञ, ब्राह्मण और तुम्हारे गुरु हैं; तुम्हें किसी प्रकार भी उनका अपमान नहीं करना चाहिये।“ इसी समय आकाश में मुझे वे आठों ब्राह्मण दिखायी दिये। उन्होंने मुस्कराते हुए मुझसे धीरे से कहा, ‘भरतश्रेष्ठ ! जैसा नारदजी कहते हैं, वैसा ही करो। इनका कथन लोकों के लिये बड़ा कल्याणकारी है। तब मैंने उस महान् अस्त्र को धनुष से उतार लिया और विधिवत् ब्रह्मास्त्र को ही प्रकट किया।
मैंने प्रस्वापास्त्र को उतार लिया है___यह देखकर परशुरामजी बड़े प्रसन्न हुए और सहसा कह उठे कि ‘मेरी बुद्धि कुण्ठित हो गयी है, भीष्म ने मुझे परास्त कर दिया है।‘ इतने में ही उन्हें अपने पिता जमदग्निजी और मानवीय पितामह दिखायी देने लगे। वे कहने लगे, ‘भाई ! अब ऐसा साहस फिर कभी मत करना। युद्ध करना क्षत्रियों का तो कुलधर्म है। ब्राह्मणों का परम धन तो स्वाध्याय और ब्रह्मचर्य ही है। भीष्म के साथ इतना युद्ध करना ही बहुत है। अधिक हठ करने से तुम्हें नीचा देखना पड़ेगा। इसलिये अब तुम रणभूमि से हट जाओ। इस धनुष को त्यागकर घोर तपस्या करो। देखो, इस समय भीष्म को भी देवताओं ने ही रोक दिया है।‘ फिर उन्होंने बार_बार मुझसे भी कहा, ‘परशुराम तुम्हारे गुरु हैं, तुम उनके साथ युद्ध मत करो। संग्राम में परशुराम को परास्त करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है।‘ पितरों की बात सुनकर परशुरामजी ने कहा___'मेरा यह नियम है, मैं युद्ध से पीछे पैर नहीं रख सकता। पहले भी मैंने संग्राम में पीठ नहीं दिखायी। हाँ, यदि भीष्म की इच्छा हो तो वह भले ही युद्ध का मैदान छोड़ दे।‘
दुर्योधन ! तब वे रिषिगण नारदजी के साथ मेरे पास आये और कहने लगे, ‘तात ! तुम ब्राह्मण परशुराम का मान रखो और युद्ध बंद कर दो।‘ तब मैंने क्षात्रधर्म का विचार करके उनसे कहा, ‘मुनिवर ! मेरा यह नियम है कि पीठ पर बाणों की बौछार सहते हुए युद्ध से कभी मुख नहीं मोड़ सकता। मेरा यह निश्चित विचार है कि लोभ से, कृपणता से, भय से या धन के लोभ से मैं अपने सनातन धर्म का त्याग नहीं करूँगा।‘ इस समय नारदादि मुनिगण और मेरी माता भागारथी रणभूमि में विद्यमान थी। मैं उसी प्रकार धनुष चढ़ाये युद्ध का निश्चय किये खड़ा रहा। तब उन सबने परशुरामजी से कहा, ‘भृगुनन्दन ! ब्राह्मणों का हृदय ऐसा विनयशून्य नहीं होना चाहिये।‘ इसलिये अब तुम शान्त हो जाओ। युद्ध करना बन्द करो। न तो भीष्म का तुम्हारे हाथ से मारा जाना उचित है. और न भीष्म रो ही तुम्हारा वध करना चाहिये।‘ ऐसा कहकर उन्होंने परशुरामजी से शस्त्र रखवा दिये। इतने में ही मुझे वे आठ ब्रह्मवादी फिर दिखायी दिये। उन्होंने मुझसे प्रेमपूर्वक कहा, ‘महाबाहो ! तुम परशुरामजी के पास जाओ और लोक का मंगल करो।‘ मैंने देखा कि परशुरामजी युद्ध से हट गये हैं तो मैंने लोकों के कल्याण के लिये पितृगण का बात मान ली। परशुरामजी बहुत घायल हो गये थे। मैंने उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और उन्होंने मुस्कराकर बड़े प्रेमपूर्वक मुझसे कहा, ‘भीष्म ! इस लोक में तुम्हारे समान कोई दूसरा क्षत्रिय नहीं है। इस युद्ध में तुमने मुझे बहुत प्रसन्न किया है, अब तुम जाओ।‘

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