Friday 31 March 2017

व्यास_धृतराष्ट्र संवाद तथा संजय द्वारा भूमि के गुणों का वर्णन

धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर मुनिवर व्यासजी क्षणभर के लिये ध्यानमग्न हो गये; इसके बाद फिर कहने लगे, ‘राजन् ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि काल सारे जगत् का संहार करता रहता है। यहाँ सदा रहने वाला कुछ भी नहीं है। इसलिये तुम अपने कुटुम्बी कौरवों, सम्बन्धियों और हितैषी मित्रों को इस क्रूर कर्म से रोको, उन्हें धर्मयुक्त मार्ग का उपदेश करो; अपने बन्धु_बान्धवों का वध करना बड़ा नीच काम है, इसे न होने दो। चुप रहकर मेरा अप्रिय न करो। किसी के वध को वेद में अच्छा नहीं कहा गया है, इससे अपना भला भी नहीं होता। कुलधर्म अपने शरीर के समान है; जो उसका नाश करता है, वह कुलधर्म भी उस मनुष्य का नाश कर देता है। इस कुलधर्म की रक्षा तुम कर सकते हो, तो भी काल से प्रेरित होकर आपत्तिकाल के समान अधर्म_पथ में प्रवृत्त हो रहे हो ! तुम्हें राज्य के रूप में बहुत बड़ा अनर्थ प्राप्त हुआ है; क्योंकि यह समस्त कुल के तथा अनेकों राजाओं के विनाश का कारण बन गया है। यद्यपि तुम धर्म का बहुत लोप कर चुके हो, तो भी मेरे कहने से अपने पुत्रों को धर्म का मार्ग दिखाओ। ऐसे राज्य से तुम्हें क्या लेना है, जिससे पाप का भागी होना पड़ा। धर्म की रक्षा करने से तुम्हें यश, कीर्ति और स्वर्ग मिलेगा। अब ऐसा, करो, जिससे पाण्डव अपना राज्य पा सकें और कौरव भी सुख शान्ति का अनुभव करें। धृतराष्ट्र ने कहा___तात ! सारा संसार स्वार्थ से मोहित हो रहा है, मुझे भी सर्वसाधारण के समान ही समझिये। मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती, परन्तु क्या करूँ ? मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। व्यासजी ने कहा___अच्छा, तुम्हारे मन में यदि मुझसे कुछ पूछने की बात हो तो कहो; मैं तुम्हारे सभी संदेहों को दूर कर दूँगा।
धृतराष्ट्र ने कहा___भगवन् ! संग्राम में विजय पानेवालों को जो शुभ शकुन दृष्टिगोचर होते हैं, उन सबको मैं सुनना चाहता हूँ। व्यासजी ने कहा___हवनीय अग्नि की प्रभा निर्मल हो, उसकी लपटें ऊपर उठती हों अथवा प्रदक्षिण क्रम से घूमती हों, उनसे धूआँ न निकले, आहुति डालने पर उनमें से पवित्र गंध फैलने लगे, तो इसे भावी विजय का चिह्न बताया गया है। भारत ! जिस पक्ष में योद्धाओं के मुख से हर्षभरे वचन निकलते हों, उनका धैर्य बना रहता हो, पहनी हुई मालाएँ कुम्हलाती न हों, वे ही युद्धरूपी महासागर तो पार करते हैं। सेना थोड़ी हो या बहुत, योद्धाओं का उत्साहपूर्ण हर्ष ही विजय का प्रधान लक्षण माना गया है। एक_दूसरे तो अच्छी तरह जाननेलाले, उत्साही, स्त्री आदि में अनासक्त तथा दृढ़निश्चयी पचास वीर भी बहुत बड़ी सेना को रौंद डालते हैं। यदि युद्ध से पीछे पैर न हटानेवाले पाँच_ही_सात योद्धा हों, तो वे भी विजय प्राप्त कर सकते हैं। अतः सदा सेना अधिक होने से ही विजय होती हो, ऐसी बात नहीं है। इस प्रकार कहकर भगवान् वेदव्यास चले गये और यह सब सुनकर राजा धृतराष्ट्र विचार में पड़ गये। थोड़ी देर तक सोचकर उन्होंने संजय से पूछा, ‘संजय ! ये युद्धप्रेमी राजालोग पृथ्वी के लोभ से जीवन का मोह छोड़कर नाना प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों द्वारा एक दूसरे की हत्या करते हैं, पृथ्वी के ऐश्वर्य का इच्छा से परस्पर प्रहार करते हुए यमलोक की जनसंख्या बढ़ाते हैं और शान्त नहीं होते, इससे मैं समझता हूँ कि पृथ्वी में बहुत से गुण हैं। तभी तो इसके लिये यह नरसंहार होता है। अतः तुम मुझसे इस पृथ्वी का ही वर्णन करो।‘ संजय बोला___भरतश्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है। मैं आपकी आज्ञा के अनुसार पृथ्वी के गुणों का वर्णन करता हूँ। इस पृथ्वी पर दो प्रकार के प्राणी हैं___चर और अचर। चरों के तीन भेद हैं___ अण्डज, स्वेदज  और जरायुज। इन तीनों में जरायुज श्रेष्ठ हैं तथा जरायुजों में मनुष्य और पशु प्रधान हैं। इनमें से कुछ ग्रामवासी और कुछ वनवासी होते हैं। ग्रामवासियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और वनवासियों में सिंह। अचर या स्थावरों को उद्भिज्ज भी कहते हैं। इनकी पाँच जातियाँ हैं___वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली और त्वक्सार ( बाँस आदि )। ये तृण जाति के अन्तर्गत हैं। यह संपूर्ण जगत् इस पृथ्वी पर ही उत्पन्न होता और इसी में नष्ट हो जाता है। भूमि ही संपूर्ण भूतों की प्रतिष्ठा है, भूमि ही अधिक काल तक स्थिर रहनेवाली है। जिसका भूमि पर अधिकार है, उसी के वश में संपूर्ण चराचर जगत् है। इसलिये इस भूमि में अत्यन्त लोभ रखकर सब राजा एक_दूसरे का प्राणघात करते हैं।

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