Monday 13 March 2017

भीष्मजीका शिखण्डी के पूर्वजन्म की कथा सुनाना, अम्बा का भीष्म द्वारा हरण और शाल्व द्वारा तिरस्कार

दुर्योधन ने पूछा___दादाजी ! आततायी शिखण्डी यदि रणक्षेत्र में बाण चढ़ाकर आपके सामने आवेगा, तो भी आप उसका वध क्यों नहीं करेंगे ? भीष्मजी बोले___दुर्योधन ! शिखण्डी को रणभूमि में अपने सामने देखकर भी जो  नहीं मारूँगा, उसका कारण सुनो। जब मेरे जगद्विख्यात पिता शान्तनुजी स्वर्गवासी हुए तो मैंने अपना प्रतिज्ञा का पालन करते हुए चित्रांगद को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त किया। जब उसकी भी मृत्यु हो गयी तो माता सत्यवती की सलाह से मैंने विचित्रवीर्य को राजा बनाया। विचित्रवीर्य की आयु बहुत छोटी थी, इसलिये राजकार्य में उसे मेरी सहायता की अपेक्षा रहती थी। फिर मुझे किसी अनुरूप कुल की कन्या के साथ उसका विवाह करने की चिन्ता हुई। इसी समय मैंने सुना कि काशिराज की अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका नाम की तीन अनुपम रूपवती कन्याओं का स्वयंवर होनेवाला है। उसमें पृथ्वी के सभी राजाओं को बुलाया गया था। मैं भी अकेला ही रथ मे चढ़कर  काशिराज की राजधानी में पहुँचा। वहाँ यह नियम किया गया था कि जो सबसे पराक्रमी होगा, उससे ये कन्याएँ विवाही जायँगी। मुझे जब यह मालूम हुआ तो मैंने तीनों कन्याओं को अपने रथ में बैठा दिया और वहाँ इकट्ठे हुए सब राजाओं को बार_बार सुना दिया कि ‘ महाराज शान्तनु का पुत्र भीष्म इन कन्याओं को लिये जाता है, आपलोग पूरा_पूरा बल लगाकर इन्हें छुड़ाने का प्रयत्न करें।‘ तब वे सब  राजा अस्त्र_शस्त्र लेकर मेरे ऊपर टूट पड़े और अपने सारथियों को रथ तैयार करने का आदेश देने लगे। उन्होंने रथों पर चढ़कर मुझे चारों ओर से घेर लिया और मैंने भी बाण बरसाकर उन्हें सब ओर से ढक दिया। मैंने एक_एक बाण मारकर उनके हाथी, घोड़े और सारथियों को धराशायी कर दिया। मेरी बाण चलाने की ऐसी फुर्ती देखकर उनके मुँह पीछे को फिर गये और वे मैदान छोड़कर भाग गये। इस प्रकार उन सब राजाओं को जीतकर मैं हस्तिनापुर में चला आया और भाई विचित्रवीर्य के लिये तीनों कन्याएँ माता सत्यवती को सौंप दी। मेरी बात सुनकर सत्यवती को बड़ा आनन्द हुआ और उसने कहा, ‘बेटा ! बड़े आनन्द की बात है, तुमने सब राजाओं पर विजय प्राप्त की।‘ फिर जब सत्यवती की सलाह से विवाह की तैयारी होने लगी तब काशीराज की सबसे बड़ी पुत्री अम्बा ने बड़े संकोच से कहा, ‘भीष्मजी ! आप संपूर्ण शास्त्रों में पारंगत और धर्म के रहस्य को जाननेवाले हैं। अतः मेरी धर्मानुकूल बात सुनकर फिर आप जैसा करना उचित समझें, वैसा करें। पहले मैं मन_ही_मन राजा शाल्व को वर चुकी हूँ और उन्होंने भी पिताजी को प्रकट न करते हुए एकान्त में मुझे पत्नीरूप से स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार मेरा मन तो दूसरी जगह फँस चुका है, फिर कुरुवंशी होकर भी आप राजधर्म को तिलांजली देकर मुझे अपने घर में क्यों रखना चाहते हैं ? यह बात मालूम करके आप अपने मन में विचार करें और फिर जैसा करना उचित समझें, वैसा करें।‘ तब मैंने सत्यवती, मंत्रीगण और पुरोहितों की अनुमति लेकर अम्बा को जाने की आज्ञा दे दी। अम्बा वृद्ध ब्राह्मण और धात्रियों को साथ लेकर राजा शाल्व के नगर में गयी।  उसने शाल्व के पास जाकर कहा, ‘महाबाहो ! मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूँ।‘ यह सुनकर शाल्व ने कुछ मुस्कराकर कहा___’सुन्दरि ! पहले तुम्हारा सम्बन्ध दूसरे पुरुष से हो चुका है, इसलिये अब मैं तुम्हें पत्नीरूप से स्वीकार नहीं कर सकता। अब तुम भीष्म के ही पास चली जाओ। भीष्म तुम्हें बलात् हरकर वे गया था, इसलिये मैं तुम्हें ग्रहण करना नहीं चाहता। मैं तो दूसरों को धर्म का उपदेश करता हूँ और मुझे सब बातों का पता भी है। फिर पहले दूसरे के साथ सम्बन्ध हो जाने पर भी मैं तुम्हें कैसे रख सकता हूँ। अतः अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, वहाँ चली जाओ।‘ अम्बा ने कहा___’शत्रुदमन ! भीष्मजी मेरी प्रसन्नता से मुझे नहीं ले गये थे। मैं तो उस समय विलाप  कर रही थी। वे बलात् सब राजाओं को हराकर मुझे ले गये। शाल्वराज ! मैं तो निरपराध और आपकी दासी हूँ। आप मुझे स्वीकार कीजिये। अपनी सेविका को त्यागना धर्मशास्त्रों में अच्छा नहीं कहा गया है। मैं भीष्मजी की आज्ञा लेकर तुरंत ही यहाँ आ गयी हूँ। भीष्मजी को भी मेरी अभिलाषा नहीं थी। उन्होंने तो अपने भाई के लिये ही यह काम किया था। मेरी छोटी बहिन अम्बिका और अम्बालिका का विवाह उन्होंने अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य से ही किया है। मैं तो आपके सिवा और किसी भी वर का अपने मन में चिन्तन भी नहीं करती। न मैं पहले किसी की पत्नी होकर भी आपके पास आयी हूँ। मैं अभी कन्या ही हूँ, इस समय स्वयं ही आपके पास उपस्थित हुई हूँ और आपकी कृपा चाहती हूँ। इस प्रकार तरह_तरह से अम्बा ने प्रार्थना की, किन्तु शाल्व को उसकी बात में विश्वास नहीं हुआ। तब उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी और उसने गद्गद् कण्ठ से कहा, ‘राजन् ! आप मुझे त्याग रहे हैं, अच्छी बात है ! किन्तु यदि सत्य अटल है तो मैं जहाँ_जहाँ भी जाऊँगी, वहाँ संतजन मेरी रक्षा करेंगे।‘ इस प्रकार उसने करुणापूर्वक बहुत विलाप किया, फिर भी शाल्व ने उसे त्याग ही दिया। जब वह नगर से बाहर आयी तो उसने विचार किया कि ‘ इस पृथ्वी पर मेरे समान दुःखिनी कोई भी युवती न होगी। अपने कुटुम्बियों से मेरा संबंध टूट ही गया, शाल्व ने भी मेरा तिरस्कार कर दिया और अब हस्तिनापुर भी नहीं जा सकती। इसमें दोष तो मेरा ही है। मुझे उचित था कि जब भीष्मजी से युद्ध हो रहा था, उस समय मैं राजा शाल्व के लिये रथ से उतर जाती। आज मुझे यह उसी का फल मिल रहा है। किन्तु यह सारी आपत्ति भीष्म के कारण आयी है। अतः अब तपस्या या युद्ध के द्वारा मुझे उनसे इसका बदला लेना चाहिये।

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