Tuesday 14 March 2017

अम्बा का तपस्वियों के आश्रम में आना, परशुरामजी का भीष्म को समझाने और उनके स्वीकार न करने पर देने का युद्ध करने के लिये कुरुक्षेत्र में आना

ऐसा निश्चय कर वह नगर से निकलकर तपस्वियों के आश्रम पर आयी। वह रात उसने वहीं व्यतीत की और उन ऋषियों को अपना सारा वृतांत सुना दिया। ऋषि लोग आपस में विचार करने लगे कि अब इस कन्या के लिये क्या करना चाहिये। उनमें तो किन्हीं ने कहा कि इसे इसके पिता के यहाँ पहुँचा दो, कोई मेरे पास आकर समझाने का विचार प्रकट करने लगे और कोई बोले कि राजा शाल्व के पास जाकर उन्हें ही इससे विवाह करने की आज्ञा दी जाय। किन्तु किन्हीं ने उसके विरुद्ध अपनी सम्मति प्रकट की। फिर उन सब तपस्वियों ने कहा, ‘तेरे लिये तो पिता के आश्रय में ही रहना सबसे अच्छा होगा। इससे बढ़कर और कोई बात नहीं हो सकती। स्त्री को तो पति या पिता___दो ही आश्रय हैं।‘ अम्बा ने कहा___मुनिगण ! अब मैं काशीपुरी में अपने पिता के घर लौटकर नहीं जा सकती। इससे अवश्य ही मुझे बन्धु_बान्धवों का तिरस्कार सहना पड़ेगा। अब तो मैं तपस्या ही करूँगी, जिससे अगले जन्म में मुझे ऐसा दुर्भाग्य प्राप्त न हो। भीष्मजी कहते हैं___वे ब्राह्मणलोग इस प्रकार उस कन्या के विषय में विचार कर ही रहे थे कि इतने में ही वहाँ परम तपस्वी राजर्षि होत्रवाहन आये। तपस्वियों ने स्वागत, आसन और जल आदि से उनका सत्कार किया। जब वे आराम से बैठ गये तो उनके सामने ही मुनिगण फिर उस कन्या की बातें करने लगे। अम्बा और काशीराज के विषय में सब बातें सुनकर राजर्षि होत्रवाहन को बड़ा खेद हुआ। होत्रवाहन अम्बा के नाना थे। उन्होंने उसे गोद में बैठाकर ढाढस बँधाया और आरम्भ से ही इस विपत्ति का पूरा_पूरा वृतांत पूछा। अम्बा ने जैसा_जैसा हुआ था, सब विस्तार से सुना दिया। इससे राजर्षि को बड़ा दुःख और शोक हुआ और उन्होंने मन_ही_मन उस विषय में जो कर्तव्य था, उसका निश्चय कर उससे कहा___’बेटी ! मैं तेरा नाना हूँ। तू अपने पिता के घर मत जा। मेरे कहने से तू जमदग्निनन्दन परशुराम के पास जा। वो तेरे इस महान् शोक और संताप को अवश्य दूर कर देंगे। वे सर्वदा महेन्द्र पर्वत पर रहा करते हैं। वहाँ जाकर उन्हें प्रणाम करके तू मेरी ओर से सब बातें कह देना। मेरे नाम लेने से वे तेरा जो भी अभीष्ट होगा, उसे पूरा कर देंगे। वत्से ! वे मेरे बड़े ही प्रीतिपात्र और स्नेही सखा हैं।‘
जिस समय राजर्षि होत्रवाहन अम्बा से इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वहाँ परशुरामजी के प्रिय सेवक अकृतव्रण आ गये। सब मुनियों ने उनका सत्कार किया और अकृतव्रणजी ने भी मुनियों का यथायोग्य अभिवादन किया। जब सब लोग उन्हें चारों ओर से  घेरकर बैठ गये तो महात्मा होत्रवाहन ने उनसे मुनिवर परशुरामजी का समाचार पूछा। अकृतव्रणजी ने कहा कि ‘ श्रीपरशुरामजी आपसे मिलने के लिये कल प्रातःकाल ही यहाँ आ रहे हैं।‘ वह दिन उन मुनियों को आपस में तरह_तरह की बातें करते हुए निकल गया। दूसरे दिन सबेरे ही शिष्यों से घिरे हुए भगवान् परशुरामजी पधारे। वे ब्रह्मतेज से दमक रहे थे। उनके सिर पर जटा और शरीर पर चीरवस्त्र सुशोभित थे। हाथों में धनुष, खड्ग और परशु थे। उन्हें देखते ही सब तपस्वी, राजा होत्रवाहन और अम्बा हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन्होंने परशुरामजी की यथायोग्य पूजा की और फिर वे उन्हीं के साथ बैठ गये। राजा होत्रवाहन और परशुरामजी में अनेकों बीती हुई बातों की चर्चा होने लगी। बात_ही_बात में राजा ने कहा, ‘परशुरामजी ! यह काशीराज की कन्या मेरी धेवती है। इसका एक विशेष कार्य है, आप सुन लीजिये।‘ तब परशुरामजी ने उससे कहा___’बेटी ! तेरा क्या काम है, बता तो। इसपर अम्बा ने जैसा_जैसा हुआ था, वह सब सुना दिया। तब उन्होंने कहा, ‘मैं तुझे फिर भीष्म के पास भेज दूँगा। वह मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही करेगा। यदि उसने मेरी बात न मानी तो मैं उसके मंत्रियों सहित उसे भष्म कर दूँगा।‘ अम्बा ने कहा, ‘ आप जैसा उचित समझें, वैसा करें। मेरे इस संकट का मूल कारण तो ब्रह्मचारी भीष्मजी ही हैं। उन्होंने मुझे बलात् अपने अधीन कर लिया था। अतः आप उन्हें नष्ट कर डालिये।‘
अम्बा के ऐसा कहने पर परशुरामजी उसे तथा उन ब्रह्मज्ञानी ऋषियों को साथ ले कुरुक्षेत्र में आये। वहाँ वे सरस्वती नदी के तीर पर ठहर गये। तीसरे दिन उन्होंने मेरे पास यह संदेश भेजा कि ‘ मैं तुम्हारे पास एक विशेष कार्य से आया हूँ, तुम मेरा वह प्रिय कार्य कर दो।‘ अपने देश में श्रीपरशुरामजी के पधारने का समाचार सुनकर मैं तुरंत ही बड़े प्रेम से उनसे मिलने गया। मेरे साथ अनेकों ब्राह्मण और पुरोहित भी थे तथा उनके सत्कार के लिये मैं एक गौ भी ले गया था। प्रतापी परशुरामजी ने मेरी पूजा स्वीकार की और मुझसे कहा, ‘भीष्म ! जब तुम्हें स्वयं विवाह करने की इच्छा नहीं थी तो तुम इस काशीराज की पुत्री क्यों हर ले गये थे और फिर इसे त्याग क्यों दिया ? देखो, तुम्हारा स्पर्श होने से अब यह स्त्रीधर्म से भ्रष्ट हो गयी है। इसी से राजा शाल्व ने इसे स्वीकार नहीं किया। अतः अब अग्नि को साक्षी मानकर तुम ही इसे ग्रहण करो।‘ तब मैंने उनसे कहा, “ भगवन् !  अब मैं अपने भाई के साथ इसका विवाह किसी प्रकार नहीं कर सकता; क्योंकि इसने स्वयं ही पहले मुझसे कहा था कि ‘ मैं तो शाल्व की हो चुकी हूँ।‘ तब मेरी आज्ञा लेकर ही यह शाल्व के नगर में गयी थी। मैं भय, निंदा, अर्थलोभ या किसी कामना से अपने क्षात्रधर्म से विचलित नहीं हो सकता।“ मेरी बातें सुनकर परशुरामजी की आँखें क्रोध से चंचल हो उठीं और वे बार_बार कहने लगे, ‘यदि तुम मेरी आज्ञा का पालन नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे मंत्रियों के सहित तुम्हें नष्ट कर दूँगा।' मैंने भी बार_बार मीठी वाणी में उनसे प्रार्थना की, किन्तु वे शान्त न हुए। तब मैंने उनके चरणों पर सिर रखकर पूछा, ‘ भगवन् ! आप जो मुझसे युद्ध करना चाहते हैं, इसका कारण क्या है ? बाल्यावस्था में मुझे आपही ने चार प्रकार की धनु्र्विद्या सिखायी थी। अतः मैं तो आपका शिष्य हूँ।‘ परशुरामजी ने क्रोध से  आँखें लाल करके कहा, ‘ भीष्म ! तुम मुझे गुरु समझते हो, फिर भी मेरी प्रसन्नता के लिये इस काशीराज की कन्या को स्वीकार नहीं करते ! देखो, ऐसा किये बिना तुम्हें शान्ति नहीं मिल सकती।‘
तब मैंने कहा, “ब्रह्मर्षे ! आप व्यर्थ श्रम क्यों करते हैं ? ऐसा तो अब हो ही नहीं सकता। मैं पहले इसे त्याग चुका हूँ। भला, जिसका दूसरे पुरुष पर प्रेम है उस स्त्री को कोई किस प्रकार अपने घर में रख सकता है ? मैं इन्द्र के भय से भी धर्म का त्याग नहीं करूँगा। आप प्रसन्न हों अथवा न हों; और आपको जो करना हो, वह करें। आप मेरे गुरु हैं, इसलिये मैंने प्रेमपूर्वक आपका सत्कार किया है। किन्तु मालूम होता है आप गुरुओं का_सा बर्ताव करना नहीं जानते। इसलिये मैं आपके साथ युद्ध करने के लिये भी तैयार हूँ। मैं युद्ध में गुरु का, विशेषतः ब्राह्मण का और उसमें भी तपोवृद्ध का वध नहीं करता। इसी से मैं आपकी बातों को सह रहा हूँ। किन्तु धर्मशास्त्रों ने ऐसा निश्चय किया है कि जो क्षत्रिय क्षत्रियके समान ही हथियार उठाकर सामने आये हुए ब्राह्मण को ___जबकि वह डटकर युद्ध कर रहा हो, मैदान छोड़कर भाग न रहा हो___मार डालता है, उसे ब्रह्महत्या नहीं लगती। मैं भी क्षत्रिय हूँ और क्षात्रधर्म में ही स्थित हूँ। इसलिये आप प्रसन्नता से मेरे साथ द्वन्दयुद्ध करने के लिये तैयार हो जाइये। आप जो बहुत दिनों से डींग हाँका करते हैं कि ‘मैंने अकेले ही पृथ्वी के सारे क्षत्रिय जीत लिये हैं' सो सुनिये, उस समय भीष्म या भीष्म के समान कोई क्षत्रिय उत्पन्न नहीं हुआ होगा। तेजस्वी वीर तो पीछे उत्पन्न हुए हैं। आप तो घास_फूस में ही प्रज्वलित होते रहे हैं। जो आपके युद्धाभिमान और युद्धलिप्सा को अच्छी तरह नष्ट कर सकता है, उस भीष्म का जन्म तो अब हुआ है।“ तब परशुरामजी ने हँसकर मुझसे कहा___’भीष्म ! तुम संग्रामभूमि में मेरे साथ युद्ध करना चाहते हो___यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। अच्छा, लो मैं कुरुक्षेत्र चलता हूँ; तुम भी वहीं आ जाना। वहाँ सैकड़ों बाणों से बिंधकर मैं तुम्हें धराशायी कर दूँगा। उस दीन दशा में तुम्हें  तुम्हारी माता गंगादेवी भी देखेगी। चलो, रथ आदि युद्ध की सब सामग्री ले चलो।‘ तब मैंने परशुरामजी को प्रणाम करके कहा, ‘जो आज्ञा।‘
इसके बाद परशुरामजी तो कुरुक्षेत्र चले गये और मैंने हस्तिनापुर में आकर सब बातें माता सत्यवती से कहीं। माता ने मुझे आशीर्वाद दिया और मैं  हस्तिनापुर से निकलकर कुरुक्षेत्र की ओर चल दिया। कुरुक्षेत्र में पहुँचकर हम दोनों युद्ध के लिये पराक्रम करने लगे। मैंने परशुरामजी के सामने खड़े होकर अपना श्रेष्ठ शंख बजाया। उस समय ब्राह्मण, वनवासी, तपस्वी और इन्द्र के सहित सब देवता वहाँ आकर वह दिव्य युद्ध देखने लगे। बीच_बीच में दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी, जहाँ_तहाँ दिव्य बाजे बजने लगे और मेघों का शब्द होने लगा। परशुरामजी के साथ जो तपस्वी आये थे, वे भी युद्धभूमि को घेरकर उसके दर्शक बन गये। उसी समय समस्त भूतों का हित चाहनेवाली माता गंगा मूर्तिमति होकर मेरे पास आयी और कहने लगी “बेटा ! यह तुमने क्या करने का विचार किया है। मैं अभी परशुरामजी के पास जाकर प्रार्थना करती हूँ कि ‘ भीष्म तो आपका शिष्य है, उसके साथ आप युद्ध न करें।‘ तुम परशुरामजी के साथ युद्ध करने का हठ मत करो। क्या तुम्हें यह मालूम नहीं है कि वे क्षत्रियों का नाश करनेवाले और साक्षात् श्रीमहादेवजी के समान शक्तिशाली हैं, जो इस प्रकार उनसे लोहा लेने के लिये तैयार हो गये हो ?’ तब मैंने दोनों हाथ जोड़कर माता को प्रणाम किया और परशुरामजी से मैंने जो कुछ कहा था, वह सब सुना दिया। साथ ही अम्बा की जो करतूत थी, वह भी सुना दी। तब माता गंगाजी परशुरामजी के पास गयीं और उनसे क्षमा माँगती हुई कहने लगीं ‘मुने ! आप अपने शिष्य भीष्म के साथ युद्ध न करें।‘ परशुरामजी ने कहा, ‘तुम भीष्म को ही रोको। वह मेरी एक बात नहीं मानता, इसी से मैं युद्ध करने के लिये आया हूँ।‘  तब गंगाजी पुत्रस्नेह के कारण फिर मेरे पास आयीं किन्तु मैंने उनकी बात स्वीकार नहीं की। इतने में ही महातपस्वी परशुरामजी रणभूमि में दिखायी दिये और उन्होंने युद्ध के लिये मुझे ललकारा।

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