इसी समय राजा भीष्मक का पुत्र रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर पाण्डवों के पास आया। उसने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये सूर्य के समान तेजस्वी ध्वजा लिये पाण्डवों के शिविर में प्रवेश किया। पाण्डव उससे परिचित तो थे ही। राजा युधिष्ठिर ने उसका आगे बढ़कर स्वागत किया। रुक्मी ने भी उन सबका यथायोग्य आदर किया और फिर कुछ देर ठहरकर सब वीरों के सामने अर्जुन से कहा, ‘अर्जुन यदि तुम्हें किसी प्रकार का भय हो तो मैं तुमलोगों की सहायता के लिये आ गया हूँ। संसार में मेरे समान पराक्रमी कोई दूसरा मनुष्य नहीं है। तुम युद्ध में मुझे जिस सेना से मोर्चा लेने का भार सौंपोगे, उसी को मैं तहस_नहस कर दूँगा। द्रोण, कृप, भीष्म, कर्ण___कोई भी वीर क्यों न हो, अथवा ये सभी राजा इकट्ठे होकर मेरे सामने आवें, मैं इन शत्रुओं को मारकर तुम्हें ही पृथ्वी का राज्य सौंप दूँगा।‘ तब अर्जुन श्रीकृष्ण और धर्मराज की ओर देखकर हँसे और शान्तभाव से कहने लगे, ‘मैने कुरुवंश में जन्म लिया है; तिसपर भी मैं महाराज पाण्डु का पुत्र और द्रोणाचार्य का शिष्य कहलाता हूँ, श्रीकृष्ण मेरे सहायक हैं और गाण्डीव धनुष मेरे पास है। फिर मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मैं डर गया हूँ। वीरवर ! जिस समय कौरवों की घोषयात्रा पर मैने गन्धर्वों के साथ युद्ध किया था, उस समय मेरी सहायता करने कौन आया था ? तथा विराटनगर में बहुत_से कौरवों के साथ अकेले ही युद्ध करते समय मुझे किसने सहायता दी थीं ? मैने युद्ध के लिये ही भगवान् शंकर, इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, अग्नि, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और श्रीकृष्ण की उपासना की है। अत: ‘मैं युद्ध से डरता हूँ’ ऐसी यश का नाश करनेवाली बात तो मुझ जैसा पुरुष साक्षात् इन्द्र के सामने भी नहीं कर सकता। इसलिये महाबाहो ! मुझे किसी प्रकार का भय नहीं है और न किसी की सहायता की आवश्यकता है। तुम अपनी इच्छा के अनुसार जहाँ जाना चाहो, वहाँ जा सकते हो और रहना चाहो तो आनन्द से रहो।‘ इसके बाद रुक्मी अपनी समुद्र के समान विशाल वाहिनी को लौटाकर दुर्योधन के पास आया और वहाँ भी उसने वैसी ही बातें कीं। दुर्योधन को भी अपने वीरत्व का अभिमान था, इसलिये उसने भी उससे सहायता लेना स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार बलरामजी और रुक्मी___ये दो वीर उस युद्ध से निकलकर चले गये। जब दोनो सेनाओं का संगठन हो गया और उनकी व्यूहरचना का भी निश्चय हो गया तो राजा धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, ‘संजय ! अब तुम मुझे यह बताओ कि कौरव और पाण्डवों की सेना का पड़ाव पड़ जाने पर फिर वहाँ क्या हुआ। मैं तो समझता हूँ होनहार बलवान् है, पुरुषार्थ से कुछ नहीं होता। मेरी बुद्धि दोषों को अच्छी तरह समझ लेती है, किन्तु दुर्योधन से मिलने पर फिर बदल जाती है। अत: अब जो कुछ होना है, वह होकर ही रहेगा।‘
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