Friday 17 March 2017

शिखण्डी की पुरुषत्वप्राप्ति का वृतांत

दुर्योधन ने पूछा___पितामह ! कृपया यह बताइये कि शिखण्डी कन्या होने पर भी फिर पुरुष कैसे हो गया। भीष्मजी बोले___राजन् ! महाराज द्रुपद की रानी के पहले कोई पुत्र  नहीं था। तब द्रुपद ने संतानप्राप्ति के लिये तपस्या करके भगवान् शिव को प्रसन्न किया। तब महादेवजी ने कहा, ‘तुम्हारे एक ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा, जो पहले स्त्री होने पर भी पीछे पुरुष हो जायगा। अब तुम तप करना बंद करो; मैंने जो कुछ कहा है, वह कभी अन्यथा नहीं होगा।‘ तब राजा ने नगर में जाकर रानी को अपनी तपस्या और श्रीमहादेवजी के वर की बात सुना दी।  रानी ने यथासमय  एक रूपवती कन्या को जन्म दिया। किन्तु लोगों में प्रसिद्ध यह किया किया कि रानी के पुत्र उत्पन्न हुआ है। राजा ने उसे छिपाये रखकर  पुत्र के समान ही सब संस्कार किये। उस नगर में द्रुपद के सिवा इस रहस्य को और कोई नहीं जानता था। उन्हें महादेवजी की बात में पूर्ण विश्वास था, इसलिये  उस कन्या को छिपाये रखकर वे उसे पुत्र ही बताते थे। लोगों में वह शिखण्डी नाम से विख्यात हुई। अकेले मुझे ही नारदजी के कथन, देवताओं के वाक्य और अम्बा का तपस्या के कारण यह रहस्य मालूम हो गया था। राजन् ! फिर राजा द्रुपद अपनी कन्या को लिखना_पढना और शिल्पकला आदि सब विद्याएँ सिखाने का प्रयत्न करने लगे। बाणविद्या के लिये वह द्रोणाचार्य के आश्रम में रही। एक बार रानी ने कहा, ‘महाराज ! महादेवजी की बात किसी प्रकार मिथ्या तो हो नहीं सकती। इसलिये मैं जो बात कहती हूँ, आपको भी यदि उचित जान पड़े तो कीजिये। आप विधिपूर्वक इसका किसी कन्या से विवाह कर दीजिये। महादेवजी की बात सत्य होकर तो रहेगी ही, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।‘ उन दोनों ने वैसा ही निश्चय कर दशार्ण देश के राजा की कन्या को वरण किया। तब दशार्णराज हिण्यवर्मा ने शिखण्डी के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। विवाह के बाद शिखण्डी काम्पिल्यनगर आकर रहा। वहाँ हिरण्यवर्मा की कन्या को मालूम हुआ कि यह तो स्त्री है। तब उसने अपनी धाइयों और सखियों के सामने बड़े संकोच से यह बात खोल दी। यह सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने राजा को यह समाचार सुनाने के लिये अपनी दूतियाँ भेजी। उन्होंने यह सब वृतांत दशार्णराज को सुनाया। सुनते ही राजा बड़ा क्रोध में भर गया और उसने द्रुपद के पास अपना दूत भेजा। दूत ने राजा द्रुपद के पास आ उन्हें एकान्त में ले जाकर कहा___’राजन् ! आपने दशार्णराज को धोखा दिया है, इसलिये उन्होंने बड़े क्रोध में भरकर  कहा है कि तुमने मोहवश अपनी कन्या के साथ मेरी कन्या का विवाह कराकर मेरा बड़ा अपमान किया है। तुम्हारा यह विचार बड़ा ही खोटा था। इसलिये अब तुम इसका फल भोगने को तैयार हो जाओ। अब तुम्हारे कुटुम्ब और मंत्रियों सहित तुम्हें नष्ट कर दूँगा।‘ राजन् ! दूत की यह बात सुनकर पकड़े हुए चोर के समान द्रुपद का मुँह बन्द हो गया। उन्होंने ‘ऐसी बात नहीं है', यह कहकर उस दूत के द्वारा अपने समधी को मनाने के लिये बड़ा प्रयत्न किया। किन्तु हिरण्यवर्मा ने यह पक्का पता लगा लिया कि वह पांचालराज की पुत्री ही है। इसलिये वह तुरंत ही पांचालदेश पर चढ़ाई करने लिये नगर से बाहर निकल पड़ा। उस समय उसके साथी राजाओं ने यही निश्चय किया कि ‘यदि शिखण्डी कन्या हो तो हमलोग पांचालराज को कैद करके अपने नगर में ले आयेंगे तथा पांचालदेश में दूसरे राजा को गद्दी पर बैठा देंगे। फिर द्रुपद और शिखण्डी को मार डालेंगे।‘ दशार्णराज कै पास दूत भेजकर शोकाकुल द्रुपद ने एकान्त में ले जाकर अपनी स्त्री से कहा___”इस कन्या के विषय में तो हमसे बड़ी मूर्खता हो गयी। अब हम क्या करेंगे ? शिखण्डी के विषय में तो अब सबको शंका हो रही है कि यह कन्या है। यही सोचकर दशार्णराज ने भी ऐसा समझा है कि ‘मुझे धोखा दिया गया।‘ इसलिये वह अपने मित्र और सेना के साथ मेरा नाश करने के लिये आ रहा है। अब तुम्हें जिसमें हित दिखायी देता हो, वह बात बताओ; मैं वैसा ही करूँगा।“ तब रानी ने कहा___'सत्पुरुषों ने  देवताओं का पूजन करना सम्पत्तिशालियों के लिये भी श्रेयस्कर माना है। फिर जो दुःख के समुद्र में गोते खा रहा हो, उसकी तो बात ही क्या है ?इसलिये आप देवाराधन के लिये ही ब्राह्मणों का पूजन करें और मन में ऐसा संकल्प करें कि दशार्णराज युद्ध किये बिना ही लौट जाय। फिर देवताओं के अनुग्रह से यह काम ठीक हो जायगा। देवताओं की कृपा और मनुष्य का उद्योग___ये दोनों जब मिल जाते हैं तो कार्य पूर्णतया सिद्ध हो जाता है और यदि इनमें आपस में विरोध रहता है तो सफलता नहीं मिलती। अतः आप मंत्रियों के द्वारा नगर के शासन का सुप्रबंध कर देवताओं का पूजन कीजिये।‘ ेअपने माता_पिता को इस प्रकार बात करते और शोकाकुल होते देखकर शिखण्डी भी लज्जित_सी होकर सोचने लगी कि “ ये दोनों मेरे ही कारण दुःखी हैं।‘ इसलिये उसने अपने प्राण त्यागने का निश्चय किया। यह सोचकर वह घर से निकलकर एक निर्जन वन में चली गयी। इस वन की रक्षा स्थूनाकर्ण नाम का एक समृद्धिशाली यक्ष करता था। वहाँ उसका एक भवन भी बना हुआ था। शिखण्डिनी उसी वन में चली गयी। उसने बहुत समय तक निराहार रहकर अपने शरीर को सुखा डाला। एक दिन स्थूणाकर्ण ने उसे दर्शन देकर पूछा, ‘कन्ये ! तेरा यह अनुष्ठान किस उद्देश्य से है ? तू मुझे अभी बता, मैं तेरा काम कर दूँगा।‘ शिखण्डिनी ने बार_बार कहा कि ‘तुमसे मेरा काम नहीं हो सकेगा' किंतु यक्ष ने यही कहा कि ‘मैं उसे बहुत जल्द कर दूँगा। मैं कुबेर का अनुचर हूँ और वर देने के लिये ही आया हूँ। तुझे जो कहना हो , वह कह दे; मैं तुझे न देने योग्य वस्तु भी दे दूँगा।‘ तब शिखण्डिनी ने अपना सारा वृतांत  स्थूनाकर्ण से रह दिया और कहा कि ‘तुमने मेरा दुःख दूर करने की प्रतिज्ञा  की है, अतः ऐसा करो कि मैं तुम्हारी कृपा से सुन्दर पुरुष बन जाऊँ। जब तक दशार्णराज मेरे नगर तक पहुँचे, उससे पहले ही तुम मुझपर यह कृपा कर दो।‘ यक्ष ने कहा___'तुम्हारा यह काम हो जायगा। किंतु इसमें एक शर्त है। मैं कुछ समय के लिये तुम्हें अपना पुरुषत्व दे दूँगा। किन्तु यह सत्य प्रतिज्ञा कर जाओ कि फिर उसे लौटाने के लिये तुम यहाँ आ जाएगा। इतने दिन तक मैं तुम्हारे स्त्रीत्व को धारण करूँगा।‘ शिखण्डी ने कहा___'ठीक है, मैं तुम्हारा पुरुषत्व लौटा दूँगा; थोड़े दिनों के लिये ही तुम मेरा स्त्रीत्व ग्रहण कर लो। जिस समय राजा हिरण्यवर्मा दशार्णदेश को लौट जायगा, उस समय मैं फिर कन्या हो जाऊँगी और तुम पुरुष हो जाना। इस प्रकार जब उन दोनों ने  प्रतिज्ञा कर ली तो उन्होंने आपस में शरीर बदल लिया। स्थूनाकर्ण यक्ष ने स्त्रीत्व धारण कर लिया और शिखण्डी को यक्ष का देदीप्यमान रूप प्राप्त हो गया। इस प्रकार पुरुषत्व पाकर शिखण्डी बड़ा प्रसन्न हुआ और पांचालनगर में अपने पिता को पास चला गया। यह घटना जैसे_जैसे हुई थी, वह सब वृतांत उसने द्रुपद को सुना दिया। इससे द्रुपद को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें और उनकी स्त्री को भगवान् शंकर की याद हो आयी। तब उन्होंने दशार्णराज के पास दूत भेजकर कहलाया, ‘आप स्वयं मेरे यहाँ आइये और देख लीजिये कि मेरा पुत्र पुरुष ही है। किसी व्यक्ति ने आपसे जो झूठी बात कही है , वह माननेयोग्य नहीं है।‘ राजा द्रुपद का संदेश पाकर  दशार्णराज ने शिखण्डी की परीक्षा के लिये कुछ युवतियों को भेजा। उन्होंने उसके वास्तविक स्वरूप को जानकर बड़ी प्रसन्नता से सब बातें हिरण्यवर्मा को सुना दीं और कह दिया कि राजकुमार शिखण्डी पुरुष ही है। तब राजा हिरण्यवर्मा बड़ी प्रसन्नता से द्रुपद के नगर में आया और समधी से मिलकर बड़े हर्ष से कुछ दिन वहाँ रहा। उसने शिखण्डी को हाथी, घोड़े, गौ और बहुत सी दासियाँ भेंट कीं। द्रुपद ने भी उसका अच्छा सत्कार किया।  इस प्रकार संदेह दूर हो जाने से वह बहुत प्रसन्न हुआ और अपनी पुत्री को झिड़ककर अपनी राजधानी को चला गया। इसी बीच में किसी दिन यक्षराज कुबेर  की,,मते_घूमते स्थूनाकर्ण के स्थान पर पहुँच गये। स्थूनाकर्ण का घर रंग_बिरंगी सुगंधित पुष्पों से सजा हुआ था। उसे देखकर यक्षराज ने अपने अनुचरों से कहा, ‘यह सजा हुआ भवन स्थूनाकर्ण का ही है; किन्तु यह मंदिर न मेरे पास उपस्थित होने के लिये क्यों नहीं निकला ?’ यक्षों ने कहा, ‘महाराज ! राजा द्रुपद की शिखण्डिनी नाम का एक कन्या है, उसे किसी कारण से स्थूनाकर्ण ने अपना पुरुषत्व दे दिया है और उसका स्त्रीत्व ग्रहण कर लिया है। अब वह स्त्रीरूप में ही घर में रहता है। अतः संकोच के कारण ही वह आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हुआ। यह सुनकर आप जैसा उचित समझें, वैसा करें।‘ तब कुछेक ने कहा, ‘ अच्छा, तुम स्थूण को मेरे पास हाजिर करो, मैं उसे दर्ज दूँगा।‘ इस प्रकार बुलाने जाने पर स्थूणकर्ण स्त्रीरूप  में ही बड़े संकोच से कुछेक के पास आकर खड़ा हुआ। उस पर क्रुद्ध होकर कुबेर ने शाप दिया कि ‘अब यह पापी यक्ष  इसी प्रकार स्त्रीधर्म में ही रहेगा।‘ तब दूसरे यक्षों ने स्थूनाकर्ण की ओर से प्रार्थना की कि ‘महाराज ! आप इस शाप की कोई अवधि निश्चित कर दें।‘ इस पर कुछेक ने कहा___'अच्छा,, जब शिखण्डी युद्ध में मारा जायगा तो इसे फिर अपना स्वरूप प्राप्त हो जायगा।‘ ऐसा कहकर भगवान् कुबेर सब यक्षों के साथ अलकापुरी को चले गये। इधर प्रतिज्ञा का समय पूरा होने पर शिखण्डी स्थूनाकर्ण के पास पहुँचा और कहा कि ‘भगवन् ! मैं आ गया हूँ।‘ स्थूनाकर्ण ने शिखण्डी को अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार समय पर उपस्थित हुआ देख बार_बार अपनी प्रसन्नता प्रकट की और उसे सारा वृतांत सुना दिया। उसकी बात सुनकर शिखण्डी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह अपने नगर को लौट आया। शिखण्डी का इस प्रकार काम बना देख राजा द्रुपद और सब बन्धु_बान्धवों को बड़ी प्रसन्नता हुई। इसके बाद द्रुपद ने उसे धनु्र्विद्या सीखने के लिये द्रोणाचार्य को सौंप दिया। फिर शिखण्डी और धृष्टधुम्न ने तुम्हारे साथ ही ग्रहण, धारण, प्रयोग और प्रतिकार___इन चार अंगों के सहित धनु्र्वेद की शिक्षा प्राप्त की। मैंने मूर्ख, बहरे और अंधे_से दीख पड़नेवाले जो गुप्तचर इन द्रुपद के पास नियुक्त कर रखे थे, उन्होंने ही मुझे ये सब बातें बतायी हैं। राजन् ! इस प्रकार यह द्रुपद का पुत्र महारथी शिखण्डी पहले स्त्री था और पीछे पुरुष हो गया है। वह यदि हाथ में धनुष लेकर मेरे सामने युद्ध करने के लिये आवेगा तो न तो एक क्षण भी इसकी ओर देखूँगा और न इस पर शस्त्र ही छोडूँगा। यदि भीष्म स्त्री की हत्या करेगा तो साधुजन उसकी निंदा करेंगे। इसलिये इसे ऋण में उपस्थित देखकर भी मैं इस पर हाथ नहीं छोड़ूँगा। भीष्म की यह बात सुनकर कुरुराज दुर्योधन कुछ देर तक विचार करता रहा। फिर उसे भीष्म की बात उचित ही जान पड़ी।

No comments:

Post a Comment