Saturday 11 March 2017

• दुर्योधन के साथ भीष्म और द्रोणाचार्य की बातचीत तथा श्रीकृष्ण और कर्ण का गुप्त परामर्श

•कुन्ती ने श्रीकृष्ण को जो संदेश दिया था, उसे सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने राजा दुर्योधन से कहा___'राजन् ! कुन्ती ने श्रीकृष्ण से जो अर्थ और धर्म के अनुकूल बड़े ही उग्र और मार्मिक वचन कहे हैं, वे तुमने सुने ? अब पाण्डवलोग श्रीकृष्ण की सम्मति से वैसा ही करेंगे। वे आधा राज्य लिये बिना शान्ति से नहीं बैठेंगे। इसलिये तुम अपने माँ_बाप और हितैषियों की बात मान लो। अब सन्धि या युद्ध करना तुम्हारे ही हाथ है। यदि इस समय तुम्हे हमारी बात नहीं रुचती तो रणांगण में भीमसेन का भीषण सिंहनाद और गाण्डीव की टंकार सुनकर अवश्य याद आवेगी।‘ यह सुनकर राजा दुर्योधन उदास हो गया। उसने मुँह नीचा कर लिया और भौंहें सिकोरकर टेढ़ी निगाह से देखने लगा। उसे उदास देखकर भीष्म और द्रोण आपस में एक_दूसरे की ओर देखकर बातें करने लगे। भीष्म ने कहा___’युधिष्ठिर सदा ही हमारी सेवा करने को तत्पर रहता है, वह कभी किसी से इर्ष्या नहीं करता तथा सत्यवादी है। उससे हमें युद्ध करना पड़ेगा__इससे बढ़कर दुःख की और क्या बात होगी।‘ द्रोणाचार्य बोले___’पुत्र अश्त्थामा की अपेक्षा भी मेरा अर्जुन में मेरा अधिक प्रेम है। वह भी बड़ा पुनीत है और मेरा बड़ा मान करता है। अब  क्षात्र धर्म का आश्रय लेकर पुत्र से भी बढ़कर प्रिय उस धनन्जय से ही मुझे युद्ध करना पड़ेगा। इस क्षात्रधर्म को धिक्कार है। दुर्योधन ! तुम्हें कुरुवृद्ध भीष्म, मैं, विदुर और कृष्ण सभी समझाकर हार गये। परन्तु तुम्हें अपने हित की बात सुहाती ही नहीं ! देखो ! हमने तो बहुत दान, हवन और स्वाध्याय कर चुके हैं; हमारी आयु भी अब बीत चुकी है। इसलिये हमने तो जो करना था, सो कर लिया। किन्तु पाण्डवों से वैर ठानकर तुम्हें बड़ी विपत्ति भोगनी पड़ेगी। तुम्हारे सुख, राज्य, मित्र और धन___सभी का सफाया हो जायगा। अत: उनके साथ युद्ध करने का विचार छोड़कर तुम सन्धि कर लो। इसी में कुरुकुल की भलाई है। अपने पुत्र, मंत्री और सेना का पराभव न कराओ।‘ इधर श्रीकृष्ण जब कर्ण को रथ में बैठाकर हस्तिनापुर से बाहर आये तो उन्होंने उससे तीक्ष्ण, मृदु और धर्मयुक्त वाक्यों में कहा___ कर्ण ! मैं तुम्हें एक गुप्त बात बताता हूँ। तुमने तुम्हारी माता कुन्ती के कन्यावस्था में उसी के गर्भ से जन्म लिया है। इसलिये धर्मानुसार तुम पाण्डु के ही पुत्र हो। अत: शास्त्रदृष्टि से तुम्ही राज्य के अधिकारी हो। तुम्हारे पितृपक्ष में पाण्डव हैं और मातृपक्ष में यादव। तुम मेरे साथ चलो, पाण्डवों को भी मालूम हो जाय कि तुम युधिष्ठिर से भी पहले उत्पन्न हुए कुन्ती के पुत्र हो। फिर तो पाँचों पाण्डव, पाँचों द्रौपदी के पुत्र और अभिमन्यु तुम्हारे चरण छूएँगे। तथा पाण्डवों का पक्ष लेने के लिये एकत्रित हुए राजा, राजपुत्र और विष्णु तथा अंधकवंश के सब यादव भी तुम्हारा चरणवंदन करेंगे। मेरी इच्छा है कि धौम्य मुनि आज ही तुम्हारे लिये होम करें। हम सब लोग मिलकर तुम्हारा ही राज्याभिषेक करेंगे। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर तुम्हारे युवराज होंगे और हाथ में श्वेत चँवर लेकर तुम्हारे पीछे रथ में बैठेंगे। तुम्हारे मस्तक पर भीमसेन बड़ा भारी श्वेतछत्र लगायेंगे। अर्जुन तुम्हारा रथ हाँकेंगे। अभिमन्यु सर्वदा तुम्हारे पास रहेगा तथा नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पाँच पुत्र, पांचालकुमार और महाराज शिखण्डी तुम्हारे पीछे चलेंगे। मैं भी तुम्हारे पाछे ही चला करूँगा। इस प्रकार अपने भाई पाण्डवों के साथ तुम राज्य भोगो तथा जप, होम और तरह_तरह के मंगलकृत्यों का अनुष्ठान करो।
कर्ण ने कहा___केशव ! आपने सुहृदता, स्नेह तथा मित्रता के नाते और मेरे हित की इच्छा से जो कुछ कहा है, वह ठीक है। इन सब बातों का मुझे भी पता है और, जैसा आप समझते हैं, धर्मानुसार मैं पाण्डु का ही पुत्र हूँ। कुन्ती ने कन्यावस्था में सूर्यदेव के द्वारा मुझे गर्भ में धारण किया था और फिर उन्हीं के कहने से त्याग दिया था। उसके बाद अधिरथ सूत मुझे देखकर घर ले गये और उन्होंने बड़े स्नेह से मुझे अपनी स्त्री राधा की गोद में दे दिया। उस समय मेरे स्नेह के कारण राधा के स्तनों में दूध उतर आया और उसी ने उस अवस्था में मेरा मल_मूत्र उठाया। अत: धर्मशास्त्र को जाननेवाला मुझ जैसा कोई भी पुरुष राधा के पिण्ड का लोप कैसे कर सकता है ? इसी प्रकार अधिरथसूत भी  मुझे अपना पुत्र ही समझते हैं और मैं भी स्वेहवश उन्हें सदा से अपना पिता ही समझता रहा हूँ। उन्हीं ने मेरे जातकर्मादि संस्कार भी कराये थे तथा वसुषेण नाम रखवाया था। युवावस्था होने पर उन्हीं ने सूत जाति की कई स्त्रियों से मेरा विवाह कराया था। अब उनसे मेरे बेटे पोते भी पैदा हो चुके हैं। उन स्त्रियों में मेरा हृदय प्रेमवश काफी फँस चुका है। अब मैं संपूर्ण पृथ्वी या सोने की ढेरियाँ मिलने से अथवा किसी प्रकार के हर्ष या भय से भी इन संबंधियों को छोड़ नहीं सकता। दुर्योधन ने मेरे ही भरों से शस्त्र उठाने का साहस किया है और इसी से इस संग्राम में मुझे अर्जुन के साथ द्विरथयुद्ध के लिये नियुक्त किया गया है। मैं मृत्यु, बन्धन, भय और लोभ के कारण दुर्योधन को धोखा नहीं दे सकता। अब मैं यदि अर्जुन के साथ द्विरथयुद्ध न किया तो इससे अर्जुन और मेरी दोनो की ही अपकीर्ति होगी। ेकिन्तु मधुसूदन ! आप एक नियम इस समय कर लें। वह यह कि हमारी जो गुप्त बात हुई है, वह यहीं तक रहे ! यदि धर्मात्मा और जितेन्द्रिय युधिष्ठिर को  इस बात का पता लग गया कि कुन्ती का प्रथम पुत्र मैं हूँ तो वे राज्य ग्रहण नहीं करेंगे और मुझे यह विशाल साम्राज्य मिला तो मैं उसे दुर्योधन को ही दे दूँगा। परन्तु मेरी तो यही इच्छा है कि जिनके नेता श्रीकृष्ण और योद्धा अर्जुन हैं, वे धर्मात्मा युधिष्ठिर ही सर्वदा राज्य शासन करें। मैने दुर्योधन की प्रसन्नता के लिये पाण्डवों के विषय में जो कटुवाक्य कहे हैं, अपने उस कुकर्म के लिये मुझे बड़ा पश्चाताप है। श्रीकृष्ण ! जिस समय आप मुझे अर्जुन के हाथ से मरा हुआ देखेंगे, जब भीषण गर्जना करते हुए भीमसेन दुःशासन का रक्त पीयेंगे, जिस समय पांचालकुमार धृष्टधुम्न और शिखण्डी द्रोणाचार्य और भीष्म का वध करेंगे तथा महाबली भीमसेन दुर्योधन को मार देंगे, उसी समय राजा दुर्योधन का यह रणयग्य समाप्त होगा। केशव !  कुरुक्षेत्र तीनों लोकों में अत्यन्त पवित्र है। वहाँ वह सारा वैभवशाली क्षत्रियसमाज शस्त्राग्नि में स्वाहा हो जायगा। आप इस संबंध में ऐसा करें, जिससे ये सब क्षत्रिय स्वर्ग प्राप्त कर लें। क्षत्रिय का धन तो संग्राम में जय पाना या पराक्रम दिखाते हुए मर जाना ही है। अत: आप हमारे इस विचार को  गुप्त रखते हुए ही अर्जुन को मेरे साथ युद्ध करने के लिये ले आइयेगा। कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण हँसे और फिर मुस्कराते हुए यह कहने लगे___ कर्ण ! तो तुम्हें यह राज्यप्राप्ति का उपाय भी मंजूर नहीं है ? तुम मेरी दी हुई पृथ्वी का भी शासन नहीं करना चाहते ? इसमें तो तनिक भी संदेह नहीं है कि जय पाण्डवों की ही होगी। अच्छा, तुम अब यहाँ से जाकर द्रोणाचार्य, भीष्म और कृपाचार्य से कहना कि यह महीना अच्छा है। इस समय फलों की अधिकता है, कीचड़ सूख  गयी है, जल में स्वाद आ गया है तथा विशेष गर्म और ठंड भी नहीं है। अच्छा सुखमय समय है। आज से सातवें दिन अमावस्या होगी। उसी दिन युद्ध आरम्भ करो। वहाँ और भी जो_जो राजालोग आवें, उन सबको यह समाचार सुना देना। तुम्हारी इच्छा युद्ध करने की है तो मैं उसी का प्रबंध किये देता हूँ। दुर्योधन के अधीन जो भी राजा और राजपुत्र हैं, वे शस्त्रों से मरकर उत्तम गति प्राप्त करेंगे। तब कर्ण ने श्रीकृष्ण का सत्कार करते हुए कहा___ महाबाहो ! आप सबकुछ जान_बूझकर भी मुझे क्यों मोह में डालना चाहते हैं। यह तो पृथ्वी के सर्वथा संहार का समय ही आ गया है। इसमें शकुनि, मैं, दु:शासन और दुर्योधन तो निमित्तमात्र है। दुर्योधन के अधीन जो राजा और राजपुत्र हैं, वे सब शस्त्राग्नि में भष्म होकर यमराज के घर जायेंगे ! इस समय बड़े भयानक स्वप्न और भयंकर अपशकुन तथा उत्पात भी दिखायी दे रहे हैं। इन्हें देखकर शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ये स्पष्ट ही दुर्योधन की हार और युधिष्ठिर की विजय सूचित करते हैं। पाण्डवों के हाथी_घोड़े आदि वाहन प्रसन्न दिखायी देते हैं तथा मृग उनके दायें होकर निकल जाते हैं___यह उनकी विजय का लक्षण है। बायीं ओर मृग निकलते हैं___इससे उनकी पराजय सूचित होती है। श्रीकृष्ण ने कहा___कर्ण ! नि:संदेह अब यह पृथ्वी विनाश के समीप पहुँच चुकी है, इसी से तो मेरी बात तुम्हारे हृदय को स्पर्श नहीं करती। जब विनाशकाल समीप आ जाता है तो अन्याय भी न्याय सा दीखने लगता है। कर्ण ने कहा___श्रीकृष्ण ! अब तो यदि इस महायुद्ध से बच गये तभी आपके दर्शन होंगे। नहीं तो स्वर्ग में तो हमारा आपसे समागम होगा ही। अच्छा, अब तो फिर युद्ध में ही मिलना होगा। ऐसा कहकर कर्ण ने श्रीकृष्ण का गाढ़ आलिंगन किया। फिर श्रीकृष्ण से विदा होकर वह उनके रथ से उतरकर अपने सुवर्णजटित रथ पर सवार हुआ और हस्तिनापुर को लौट गया। तथा सात्यकि के सहित श्रीकृष्ण बार_बार ‘चलो_चलो’ ऐसा कहते हुए बड़ी तेजी से पाण्डवों के पास चल दिये।

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