Tuesday, 14 March 2017

भीष्मजी का वध करने के लिये अम्बा की तपस्या

भीष्मजी कहते हैं___दुर्योधन ! इसके बाद मेरे सामने ही परशुरामजी ने उस कन्या को बुलाकर उन सब महाराजाओं के बीच बड़ी दीन वाणी में कहा, ‘भद्रे ! इन सब लोगों के सामने मैंने अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया है। मेरी अधिक_से_अधिक शक्ति इतनी ही है, सो तूने देख ही ली। अब तेरी जहाँ इच्छा हो, वहाँ चली जा। इसके सिवा बता, मैं तेरा और क्या कार्य करूँ ? मेरे विचार से अब तू भीष्म की ही शरण ले। इसके सिवा तेरे लिये और कोई उपाय तो दिखायी नहीं देता। मुझे तो भीष्म ने बड़े_बड़े अस्त्रों का प्रयोग करके युद्ध में परास्त कर दिया है।‘ तब उस कन्या ने कहा___'भगवन् ! आपने जैसा कहा है, ठीक ही है। आपने अपने बल और उत्साह के अनुसार मेरा काम करने में कोई कसर नहीं रखी। परन्तु अन्त में आप युद्ध में भीष्म से बढ़ नहीं सके। तथापि अब मैं फिर किसी प्रकार भीष्म के पास नहीं जाऊँगी। अब मैं ऐसा जगह जाऊँगी जहाँ रहने से मैं स्वयं ही भीष्म का युद्ध में संहार कर सकूँ।‘ ऐसा कहकर वह कन्या मेरे नाश के लिये तप करने का विचार करके वहाँ से चली गयी। परशुरामजी मुझसे कहकर सब मुनियों के साथ महेन्द्र पर्वत पर चले गये और मैं रथ पर सवार हो हस्तिनापुर चला आया। वहाँ मैंने सारा वृतांत माता सत्यवती को सुना दिया। माता ने मेरा अभिनन्दन किया। मैंने उस कन्या का समाचार लाने के लिये कई बुद्धिमान पुरुषों को नियुक्त कर दिया। वे मेरे हित के लिये बड़ी सावधानी से मुझे नित्यप्रति उसके आचरण, भाषण और व्यवहारादि का समाचार सुनाते रहे। कुरुक्षेत्र से चलकर वह कन्या यमुनातट पर एक आश्रम में गयी और वहाँ बड़ा अलौकिक तप करने लगी। वह छः महीने तक केवल वायुभक्षण करती हुई काठमांडू के समान खड़ी रही। इसके बाद वह एक साल तक निराहार रहकर यमुनाजल में रही। फिर एक वर्ष तक अपने आप झड़कर गिरा हुआ पत्ता खाकर पैर के अँगूठे पर खड़ी रही। इस प्रकार बारह वर्ष तपस्या करके उसने आकाश और पृथ्वी को संतप्त कर दिया।
इसके पश्चात वह आठवें या दसवें महीने जल पीकर निर्वाह करने लगी। फिर इधर_उधर घूमती वह अपने तप के प्रभाव से वह अम्बा नाम की नदी हो गयी और आधे अंग से वत्सदेश के राजा की कन्या होकर उत्पन्न हुई। इस जन्म में भी उसे तप का आग्रह करते देख समस्त तपस्वियों ने उसे रोका और कहा कि ‘तुझे क्या करना है ?’ तब उस कन्या ने उन तपोवृद्ध ऋषियों से कहा, ‘ भीष्म ने मेरा निराकरण किया है और मुझे पतिधर्म से भ्रष्ट कर दिया है। अतः मैंने कोई दिव्य लोक पाने के लिये नहीं, प्रत्युत भीष्म का वध करने के लिये तप का संकल्प किया है। मेरा यह निश्चय है कि भीष्म के मारे जाने पर मुझे शान्ति मिल जायगी। मैं तो भीष्म से बदला लेने के लिये ही तप कर रही हूँ, अतः आपलोग मुझे इससे रोकें नहीं।‘ तब उन सब मुनियों के बीच में उमापति भगवान् शंकर ने उस तपस्विनी को दर्शन दिया और वर माँगने को कहा। उस कन्या ने मेरी पराजय करने का वर माँगा। इस पर श्रीमहादेवजी ने कहा, ‘तू भीष्म का नाश कर सकेगी।‘ तब उसने फिर कहा, ‘भगवन् ! मैं तो स्त्री हूँ, इसलिये मेरा हृदय भी अत्यन्त शौर्यहीन है; फिर मैं युद्ध में भीष्म को कैसे जीत सकूँगी ? आप ऐसा कृपा कीजिये, जिससे मैं संग्राम में शान्तनुनन्दन भीष्म को मार सकूँ। भगवान् शंकर बोले, ‘मेरी बात असत्य नहीं हो सकती, इसलिये तू अवश्य ही भीष्म का वध करेगी, पुरुषत्व प्राप्त करेगी और दूसरी देह धारण करने पर भी इन सब बातों को याद रखेगी कि द्रुपद के यहाँ जन्म लेकर एक  वीरसम्मत महारथी बनेगी। मैंने जो कुछ कहा है, वह सब वैसे ही होगा। तू कन्यारूप से जन्म लेकर भी कुछ समय बीतने पर पुरुष हो जायगी।‘ ऐसा कहकर भगवान् शंकर अंतर्धान हो गये। उस कन्या ने  एक बड़ी चिता बनाकर अग्नि प्रज्वलित की और ‘मैं भीष्म का वध करने के लिये अग्नि में प्रवेश करती हूँ' ऐसा कहकर उसमें प्रवेश कर गयी।

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